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मंगलवार, 16 जनवरी 2024

शीघ्र न्याय : एक दुःस्वप्न

संसद और विधानसभाएँ कानून बनाती रहती हैं। लेकिन जब उनका पालन नहीं होता तो साधारण चालानों का जिनमें लोग जुर्माना भर कर निजात पा लेते हैं हजारों अवसर ऐसे होते हैं जब मुकदमा अदालत में जाता है। इसका एक उदाहरण आप चैक बाउंस के मामलों को ले लें। चैक बाउंस को अपराधिक बनाने के बाद इसके लिए अतिरिक्त अदालतें स्थापित करनी पड़ीं। कोटा नगर में चार अतिरिक्त अदालतें इन्हीं मामलों के लिए हैं। हर अदालत में हजारों मुकदमे लंबित हैं और जितने मुकदमे वे साल में निर्णीत करते हैं उससे डेढ़ दुगने मुकदमे रोज पेश होते हैं। कुल मिला कर नए कानूनों का सारा बोझा अदालतों पर आता है।

तीन मुख्य अपारिधिक कानून बदल दिए गए हैं। कल राजस्थान पत्रिका में गृहमंत्री अमित शाह का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसका पहला प्रश्न यही था कि "देश की न्यायिक प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी शिकायत यह रही है कि समय पर लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। अदालतों में सालों साल तक सुनवाई चलती रहती है और न्याय की उम्मीद में लोगों के जीवन समाप्त हो जाते हैं। इन अपराधिक कानूनों में समय पर न्याय के लिए क्या प्रयास किए गए हैं?
उत्तर में गृहमंत्री का जवाब था कि, "हमने 35 अलग-अलग जगह सेक्शनों में टाइम लाइन जोड़ी है। ... जिनमें समय की मर्यादा को सीमित करने का प्रयास किया है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब पूरे देश में ये नए कानून लागू हो जाएंगे, दतो उसके बाद अपराध होने के तीन साल के अंदर पीड़ित को न्याय मिल पाएगा। पहले सालों तक न्याय नहीं मिलता था, अपराधी इससे खौफ भी नहीं खाते थे।"

पहले भी अनेक कानूनों में टाइम लाइन निर्धारित की गयी है। उदाहरण के तौर पर औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 (2-ए) में टाइम लाइन है कि किसी भी विवाद को श्रम न्यायालय को रेफरेंस करते समय उचित सरकार निर्देश करेगी कि उसे कितने समय में निर्णीत करना है और यदि वह किसी एक मजदूर से संबंधित हो तो तीन माह में उसे निर्णीत करना होगा। यदि किसी मजदूर को अपने नियोजक से प्राप्त करना हो और उसे धनराशि में संगणित किया जा सकता हो तो वह मजदूर धारा 33 सी (2) में आवेदन दे सकता है। ऐसा आवेदन का निर्णय तीन माह में किया जाएगा।
 
इस कानून में यह टाइम लाइन 1982 से जुड़ी हुई है। चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं। लेकिन इन आवेदनों और विवादों में जो पहली तारीख पड़ती है वही तीन माह से अधिक की होती है, और उसके बाद भी तारीखें पड़ती रहती हैं। कोई अदालत इसका बोझा नहीं ढोती। अदालतें जानती हैं कि उन्हें एक-दो मुकदमे निर्णीत करने हैं। उससे अधिक वे कर भी नहीं सकते। क्यों कि उन्हें उस मुकदमे में जवाब लेने हैं, दस्तावेज पेश करने के आवेदनों का निस्तारण करना है, दोनों पक्षों की साक्ष्य लेनी है और फिर दोनों पक्षों की बहस सुन कर फैसला करना है। इस सब में स्वाभाविक रूप से एक मुकदमे में एक दिन का समय लगता है। इस कारण यह टाइम लाइनें तब तक बेमानी हैं, जब तक अदालतों की संख्या दो तीन गुना नहीं बढ़ा दी जाती है। आप पत्रिका की ही एक पुरानी खबर की कटिंग देखिए। क्या केन्द्र सरकार ने इतने जज नियुक्त करने और नयी अदालतें स्थापित करने के लिए भी कुछ किया है?
गृहमंत्री केवल इस बात पर विश्वास प्रकट कर रहे हैं। वे आश्वासन देने लायक भी नहीं हैं कि इन कानूनों से त्वरित न्याय मिलने लगेगा। इसके लिए अदालतें बढ़ानी पड़ेंगी। जो केन्द्र सरकार टैक्सों में राज्यों का हिस्सा तक देने में आनाकानी करती है, वह नयी अदालतें खोलने के लिए सीधे कहेगी यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। अब जहाँ जहाँ भाजपाई नेतृत्व की सरकारेंं हैं वे तो डबल इंजन की सरकारें हैं। उन राज्यों में तो तत्काल अदालतें दुगनी कर सकती हैं।

आज न्यायपालिका की हालत यह है कि एक दो रोटी बनाने वालों को हजार लोगों को रोटी बना कर खिलाने का जिम्मा दे दिया जाए। आप कितने ही कानून नियम बना दें कि रोटी पत्तल पर बैठने के बाद पाँच मिनट में मिलेगी।  आप पत्तल लेकर बैठे रहना रोटी तो तभी मिलेगी बेचारे रोटी बनाने वालों को तो एक एक ही बना कर ही परोसनी पड़ेगी। ज्यादातर लोग इंतजार करके पत्तल छोड़ भाग लेंगे। जैसे मुकदमा करने वाला मुकदमे को बीच में छोड़ भागता है। बाकी तो ये सब देख कर अदालत जाने से ही डरते हैं। भारत के जवान होने के पहले ही सड़ रहे पूंजीवाद में शीघ्र न्याय सदा सपना ही बना रहेगा। 
 
