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मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

साथ, सहारा : तीन दृश्य



दोपहर दो बजे, हम चाय पीकर पान की दुकान पर पहुँचे थे। मैं पान वाले को पान बनाते हुए देख रहा था। पान देतो हुए उस ने हमारे एक साथी को छेड़ा। उधर क्या आँख सेक रहे हैं? पान लो। मैं ने मुड़ कर देखा तो सभी सड़क पर जा रहे एक नौजवान जोड़े की ओर देख रहे थे। नौजवान ने अपनी साथी का हाथ पकड़ा था और दोनों तेजी से चौराहा पार कर उस तरफ जा रहे थे जहाँ उन्हें ऑटो रिक्षा मिल सकता था। उन्हें देखते हुए मेरी नजर एक दूसरे ही दृश्य पर पड़ गई और मैं उसी और निहारता रह गया।

एक पचपन की उम्र की महिला एक पाँच वर्ष के बच्चे का हाथ पकड़े होटल के गेट के बाहर खड़ी थी। शायद बच्चा उसे अंदर ले जाना चाहता था और वह उसे रोक रही थी। बच्चा  जाना चाहता था। फिर वे दोनों होटल की सीमा में प्रवेश कर ओझल हो गए। मैं ,सोचता हुआ उसी ओर शून्य में देखता रहा। तभी एक साथी ने मुझे टोका, -अब वहाँ हवा में क्या देखने लगे?

मैं ने जो देखा था वह उन्हें बताया, और कहा -मैं सोच रहा हूँ कि, सब के सामने होते हुए भी वह दृश्य केवल मैं ही क्यों देख पाया? और क्यों नहीं देख पाए?

तभी वह महिला और बच्चा होटल के बाहर वापस आ गया। शायद बच्चे ने किसी वस्तु को, शायद फूलों को देखा था और उन्हें लेने की जिद कर रहा था। शायद होटल का चौकीदार यह सब समझा और उस ने बच्चे को वह लेने दिया।
मेरे एक साथी ने कहा -जवान स्त्री-पुरुष का सार्वजनिक साथ सब की निगाहों में आता है।
हम ने पान लिए और वापस चल दिए। पीछे देखा तो दो बुजुर्ग वकील होटल से बाहर आ रहे थे, उन में से एक को फालिज़ का शिकार हो जाने से चलने में परेशानी थी, दूसरे उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा दे रहे थे।
मैं ने अपने साथियों को एक यह दृश्य भी दिखाया।
मैं ने उन्हें कहा -इन तीनों दृश्यों में कुछ बातें समान थीं। एक दूसरे के हाथों का पकड़े होना और सहारा या संरक्षण।

आप ऐसे अनेक दृश्य मानव जीवन में ही नहीं जन्तु और पादप, समस्त जीव जगत में, और निर्जीव जगत में भी देख सकते हैं। उन दृश्यों में अनेक समानताएँ भी खोजी जा सकती हैं। पर लोगों की निगाहें केवल कुछ ही चीजों को अधिक क्यों देखती हैं?

शनिवार, 15 नवंबर 2008

शादी के पहले की रात

रोका या टीका, सगाई, लग्न लिखना, भेजना, लग्न झिलाना, विनायक स्थापना, खान से मिट्टी लाना, तेल बिठाना, बासन, मण्डप, निकासी, अगवानी, बरात, द्वाराचार, तोरण, वरमाला, पाणिग्रहण, सप्तपदी, पलकाचार, विदाई, गृह-प्रवेश, मुहँ-दिखाई, जगराता आदि विवाह के मुख्य अंग हैं। इन सभी का अभी तक हाड़ौती में व्यवहार है। इन में बासन के लिए ताऊ रामपुरिया जी और रौशन जी ने सही बताया। वर के यहाँ बारात जाने के और वधू के यहाँ पाणिग्रहण के एक दिन पहले महिलाएं बैण्ड बाजे के साथ सज-धज कर कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के मटका, उस पर एक घड़ा और उस पर ढक्कन सिर पर रख कर लाती हैं। इस तरह के कम से कम पाँच सैट जरूर लाए जाते हैं। जब महिलाएं बासन ले कर घर पहुंचती हैं तो द्वार पर वर या वधू के परिवार के जामाता उन के सिर पर से बासन उतार कर गणपति के कमरे में ला कर रखते हैं और इस के लिए बाकायदे जमाताओं को नेग (कुछ रुपए) दिए जाते हैं।

