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मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






शुक्रवार, 19 जून 2015

न्याय और कार्यपालिका के बीच शीत गृह-युद्ध

देश में शीत गृहयुद्ध जारी है। हमारी न्याय व्यवस्था जर्जर होने की सीमा तक पहुँच गयी है। कहीं कहीं फटी हुई भी है। फटने से हुए छिद्रों को छुपाने के लिए लगाए गए पैबंद खूब दिखाई देने लगे हैं। जहाँ सौ जोड़ा कपड़ों की हर साल जरूरत है, वहाँ दस जोड़ा कपड़े दिए जाते हैं। जंजीरों में बंधे गुलामों के वो चित्र याद आते हैं जिन में गुलामों से जब तक वे बहोश न खो दें काम कराया जाता था और खाने को इतना ही दिया जाता था कि वे मर न जाएँ। वैसी ही हालत हमारी न्याय पालिका की है। न्याय पालिका हमारे संघ राज्य का महत्वपूर्ण अंग है। लेकिन वह कभी कभी जनपक्षीय हो जाता है। यही कारण है कि उसे विधायिका और कार्यपालिका कभी मजबूत नहीं होने देती। यह डर हमेशा सताता रहता है कि कहीं वह पूंजीवादी निजाम को पलटने का एक साधन न बन जाए।

यही है हमारी स्वतंत्र न्याय पालिका। हर साल उच्चतम न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के जजों के साथ प्रधानमंत्री एक समारोह करते हैं। पिछले 15 वर्षों के इन समारोहों की रपटें उठा ली जाएँ तो पता लगेगा कि हर बार मुख्य न्यायाधीश अदालतों की अतिशय कमी की ओर ध्यान दिलाते हैं। पर इन अदालतों की स्थापना तो सरकार से मिलने वाले वित्त पोषण पर निर्भर करती है। हर साल प्रधानमंत्री आश्वासन देते हैं। लेकिन सरकारें अण्डज हैं, साल भर बाद नतीजे के नाम पर अण्डा निकलता है।

उधर विधायिकाओं और सरकारों के पास देश की हर समस्या का एक इलाज है, कानून बना दो। वे कानून बनाते हैं। हर कानून अदालतों में मुकदमों का इजाफा करता है। हर कानून के साथ न्याय पालिका में अदालतें भी बढ़ाने का इंतजाम होना चाहिए। लेकिन उस से सरकार को क्या? यदि मुकदमे देर तक चलेंगे तो सरकार की बदनामी थोड़े ही होगी, बदनाम तो न्याय पालिका होगी। यही तो सरकारें चाहती हैं। तभी तो सरकार के लिए न्यायपालिका में हस्तक्षेप के अवसर पैदा होंगे। आप देख ही रहे हैं कि सरकार ने कॉलेजियम की पद्धति को बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया है। अब नए जजों को पुराने जज नहीं बल्कि ये आयोग चुनेगा। इस आयोग के गठन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है। न्याय पालिका इस परिवर्तन के विरुद्ध लड़ रही है। लेकिन उस के पास फौज और पुलिस जैसे हथियार तो हैं नहीं। उस के पास जो साधारण औजार हैं और वह उन्हीं से लड़ रही है।

कई बरस पहले देशी-विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव पर परक्राम्य विलेख अधिनियम में चैक बाउंस को अपराध बनाए जाने का कानून बनाया गया। कानून बनते ही चैक का इस्तेमाल आम हो गया। अब चैक सब से बड़ी गारंटी होने लगा। कंपनियों से ले कर गली के बनियों ने उधार माल बेचने और बहुराष्ट्रीय वित्तीय उपक्रमों से ले कर टटपूंजिए साहूकारों तक ने चैक का खूब इस्तेमाल किया। पहले तो उधार वसूलने के लिए गुंडों और लठैतों की जरूरत होती थी। अब अदालतें यह काम करने लगीं। बड़ी कंपनियों ने चैक ले कर थोक में अपने उत्पाद बेचे और जब वे चैक अनादरित होने लगे तो सब के खिलाफ मुकदमे होने लगे। एक कंपनी ने तो दक्षिण भारत की एक अदालत में एक ही दिन में 70000 से अधिक मुकदमे पेश किए। अगले दिन खबर मुख्य न्यायाधीश को मिली और तीसरे दिन एक समारोह में उन्होने बयान दिया कि वे इस कानून को रुपया वसूली का औजार न बनने देंगे। एक समय में 500 मुकदमों की सुनवाई करने की क्षमता वाली अदालत पर 70000 हजार मुकदमे आ जाएँ तो शायद उन्हें रजिस्टर में दर्ज करने में ही दो-तीन साल तो लग ही जाएंगे।