कुल मिला कर इन तीन नए कानूनों से शीघ्र न्याय की आशा करना बेमानी है। बल्कि ऐसे प्रावधान किए हैं जिनसे जनता के दमन के बहुत अधिकार पुलिस और सरकारों को दे दिए गए हैं जिनसे दमन और बढ़ेगा।

कुछ माह से बहुत शोर है की रामजी आ रहे हैं। भ्रम हो रहा है कि रामराज भी आ रहा है। पर रामराज में और कुछ होता हो या नहीं पर न्याय के नाम पर तपस्वी (पढ़ लिख कर योग्यता हासिल करने की कोशिश करने वाला) दलित तपस्या के घोर अपराध के लिए दंड के नाम पर शंबूक मारा जाता है।






रविवार, 8 सितंबर 2019

जज

सबसे बुरा तब लगता है जब जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने इजलास में किसी मजदूर से कहता है कि "फैक्ट्रियाँ तुम जैसे मजदूरों के कारण बन्द हुई हैं या हो रही हैं"।

40 साल से अधिक की वकालत में अनगिन मौके आए जब यह बात जज की कुर्सी से मेरे कान में पड़ी। हर बार मेरे कानों से गुजर कर मस्तिष्क तक पहुँचे ये शब्द अंदर एक विस्फोट कर डालते हैं। यह सोच भी तभी तुरन्त प्रतिक्रिया स्वरूप आती है कि इस विस्फोट की गर्मी को शान्त करो, तुम किसी जनतांत्रिक अदालत में नहीं बल्कि पूंजीपतियों, जमींदारों के पोषक राज्य की अदालत में खड़े हो। यह अदालत प्रतिवाद का उत्तर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के आरोप, सुनवाई और सजा से दे सकती है। गुस्सा कभी अदालत पर नहीं आता। आता है उस व्यक्ति पर जो सिर से ऊंची पीठ वाली कुर्सी पर बैठता है। जिस ने भले ही प्रेमचंद की "पंच परमेश्वर" कहानी पढ़ी हो, पर उस पंच जैसा बनने की खुद की कोशिश को जरा देर में नाकामयाब बना देता है। 

मैं यहाँ उन व्यक्तियों की बात नहीां करता जो उस उँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय का सौदा करते हैं, कैश में या काइंड में। लेकिन उन की बात कर रहा हूँ जो पूरी ईमानदारी से, पूरी शुचिता के साथ उस ऊँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय करना चाहते हैं। लेकिन वे अपनी वर्गीय स्थिति का क्या करें? वे ज्यादातर उच्च और उच्च मध्यवर्ग से आते हैं, कुछ निम्नमध्यवर्ग से भी। इन तमाम वर्गों के लोगों की सामान्य कोशिश यही रहती है कि किसी तरह मेहनत कर के, किसी तिकड़म से, और यहाँ तक कि परिवार की जमा पूंजी को बत्ती लगा कर, ऊपर से कर्जा लेकर भी अपने वर्ग से ऊपर के वर्ग में स्थान बना लें। बमुश्किल उन में से कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है। वे डाक्टर, इंजीनयर, सरकारी अफसर, जज वगैरा बन पाते हैं। इस कोशिश में ज्यादातर पराजित हो कर निचले वर्ग में पहुँच जाते हैं। बहुत लोग मजदूर भी हो जाते हैं लेकिन वहाँ भी उन की मानसिकता उन्हीं टटपूंजिया वर्गों की जैसी बनी रहती है, जिन से वे आए हैं। हमारे पूंजीवादी सामंती समाज का सुपरस्ट्रक्चर उन्हें अपने पानी से भरे पूल में सतह से ऊपर सिर निकाल कर साँस लेने का अवसर ही नहीं देता। 

इस तरह के वाक्य जब ऊंची कुर्सी से कान में पड़ते हैं तो मैं तुरन्त जवाब देने से बचने की कोशिश करता हूँ। बाद में किसी मौके पर उसका प्रतिवाद भी करता हूँ। पर जब उस कुर्सी पर ईमानदारी से काम करते हुए व्यक्ति से ऐसा वाक्य सुनने को मिलता है, जिन से थोड़ी बहुत आशा मैं और मजदूर करने लगते हैं, तो चुप नहीं रहा जाता, भिड़न्त हो ही जाती है। कुछ दिन पहले फिर एक भिड़न्त हो गयी। मैंने कहा- आप ने तो वर्डिक्ट ही सुना दिया। पूरे वर्ग को दोषी ठहरा दिया। कोई गवाह नहीं, सबूत नहीं, बस हवा की सूली पर टांक दिया। अब जब तक वह मरेगा नहीें तब तक सोचता रहेगा कि यह केवल और केवल मजदूर वर्ग में पैदा होने का अभिशाप / कलंक है जो इस राज्य में कभी नहीां धुल सकता। आप किसी भी मुकदमे में इस बात को कभी साबित नहीं कर सकते कि किसी एक या अधिक मजदूरों के कारण कोई कारखाना बंद हुआ है। कारखाना पूंजीपति और उनकी सरकारों की इच्छा से खुलते हैं और उन्हीं की मर्जी से बन्द होते हैं। वे बस प्रोपेगण्डा करते हैं कि मजदूरों की वजह से कारखाने बंद होते हैं। खैर, भिड़न्त हो गयी। फिर कुर्सी ने उस विवाद से पल्ला झाड़ लिया। 

यह पूंजीवादी सामंती राज्य किसी हालत में मजदूरों, किसानों और मजलूमों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। उस की कोई अदालत उन के साथ इंसाफ नहीं कर सकती। वे बनी ही इसलिए हैं कि वे इन वर्गों के असंतोष को किसी तरह दबाए रखें, उलझाए रखें। उस की आँच उस के मालिकों तक पहुँचे ही नहीं। इस राज्य में मजदूरोे किसानों का न्याय प्राप्ति की आशा करना ही व्यर्थ है। इस व्यवस्था के जज अखबारों को "मजदूर को न्याय मिला" जैसी खबरों से भरने के लिए मसाला जरूर पैदा करते हैं। लेकिन वे मजदूरों किसानों के साथ न्याय कर के वे वर्ग स्वामियों को नुकसान कैसे पहुँचा सकते हैं? वे तो उनके सब से बहुमूल्य सेवक हैं। वे इस व्यवस्था की "शॉक एब्जोर्बर" मात्र हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

दिनकर जी के परिवार के साथ न्याय कैसे हो?