महिलाएँ बासन लेने चल दीं उस का ज्ञान मुझे सुड़ोकू भरते हुए दूर जाती बैंड की आवाजों से हुई। कोई पौन घंटे बाद वे बासन ले कर लौटी। सुडोकू हल करने में कुछ ही स्थान रिक्त रह गए थे कि साले साहब ने फिर से हाँक लगा दी। हम अखबार वहीं लपेट कर चल दिए। हमें बाकायदा तिलक निकाल कर 101 रुपए और नारियल दिया गया। हम ने अकेले सारे बासन उतारे, और कोई जामाता तब तक विवाह में पहुँचा ही नहीं था। महिलाएँ होटल के अंदर प्रवेश कर गईं थीं, हम बाहर निकल गए। हमें आजादी मिल गई थी। बेतरतीबी से जेब में रखे गए 101 रुपए पर्स के हवाले कर रहे थे कि साले साहब सामने पड़ गए, नोट हाथ में ले कर मजा लिया -मेहन्ताना कम तो नहीं मिला? मैं ने जवाब दिया -वही हिसाब लगा रहा हूँ। छह बासन उतारे हैं एक का बीस रुपया भी नहीं पड़ा कम तो लग रहा है। वे बोले -ये तो एडवांस है। अभी पूरी शादी बाकी है, कसर पूरी कर देंगे। वे हमें पकड़ कर फिर से लंगर में कॉफी पिलाने ले गए।

हम ने अपने एक पुराने क्लर्क को फोन किया था तो कॉफी पीते पीते वह मिलने आ गया। आज कल वह यहीं झालावाड़ में स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है। कहने लगा -उस का काम अच्छा चल रहा है। कुछ पैसा बचा लिया है, मकान के लिए प्लाट देख रहा है। मेरे साथ सीखी अनेक तरकीबें खूब काम आती हैं। अनेक लोगों के पारिवारिक विवाद उस ने उन्हीं तरकीबों से सुलझा दिए हैं। तीन-चार जोड़ियों को आपस में मिला चुका है, घर बस गए हैं पति-पत्नी सुख से रह रहे हैं। यहाँ के वकील पूछते हैं, ये तरकीबें कहाँ से सीखीं? तो मेरा नाम बताता है। कहने लगा -भाई साहब, लोगों के घर बस जाते हैं तो बहुत दुआ देते हैं। वह गया तब महिलाएँ प्रथम तल पर ढोल और बैंड के साथ नृत्य कर रही थीं। बासन लाने के बाद महिलाओं का नृत्य करना परंपरा है। हम भी उस का आनंद ले रहे थे। महिलाओं, खास तौर पर लड़कियों और दो चार साल में ब्याही बहुओं ने इस के लिए खास तैयारी की थी। नाच तब तक चलता रहा जब तक नीचे से भोजन का बुलावा नहीं आ गया। तब तक आठ बज चुके थे। सब ने भोजन किया। वापस लौटे तो मैं ने शहर मिलने जाने को कहा तो हमारी बींदणी बोली हम भी चलते हैं। मैं, पत्नी और दोनों सालियाँ एक संबंधी के घर मिलने चले गए। वहाँ पता चला उन की पत्नी को हाथ में फ्रेक्चर है। लड़की पढ़ रही थी। वे चाय-काफी के लिए मनुहार करते रहे। उन की तकलीफ देख कर हम ने मना किया फिर भी कुछ फल खाने पड़े। रात को बारह बजे वहाँ से लौटे तो होटल में सब मेहमान बातों में लगे थे। हमारे कमरे में महिलाओं के सोने के बाद स्थान नहीं बचा था। मैं हॉल में गया तो वहाँ सभी पुरुष सोये हुए थे, फिर भी स्थान रिक्त था। मैं वहीं एक रजाई ले कर सोने की कोशिश करने लगा। स्थान, बिस्तर और रजाई तीनों ही अपरिचित थे, फिर बीच बीच में कोई आ जाता रोशनी करता किसी से बात करता। पर धीरे-धीरे नींद आ गई। जारी

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी?