लेकिन मुख्य न्यायाधीश के कहने से क्या होता है? मुकदमे आते रहे और अदालतें बोझिल होती रहीं। कोई प्राथमिक अपराधिक अदालत ऐसी न बची जहाँ इस तरह के मुकदमे हजार पाँच सौ की संख्या में लंबित न हों। हाल वैसा हो गया जैसे सारे वाहन यकायक एक साथ सड़क पर निकल आने पर होता है। अदालतों मे ट्रेफिक जाम होने लगा। ट्रेफिक जाम में नियम कानून और नैतिकता सब दाँव पर होते हैं। कैसे भी सवार बाहर निकलने की कोशिश करता है और ट्रेफिक के सिपाही डंड़ा फटकार कर जाम को हटाने की कोशिश करते हैं।

यही हुआ भी। 1 अगस्त 2014 को उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की बैंच ने दशरथ रूपसिंह राठौड़ के मुकदमे में यह फैसला दिया कि चैक बाउंस का मुकदमा सुनने का अधिकार केवल उस अदालत को है जिस के क्षेत्र में चैक जारीकर्ता की बैंक की शाखा स्थित है। अब तक लगभग सारे मुकदमे वहाँ दाखिल किए गए थे जहाँ चैक डिसऑनर हुआ था। पुराने मुकदमों को वापस ले कर इस निर्णय के अनुसार क्षेत्राधिकार वाली अदालत में प्रस्तुत करने के लिए 30 दिन की अवधि निर्धारित की गयी। हजारों मुकदमे वापस दिए गए जिन में से कुछ मुकदमे जो साधारण न्यायार्थियों के थे, वापस पेश ही नहीं हुए जब कि बहुत सारी कंपनियों और न्यायार्थियों ने अपने मुकदमे दूसरे राज्यों की अदालतों में पेश किए ।

इस से सब से बड़ी परेशानी बड़ी कंपनियों को हुई। चैक अब अच्छी गारंटी नहीं रहा। कंपनियों को माल बेचने में परेशानी आने लगी। उन्हों ने फिर सरकारा पर दबाव बनाया और कानून में बदलाव की हवा बनने लगी। कानून बनने में तो देर लगती है। संसद में पारित कराना होता है, फिर राष्ट्रपति का अनुमोदन चाहिए तब कानून लागू होता है। इस से बचाने का एक रास्ता अध्यादेश लागू करना है। सो केन्द्र सरकार ने इतनी तत्परता दिखाई कि 15 जून को परक्राम्य विलेख अधिनियम में संशोधन अध्यादेश लागू कर दिया।

दशरथ रूप सिंह राठौर के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर इस बात का उल्लेख किया था कि किस तरह इन मुकदमों ने मजिस्ट्रेट न्यायालयों में एक एविलांस (ऊँचे पहाड़ों में हिम स्खलन से उत्पन्न बर्फीला तूफान) उत्पन्न कर दिया है –

“we need to remind ...... “हमें खुद को याद दिलाने की जरूरत है कि इस देश की मजिस्ट्रेसी पर चैक अनादरण के मुकदमों का हिमस्खलन आया हुआ है। विधि आयोग की 213वीं रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार अक्टूबर 2008 में इस तरह के मुकदमों की संख्या 38 लाख से अधिक थी। नतीजे के तौर पर चैक अनादरण के मुकदमों से देश के हर मुख्य शहर की मजिस्ट्रेट स्तर की अपराधिक न्याय व्यवस्था का दम घुट रहा था। चार महानगरों और अन्य व्यावसायिक महत्व के केन्द्रों की अदालतें इस तरह के मुकदमों के कारण भारी बोझ से दब गईं। अकेले दिल्ली की अदालतों में 1 जून 2008 को इस तरह के पाँच लाख से अधिक मुकदमे लंबित थे। दूसरे अनेक शहरों की हालत भी इस से अच्छी नहीं है, केवल इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी संख्या में धारा 138 के मामले घटे हैं बल्कि इस लिए कि बहुराष्ट्रीय व दूसरी कंपनियों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों व अभिक्रमों ने इन शहरों को शिकायत दर्ज कराने के लिए उचित समझा जिस का इस से अच्छा कारण कोई नहीं है कि अनादरित चैक की राशि को लौटाने के लिए नोटिस जारी किए गए थे और चैक उन शहरों की शाखाओं में समाशोधन के लिए जमा किए गये थे”। ... banks in those cities.”

इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया था कि उच्चतम न्यायालय किस तरह परेशान है और उस से निपटने के लिए क्षेत्राधिकार के आधार पर वह कुछ मुकदमे कम होते देखना चाहता है। कम से कम कार्यपालिका को एक चेतावनी देना चाहता है। लेकिन उच्चतम न्यायालय का यह मंसूबा सरकार कैसे पूरा होने देती। उस ने इस मामले को संसद तक ले जाने और कानून में संशोधन करने तक की राह नहीं देखी। तब तक वे कंपनियाँ कैसे इन्तजार करतीं जिन्हों ने करोड़ों रुपए इस सरकार को बनाने में दाँव पर लगाए थे। अपने आका को इतने दिन परेशान होते देखना किस जिन्न को बर्दाश्त होता है? वे अध्यादेश लाए और एक दम आका की परेशानी का हल पेश कर दिया।

यह सरकार और न्यायपालिका के बीच का शीत गृह-युद्ध है। जहाँ न्याय पालिका के पास निर्णय पारित करने का औजार है वहीं सरकार के पास निर्णयों को कानून और अध्यादेशों के जरिए पलट डालने का शस्त्र मौजूद है। अब साल में दो चार बार इस युद्ध का नजारा देखने को मिलता ही रहेगा। जब तक कि न्यायपालिका को देश की जरूरतों के मुताबिक अदालतें नहीं मिल जातीं। आप जानते हैं, देश की जरूरत क्या है? नहीं जानते हों तो मैं ही बता देता हूँ। देश को मौजूदा अदालतों की संख्या से चार गुनी और अदालतें चाहिए।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