दो दिनों से व्यस्तता रही। शनिवार को मकान की छत का कंक्रीट डलता रहा, वहाँ दो बार देखने जाना पड़ा। रविवार सुबह एक वैवाहिक समारोह में और दोपहर बाद एक साहित्यिक स्मृति और सम्मान समारोह में बीता। रात नौ बजे ही घर पहुँच सका। घर पहुँच कर खबरें देखीं तो एक खबर यह भी मिली कि पटना में दिनकर जी की  वृद्ध पुत्र-वधु हेमन्त देवी का किराएदार लीज अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी दुकान खाली नहीं कर रहा है और उपमुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने के कारण वह उन्हें धमकियाँ दे रहा है। 
ह समाचार भारतवर्ष की कानून और व्यवस्था की दुर्दशा की कहानी कहता है। हेमन्त देवी का कहना है कि वे मुख्यमंत्री तक से मिल चुकी हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। मुख्यमंत्री क्या करें? वे एक व्यक्ति, जो कानूनी रूप से किसी संपत्ति के कब्जे में आया था, जिस का कब्जा अब लीज अवधि समाप्त होने के बाद  अवैध हो गया है और जो अतिक्रमी हो गया है, से मकान कैसे खाली करवा सकते हैं? यह मामला तो अदालत का है। महेश मोदी यदि दुकान खाली नहीं करता है और अगर यह मामला किराएदारी अधिनियम की जद में आता है तो उस के अंतर्गत मकान खाली करने का दावा करना पड़ेगा, और अगर लीज से संबंधित कानून के अंतर्गत यह मामला आता है तो कब्जे के लिए दावा करना पड़ेगा। हमारे अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारें इस काम में बरसों से लापरवाही कर रही हैं। पूरे देश में जरूरत की केवल 20 प्रतिशत अदालतें हैं जिस के कारण एक मुकदमा एक-दो वर्ष के स्थान पर 20-20 वर्ष तक भी निर्णीत नहीं होता। जो कानून और अदालतें सब के लिए हैं, वे ही दिनकर जी के परिजनों के लिए भी हैं। इस कारण उन्हें भी इतना ही समय लगेगा। सरकार या कोई और ऐजेंसी इस मामले में कोई दखलंदाजी करती है या ऐसा करने का अंदेशा हो तो महेश मोदी खुद न्यायालय के समक्ष जा कर यह व्यादेश ला सकता है कि दुकान पर उस का कब्जा सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से न हटाए।
क मार्ग यह दिखाई देता है कि इस मामले में राज्य सरकार कोई अध्यादेश जारी करे, या फिर कानून बनाए जो संभव नहीं। एक मार्ग यह भी दिखाई देता है कि यदि राज्य में वरिष्ठ नागरिकों को उन के मकान का कब्जा दिलाने मामले में कोई विशिष्ठ कानून हो तो उस के अंतर्गत तीव्रता से अदालती कार्यवाही हो, अथवा अदालत हेमंत देवी को वरिष्ठ नागरिक मान कर त्वरित गति से मामले में फैसला सुनाए और यही त्वरण अपीलीय अदालतों में भी बना रहे। तब यह प्रश्न भी उठेगा कि हेमंत देवी के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह देश के सभी नागरिकों के लिए क्यों न किया जाए? वस्तुतः पिछले तीस वर्षों में जो भी केंद्र और राज्य सरकारें शासन में रहीं, उन्हों ने न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हों ने उसे अपना कर्तव्य ही नहीं समझा।
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बहुत बदली हैं। इस अतिविलंबित न्याय व्यवस्था ने समाज के ढाँचे को बदला है। अब हर अवैध काम करने वाला व्यक्ति धमकी भरे स्वरों में कहता है तु्म्हें जो करना हो कर लो। वह जानता है कि अदालत में जूतियाँ घिस जाती हैं बीसियों साल तक अंजाम नहीं मिलता। जिस के पास लाठी है वही भैंस हाँक ले जा रहा है, भैंस का मालिक अदालत में जूतियाँ तोड़ रहा है। ये पाँच-पाँच बरसों के शासक, इन की दृष्टि संभवतः इस अवधि से परे नहीं देख पाती। यह निकटदृष्टि राजनीति लगातार लोगों में शासन सत्ता के प्रति नित नए आक्रोश को जन्म देती है और परवान चढ़ाती है। पाँच बरस के राजा नहीं जानते कि  यह आक्रोश विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता।

बुधवार, 5 जनवरी 2011

आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है कि नक्सलियों के साथ सम्बंध रखने पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को यदि गलत तरीके से सजा दी गई है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। यदि उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा।  डॉक्टर कार्यकर्ता बिनायक सेन को कानून की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है और जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो उन्हें लोकतंत्र की प्रक्रिया का भी सम्मान करना चाहिए। 
ब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और  लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।  
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही  दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है।  तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है।  इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा? 
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?
लेकिन इतने सारे जो लोग डॉ. बिनायक सेन के साथ-साथ सजा पाएंगे, आप उन की आवाज ही बंद कर देना चाहते हैं। कि वे न तो फैसले पर उंगली उठाएँ और न ही देश की इस अमानवीय न्याय व्यवस्था पर, जो एक बार आरोप सुना कर निरपराध साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त पर ही डाल देती है जो पहले से  ही जेल में  बंद है। इस मामले में आप की उदारता कहाँ गई? शायद ऐसा करते समय भारत दुनिया का सब से अधिक उदार लोकतंत्र तो क्या?  उदार लोकतंत्र भी नहीं रह जाता। आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र!

