@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नव वर्ष
नव वर्ष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नव वर्ष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

भारतीय नव-वर्ष

भारतीय और हिन्दू नववर्ष की बधाइयाँ शुरू हो गयी हैं. सोशल मीडिया पर संस्कृति का गुणगान किया जा रहा है उस पर गर्व प्रकट किया जा रहा है। यूँ तो जब से मोदी जी केन्द्र में प्रधानमंत्री बने हैं शायद ही कोई क्षण बीतता हो जब सोशल मीडिया पर हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न होता हो। उनके समर्थकों को लगता है कि हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न किया गया तो शायद मोदी जी का आधार खिसक जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो उनका क्या होगा?

हिन्दू और भारतीय संस्कृति पर गर्व प्रकट करने और उसका गुणगान करने वालों में से अधिकांश तो जानते ही नहीं कि संस्कृति वास्तव में है क्या? संस्कृति का विषय बहुत गहरा और विस्तृत है। इस समय उस पर विचार करना विषय से भटकना होगा। इसलिए मैं इस आलेख को केवल नव-वर्ष तक सीमित रखना चाहूँगा।
दिनों से मास बनता है और प्राचीन काल में मास की गणना के लिए आसान तरीका यह था कि नए चांद से नए चांद के पहले वाले दिन तक एक माह होगा। यह अक्सर ही 30 दिन का होता है। यूँ नए चांद से नए चांद तक लगभग साढ़े उन्तीस दिन होते हैं। पर आधे दिन की गणना करना मुश्किल होता है। इस कारण मास को तीस दिन का मान लिया गया। बारह मास में कुल 354 दिन होते हैं। इस कारण वर्ष में कुछ माह तीस दिन के होंगे तो कुछ माह उन्तीस दिन के। यही कारण है कि रमजान का महीना कभी 29 दिन और कभी तीस दिनों का होता है। उनतीसवें दिन चांद देख पाने की लालसा सभी रोजेदारों को होती है। लेकिन यदि उस दिन चांद न दिखे तो तीसवें दिन तो उसे दिखना ही है इस कारण तीसवें दिन चांद देखने की लालसा समाप्त हो जाती है। सारी दुनिया में चांद्रमास और 12 चांन्द्रमासों का वर्ष माना जाना सबसे प्राचीन परंपरा है।
लेकिन जब से यह जानकारी हुई कि सूर्य आकाश मंडल में अपने परिभ्रमण मार्ग पर 365 दिन और 6 घंटों में पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाता है तो इस अवधि को सौर वर्ष मान लिया गया। ऋतुओं की गणना इसी रीति से सही बैठती है। लेकिन लगभग 354 दिनों के चांद्र वर्ष और लगभग 365.25 दिनों के सौर वर्ष में दस दिनों का अन्तर है। चान्द्र वर्ष मानने वालों का साल हर बार दस दिन पहले आरंभ हो जाता है। इससे यह विसंगति पैदा होती हैं कि रमजान का मास सारी ऋतुओं में आ जाता है। यही कारण है कि इस्लामी नववर्ष हर ऋतु में आाता है और 36 वर्षों में वापस अपना पुराना स्थान प्राप्त कर लेता है।
लेकिन जो लोग महीनों को ऋतुओं के साथ जोड़ना चाहते थे उन्होंने इसका एक मार्ग खोज निकाला कि वे हर तीन वर्ष में एक चान्द्र मास वर्ष में जोड़ने लगे। इस तरह हर तीसरा वर्ष 13 चांद्रमासों का होने लगा। इस का निर्धारण करने का उन्होंने अपना तरीका निकाल लिया। आकाश मंडल में 360 डिग्री के सूर्य केस यात्रा मार्ग को उन्होंने 30-30 डिग्री के 12 भागों में विभाजित किया। हर भाग को उसमें उपस्थित तारों द्वारा बनी आकृति के आधार पर मेष, वृष आदि राशियों के नाम दिए गए। जब भी सूर्य अपने यात्रा मार्ग पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उस घटना को संक्रांति कहा गया। संक्रांति का नाम जिस राशि में सूर्य प्रवेश कर रहा होता है उस राशि के नाम पर दिया गया। मकर संक्रांति से सभी परिचित हैं जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे हम मकर संक्रांति कहते हैं। बारह राशियों को बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इस तरह हर सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ और तीन वर्ष में 36 संक्रान्तियाँ होती हैं। लेकिन तीन वर्ष में चान्द्र मास 37 हो जाते हैं। तो हमने तय कर लिया कि जिस चांद्रमास में संक्रान्ति न पड़े उसे अतिरिक्त या अधिक मास मान लिया जाए। इस से चांद्र मास ऋतुओं का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाते हैं। हमने देखा कि वर्ष तो 365.25 दिन का ही होता है। फिर चौथाई दिन की गुत्थी शेष रह जाती है। ग्रीगोरियन कलेण्डर वालों ने हर चार वर्ष में एक दिन अतिरिक्त जोड़ कर चौथाई दिन की गुत्थी भी सुलझा ली गयी।