अदालतों की लाचारी

वकील जमील अहमद
म कोटा के वकील पिछले दिनों हड़ताल पर थे। लगभग डेढ़ माह के बाद कचहरी में काम आरंभ हुआ। एक बार जब कोई नियमित गतिविधि को लंबा विराम लगता है तो उसे फिर से नियमितता प्राप्त करने में समय लगता है। काम फिर से गति पकड़ने लगा था कि एक वरिष्ठ वकील के देहान्त के कारण आज फिर से काम की गति अवरुद्ध हुई। दोपहर बाद अदालत के कामों से फुरसत पा कर निकला ही था कि कोटा वरिष्ठ अभिभाषकों में सब से अधिक सक्रिय समझे जाने वाले जमील अहमद मुझे मिल गए। दो मिनट के लिए बात हुई। कहने लगे -मुश्किल से अदालती काम गति पकड़ने लगा था कि आज फिर से बाधा आ गई। मैं ने भी उन से सहमति जताई और कहा कि यदि कोई बाधा न हुई तो इस सप्ताह के अंत तक अदालतों का काम अपनी सामान्य गति पा लेगा। उन्हों ने कहा कि वे जिला जज के सामने एक मुकदमे में बहस के लिए उपस्थित हुए थे। लेकिन खुद जज साहब ने बहस सुनने से मना कर दिया और कहा कि आज तो शोकसभा हो गई है बहस तो नहीं सुनेंगे। दूसरे काम निपटाएंगे। मैं ने कहा -अदालतों के पास इतना अधिक काम है कि, जब भी इस तरह का विराम न्यायाधीशों को मिलता है तो वे लंबित पड़े कामों को निपटाने लगते हैं। 
बात निकली थी तो मैं ने उन्हें पूछा कि एक अदालत के पास मुकदमे कितने होने चाहिए? उन्हों ने कहा कि एक दिन की कार्य सूची में एक अदालत के पास दस दीवानी और दस फौजदारी मुकदमे ही होने चाहिए, तभी साफ सुथरा काम संभव है, न्याय किया जा सकता है। 
मुझे अपने सवाल का पूरा उत्तर नहीं मिला था। मैं ने तुरंत अगला सवाल दागा -एक मुकदमे में दो सुनवाइयों के बीच कितना अंतर होना चाहिए?  उन का उत्तर था कि हर मुकदमे में हर माह कम से कम एक सुनवाई तो अवश्य ही होनी चाहिए। मैं ने तुरंत ही हिसाब लगा कर बताया कि माह में बीस दिन अदालतों में काम होता है। इस तरह तो एक अदालत के पास कम से कम चार सौ और अधिक से अधिक पाँच सौ मुकदमे होने चाहिए, तभी ऐसा संभव है। जब कि हालत यह  है कि एक-एक अदालत के पास चार-चार, पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। 
मील अहमद जी का कहना था कि, इसी कारण से तो न्यायालय इतनी जल्दबाजी में होते हैं कि वे पूरी बात को सुनते तक नहीं। इस से न्याय पर प्रभाव पड़ रहा है। अदालतें सिर्फ आँकड़े बनाने में लगी हैं, न्याय ठीक से नहीं हो पा रहा है। होता भी है तो कोई उस से संतुष्ट नहीं है। लोगों को लगता है कि उन के साथ न्याय नहीं हो रहा है। जब कि एक सिद्धांत यह भी है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना और महसूस भी होना चाहिए। 
ब आप ही सोचिए कि जब अदालतों के पास उन की सामान्य क्षमता से पाँच से दस गुना अधिक काम होगा तो वे किस तरह कर सकती हैं? एक बैंक क्लर्क को नौकरी से निकाल दिया गया था। उस का मुकदमा अदालत तक पहुँचने में तीन वर्ष लग गए। आज उस की पेशी थी। बैंक के वकील ने आज पहली बार उपस्थिति दे कर दावे का जवाब प्रस्तुत करने के लिए समय चाहा था। अदालत ने सुनवाई के लिए अगली पेशी जून या जुलाई में देने की पेशकश की थी। बहुत हुज्जत करने के बाद अप्रेल के अंतिम सप्ताह में हम सुनवाई निश्चित करा सके। .यह मुकदमा ऐसा है कि कम से कम पच्चीस सुनवाइयाँ इसे निपटाने में लगेंगी। यदि इसी तरह छह-छह माह में सुनवाई होती रही तो मुकदमा निपटने में कम से कम दस वर्ष तो लग जाएंगे। तब तक बैंक क्लर्क की सेवा निवृत्ति की आयु हो चुकी होगी। लेकिन इस मामले में अदालत करे भी तो क्या? न्यायालय के पास साढ़े चार हजार मुकदमे हैं। वह हर मुकदमे में छह माह बाद सुनवाई करे तो भी उसे प्रत्येक दिन कम से कम चालीस मुकदमे सुनवाई के लिए रखने होंगे। जिन में से अधिक से अधिक बीस की सुनवाई की जा सकती है वह भी तब जब कि किसी पक्ष को यह अहसास नहीं होगा कि उस के साथ न्याय हो रहा है। 
जितने मामले अदालतों में लंबित हैं उस के मुकाबले अदालतों की संख्या बीस प्रतिशत है। यही न्यायपालिका की सब से बड़ी और प्राथमिक लाचारी है। इस लाचारी की उत्पत्ति सरकारों के कारण है कि वे पर्याप्त संख्या में अदालतें स्थापित नहीं कर सकी हैं।

रविवार, 16 जनवरी 2011

मुझे ज्ञानदत्त पाण्डे क्यों पसंद हैं?