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जज के पिता और भाई की हत्या - राजस्थान में बिगड़ती कानून और व्यवस्था

राजस्थान में कानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति का इस से बेजोड़ नमूना और क्या हो सकता है कि एक पदासीन जज के वकील पिता और वकील भाई की दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई। गोली बारी में जज की माँ और उस का एक अन्य वकील भाई और उस की पत्नी गंभीर रूप से घायल हैं। 
ह घटना भरतपुर जिले के कामाँ कस्बे में गुरुवार सुबह आठ बजे घटित हुई। कुछ नकाबपोशों ने घर में घुस कर गोलीबारी की जिस में बहरोड़ में नियुक्त फास्ट ट्रेक जज रामेश्वर प्रसाद रोहिला के वकील पिता खेमचंद्र और वकील भाई गिर्राज की हत्या कर दी गई। जज के एक भाई राजेन्द्र और उस की पत्नी व जज की माँ इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई हैं। इस घटना का समाचार मिलते ही कस्बे में कोहराम मच गया और भरतपुर जिले में वकीलों में रोष व्याप्त हो गया जिस से समूचे जिले में अदालतों का कामकाज ठप्प हो गया।  हा जा रहा है कि ये हत्याएँ जज के पिता खेमचंद और उस के पड़ौसी के बीच चल रहे भूमि विवाद के कारण हुई प्रतीत होती हैं।
दि यह सच भी है तो भी हम सहज ही समझ सकते हैं कि राज्य में लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ गया है और वे अपने विवादों को हल करने के लिए हिंसा और हत्या पर उतर आए हैं। इस से बुरी स्थिति कुछ भी नहीं हो सकती। जब राज्य सरकार इस बात से उदासीन हो कि राज्य की जनता को न्याय मिल रहा है या नहीं, इस तरह की घटनाओं का घट जाना अजूबा नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार आवश्यकता के अनुसार नयी अदालतें स्थापित करने में बहुत पीछे है। राजस्थान में अपनी आवश्यकता की चौथाई अदालतें भी नहीं हैं। जिन न्यायिक और अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए अधिकरण स्थापित हैं और जिन का नियंत्रण स्वयं राज्य सरकार के पास है वहाँ तो हालात उस से भी बुरे हैं। श्रम विभाग के अधीन जितने पद न्यायिक कार्यों के लिए स्थापित किए गए हैं उन के आधे भी अधिकारी नहीं हैं। दूसरी और कृषि भूमि से संबंधित मामले निपटाने के लिए जो राजस्व न्यायालय स्थापित हैं उन में प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन पर प्रशासनिक कार्यों का इतना बोझा है कि वे न्यायिक कार्ये लगभग न के बराबर कर पाते हैं। राजस्व अदालतों की तो यह प्रतिष्ठा जनता में है कि वहाँ पैसा खर्च कर के कैसा भी निर्णय हासिल किया जा सकता है।  
दि राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रदेश की न्यायव्यवस्था में सुधार लाने के लिए कड़े और पर्याप्त कदम न उठाए तो प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था और बिगड़ेगी और उसे संभालना दुष्कर हो जाएगा। इस घटना से प्रदेश भर के वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में जबर्दस्त रोष है और शुक्रवार को संभवतः पूरे प्रदेश में वकील काम बंद रख कर अपने इस रोष का इजहार करेंगे।

