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शनिवार, 24 अगस्त 2013

सभी तरह के मीडिया के कर्मचारियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए

मीडियाकर्मियों को जिस तरह 300 और 60 की बड़ी संख्या में नौकरी से निकाला गया है उस से यह बात स्पष्ट होती है कि पूंजीवादी आर्थिक ढाँचे में कर्मचारियों और मजदूरों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता रहती है। इस आर्थिक ढाँचे में कभी भी कर्मचारी-मजदूर किसी संविदा के मामले में पूंजीपति के बराबर नहीं रखे जा सकते। अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों की सेवा शर्तों, कार्यस्थल की सुविधाओं, वेतनमान तय करने, वेतन और ग्रेच्यूटी भुगतान, तथा नौकरी से निकाले जाने के मामलों के नियंत्रण के लिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना हुआ है। लेकिन यह कानून सिर्फ न्यूजपेपर्स और न्यूजपेपर संस्थानों पर ही प्रभावी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे कर्मचारियों को किसी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस कारण इस क्षेत्र के नियोजकों द्वारा मनमाने तरीके से नौकरी के वक्त की गई संविदा की मनमानी शर्तों के अन्तर्गत उन्हें संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इस कारण यह जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित संपूर्ण मीडिया संस्थानों को इस कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

ज के जमाने में कर्मचारियों और श्रमिकों का संघर्ष केवल अपने मालिकों से नहीं रह गया है। कहीं मजदूर अपनी सेवा शर्तों की बेहतरी के लिए सामुहिक सौदेबाजी के तरीके अपनाते हैं तो सरकारी मशीनरी पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जा खड़ी होती है। इस तरह यह लड़ाई किसी एक मीडिया ग्रुप को चलाने वाले पूंजीपति के विरुद्ध न हो कर संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हो जाती है जिस का प्रतिनिधिनित्व सरकारें अपने सारे वस्त्र त्याग कर करती हैं।

स कारण यह एक संस्थान के मीडिया कर्मियों का संघर्ष सम्पूर्ण मीडिया कर्मियों का और संपूर्ण मजदूर वर्ग का हो जाता है। इस संघर्ष में मजदूर वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाली सभी ट्रेड युनियनों और राजनैतिक दलों व समूहों को सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि इस बार बहुत से सफेद कालर इस दमन का शिकार हुए हैं। उन के ढुलमुल वर्गीय चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जा सकती हैं। लेकिन वह कर्मचारी वर्ग के आपसी संघर्ष का भाग होगा। इस लड़ाई में उन मुद्दों को हवा देना एक तरह से मालिकों की तरफदारी करना है।
अब लड़ाई छँटनी करने वाले मीडिया संस्थान के विरुद्ध तो है ही साथ के साथ सरकार के विरुद्ध भी होनी चाहिए। साथ के साथ संपूर्ण मीडियाकर्मियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की और विवादों के हल के लिए तेजगति से काम करने वाली मशीनरी की व्यवस्था करने की लड़ाई सीधे सरकार के विरुद्ध चलाई जानी चाहिए। मीडिया कर्मियों को इस लड़ाई में संपूर्ण श्रमिक कर्मचारी जगत को  अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

माध्यम पत्रकार भाषा के प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं

खिर व्यग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी की रिहाई के लिए बम्बई उच्चन्यायालय ने आदेश दे दिया कि उन्हें 5000 रुपए के निजि मुचलके (व्यक्तिगत बन्धपत्र) देने पर रिहा करने का आदेश दे दिया गया। अब यह उन पर निर्भर करता है कि व्यक्तिगत बन्धपत्र निष्पादित कर जेल से रिहा होते हैं या नहीं।  उन्हें रिहा होने के लिए एक बंधपत्र निष्पादित करना होगा जिस में यह अंकित होगा कि वे न्यायालय द्वारा निर्धारित तिथि को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होंगे। यदि वे उपस्थित नहीं हुए तो बंधपत्र का उल्लंघन होगा और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए वारंट जारी कर दिया जाएगा साथ ही बंधपत्र के उल्लंघन के लिए उन्हें बंधपत्र की राशि रुपए 5000/- भी न्यायालय को अदा करनी होगी। इस आदेश में यह कहीं भी नहीं लिखा है कि उन्हें इस व्यक्तिगत बंधपत्र के साथ किसी अन्य व्यक्ति की जमानत भी न्यायालय में प्रस्तुत करनी होगी।