कल से ही घर पर हूँ, दीवाली की तैयारियाँ जोरों पर हैं। बिजली वाला बल्ब लगा गया है, कल रात से ही जलने लगे हैं। शोभा (पत्नी) लगातार व्यस्त है पिछले कई दिनों से। बल्कि यूँ कहूँ कि महिनो से। कभी सफाई, कभी पुताई, कभी धुलाई, बच्चों के लिए कपड़े, त्यौहार के लिए मिठाइयाँ और पकवान निर्माण और इन सब के साथ-साथ घर का रोजमर्रा का काम। कितनी ऊर्जा भरी पड़ी है महिलाओं में, मैं दंग रह जाता हूँ। बच्चे आ गए पहले बेटा आया उस ने कुछ कामों में हाथ बंटाया, बाकी समय अपने मित्रों से मिलने में लगा रहा। सब घर जो आए हैं दीवाली पर। बेटी आई तब से कहीं नहीं गई। एक पुराने काम वाले टॉपर को ठीक करने में लगी है दो दिन से बाकी माँ का हाथ बंटा रही है।  उसे वापसी का रिजर्वेशन दो नवम्बर का चाहिए, चार का उस के पास है। तत्काल में हो सकता है। लेकिन रेल्वे की कोई साइट यह नहीं बता रही है किस ट्रेन में कितनी सीटें खाली हैं। कल ही सुबह रिजर्वेशन विण्डो पर सबसे पहले लाइन में लगने के लिए कितने घंटे पहले जाना होगा हम यही कयास लगाने आज जा कर सुबह आठ बजे विण्डो का नजारा करने गए। कुल मिला कर काम उतना ही कठिन जितना हनुमान के लंका जा कर सीता का पता लगाने का था। वे लंका जला आए थे, हम से तो आज लाइटर से गैस भी न जली, माचिस से जलाना पड़ा। कल रिजर्वेशन करा पाएँगे या नहीं मैं तो क्या भगवान भी न बता पाएंगे।

दोपहर भोजनोपरांत कम्प्यूटर पर बैठा ही था कि फोन घनघना उठा। एक पुराने मुवक्किल का था। कहने लगा एक केस ले कर आ रहा हूँ, घर ही मिलना।  मैं सोच रहा था दीवाली के दिन कैसी विपत्ति आन पड़ी? अदालतें भी शुक्रवार के पहले नहीं खुलेंगी। फिर भी  वह सौ किलोमीटर दूर लाखेरी से कोटा आया हुआ है, तो जरूर कोई विपत्ति ही रही होगी, मैं ने आने को हाँ कह दिया। करीब बीस मिनट बाद वह मेरे घर के कार्यालय में था। करीब साठ की उम्र होगी उस की, साथ में एक तीस-पैंतीस की महिला और एक लड़का करीब पच्चीस साल का साथ था। उस ने बताया कि वह उस की बेटी और भान्जा है। फिर वह कथा बताने लगा।

 अठारह साल पहले बेटी का ब्याह किया था तब वह सोलह की थी। अब कोटा में ही अपने पति के साथ रहती है। उस के छह और आठ वर्ष के दो बेटे हैं। पति पेन्टिंग का काम करता है। बेटी ने बताया कि कई साल से वह सिलाई का काम करती है जिस से करीब तीन-चार हजार हर माह कमा लेती है। पति कभी काम पर जाता है कभी नहीं जाता। जितना कमाता है उस का क्या करता है? पता नहीं। तीन बार मकान बनाए तीनों बार बेच दिए। खुद किराए के मकान में रहते रहे। पिछली बार मकान बनाने पर कर्जा रह गय़ा था जिसे पिता जी से चालीस हजार ले कर चुकाया। लेकिन कुछ दिन बाद ही मकान को बेच कर एक प्लाट खरीद लिया और उस पर निर्माण का काम चालू कर दिया। उसने अपना कमाया एक लाख रुपया मकान बनाने में पति को दे दिया। करीब पचास हजार अपने पिता से ला कर और दे दिया। करीब  तीस हजार अपने सिलाई के ग्राहकों से उधार दिलवा दिया।