बुधवार, 9 जून 2010

भोपाल के इंसाफ ने राज्य के चरित्र को फिर से उघाड़ दिया है

भोपाल गैस कांड से उद्भूत अपराधिक मामले में आठ आरोपियों को मात्र दो वर्ष की कैद और मात्र एक-एक लाख रुपया जुर्माने के दंड ने एक बार फिर उसी तरह भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर दिया है जिस तरह भोपाल त्रासदी के बाद के कुछ दिनों में किया  था। इस घटना ने लोगों के मन में एक प्रश्न खडा़ किया है कि इस देश में कोई राज्य है भी? और है तो कैसा है और किन का है?
हले राज्य की बात की जाए, और उस के अपने नागरिकों के प्रति दायित्वों की। इस संदर्भ में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसरवानी की खुद बयानी को देखें -
वर्ष 1981 के दिसंबर महीने में कार्बाइड प्लांट में कार्यरत मोहम्मद अशरफ़ की फ़ास्जीन गैस की वजह से मौत हो गई. मैं चौंक गया। वहां पहले भी दुर्घटनाएं हुई थीं और वहां के मज़दूर और आसपास के लोग प्रभावित हुए थे। मैने एक पत्रकार के नाते इसे पूरी तरह जान लेना ज़रूरी समझा कि आख़िर ऐसा क्या होता है इस प्लांट में।
नौ महीने की जी-तोड़ कोशिशों के नतीजे में साफ़ साफ़ दिखाई दे गया कि यह कारखाना एक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह चल रहा है। सुरक्षा के सारे नियमों की धज्जियां उड़ाता हुआ। किसी दिन यह इस पूरे शहर की मौत का सबब बन सकता है. आख़िर को एमआईसी और फ़ास्जीन दोनों ही हवा से भारी गैस हैं.
19 सितंबर, 1982 को अपने छोटे से साप्ताहिक अख़बार ‘रपट’ में लिखा ‘बचाइए हुज़ूर, इस शहर को बचाइए’। एक अक्तूबर को फिर लिखा ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’।  आठ अक्तूबर तो चेतावनी दी ‘न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे’
जब देखा कोई इस संभावना को गंभीरता से नहीं ले रहा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखा और सर्वोच्च न्यायालय से भी दख़ल देकर लोगों की जान बचाने का आग्रह किया. अफ़सोस, कुछ न हुआ। हुआ तो बस इतना कि विधानसभा में सरकार ने इस ख़तरे को ही झुठला दिया और कार्बाइड को बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्था वाला कारखाना क़रार दिया। फिर हिम्मत जुटाई और 16 जून, 1984 को देश के प्रमुख हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ में फिर यही मुद्दा उठाया। फिर अनदेखी हुई। और फिर एक आधी रात को जब सोते हुए दम घुटने लगा तो जाना मेरी मनहूस आशंका बदनसीबी से सच हो गई है।
राजकुमार केसरवानी की यह खुद बयानी साबित करती है, कि राज्य की मशीनरी, जिस में सरकार, सरकार के वे विभाग जो कारखानों पर निगाह रखते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, न्यायपालिका और कानूनों को लागू कराने वाले अंग, सभी नागरिकों की बहुमूल्य जानों और स्वास्थ्य के प्रति कितने संवेदनशील हैं/थे। किसी को भी लेश मात्र भी नागरिकों की कोई चिंता न थी। एक पत्रकार राजकुमार केसरवानी चिंता में घुला जा रहे था। उस ने अखबारों में रपटें प्रकाशित की थीं। उन रपटों को सरकार के अधिकारियों ने अवश्य पढ़ा होगा, पढ़ा तो यूनियन कार्बाइड के कर्ताधर्ताओं ने भी होगा। लेकिन शायद इस मामले में भी वही हुआ होगा जो आम तौर पर रोजाना होता है। जब भी किसी कारखाने या उद्योग के संबंध में कोई शिकायत सामने आती है। संबंधित अधिकारी उद्योगों के प्रबंधकों को फोन पर संपर्क करते हैं, उन्हें कार्यवाही करने को सचेत करते हैं और कार्यवाही न करने की अपनी कीमत बताते हैं। यह भी हो सकता है कि बात मंत्री स्तर तक भी पहुँची हो। लेकिन नकली जनतंत्र में जहाँ एक विधायक को टिकट प्राप्त करने से ले कर विधान सभा में पहुँचने तक करोड़ों खर्च करने पड़ते हों वहाँ वे भी ऐसे मौके मिल जाने पर अपनी कीमत वसूलने का अवसर नहीं  चूकते। मंत्रियों की तो बात ही कुछ और है। उन की कीमत शायद कुछ अधिक होती है। देश की व्यवस्था इसी तरह चल रही है, और जनतंत्र के मौजूदा ढाँचे में इसी तरह चलती रहेगी।