इस विवेचन के बाद हम समझ सकते हैं कि नव वर्ष मनाने का सब से सही तरीका यह होगा कि हर नया वर्ष 365.25 दिनों का हो। यह तभी हो सकता है जब हम चांद्र वर्ष को त्याग कर सौर वर्ष को अपना लें। भारतीय पद्धति से बारह राशियाँ मेष से आरम्भ हो कर मीन पर समाप्त हो जाती हैं। इस तरह नव वर्ष हमें उस दिन मनाना चाहिए जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हो। भारत के पंजाब प्रान्त में इस दिन बैसाखी का पर्व मनाया जाता है। इस तरह बैसाखी पर्व भारतीय नव वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है न कि चैत्र सुदी प्रतिपदा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है तो वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। इस तरह यदि हम संस्कृति के रूप में भी देखें तो चैत्र सुदी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला नववर्ष नहीं अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष भारतीय संस्कृति के अधिक निकट है। यह भी एक संयोग ही है कि बैसाखी के एक दिन पहले 13 अप्रैल को भारतीय चांद्र नववर्ष पड़ रहा है।
आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से आरंभ करते हुए हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने-मानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है। किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामनाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे अगले दिन मनाएंगे। चैत्र सुदी प्रतिपदा को नववर्ष मनाने वालों को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस आशा के साथ कि वे समझें कि भारतीय संस्कृति का त्यौहार चैत्र सुदी प्रतिपदा वाला नववर्ष नहीं, अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष है।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

साहित्य की साधना : निखिल विश्व के साथ ऐकत्व अनुभव करने की साधना

नुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह जिस प्रकार अपने क्रियाकलाप में सामाजिक बना रहता है, उसी प्रकार विकार में भी। उस के इस सामाजिकपन का ही परिणाम है कि वह -
  1. अपने आप को नाना रूपों में अभिव्यक्त करना चाहता है,
  2. अन्य लोगों के करने-धरने में रस लेता है,
  3. अपने इर्द-गिर्द की वास्तविक दुनिया को समझना चाहता है, तथा
  4. कल्पना द्वारा एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने में रस पाता है जो वास्तविक दुनिया  के दोषों से रहित हो। 
ये ही चार मूल मनोभाव हैं जो मनुष्य को साहित्य की तथा अन्य अनेक प्रकार की रचनाओं के लिए उद्योगी बनाए रखते हैं। इस का अर्थ यह हुआ कि मनुष्य के जीवन में ही वे उपादान मौजूद हैं जो उसे साहित्य की सृष्टि के लिए प्रेरित करते हैं; साथ ही इन्हीं मूल मनोभावों का यह परिणाम है कि वह दूसरों की रचना देखने, सुनने और समझने में रस पाता है। वस्तुतः हम ऊपर से कितने ही खंड रूप और ससीम क्यों न हों, भीतर से निखिल जगत के साथ 'एक' हैं। साहित्य हमें प्राणीमात्र के साथ एक प्रकार की आत्मीयता का अनुभव कराता है। वस्तुतः हम अपनी उसी 'एकता' का अनुभव करते हैं।                                                                   -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी  


