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सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

बुधवार, 22 जनवरी 2020

समानता के लिए जनता का संघर्ष फीनिक्स ही है।

आक्सफेम की ताजा रपट कतई आश्चर्यजनक नहीं है। इस ने आंकड़ों के माध्यम से बताया है कि भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों से चार गुना अधिक धन-संपदा है। सारी दुनिया की स्थिति इस से बेहतर नहीं है। दुनिया के 1 प्रतिशत लोगों के पास दुनिया के 92 प्रतिशत की संपत्ति से दो गुनी धन संपदा है। भारत सरकार अपने ही बनाए हुए कमाल के आंकड़े लोगों के बीच प्रचारित करती रहती है। वह बताती है कि इतनी जीडीपी बढ़ गयी है। यह कभी नहीं बताती कि देश की कमाई का अधिकांश अमीरों की जेब में जा रहा है। वे विकास के आँकड़े उछालते रहते हैं। पिछले छह साल से चल रही मोदी जी सरकार विकास के नाम पर अपनी पीठ खुद ही ठोकती रही। 

लेकिन जब हम जनता के बीच जा कर देखते हैं तो विशालकाय गरीबी के हमें दर्शन होते हैं। गरीब जनता किस हाल में जी रही है यह बहुत कम अखबारों और मीडिया की खबरों और रिपोर्टों का विषय बनती हैं। 

भारत की 130 करोड़ की आबादी में से 75 प्रतिशत से अधिक लोगों तक भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत चीजे भी उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। जबकि सचाई यह है कि जितनी भी संपदा का निर्माण प्रतिवर्ष हो रहा है वह सब इस 75 प्रतिशत जनता की खून पसीने की मेहनत की उपज होती है। 

जनता से जो टैक्स वसूला जा रहा है उस से जनता को राहत प्रदान की जाती है। प्रकृति की मार से हमेशा जूझने वाले किसानों के कर्जे माफ करने पर हमारे सत्ताधारी दल कहते हैं टैक्स पेयर्स का पैसा ऐसे व्यर्थ खर्च नहीं किया जा सकता है। लेकिन जब उन्हें अरबों रुपए के कारपोरेट्स के कर्जे माफ करने होते हैं तब उन्हें टैक्स पेयर्स याद नहीं आते हैं। ताजा आँकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच सालों में सरकार ने जितने ऋण माफ़ किए हैं उसका केवल 7.16 प्रतिशत किसानों के हिस्से आया है और 65.15 प्रतिशत कारपोरेट्स के। 27.69 प्रतिशत व्यापारियों और सेवाएँ प्रदान करने वालों के हिस्से आया है। 

इससे साफ है कि ये सरकार केवल और केवल कारपोरेटस् के हितों का ध्यान रखती है। यदि उसे वोट प्राप्त नहीं करने हों तो वह किसानों और मध्यम लोगों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दे। यही कारण है कि आज चुनावों में कारपोरेट्स का धन कमाल दिखाता है और हर बार पूंजीपतियों के चहेते ही संसद पर कब्जा कर लेते हैं। देश की सारी प्रगति कारपोरेट्स के पेट में समा जाती है। ऐसी प्रगति के लिए हमारी मेहनतकश जनता क्यों खून पसीना बहाए। यह सोच मेहनतकश जनता पर बार बार प्रहार करती है जो उसे धीरे-धीरे काम और मेहनत से दूर ले जाती है। 

हम समझ सकते हैं कि आज की यह आर्थिक प्रगति देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के किसी काम की नहीं है यदि आर्थिक विषमता की खाई लगातार बढ़ती जाए। इस आर्थिक समानता की व्यवस्था को कारपोरेट्स हमेशा गर्भ में मार डालने के प्रयत्न में रहते हं। वे ये करते रहे हैं और करते रहेंगे। लेकिन आर्थिक समानता के लिए जनता का संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। वह लगातार जारी है और आगे भी बढ़ रहा है। इसी आगे बढ़ते हुए संघर्ष का गला घोंटने के लिए सरकारों को सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसी जनता को बाँटने, उनमें आपसी घृणा का विस्तार करने के प्रयास करने पड़ते हैं। इस वक्त भारत सरकार को इस काम के लिए कार्पोरेट्स दुनिया के सब से बड़े अलंकरण से नवाज सकते हैं। 