भोपाल में जिस दिन गैस रिसी उस दिन का हाल जानने के लिए आप हादसे की उस रात भोपाल के पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी की जुबानी जानिए, जिन की उस दिन शहर में अपनी ड्यूटी करने के नतीजे में ज़हरीली गैस से आँखें खराब हो गईं और फेफड़ों की क्षमता 25 प्रतिशत कम हो गई। ......
मुझे याद है कि दो दिसंबर की रात 11 बजे मैं अपने घर पहुँचा और सोने की तैयारी कर रहा था।  करीब 12 बजे बाहर एक गाड़ी आई। सब- इंस्पेक्टर चाहतराम ने बाहर से चिल्लाकर कहा, "सर, यूनियन कार्बाइड की टंकी फूट गई है। शहर में भगदड़ मच गई है"। मैंने टेलीफोन उठाया लेकिन टेलीफोन काम नहीं कर रहा था। इतने में टीआई सुरेन्द्र सिंह भी आ गए और उन्होंने बताया कि शहर में गदर मच रहा है।
मैंने एक जैकेट पहनी और यूनियन कार्बाइड की ओर गाड़ी दौड़ा दी।  मुझे याद आता है, सामने से रजाई-कंबल ओढ़े लोग, खाँसते हुए भाग रहे थे। मैंने महसूस किया कि मैं भी खाँस रहा हूँ। यूनियन कार्बाइड के गेट पर एक काला-सा आदमी था और ऊपर आकाश में गैस जैसा कुछ दिखने लगा था।  उस काले आदमी ने कहा, "सर, सभी लोग टंकी के पास गए हैं"। मैं कारख़ाने के सुरक्षा कार्यालय में गया पर वहाँ कोई नहीं था और तब तक गैस का असर भी बढ़ गया था। मैं कारख़ाने से निकलकर सामने की बस्ती, जेपी नगर गया, बाईं तरफ के भी टोला था. सब ओर भगदड़ मच गई थी। मेरी आँखों में जलन हो रही थी और गला बंद हो गया। हम लोगों ने कलेक्टर को ढूंढ़ना शुरु किया।  कंट्रोल रूम पहुँचा, वहाँ चौहान थे।  कंट्रोल रूम शहर के बीच में था।
भोपाल में वेपर लैंप लग गए थे। मैं कंट्रोल रूम के बाहर भागती भीड़ को रोकने लगा। तभी मेरी निगाह एक युवती पर पड़ी जो रात के कपड़ों में थी।  उसके हाथ में बच्चा था। मैं भीड़ के धक्के में दौड़ा ताकि बच्चे को बचा सकूँ पर भीड़ का रेला ऐसा था कि युवती के हाथ से बच्चा फिसल गया. सुबह छह बजे मैंने उस बच्चे की लाश सड़क पर पड़ी देखी। इस दुर्घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता।
सुबह साढ़े छह बजे कमिश्नर रंजीत सिंह का फोन आया कि रेलवे स्टेशन पर हालात ख़राब हैं।  रेलवे स्टेशन के सामने एक गोल चक्कर बना था।  पुलिस ऑफसर एसएस बिल्ला को देख मैं चिल्लाया कि ये लोग क्यों सो रहे हैं, इन्हें उठाओं। यह कहते हुए उन सारे लोगों के हाथों को मैं खींचने लगा।  बिल्ला ने कहा, "सर ये लाशें हैं।  36 हैं।"
सुबह मुख्यमंत्री के यहाँ एक मिटिंग हुई। अफ़वाह उड़ी थी कि एक टंकी और फूट गई है। फिर क्या था, लोग फिर भागने लगे। नीचे पोलिटेक्निक आया तो भीड़ पुराने भोपाल से नए भोपाल की ओर जा रही थी। मैं ट्रैफिक आईलेंड पर चढ़ गया और माइक पर मैंने लोगों से कहा कि वे घर लौट जाएँ और भीड़ को पुराने भोपाल जाने के लिए मैं ख़ुद उनके साथ चलने लगा।  ऐसी अनेकों घटनाएँ है जो उस रात बीतीं जब मन में असहायता का बोझ महसूस किया।  उस रात और अगले कुछ दिन ऐसे-ऐसे मंजर देखे-महसूस किए जो अब याद नहीं करूँ तो अच्छा है।
स. पी. साहब ने अपना कर्तव्य किया और उस की सजा भी पाई। लेकिन हजारों मनुष्यों का प्राण हर लेने वाला कारखाना उन्हीं के क्षेत्र में चल रहा था। यह जानते हुए भी कि वह कभी भी हजारों की मौत कारण बन सकता है। शायद उसे रोक पाना उन के कर्तव्य में शामिल नहीं था। यह राज्य कैसे अपने ही मालिकों के किसी कृत्य  को नियंत्रित करने का अधिकार कैसे प्रदान कर सकता था? पुलिस का अस्तित्व सिर्फ उन की रक्षा करने भर का जो है।
राज्य की सारी मशीनरी की यही हालत है। पिछले दिनों जब एक गरीब महिला ने उस की संपत्ति छीन लेने की शिकायत अदालत को की तो उस ने कहा कि उस के मामले को पुलिस को न भेजा जाए, क्यों कि वह तो इस में लीपापोती कर इसे बंद कर मुझे ही अपराधी घोषित कर देगी, तो जज की प्रतिक्रिया यह थी कि बात सही है पुलिस तो इस में पैसा ले लेगी और केस बंद कर देगी। उसी राज्य की मशीनरी की एक अंग, सरकार की प्रतिष्ठित जाँच ऐजेंसी सीबीआई कैसे एंडरसन नाम के आका को कैसे जेल में बंद और देश में रोके रख सकती थी।
क न्यायपालिका है जिस के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर दिया गया है। देश में जरूरत के सिर्फ एक चौताई न्यायालय हैं जिन में से 12-13 प्रतिशत में कोई जज नहीं है। वह कैसे देश की जनता को न्याय प्रदान कर सकता है। वह भी साम्राज्यवादियों द्वारा 1860 में निर्मित दंड संहिता के बल पर। उसे सिर्फ उपनिवेश की जनता को शासित करने के लिए निर्मित किया गया था। उस समय ऐसा कृत्य इस उपनिवेश का कोई निवासी कर ही नहीं सकता था। ऐसे कृत्य केवल ईस्ट इंडिया कंपनी कर सकती थी। जिस ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव डाली हो उस के किसी कृत्य को यह संहिता अपराध कैसे घोषित कर सकती थी। हालांकि आजादी के उपरांत इस संहिता में बदलाव हुए हैं।  लेकिन उस की आत्मा साम्राज्यवादी है। जो उन के साथ चले उन के लिए वह सुविधा जनक है।
ह हमारे राज्य का चरित्र है। राज्य का यह चरित्र उन चुनावों के जरिए नहीं बदल सकता जिस में सरपंच का उम्मीदवार एक करोड़ से अधिक खर्च कर रहा हो और उस के इस खर्चे को वसूल करने के लिए देश की सरकार नरेगा जैसी आकर्षक योजना चलाती हो। जनता को सोचना होगा कि इस राज्य के चरित्र को कैसे बदला जा सकता है। इस तरह के हादसे और बढ़ने वाले हैं। ये सदमे उसे इस दिशा में सोचने को हर बार विवश करते रहेंगे।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