इसी संदर्भ में गुरुदेव रविन्द्रनाथ कहते हैं-
... मैं जब रुपया कमाना चाहता हूँ तो मेरा रुपया कमाने की नाना भाँति की चेष्टाओं और चिंताओं के भीतर भी एकता वर्तमान रहती है। विचित्र प्रयास के भीतर केवल एक ही लक्ष्य की एकता अर्थकामी को आनन्द देती है। किन्तु यह एक्य अपने उद्देश्य में ही खंडित है, निखिल सृष्टि-लीला से युक्त नहीं है। पैसे का लोभी विश्व को टुकड़े-टुकड़े कर के -झपट्टा मार कर -अपनी धनराशियों को इकट्ठा करता है। लोभी के हाथ में कामना की वह लालटेन होती है जो केवल एक विशेष संकीर्ण स्थान पर अपने समस्त प्रकाश को 'संहत' करती है। बाकी सभी स्थानों से उस का सामंजस्य गहरे अन्धकार के रूप में घनीभूत हो उठता है। अतएव लोभ के इस संकीर्ण ऐक्य के साथ सृष्टि के ऐक्य का, रस-साहित्य, और ललित कला के ऐक्य का संपूर्ण प्रभेद है। निखिल को छिन्न करने से लोभ होता है और निखिल को एक करने से रस होता है। लखपति महाजन रुपए की थैली ले कर 'भेद' की घोषणा करता है, गुलाब 'निखिल' का दूत है, वह 'एक' की वार्ता को ले कर फूटता है। जो 'एक' असीम है, वही गुलाब के नन्हे हृदय को परिपूर्ण कर के विराजता है। कीट्स अपनी कविता में 'निखिल-एक' के साथ एक छोटे से ग्रीक पात्र की एकता की बात बता गए हैं; कह गए हैं कि 'हे नीरव मूर्ति ! तुम हमारे मन को व्याकुल कर के समस्त चिंताओं को बाहर ले जाते हो, जैसा कि असीम ले जाया करता है।' क्यों कि अखंड 'एक' ही मूर्ति, किसी आकार में भी क्यों न रहे, 'असीम' को ही प्रकाशित करती है; इसीलिए अनिर्वचनीय है। मन और वाक्य उस का  कूल-किनारा न पा कर लौट आया करते हैं। [ विश्वभारती पत्रिका चैत्र -1999, पृ.110-111]

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पुनः कहते हैं -
साहित्य की साधना निखिल विश्व के साथ एकत्व अनुभव करने की साधना है, इस से वह किसी अंश में कम नहीं है। जो साहित्य नामधारी वस्तु लोभ और घृणा पर आधारित है, वह साहित्य कहलाने के योग्य नहीं है। वह हमें विशुद्ध आनंद नहीं दे सकता। 
हार, निद्रा, भय आदि मनोभाव समस्त प्राणियों में समान हैं। मनुष्य जब इन की पूर्ति करता रहता है तो वह अपने उस छोटे प्रयोजन में उलझा रहता है जो पशुओं के समान ही है। बहुत प्राचीन काल से पशु-सामान्य प्रवृत्तियों को मनुष्य ने तिरस्कार के साथ देखा है। वह इन तुच्छताओं से ऊपर उठ सका है, यही उस की विशेषता है। जो बातें हमें जिन तुच्छताओं का दास बना देती हैं; या तुच्छताओं को ही मनुष्य का असली रूप बताती हैं, वे मनुष्य के चित्त से उस के महत्व को, उस के वैशिष्ट्य को और उस के वास्तविक रूप को हटा देती हैं। वे लोभ और मोह का पाठ पढ़ाती हैं। साहित्य वे नहीं हो सकतीं, क्यों कि उन की शिक्षा से मनुष्य खंड की साधना करता है, विभेद और तुच्छता को बड़ा समझने लगता है और सारे विश्व के साथ एकत्व की अनुभूति से विरत हो जाता  है।  
...... सभी उद्धरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक साहित्य का साथी से

तो नये वर्ष में हम संकल्प लें,  कि हम मनुष्य हो कर मनुष्यता की ओर बढ़ेंगे, अपनी पशुता को सीमित करेंगे। सारे विश्व के ऐकत्व की ओर अपने कदम बढ़ाएंगे। 

कत्व के इसी नए संकल्प के साथ, नव-वर्ष सभी के लिए मंगलकारी हो!!!

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

चैत्रादि नव-वर्ष पर हार्दिक शुभ कामनाएँ!


चैत्रादि नव-वर्ष विक्रम संवत् 2066 शक संवत् 1931 के नवीन सूर्य को नमन

सभी पाठकों को नव-वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

-दिनेशराय द्विवेदी-
***********************************************

चित्र- जैसलमेर (राजस्थान) का एक सूर्योदय