लेकिन जनता का समानता के लिए संघर्ष भी फीनिक्स है, मर मर कर राख से फिर जी उठता है। उस ने भूतकाल में अनेक विजयें हासिल की हैं। वह हमेशा ऐसे ही जी उठता रहेगा जब तक कि उस की अंतिम रूप से विजय नहीं हो जाती है।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

रविवार, 28 अप्रैल 2013

ये आग नहीं बुझेगी

ल सुबह टंकी पर चढ़े सेमटेल-सेमकोर पिक्चर ट्यूब कारखानों के श्रमिक प्रशासन से बातचीत और आश्वासनों के बाद शाम को टंकी से नीचे उतर गए। पर प्रश्न है कि क्या प्रशासन उन्हें उन का बकाया वेतन दिलवा सकेगा? कारखाने 7 नवम्बर 2012 को बंद हुए थे। अक्टूबर 2012 के पूरे महिने श्रमिकों ने पूरी मेहनत से काम किया था और क्षमता से अधिक उत्पादन किया था। उस माह का वेतन भी आज तक बकाया है। इस वेतन को वसूल करने के लिए एक मुकदमा श्रमिकों की ओर से वेतन भुगतान प्राधिकारी के यहाँ पेश किया गया। जिस में निर्णय हुए आज चार माह हो चुके हैं। लेकिन न तो राज्य सरकार मालिक से वेतन की वसूली कर सकी है और न ही वसूल करने के लिए कंपनियों की संपत्ति पर कुर्की का कोई आदेश जारी कर सकी है। उलटे मालिक ने कारखाने बंद करने की जो अनुमति सरकार से मांगी थी उस आवेदन का 60 दिन में निर्णय कर के मालिक को सूचित न करने के कारण मालिक को स्वतः ही अनुमति मिल गई है। 

 
स से स्पष्ट है कि राजस्थान सरकार मालिकों के साथ है। मजदूरों के लिए उस के पास कुछ नहीं है। लगता है सरकार में बैठे मंत्रियों कि निगाहें इस कारखानों की बेशकीमती जमीन को हथिया कर उसे  बिल्डरों को बेच कर करोड़ों के वारे न्यारे करने की योजना की तरफ हैं। मजदूरों का क्या वे छह माह से हकों की लड़ाई लड़ रहे हैं कितने दिन लड़ेंगे। जब खाने को नहीं बचेगा और किरानी और मकान मालिक अपने पैसों के लिए दबाव डालेंगे तो वे अपने आप मैदान छोड़ कर भाग जाएंगे।  आज देश में जो सरकारें हैं वे इसी तरह काम कर रही हैं। उन्हें काम करने वालों से बस इतना मतलब है कि काम करने के वक्त वे काम करते रहें। उन्हें उन की मजदूरी और उन के हक मिलें न मिलें इस की उन्हें कोई परवाह नहीं।

लेकिन जो आग मजदूरों में, उन के परिवारों के सदस्यों में, स्कूल जाने वाले बच्चों में पैदा हुई है वह नहीं बुझेगी। सरकार और पूंजीपति समझ रहे हैं कि उस पर राख पड़ जाएगी। पर आग तो आग है, वह राख के नीचे भी सुलगती रहेगी। फिर यह आग पेट की भूख से पैदा हुई है जो कभी नहीं बुझती।  इन मजदूरों के परिवार कुछ महिनों में अपने अपने गाँव चले जाएंगे या फिर रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में चले जाएंगे। सरकार, नौकरशाह और पूंजीपति समझेंगे काम खत्म। लेकिन ये लोग देश के जिस भी हिस्से में जाएंगे आग को साथ ले जाएंगे।  

रकार, नौकरशाह और पूंजीपति जान लें कि उन्हों ने हनुमान नाम के बंदर की पूंछ में आग लगा दी है। उस की पूंछ की यह आग तभी बुझेगी जब लंका के तमाम सोने के महल आग की भेंट न चढ़ जाएंगे।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी

ज और कल देश के 11 केन्द्रीय मजदूर संगठन हड़ताल कर रहे हैं। उन के साथ आटो, टैक्सी बस वाले और कुछ राज्यों में सरकारी कर्मचारी भी हड़ताल पर जा रहे हैं।  केन्द्रीय संगठनों ने इस दो दिनों की हड़ताल की घोषणा कई सप्ताह पहले कर दी थी।  सरकार चाहती तो इस हड़ताल को टालने के लिए बहुत पहले ही केन्द्रीय संगठनों से वार्ता आरंभ कर सकती थी। लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया। वह अंतिम दिनों तक हड़ताल की तैयारियों का जायजा लेती रही। जब उसे लगने लगा कि यह हड़ताल ऐतिहासिक होने जा रही है तो हड़ताल के तीन दिन पहले केन्द्रीय संगठनों से हड़ताल न करने की अपील की और एक दिखावे की वार्ता भी कर डाली।  न तो सरकार की मंशा इस हड़ताल को टालने की थी और न ही वह इस स्थिति में है कि वह मजदूर संगठनों की मांगों पर कोई ठीक ठीक संतोषजनक आश्वासन दे सके।  इस का कारण यह है कि यह हड़ताल वास्तव  में वर्तमान केन्द्र सरकार की श्रमजीवी जनता की विरोधी नीतियों के विरुद्ध है। श्रम संगठन तमाम श्रमजीवी जनता के लिए राहत चाहते हैं। जब कि सरकार केवल पूंजीपतियों के भरोसे विकास के रास्ते पर चल पड़ी है चाहे जनता को कितने ही कष्ट क्यों न हों। वह इस मार्ग से वापस लौट नहीं सकती।  सरकार की प्रतिबद्धताएँ देश की जनता के प्रति होने के स्थान पर दुनिया के पूंजीपतियों और साम्राज्यवादी देशों के साथ किए गए वायदों के साथ है। 
लिए देखते हैं कि इन केन्द्रीय मजदूर संगठनों की इस हड़ताल से जुड़ी मांगें क्या हैं?

  1. महंगाई के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियां बदली जाएं
  2. महंगाई के मद्देनजर मिनिमम वेज (न्यूनतम भत्ता) बढ़ाया जाए
  3. सरकारी संगठनों में अनुकंपा के आधार पर नौकरियां दी जाएं
  4. आउटसोर्सिंग के बजाए रेग्युलर कर्मचारियों की भर्तियां हों
  5. सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी प्राइवेट कंपनियों को न बेची जाए
  6. बैंकों के विलय (मर्जर) की पॉलिसी लागू न की जाए
  7. केंद्रीय कर्मचारियों के लिए भी हर 5 साल में वेतन में संशोधन हो
  8. न्यू पेंशन स्कीम बंद की जाए, पुरानी स्कीम ही लागू हो 
मांगो की इस फेहरिस्त से स्पष्ट है कि केन्द्रीय मजदूर संगठन इस बार जिन मांगों को ले कर मैदान में उतरे हैं  वे आम श्रमजीवी जनता को राहत प्रदान करने के लिए है।  

स बीच प्रचार माध्यमों, मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार यह माहौल बनाना चाहती है कि इस हड़ताल से देश को बीस हजार करोड़ रुपयों की हानि होगी।  जनता को कष्ट होगा।  वास्तव में इस हड़ताल से जो हानि होगी वह देश की न हो कर पूंजीपतियों की होने वाली है।  जहाँ तक जनता के कष्ट का प्रश्न है तो कोई दिन ऐसा है जिस दिन यह सरकार जनता को कोई न कोई भारी मानसिक, शारीरिक व आर्थिक संताप नहीं दे रही हो। यह सरकार पिछले दस वर्षों से लगातार एक गीत गा रही है कि वह महंगाई कम करने के लिए कदम उठा रही है। लेकिन हर बार जो भी कदम वह उठाती है उस से महंगाई और बढ़ जाती है। कम होने का तो कोई इशारा तक नहीं है। 
हा जा रहा है कि मजदूरों और कर्मचारियों को देश के लिए काम करना चाहिए।  वे तो हमेशा ही देश के लिए काम करते हैं। पर इस सरकार ने उन के लिए पिछले कुछ सालों में महंगाई बढ़ाने और उन को मिल रहे वेतनों का मूल्य कम करने के सिवा किया ही क्या है? ऐसे में वे भी यह कह सकते हैं कि जिस काम के प्रतिफल का लाभ उन्हें नहीं मिलता वैसा काम वे करें ही क्यों? 
मित्रों! यह हड़ताल देश की समस्त श्रमजीवी जनता के पक्ष की हड़ताल है और यह हड़ताल कैसी भी हो लेकिन इस हड़ताल का ऐतिहासिक महत्व होगा क्यों कि यह शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमजीवी वर्गों का शंखनाद है और इस बार सभी रंगों के झण्डे वाले मजदूर संगठन एक साथ हैं। यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी और भविष्य के लिए भारतीय समाज को एक नई दिशा देगी।


शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी होगी

ज से 61 वर्ष पूर्व दुनिया का सब से बड़ा लिखित संविधान अर्थात हमारे भारत का संविधान लागू हुआ। इसे भारत की संविधान सभा ने निर्मित किया। संविधान सभा का गठन ब्रिटिश सरकार के तीन मंत्रियों के प्रतिनिधि मंडल, केबीनेट मिशन  ने  किया था। इस मिशन का मुख्य कार्य भारत की राजसत्ता को भारतियों के हाथों हस्तांतरण करना था। इस ने ब्रिटिश भारत के प्रांतों के चुने हुए प्रतिनिधियों, रजवाड़ों के प्रतिनिधियों तथा भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों से बातचीत की जिस के परिणाम स्वरूप यह संविधान सभा अस्तित्व में आयी। इस संविधान सभा में आरंभ में 389 सदस्य थे, जिन में 292 सदस्य प्रान्तों की विधानसभाओं के द्वारा चुने हुए थे, 93 सदस्य रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे, 4 सदस्य कमिश्नर प्रान्तों के थे। बाद में 3 जून 1947 की माउण्टबेटन योजना के अन्तर्गत भारत का विभाजन हो जाने के फलस्वरूप पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा गठित की गई और कुछ प्रान्तों के प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त हो जाने के कारण अंततः इस की सदस्य संख्या 299 रह गई।