मानत (प्रतिभूति) का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की रिहाई के लिए कोई अन्य व्यक्ति इस बात की प्रतिभूति दे कि यदि गिरफ्तार (निरुद्ध) व्यक्ति न्यायालय के समक्ष निर्धारित तिथि पर उपस्थित न हुआ तो वह निर्धारित राशि न्यायालय को अदा करेगा। व्यंग्य चित्रकार की रिहाई आदेश में कहीं भी जमानत का उल्लेख नहीं है।

ल शाम से मीडिया (दृश्य-श्रव्य माध्यमों) में और आज समाचार पत्रों में सर्वत्र यही उल्लेख किया जा रहा है कि बम्बई उच्च न्यायालय ने असीम त्रिवेदी को जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया है।  इस तरह दोनों ही माध्यम जमानत शब्द का गलत प्रयोग कर रहे हैं। 

माचार माध्यम आम जनता में लोकप्रिय होते हैं और वे जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं आम लोग भी उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते लगते हैं। इस कारण से माध्यमों की भाषा के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। निश्चित रूप से माध्यम इस जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं। माध्यमों में यह जिम्मेदारी निर्देशकों, सम्पादकों, निर्माताओं, पत्रकारों की होती है। इन माध्यमों में काम करने वाले ये पत्रकार इस ओर ध्यान न दे कर एक गलत परंपरा डाल रहे हैं जो निश्चित रूप से भाषा को विकृत करना है। उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए। जो जिम्मेदार पत्रकार इस बात को समझते हैं उन्हें माध्यमों में भाषा के प्रति पत्रकारों की इस जिम्मेदारी को रेखांकित करना चाहिए।  

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मीडिया ने हमारी तर्क क्षमता को भौंथरा कर दिया है