खिन्नता यहाँ से उपजती है

दो दिन कुछ काम की अधिकता और कुछ देश की न्याय व्यवस्था से उत्पन्न मन की खिन्नता ने  न केवल अनवरत पर अनुपस्थिति दर्ज कराई, पठन कर्म भी नाम मात्र का हुआ।  मैं भी इस न्याय व्यवस्था का ही एक अंग हूँ। अधिक खिन्नता का कारण भी यही है कि देश की ध्वस्त होती न्याय व्यवस्था का प्रत्यक्षदर्शी गवाह भी हूँ। 
32 वर्ष पहले जिस माह में मुझे वकालत की सनद मिली थी। उसी माह आप के सुपरिचित कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' को अपने एक साथी के साथ बिना किसी कारण नौकरी से हटा दिया गया था। उन्हों ने मुकदमा दायर किया। जो श्रम विभाग में पाँच वर्ष घूमते रहने के उपरांत श्रम न्यायालय को प्रेषित किया गया। इस बीच उन के एक और साथी को नौकरी से हटाया गया। उन का मुकदमा भी उसी वर्ष श्रम न्यायालय में पहुँच गया। 1995 में तीनों व्यक्तियों के मुकदमे अंतिम बहस में लग गए। पाँच जज उस में अंतिम बहस सुन भी चुके। लेकिन हर बार उन के फैसला लिखाने के पहले ही उन का स्थानान्तरण हो जाता है। एक ही मुकदमें में पाँच बार बहस करना वकील के लिए बेगार से कम नहीं। आखिर उसे एक ही काम को पाँच बार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति का अदालत में 26 वर्ष से मुकदमा चल रहा है और पाँच बार बहस करने के उपरांत भी उस का निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं हो सकी। खिन्नता यहाँ से उपजती है।
क मुकदमा आज न्यायालय में एक प्रारंभिक प्रश्न पर बहस के लिए था। जब कि उस मुकदमे को चलते बीस साल हो चुके हैं। आज फिर उस प्रारंभिक प्रश्न को दर किनार कर कुछ नए मुद्दे उठाए गए। कर्मचारी से अदालत ने पूछा कि उस की उम्र कितनी हो गई है? उस का उत्तर था साढ़े अट्ठावन वर्ष। अब नौकरी के डेढ़ वर्ष शेष रह गए हैं। मैं जानता था कि इतने समय में उस मुकदमे का निर्णय नहीं हो सकता। दो-तीन साल में उस के पक्ष में निर्णय हो भी गया तो नौकरी पर तो वह जाने से रहा। कुछ आर्थिक लाभ उसे मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें रोकने के लिए हाईकोर्ट है। मैं ने कल पता किया था कि हाईकोर्ट का क्या हाल है? पता लगा कि वहाँ अभी 1995-96 में दर्ज मुकदमों की सुनवाई चल रही है, अर्थात पंद्रह वर्ष पूर्व के मुकदमे। अब यदि इस कर्मचारी का मुकदमा हाईकोर्ट गया जिस की 99 प्रतिशत संभावना है को उस के जीवन में हो चुका फैसला!
हस के दौरान ही मैं ने कर्मचारी से कहा -बेहतर यह है कि तुम अदालत को हाथ जोड़ लो और कहो कि अदालत उस का मुकदमा उस के जीवन में निर्णीत करने में सक्षम नहीं है। वह इसे चलाएगा तब भी उसे उस का लाभ नहीं मिलेगा। इस लिए वह इसे चलाना नहीं चाहता। अदालत ने कहा कि इस का जल्दी फैसला कर देंगे। चाहे दिन प्रतिदिन सुनवाई क्यों न करनी पड़े। लेकिन ऐसे मुकदमों की संख्या अदालत में लंबित चार हजार में से पचास प्रतिशत से अधिक लगभघ दो हजार है। उन सब की दिन प्रतिदिन सुनवाई हो ही नहीं सकती। 

मैं तीसरा खंबा के लिए लिखी जा रही भारत मे विधि का इतिहास श्रंखला के लिए पढ़ रहा था तो मुझे उल्लेख मिला कि 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के बंगाल का गवर्नर जनरल बनने के समय लगभग ऐसे ही हालात थे। वर्षों तक निर्णय नहीं होने से लोगों की आस्था न्याय पर से उठ गई थी। लोग संपत्ति और अन्य विवादों का हल स्वयं ही शक्ति के आधार पर कर लेते थे। तब राजतंत्र था। आज जनतंत्र है लेकिन शायद हालात उस से भी बदतर हैं। उस समय भी यह समझा जाता था कि आर्थिक कारणों से अधिक अदालतें स्थापित नहीं की जा सकती हैं। लेकिन लॉर्ड हेस्टिंग्स ने उस समय की आवश्यकता को देखते हुए न केवल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की अपितु शीघ्र न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाए। आज देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदतर है, देश के मुख्य न्यायाधीश कह चुके हैं कि देश में 60000 के स्थान पर केवल 16000 न्यायालय हैं। इन की संख्या तुरंत बढ़ा कर 35 हजार करना जरूरी है अन्यथा देश में विद्रोह हो सकता है।
लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ  तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है। जब कि इसी अवधि में महंगाई के कारण रुपए का अवमूल्यन हुआ है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं

मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना  तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है।  इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं। 
धर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है।  निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है। 

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बढ़ सकती है उत्सवों की संख्या

ठ फरवरी को रुचिका छेड़छाड़ मामले के अभियुक्त एसपीएस राठौर पर उत्सव नाम के युवक ने चाकू से हमला किया और उसे घायल कर दिया। बताया गया है कि उत्सव दिमागी तौर पर बीमार है और उस की चिकित्सा चल रही है। रुचिका प्रकरण में बहादुरी और संयम के साथ लड़ रही रुचिका की सहेली आराधना ने कहा है साढ़े उन्नीस साल से हम भी हमेशा कानूनी दायरे में ही काम करते रहे हैं। इसलिए मैं आग्रह करूंगी कि लोग यदि आक्रोशित हैं तो भी कृपया कानून के दायरे में रहें। हमें न्यायपालिका की कार्रवाई का इंतजार करना चाहिए और किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।
राधना इस के सिवा और क्या कह सकती थी? क्या वह शिवसेना प्रमुख के बयानों की तरह यह कहती कि लोगों को राठौर से सड़क पर निपट लेना चाहिए? निश्चित रूप से आज भी जब एक मामूली छेड़छाड़ के प्रकरण में अठारह वर्ष के बाद निर्णय होता है तो कोई विक्षिप्त तो है जो कि संयम तोड़ देता है।
देश की बहुमत जनता अब भी यही चाहती है कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो लोगों को दो ढ़ाई वर्ष में परिणाम मिलने लगें। लेकिन इस दिशा की और बयानों के सिवा और क्या किया जाता है? देश की न्यायपालिका के प्रमुख कहते हैं कि उन्हें अविलंब पैंतीस हजार अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जनता विद्रोह कर देगी।
ज यह काम एक विक्षिप्त ने किया है। न्याय व्यवस्था की यही हालत रही तो इस तरह के विक्षिप्तों की संख्या भविष्य में तेजी से बढ़ती नजर आएगी। स्वयं संसद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार देश में इस समय साठ हजार अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश तुरंत उन की संख्या 35 हजार करने की बात करते हैं। वास्तव में इस समय केवल 16 हजार न्यायालय स्थापित हैं जिन में से 2000 जजों के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। केवल 14 हजार न्यायालयों से देश की 120 करोड़ जनता समय पर न्याय प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकती।अमरीका के न्यायालय सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओँ से युक्त हैं और उन की न्यायदान की गति तेज है। फिर भी वहाँ 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं। यदि अमरीका की जनसंख्या भारत जितनी होती तो वहाँ न्यायालयों की संख्या 133 हजार होती।
धीनस्थ न्यायलयों की स्थापना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, जिन की अधिक न्यायालय स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है।  मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री द्वारा लगातार अनुरोध करने के उपरांत भी राज्यों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। क्या ऐसी अवस्था में यह सोच नहीं बननी चाहिए कि दीवानी और फौजदारी मामलों में न्यायदान की जिम्मेदारी राज्यों से छीन कर केंद्र सरकार को अपने हाथों में ले लेनी चाहिए?