स संविधान का निर्माण  का आधार इस के प्रतिनिधियों ने इस आधार पर किया कि देश के सभी वे वर्ग जिन की आवाज उठाने वाले लोग मौजूद थे संतुष्ट किया जा सके। हालाँकि संविधान सभा में ऐसे लोग प्रभावी थे जिन की दूरदर्शिता पर यकीन किया जा सकता था, फिर भी सभी तत्कालीन दबाव समूहों को प्रसन्न रखने की दृष्टि ने इस दूरदृष्टि को बहुत कुछ धुंधला किया था। यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि हमारा संविधान देश के विकास और भविष्य के लिए कोई स्पष्ट नीति और लक्ष्य रखने में असमर्थ रहा। यदि उस में स्पष्टता रखी जाती तो हो सकता था कि सब की संतुष्टि नहीं होती और एकजुट भारत के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती। लेकिन यह संतुष्टि फौरी ही साबित हुई। हर कोई दबाव समूह अपने सपनों का भारत देखना चाहता था। और पहले चुनाव के पहले ही हर दबाव समूह ने अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए काम करना आरंभ कर दिया। कालांतर में इन की गतिविधियों ने ही देश और संविधान को वर्तमान रूप की ओर आगे बढ़ाया। 
म जानते हैं कि जो भारत ब्रिटिश साम्राज्य ने हमें सौंपा वह आधा-अधूरा था। उस के दो टुकड़े कर दिए गये थे। जिन का आधार साम्प्रदायिक था। इसी ने भारत में सम्प्रदायवाद को इतना मजबूत किया कि उस विष-बेल के प्रतिफल आज तक स्वतंत्र भारत में पैदा हुई पीढ़ी भुगत रही है। नवजात आजाद भारत में सामंतवाद गहराई से मौजूद था। सभी सामंत अपने अपने हितों को सुरक्षित रखना चाहते थे। हालांकि सामंतवाद की नींव को खोखली करने वाला और उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी वहन करने वाला पूंजीपति वर्ग भी कम मजबूत न था। उस ने आजादी के आंदोलन के दौरान ही प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस में अपनी जड़ें गहरी कर ली थीं। एक तीसरा वर्ग था, जिस की आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका थी। यह भारत की विपन्न जनता थी, इस की एकजुटता ही वह शक्ति थी जिस के बल पर आजादी संभव हो सकती थी। यह भारत का विपन्न किसान था जो सामंतों की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, सामंतों की सारी संपन्नता जिस के बल पर कायम थी,  यह कारखानों में काम करने वाला मजदूर था जिस के श्रम ने भारत के पूंजीपति को मुकाबला करने की शक्ति प्रदान की थी। ये दोनों विशाल वर्ग दबाव समूह तो थे ही लेकिन नेतृत्व में इन का हिस्सा बहुत छोटा था। 
किसान और मजदूर जनता की संख्या विशाल थी और जिस तरह का  संविधान निर्मित हुआ था उस की आवश्यक शर्त यह थी कि इस विशाल जनसंख्या से हर पाँचवें वर्ष सहमति प्राप्त कर के ही कोई सरकार इस देश में बनी रह सकती थी। पहले आम चुनाव ने कांग्रेस को विशाल बहुमत प्रदान किया। लेकिन जो लोग चुने जा कर संसद पहुँचे उन में से अधिकांश पहले दो वर्गों, सामंतों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधि थे। पूंजीपतियों को पूंजीवाद की बेहतरी चाहिए थी तो सामंतों को अपने अधिकारों की सुरक्षा। लेकिन दोनों के हित टकराते थे। पूंजीपति उदीयमान शक्ति थे लेकिन उन की बेहतरी इस बात में थी कि देश में सामंती संबंध शीघ्रता से समाप्त हों। जमीनें और किसान सामंतों से आजाद हो जाएँ। किसान भी सामंतों से आजादी चाहते थे। लेकिन मजदूर वे ताकत थे जो पूंजीपतियों से बेहतर सेवा शर्तें चाहते थे और किसानों के ही पुत्र थे।  किसान और मजदूरों जल्दी संगठित और शिक्षित होना पूंजीपति वर्ग के लिए बहुत बड़ा खतरा था। क्यों कि ये ही थे जो पूंजीपति वर्ग के अनियंत्रित विकास के विरुद्ध था और अपने लिए बेहतर जिन्दगी की मांग करता था। आजादी के आंदोलन ने इसे असहयोग की ताकत को समझा दिया था। 
ही वह कारण था जिस ने पूंजीपति और सामंती वर्गों को एक दूसरे के सब से बड़े शत्रु होते हुए भी मित्रता के लिए बाध्य कर दिया, दोनों में भाईचारा उत्पन्न किया। अब दोनों की चाहत यही थी कि भारत की संसद में जो प्रतिनिधि पहुँचें वे उन के हित साधक हों लेकिन इतने होशियार, चंट चालाक भी हों कि किसानों, मजदूरों, खुदरा दुकानदारों आदि को एन-केन-प्रकरेण उल्लू बना कर हर पाँच वर्ष बाद चुन कर संसद में पहुँच जाएँ और उन के हितों की रक्षा करते रहें। आजादी के बाद का भारत का इतिहास इसी खेल की कहानी है। राजनैतिक दल इसी खेल का हिस्सा हैं। देश की नौकरशाही राजनैतिक दलों और प्रभुवर्गों के बीच संबंधों को बनाए रखने का काम करती है। यह खेल पर्दे के पीछे काले धन और भ्रष्टाचार के व्यापार के बिना चल नहीं सकता। इस व्यापार के दिन दुगना और रात चौगुना बढ़ने का कारण यही है। यह रुके तो कैसे? यही तो प्रभुवर्गों का प्राणरक्षक है।
क ओर दोनों प्रभुवर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल हैं जो जनता को उल्लू बनाते हैं और हर पाँच वर्ष बाद संसद में पहुँच जाते हैं। दूसरी ओर किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल भी हैं, लेकिन वे कमजोर हैं और बंटे हुए हैं। प्रभुवर्ग भी यही चाहते हैं कि इस श्रमजीवी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीति कमजोर और बंटी हुई ही रहे। यही कारण है कि इन का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों बड़े दल और उन के सहायक दल जनता को बाँटने वाली राजनीति का अनुसरण करते हैं और जनता में विद्वेष फैलाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। चाहे वह सम्प्रदायवाद हो, जातियों पर बंटी हुई राजनीति, घोर अंध राष्ट्रवाद हो या कोई और तरीका। हमारी जनता की पुरानी मान्यताएँ इन का साथ देती हैं। इस के मुकाबिल श्रमजीवी जनता की राजनीति अत्यन्त कठिन और दुष्कर है। उसे इन सब चीजों से जूझना पड़ता है। जनता को लगातार शिक्षित और संगठित करना पड़ता है। श्रमजीवी जनता की राजनीति इसी काम में बहुत पिछड़ी हुई है। जनता के साथ संपर्क के साधनों और मीडिया पर दोनों प्रभुवर्गों का कब्जा उस के इस काम को और दुष्कर बनाता है। यदि श्रमजीवी जनता को मुक्त होना है तो उन के अगुआ लोगों को जनशिक्षण और जनसंगठन के कामों में तेजी लानी ही होगी। यही एक मार्ग है जिस से देश की श्रमजीवी जनता को जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है और हम भारत को एक स्वस्थ जनता के जनतांत्रिक गणतंत्र बना सकते हैं।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है। 

रविवार, 20 जून 2010

सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?