रसों दोपहर महेन्द्र 'नेह' का फोन मिला, शाम साढ़े छह बजे प्रेस क्लब में विकल्प जन सांस्कृतिक मंच की मीडिया पर एक सेमीनार है, वहाँ पहुँचना है। मैं ने तुरंत हाँ कर दी। शाम को कुछ काम निकल आए और मैं कुछ देरी से सेमीनार में पहुँचा। लेखक, कवि, पत्रकार और कुछ अन्य सजग नागरिक, कुल पैंतीस -चालीस लोग वहाँ मौजूद थे। सेमीनार में कोटा के बाहर से राज्य-सभा की मीडिया सलाहकार समिति के सदस्य पत्रकार अनिल चमड़िया, अरूण कुमार उराँव, विजय प्रताप व वरूण शैलश आए हुए थे। सेमीनार का विषय "समय की सचाइयाँ और मीडिया" था। 
निल चमड़िया का कथन था कि हम सचाई कि उसी हिस्से को देख पाते हैं, जिसे मीडिया हमें दिखाना चाहता है। लगातार एक पक्षीय सूचना की बरसात कर के मीडिया ने हमारे सोचने-समझने और तर्क करने की क्षमता को भौंथरा कर दिया है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अमरीका ने ईराक व अफगानिस्तान के विरूद्ध हमलों से पूर्व मीडिया के जरिये प्रचार युद्ध चलाया और अंतत: आसानी से जंग जीत ली। भारत के आदिवासी क्षेत्रों से देशी-विदेशी कंपनियों ने कोलम्बस के बाद जमीन और खनिजों की सबसे बड़ी लूट की है और लाखों आदिवासियों को विस्थापित कर दिया है। लेकिन मीडिया ने इस बात को कोई महत्व नहीं दे कर नक्सली और माओवादी गतिविधियों के बारे में अतिरंजित खबरों को अत्यधिक तरजीह दे कर इस बड़ी हकीकत को छुपा दिया।
लेक्ट्रोनिक मीडिया पत्रकार अरूण कुमार उरॉव का कहना था कि सूचना मंत्री अम्बिका सोनी  का यह कहना सही नहीं है कि मीडिया स्वयं ही अपने को नियंत्रित करता है। उस की वित्तपोषक ताकतें उसे नियंत्रित करती हैं। मनोरंजन के नाम पर "राखी का इंसाफ" "बिग-बॉस" जैसे सीरियल समाज में विकृति फैला रहे हैं। उन्होंने प्रन किया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्रामीणों, आदिवासियों व दलितों पर सीरियल क्यों नहीं बनते। दिल्ली से आये पत्रकार विजय प्रताप ने कहा कि मीडिया में एक ओर सत्ता संचालित सोच की धारा है, जिसे मुख्य-धारा कहा जाता है। पत्रकारिता की दूसरी धारा प्रतिरोध की धारा भी है, जिन्हें सचाई सामने लाने पर प्रताड़ित किया जाता है। इस संदर्भ में उन्होंने सीमा आजाद, हेमचंद्र पाण्डे, प्रशांत राही आदि पत्रकारों का उल्लेख किया। इन्डो एसियन न्यूज सर्विस (आईएनएस) से जुड़े पत्रकार वरूण शैलेश ने कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली के भिखारियों व फुटपाथ के दूकानदारों को भारत की गरीबी को छुपाने के लिए निर्दयतापूर्वक खदेड़ दिया गया, लेकिन मीडिया ने इसे तरजीह नहीं दी। भ्रष्टाचार की जो खबरें इन दिनों प्रमुखता से छाई हुई हैं उस का कारण सत्ता और व्यापारिक घरानों की आपसी प्रतिस्पर्धा है। 
कोटा के पत्रकार दुर्गाशंकर गहलोत ने कहा कि हमें समाचार कम सूचनाऐं अधिक मिलती हैं। भारत जैसी सबसे पवित्र भूमि आज सबसे भ्रष्ट दिखाई जा रही है। पत्रकार हलीम रेहान ने कहा कि मीडिया की भूमिका के लिए पत्रकारों को दोषी नही ठहराया जा सकता। हितेश व्यास ने कहा कि इस तरह के नकारात्मक मीडिया के साथ सकारात्मक मीडिया पर भी बात होनी चाहिए? आर.पी. तिवारी का कहना था कि मीडिया ने आज सच्चाई को घूमिल कर दिया है। शायर शकूर अनवर ने का कहना था कि मीडिया द्वारा ने जनता को असत्य और फूहड़ता देखने के लिए मजबूर कर दिया है। साहित्यकार अरूण सैदवाल ने मीडिया को "अपनी ढपली-अपना राज" की संज्ञा देते हुए कहा कि मिशनरी और प्रतिबद्ध पत्रकारिता ही इस माहौल को बदल सकती है। सेमीनार का संचालन कर रहे महेन्द्र 'नेह' ने मीडिया की स्थिति पर मौजूँ शैर पढ़ा " आसान नहीं है सुलझाना इस गुत्थी का@ अहले दानिश ने बहुत सोच के उलझाया है"। उन का कहना था कि मीडिया-कर्मी जमीनी वास्तविकताओं को समझें तो मीडिया के प्रतिरोधी और सकारात्मक हिस्से को ताकतवर बनाया जा सकता है।
सेमीनार में मेरी तरह विशुद्ध श्रोता के रूप में शिरकत करने वालों में कवि-व्यंग्यकार ब्लागर अतुल चतुर्वेदी, अंजुम शैफी, ओम नागर संजय चावला, शायर चांद शेरी, अखिलेशा अंजुम, पुरूषोत्तम 'यक़ीन' कवि राम नारायण हलधर, गोपी लाल मेहरा, महेन्द्र पाण्डेय, परमानन्द कौशिक, विजय जोशी, अब्दुल गफूर, तारकेवर तिवारी, त्रिलोक सिंह मेरी पहचान के थे, शेष लोगों को मैंने पहली बार देखा था, उन से पहचान बढ़ाने का भी कोई अवसर मुझे नहीं मिला। इस सेमीनार से मुझे बहुत कुछ जानने को मिला और कुछ नए लोगों से पहचान हुई।

सेमीनार के बाद गपशप में रुक गए लोग