पिछले दिनों अनवरत की पोस्टों पर आज ज्ञानदत्त जी पाण्डे की दो टिप्पणियाँ मिलीं। सारा पाप किसानों का पर उन की टिप्पणी थी,"सबसिडी की राजनीति का लाभ किसानों को कम, राजनेताओं को ज्यादा मिला।" बहुत पाठक इस पोस्ट पर आए, उन में से कुछ ने टिप्पणियाँ कीं।  लगभग सभी टिप्पणियों में किसान की दुर्दशा को स्वीकार किया गया और राजनीति को कोसा गया था। ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी भी इस से भिन्न नहीं है। मेरी पूरी पोस्ट में कहीं भी सबसिडी का उल्लेख नहीं था। लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी टिप्पणी में इस शब्द का प्रयोग किया और इस ने ही उन की टिप्पणी को विशिष्ठता प्रदान कर दी। यह तो उस पोस्ट की किस्मत थी कि ज्ञानदत्त जी की नजर उस पर बहुत देर से पड़ी। खुदा-न-खास्ता यह टिप्पणी उस पोस्ट पर सब से पहले आ गई होती तो बाद में आने वाली टिप्पणियों में मेरी पोस्ट का उल्लेख गायब हो जाता और 'सबसिडी' पर चर्चा आरंभ हो गई होती। 
वास्तविकता यह है कि हमारा किसान कभी भी शासन और राजनीति की धुरी नहीं रहा। उस के नाम पर राजनीति की जाती रही जिस की बागडोर या तो पूंजीपतियों के हाथ में रही या फिर जमींदारों के हाथों में। एक सामान्य किसान हमेशा ही पीछे रहा। किसानों के नाम पर हुए बड़े बड़े आंदोलनों में किसान को मुद्दा बनाया गया। लेकिन आंदोलन से जो हासिल हुआ उसे लाभ जमींदारों को हुआ और राजनेता आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़ कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचे। जो नहीं पहुँच सके उन्हें अनेक सरकारी पद हासिल हो गए। किसान फिर भी छला गया। जब भी किसान को नुकसान हुआ उसे सबसिडी से राहत पहुँचाने की कोशिश की गई। सबसिडी की लड़ाई लड़ने वाले नेता वोटों के हकदार हो गए, कुछ वोट घोषणा करने वाले बटोर ले गए। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ कि खुद किसानों का कोई अपना संगठन नहीं है। जो भी किसान संगठन हैं, उन का नेतृत्व जमींदारों या फिर मध्यवर्ग के लोगों के पास रहा, जिस का उन्हों ने लाभ उठाया। इस तरह आज जरूरत इस बात की है कि किसान संगठित हों और किसान संगठनों का काम जनतांत्रिक तरीके से चले। अपने हकों की लड़ाई लड़ते हुए किसान शिक्षित हों, अपने मित्रों-शत्रुओं और  हितैषी बन कर अपना खुद का लाभ उठाने वालों की हकीकत समझने लगें।  फिर नेतृत्व भी उन्हीं किसानों में से निकल कर आए। तब हो सकता है कि किसान छला जाए।
सी तरह अनवरत की ताजा पोस्ट लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी है कि 'लाचार न्यायपालिका? कुछ हजम नहीं हुआ!' उन की बात सही है, न्यायपालिका राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है, जनतंत्र में उसे राज्य का तीसरा खंबा कहा जाता है। उस की ऐसी स्थिति और उसी को लाचार कहा जाए तो यह बात आसानी से हजम होने लायक नहीं है। लेकिन न्यायपालिका वाकई लाचार हो गई है। यदि न हुई होती तो मुझे अपनी पोस्ट में यह बात कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि बात आसानी से हजम होने वाली होती तो भी मुझे उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं होती। अब आप ही बताइए, महाराज अच्छा भोजन बनाते हैं, समय पर बनाते हैं। पर कितने लोगों के लिए वे समय पर अच्छा भोजन बना सकते हैं, उस की भी एक सीमा तो है ही। वे बीस, पचास या सौ लोगों के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकते हैं। लेकिन जब उन्हें हजार लोगों के लिए समय पर अच्छा भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए तो क्या वे कर पाएंगे? नहीं, न? तब वे समय पर अच्छा भोजन तो क्या खराब भोजन भी नहीं दे सकते। जितने लोग अच्छे भोजन के इंतजार में होंगे उन में से आधों को तो भोजन ही नहीं मिलेगा, शेष में से अस्सी प्रतिशत कच्चा-पक्का पाएंगे। जो लपक-झपक में होशियार होंगे वे वहाँ भी अच्छा माल पा जाएंगे। यही हो रहा है न्यायपालिका के साथ। उस पर क्षमता से पाँच गुना अधिक बोझा है, यह उस की सब से पहली और सब से बड़ी लाचारी है। फिर कानून तो विधायिका बनाती है, न्यायपालिका उस की केवल व्याख्या करती है। यदि पुलिस किसी निरपराध पर इल्जाम लगाए और उसे बंद कर दे तो न्यायपालिका उसे जमानत पर छोड़ सकती है लेकिन मुकदमे की री लंबाई  नापे बिना कोई भी राहत नहीं दे सकती। पहली ही नजर में निरपराध लगने पर भी एक न्यायाधीश बिना जमानत के किसी को नहीं छोड़ सकता। लेकिन सरकार ऐसा कर सकती है, मुख्यमंत्री एक वास्तविक अपराधी के विरुद्ध भी मुकदमा वापस लेने का निर्णय कर सकती है, और करती है। क्या आप अक्सर ही अखबारों में नहीं पढ़ते कि राजनेताओं के विरुद्ध मुकदमे वापस लिए गए। इस पर अदालत कुछ नहीं कर सकती। उसे उन अपराधियों को छोड़ना ही पड़ता है। अब आप ही कहिए कि न्यायपालिका लाचार है या नहीं? 
कुछ भी हो, मुझे बड़े भाई ज्ञानदत्त पाण्डे बहुत पसंद हैं, वे वास्तव में 'मानसिक हलचल' के स्वामी हैं। वे केवल सोचते ही नहीं हैं, अपितु अपने सभी पाठकों को विचारणीय बिंदु प्रदान करते रहते हैं। अब आप ही कहिए कि आप की पोस्ट पर सब जी हुजूरी, पसंद है या नाइस कहते जाएँ, तो आप फूल कर कुप्पा भले ही हो सकते हैं लेकिन विचार और कर्म को आगे बढ़ाने की सड़क नहीं दिखा सकते। ज्ञानदत्त जी ऐसा करते हैं, वे खम ठोक कर अपनी बात कह जाते हैं और लोगों को विचार और कर्म के पथ पर आगे बढ़ने को बाध्य होना पड़ता है। बिना प्रतिवाद के वाद वाद ही बना रह जाता है सम्वाद की स्थिति नहीं बन सकती, एक नई चीज की व्युतपत्ति संभव नहीं है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