बुधवार, 30 सितंबर 2009

कौन सी काँग्रेस और कौन सी भाजपा?


कल जब अदालत पहुँचने को ही था तो सरकिट हाउस के कोर्नर पर ही पुलिस वाला वाहनों को डायवर्ट करता नजर आया।  आगे भीड़ जमा थी। मैं भीड़ तक पहुँचा तो वहाँ अदालत परिसर में प्रवेश करने वाला गेट बंद था। बाहर वकीलों और जनता का जमाव था। मैं अपनी कार को वहीं घुमा कर, एक चक्कर लगा कर दूसरे गेट तक पहुँचा। वहाँ भी वही आलम था। गेट बंद था, उस पर संघर्ष समिति का बैनर टंगा था और फिर शामियाने के नीचे दरियाँ बिछा कर वकील और हाईकोर्ट बैंच खोले जाने वाले आंदोलन के समर्थक बैठे थे। दोनों गेटों के बीच सड़क पर लोग फैले हुए थे। एक चकरी वाला गेट चालू था उस के सामने नौजवान वकीलों का जमावड़ा था वे किसी वकील, मुंशी और टाइपिस्ट को अंदर परिसर में न जाने दे रहे थे। हाँ न्यायार्थी जरूर अंदर आ जा रहे थे। मैं ने अंदर झाँक कर देखा तो वहाँ सन्नाटा पसरा था। जो लोग अंदर जा रहे थे मिनटों में वापस आ रहे थे। कोई कहता अदालत में न जज है और न रीडर, कोई कहता रीडर ने कार्यसूची पर सब मुकदमों की तारीखें दे रखी हैं। आज अखबारों ने भी खबरें छापी है और चित्र भी।

वकील, मुंशी, टाइपिस्ट सभी सड़कों पर डोल रहे थे या फिर धऱने पर बैठे थे। धरने पर लगातार वकीलों में से कोई या फिर राजनैतिक दलों, या संस्थाओं के प्रतिनिधि लाउडस्पीकर पर आंदोलन के समर्थन में बोले जा रहे थे। तभी काँग्रेस के प्रान्तीय प्रवक्ता माइक पर आए और कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित किए जाने के समर्थन में जोरदार भाषण दिया। कहा कि मांग जायज है, काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है।  मेरा सिर चकरा गया कौन सी काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है वह जिस के वे प्रवक्ता हैं? या फिर वह जिस की राज्य सरकार है,? या फिर वह जो केन्द्र सरकार का नेतृत्व करती है?

कुछ दिन पहले यहीँ, इसी आंदोलन के धरने पर भाजपा के प्रतिनिधि बैठे नारे लगा रहे थे और भाषण देते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन कर रहे थे और हाईकोर्ट बैंच न खोले जाने के लिए काँग्रेस सरकार की आलोचना भी। यह आंदोलन सात वर्ष पुराना है और तब आरंभ हुआ था जब काँग्रेस की सरकार का आखिरी साल बचा था। फिर चुनाव हुआ और सरकार बदल गई। भाजपा सत्ता में आई और पाँच साल बहुत कुछ कर के और न करके चली गई। अब यहाँ बैठी भाजपा न जाने कौन सी थी? वह जिस की पिछले पाँच साल से सरकार थी, या जो चुनाव हार चुकी है? साल भर से फिर काँग्रेस सरकार में बैठी है। पता नहीं क्या परेशानी है जो हाईकोर्ट का विकेन्द्रीकरण करने में उन्हें परेशानी आ रही है। परेशानी बताई भी नहीं जा रही है।

इधर डेढ़ बजा और धरना समाप्त, गेट खोल दिए गए। आधे घंटे बाद अदालत परिसर के अंदर गए। सब कुछ सामान्य होने लगा। पर तब तक मुकदमों की तारीखें बदली जा चुकी थीं। मुवक्किल गायब हो चुके थे और अधिकांश वकील भी। मैं ने अपने मुंशी को तारीखें लाने को कहा जो वह कुछ ही देर में ले आया। दिन का काम हो चुका था। मैं घर की ओर चल दिया। हड़ताल को एक माह हो चुका है। यही आलम पूरे संभाग में फैला पडा़ है। मैं कल्पना कर सकता हूँ कि यही स्थिति बीकानेर और उदयपुर संभागों की होगी वे भी अपने-अपने यहाँ हाईकोर्ट बैंचे खोलने के लिए आंदोलनरत हैं।