भोपाल गैस त्रासदी के मामले में गृहमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता वाले पुनर्गठित मंत्री समूह की बैठकें जारी हैं। खबरें आ रही हैं कि सोमवार को दोपहर बाद समूह अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप देगा। जो खबरें छन कर आ रही हैं उन से पता लगा है कि अब केंद्र सरकार अमरीका पर एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए दबाव बना सकता है। यह भी कि भोपाल में मौजूद जहरीले कचरे की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। यह भी कि सुप्रीमकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार याचिका दाखिल कर 1996 के उस निर्णय को बदलने के लिए निवेदन किया जाएगा जिस से आरोपियों पर आरोपों को हलका कर दिया गया था। यह भी कि भोपाल के हाल के निर्णय की रोशनी में ऐसी याचिका दायर की जाएगी।
सारी खबरें आ रही हैं। लेकिन यह खबर नदारद है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद धारा 304 भाग 2 का आरोप होते हुए भी पुलिस ने उसे जमानत पर क्यों छो़ड़ दिया, अदालत के समक्ष प्रस्तुत क्यों न कर दिया? एंडरसन को भारत से निकल जाने का रास्ता दिया गया तो क्यों दिया गया? हालांकि अब सब बात सामने आ चुकी है कि एंडरसन ने आने के पहले ही भारत सरकार से यह शर्त मंजूर करा ली थी कि उसे वापस आने दिया जाएगा। यदि ऐसा है तो फिर उसे कागजों पर गिरफ्तार दिखाना अपने आप में बड़ा काम था, जिस ने भी किया उसे ईनाम जरूर मिलना चाहिए। लेकिन यह प्रश्न तो फिर भी बना रहेगा कि भारत सरकार ने ऐसा क्यों किया कि अमरीका की यह शर्त मान ली कि अपराधी को भारत तो आने दिया जाए लेकिन उस की वापसी सुनिश्चित की जाए। यानी भारत का कानून कानून नहीं है। भारत में लोकतंत्र और कानून का शासन नहीं है और उसे अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश बात माननी पड़ती है। यह प्रश्न देश की संप्रभुता से समझौता करने तक जाता है। निश्चित ही भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी इस आरोप का उत्तर देने की स्थिति में नहीं है।
वास्तव में भोपाल त्रासदी के मामले में जिस तरह भारत सरकार ने अमरीका के सामने घुटने टेके हैं उसे इतिहास और भारत की जनता कभी माफ नहीं कर सकेगी। उस ने केवल एंडरसन को ही नहीं जाने दिया। एक बहुत ही अपर्याप्त मुआवजा राशि के बदले यह भी स्वीकार कर लिया कि भोपाल दुर्घटना के सभी अपराधियों के विरुद्ध दांडिक मुकदमे वापस ले लिए जाएंगे। उस समझौते के आधार पर एक बार तो सभी दांडिक मुकदमे निरस्त कर ही दिए गए थे। सुप्रीमकोर्ट इन मुकदमों को पुनर्स्थापित करने का निर्णय नहीं करता तो शायद एक भी अपराधी को नाम मात्र की सजा भी नहीं मिलती और यह बखेड़ा फिर से खड़ा भी न होता। 
पुनर्गठित मंत्री समूह से आने वाले समाचारों में सब तरह की सूचनाएँ आ रही हैं। लेकिन इस बात पर कितना सोचा जा रहा है कि देश में इस तरह की औद्योगिक दुर्घटनाएँ नहीं घटें इस के लिए क्या किया जाए। ऐसा नहीं है कि देश में इन दुर्घटनाओं से सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून नहीं हैं। यदि नहीं भी हैं तो और बनाए जा सकते हैं। लेकिन देश की सरकारी मशीनरी जिस तरह से इन कानूनों की अनदेखी करती है उस का कोई इलाज क्या सरकार तलाश कर पाएगी? इस अनदेखी में केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों की भूमिका भी कम नहीं होती। आखिर सरकारी मशीनरी उन्हीं के नियंत्रण में तो काम करती है। भविष्य में आम जनता को सुरक्षित रखने के उपायों पर भी कोई बात केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रीमंडलों, संसद और विधायिका में होगी या नहीं यह तो समय ही बताएगा। समय यह भी सुनिश्चित करेगा कि हमारी इन सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?