लाचार न्यायपालिका और शक्तिशाली व्यवस्थापिका

दिसम्बर 13 को ही मेरे सहायक वकील नन्दलाल जी ने मुझे ताजा वाकया सुनाया। एक गरीब को पकड़ कर लाया गया था। उस पर आरोप था कि उस के पास से प्रतिबंधित लंबाई का धारदार चाकू बरामद हुआ है जो कि शस्त्र अधिनियम का उल्लंघन है। जैसे ही पुलिस ने मजिस्ट्रेट के पास उस की गिरफ्तारी के कागजात पेश किये गए जमानत पर छोड़े जाने का आदेश दे दिया गया। जब वे अपने मुवक्किल की ओर से बोलने लगे तो मजिस्ट्रेट ने कहा कि वकील साहब जमानत ले तो ली है अब क्या कहना है। तब उन्हों ने कहा, वह तो ठीक है, पर मुलजिम कुछ कहना चाहता है उस की बात तो सुनिए। तब मजिस्ट्रेट से अभियुक्त अपनी व्यथा कहने लगा....
'साSब! मजदूरी करता हूँ, कल बहुत थक गया था, थकान से रात को नींद भी नहीं आती। पगार मिली तो एक थैली दारू पी गया। घर लौट रहा था कि दरोगा जी मिले। मुझ से रुपये मांगने लगे। रुपये उन को दे देता तो घर पर क्या देता? मैं ने मना कर दिया। दरोगा जी ने थाने में बिठा लिया। घर खबर पहुँची तो बीबी थाने पहुँची मैं ने दरोगा जी के बजाये रुपये उसे दे दिए। दरोगा जी ने चाकू का झूठा मुकदमा बना दिया।'
जिस्ट्रेट ने वकील से कहा, आप जानते हैं मैं अभी कुछ नहीं कर सकता। मुकदमे की सुनवाई के समय इस बात को ध्यान में रखेंगे। 
धर उत्तर प्रदेश में बसपा विधायक पर बलात्कार करने का आरोप लगाने वाली दलित लड़की शीलू को विधायक द्वारा की गई चोरी की रिपोर्ट पर तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। वह महीने भर जेल में रही और विधायक मजे में खुला घूमता रहा। मामला मुख्यमंत्री की निगाह में आने और क्राइमब्रांच के अन्वेषण से बलात्कार का आरोप सही और लड़की पर चोरी का आरोप बचाव में की गई कार्यवाही पाए जाने पर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने जन्मदिवस पर विधायक व उस के साथियों को गिरफ्तार करने और लड़की को रिहा करने का आदेश दिया। अब विधायक तथा उस के तीन साथी जेल में हैं और लड़की को रिहा कर दिया गया है। 
पीड़ित लड़की दलित थी, यदि वह दलित न हो कर सवर्ण होती तो भी क्या मायावती का निर्णय ऐसा ही होता? राज्य में कानून और व्यवस्था के लिए पुलिस, मजिस्ट्रेट और अदालतें हैं। लेकिन गलती से या जानबूझ कर गिरफ्तार निरपराध व्यक्ति को रिहा करने का आदेश सरकार तो दे सकती है लेकिन अदालत नहीं। क्या हमारी अदालतें इतनी ही मजबूर हैं कि वे प्रारंभिक स्तर पर कोई निर्णय नहीं ले सकतीं? जब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो सचमुच हमारी न्यायपालिका लाचार दिखाई पड़ने लगती है, और व्यवस्थापिका इतनी शक्तिशाली कि लोग उस की हाँ में हाँ मिलाते रहें। एक बात और कि इस मामले में शीलू भाग्यशाली निकली जो उसे महीने भर में ही राहत मिल गई लेकिन उन हजारों लोगों का क्या जो अपनी गरीबी और बेजुबानियत के कारण जेलों में यातनाएँ सह रहे हैं।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है, उस का चरित्र राज्य से भिन्न नहीं हो सकता

भी कुछ महीने पहले ही की तो बात है हम उस देवी के कुछ छिपे अंगों को देख पाए थे। पंद्रह हजार से अधिक भारतियों को एक रात में मौत की नींद सुलाने और इस से कई गुना अधिक को जीवन भर  के लिए अपंग और बीमार बना देने के लिए जिम्मेदार हत्यारा एण्डरसन अभी भी अमरीका में चैन की नींद सो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ  ने इस अपराध को एक मामूली मामले में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसी बैंच के न्यायाधीश हत्यारी संस्था द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन स्थापित अस्पताल के सर्वेसर्वा बन गए। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध कोई पुनर्विचार याचिका पेश नहीं की। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेंद्रा समेत सात अधिकारी दोषी सिद्ध हुए और पर दो-दो वर्ष के कारावास और एक-एक लाख रुपए के अर्थदंड की सजा से विभूषित किए गए। इस फ़ैसले के बाद सात जून को ही सभी आरोपियों ने अपने पॉकेट मनी के बराबर का अर्थदंड भरते ही 25-25 हजार रुपए के मुचलके और इतनी ही राशि की जमानत पर रिहा हो गए। इस फैसले से देश में नाराजगी का जो बवंडर उठा तब जा कर सरकारों (केन्द्र और राज्य दोनों) ने सर्वोच्च न्यायालय में उसके अपने निर्णय को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन पेश करने की स्मृति हो आई। जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है।
ह सर्ग  हमें बताता है कि उद्योगपति, वे देसी हों या विदेशी, राजसत्ता से उन का कैसा नाता है? केवल संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए व्यवस्था कर देने मात्र से वह स्वतंत्र नहीं हो जाती। न्यायपालिका राज्य का अभिन्न अंग है, और वह राज्य के चरित्र से अलग किसी भी तरह नहीं हो सकता। आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता की चेतना शिखर पर थी, भारतीय राज्य घोषित रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य बनने जा रहा था, और न्यायपालिका के उच्च पदों पर वे लोग पदासीन थे जो आंदोलनों के बीच से आए थे। तो उस वक्त कानून की विवेचना और निर्णय जनपक्षीय होते थे। लेकिन आजादी के पहले का कमजोर बालक, भारत का पूंजीपति वर्ग जवान होता गया, सत्ता पर अपना असर  बढ़ाता गया। वैसे-वैसे न्यायपालिका के निर्णयों का वजन जनपक्षीय पलड़े से कम होता गया और पूंजीपतियों के हितों के पलड़े की ओर बढ़ता गया। हर कोई जानता है कि 1980 में जब देश का मजदूर आंदोलन तेज था और सत्ता व सरकार पर पूंजीपतियों की पकड़ कमजोर तो, न्यायपालिका के निर्णय कमजोर वर्ग की ओर झुके होते थे। तब सिद्धांत यह था कि कानून की व्याख्या कमजोर वर्ग के हित में की जानी चाहिए। कानून वहीं रहा लेकिन देखते ही देखते इसी स्वतंत्र न्यायपालिका ने उन की व्याख्या बदल कर रख दी। कमजोर वर्ग गायब होता गया और उद्योग के हित प्रधान हो गए। उन्हीं कानूनों के अंतर्गत, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठों में निर्धारित किए गए सिद्धांतों को बदले बिना, अब जो फैसले होते हैं, 1980 तक हुए फैसलों की अपेक्षा बिलकुल उलट होते हैं। 
मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपति) अनेक माध्यमों से न्यायपालिका को प्रभावित करता है। भोपाल त्रासदी के मामले में हुआ निर्णय उस का एक उदाहरण है। हमारी सरकार जो पूरी तरह इस वर्ग से नाभिनालबद्ध है। न्यायपालिका के आकार को छोटा रखती है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना नहीं करती। आज देश में जरूरत के केवल 20 प्रतिशत न्यायालय हैं, जिस का परिणाम यह है कि न्यायार्थी को न्याय प्राप्त करने में पाँच गुना से भी अधिक समय लगता है। कुछ लोग अपने प्रयासों और जुगाड़ों से शीघ्र न्याय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो बाकी लोगों के हिस्से का न्याय दूर सरक जाता है। अनेक को तो न्याय अपने जीवन काल में मिलता ही नहीं है। दूसरी ओर उद्योगपति और वित्तीय संस्थान जिन मामलों में उन के हित प्रभावित होने होते हैं, उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करवाते हैं। सरकार भी उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर उन्हें राहत प्रदान करती है। लेकिन जनता? उस की चिंता किसे है? जहाँ शासक वर्ग के विरुद्ध मामले होते हैं उन अदालतों में वर्षों तक फैसले नहीं होते। वहाँ सरकार को भी कोई चिंता नहीं है। 

कुछ माह पहले भोपाल त्रासदी के निर्णय ने देश भर को चौंकाया था और वह आंदोलित हुआ था। वैसा ही निर्णय बिनायक सेन मामले में रायपुर के अपर सत्र न्यायालय ने दे कर फिर से चौंकाया है। अदालत  इंडियन सोशल इंस्टीटच्यूट (आईएसआई) को पाकिस्तानी खुफिया ऐंजेंसी समझ कर बिनायक सेन को देशद्रोही करार देती है। एक ऐसे चिकित्सक को जो ग़रीब जनता को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है, उन में सांगठनिक चेतना के संचार में जुट जाता है, जो राज्य के दमनकारी कानून के विरुद्ध आवाज उठाता है उस के विरुद्ध फर्जी सबूतों के माध्यम से देशद्रोह का मामला बना कर उसे बंदी बना लिया जाता है और फिर अदालत उन्हीं सबूतों के आधार पर सजा दे देती है। इस निर्णय की बहुत आलोचना हो चुकी है। निर्णय उपलब्ध होने पर उसे भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की वजहें जानी जा सकती हैं। रायपुर के एक वरिष्ठ वकील की प्रतिक्रिया इसे स्पष्ट करती है, वे कहते हैं- "कृपया इस बारे में कोई प्रतिक्रिया मत मांगिए। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है, जिससे कई राजनीतिज्ञों व पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। मैं संकट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन जब तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता मीडिया को प्रतिक्रिया देने को उत्सुक हैं, तो फिर आप मेरी प्रतिक्रिया क्यों मांग रहे हैं?"
जो लोग रायपुर फैसले की आलोचना कर रहे हैं, न जाने उन्हें इस बात की कैसे अपेक्षा थी कि बिनायक सेन निर्दोष छूट जाएंगे? मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं था कि उन्हें सजा होगी ही और वह भी आजीवन कारावास। मुझे सत्ता के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका पर पूरा विश्वास था कि वह अवश्य राज्य के दूसरे हिस्से की इज्जत अवश्य ही बचा लेगी। यह हो भी कैसे सकता है कि एक बहन संकट में हो और दूसरी उस के खिलाफ फैसला दे दे? मेरे पास इस से अधिक कहने को कुछ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश की न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है उस का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न नहीं हो सकता। जिन दिनों मैं ने वकालत आरंभ की थी तो आंदोलनकारी मजदूरों को सजा मिलने पर उन के साथ आए लोग अदालत के बाहर नारे लगाते थे,  पूंजीवादी न्याय व्यवस्था - मुर्दाबाद! वह नारा अब अदालतों में कभी लगता दिखाई नहीं देता, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नारे को देश भर में बुलंद किया जाए।