तीन माह पहले मकान तैयार होते ही वे उस में जा कर रहने लगे। एक कमरा मेरे पास है, एक ससुर के पास।  अब पति कहता है इस मकान से निकल मकान बेचूंगा। दारू पी कर मारता है। पुलिस में शिकायत भी कर चुकी हूँ। मोहल्ले में बदनाम करता है कि मेरी औरत अच्छी और वफादार नहीं है। झगड़ा शुरू हुआ था, घर खर्च से, घर में सारा खर्च मैं डालती हूँ। बच्चों की फीस मैं देती हूँ। एक दिन बच्चों के रिक्शे वाले को किराया देने को कहा तो झगड़ा हुआ और आदमी से मार खाई। उस के बाद से अक्सर हाथ उठा लेता है। ससुर और देवर पति का साथ देते हैं। मुझे सताने को बच्चों को मारने लगता है। वह कहता है मैं मकान बेचूंगा। मैं कहती हूँ कि मकान में दो लाख से ऊपर तो मेरा लगा है। घर मैं चलाती हूँ। तेरा क्या है? कैसे मकान बेचेगा? एक दिन पीहर गई तो मकान के कागज निकाल कर ले गया और अभी अपनी बहिन से मेरे और खुद के नाम नोटिस भिजवाया है कि मकान बहिन का है हम उस में किराएदार हैं। पांच महीने से किराया नहीं दिया है। मकान खाली कर संभला दो नहीं तो मुकदमा करेगी। अभी पुलिस ने समझौते के लिए बुलाया था, नहीं माना। सहायता केन्द्र से बाहर आते ही धमकी दे दी कि मैं तो चाहता था कि तू मुकदमा करे तो मेरा रास्ता खुले। पुलिस वालों ने 498-ए, 406 और 420 आई पी सी में,  घरेलू हिंसा कानून में और मकान में हिस्से के लिए मुकदमे करने को कहा है। मेरे मुवक्किल, उस के पिता ने कहा कि मार-पीट से बचने को उस ने अपने भान्जे को उस के पास रख छोड़ा है।

खैर तुरंत कुछ हो नहीं सकता था। मैं ने पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही के कागज लाने को कहा और अदालत खुलने पर शुक्रवार को आने को कहा। वे चले गए।

ऐन दिवाली के बीच, जब मैं सब को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ, परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि की कामना कर रहा हूँ। वहाँ एक घर टूट रहा है। एक महिला ने अपने पैरों पर खड़े हो कर एक घर बनाया, उसे वह बचाना भी चाहती है। अच्छे खासे पेंटर पति को जो रोज कम से कम दो सौ रुपए, माह में पाँच हजार कमा सकता है। मकान बना कर बेचने और मुनाफा कमाने का ऐसा चस्का लगा है कि उस में उस ने अपने काम को  छोड़ दिया, पत्नी और अपने ससुर का कर्जदार हो गया, लेकिन उस कर्ज को चुकाना नहीं चाहता। चाहता है पत्नी घर चलाती रहे, वह मकान बनाए और बेचे। जल्दी ही करोड़ पति हो जाए। सम्पत्ति उस के पास रहे और पत्नी मार खाती रहे, बच्चे बिना कसूर पिटते रहें। पत्नी और बच्चे ऐसे रहें कि जब चाहो तब उन्हें घर से बाहर धकेल दो। 

खुद्दार, खुदमुख्तार पत्नी अब पिटना नहीं करना चाहती, वह अपने पैरों पर खड़ी है। केवल इतना चाहती है उस का घर बसे। लेकिन पति भी तो सहयोग करे। अभी वे सब एक ही घर में हैं। पर इस शीत-युद्ध के बीच पता नहीं कैसे उन की दीवाली होगी? और छह-आठ वर्ष के बच्चे पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी? और कब तक उन का घर बचा रहेगा?

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप क्या पसंद का मामला नहीं है?

मैं ने लिव-इन के बारे में कानूनी पहलू रखे। लेकिन इस संबंध के लिए एक गंभीर और महत्वपूर्ण सोच की तलाश में था। मैं पढ़ता रहा और पढ़ता रहा। मुझे जो पहला आलेख इस विषय पर गंभीरता के साथ विमर्श करता हुआ लगा, वह भोपाल के एक पत्रकार ब्लॉगर अजय का था। अजय ने यह आलेख अपने मित्रों और सहकर्मियों के साथ लम्बी बहस और इस विषय पर बहुत कुछ पढ़ने के बाद लिखा है। मैं उन के इस आलेख से बहुत प्रभावित हुआ और उन के तर्कों से सहमत भी।
मैं अजय से परिचित नहीं हूँ, लेकिन उन के अंग्रेजी ब्लॉग कैफे चॉट (cafechat) पर जो कुछ उन्हों ने इस संबंध में लिखा है वह बहुत महत्वपूर्ण है।
वे प्रश्न करते हैं कि क्या हम ने वास्तव में इस लिव-इन संबंध को समझते हैं? इस के बाद करीब पन्द्रह प्रश्नों को सामने रखते हुए अंत में कहते हैं कि क्या इस संबंध अर्थ यह है कि यह आवश्यक रूप से शारीरिक संबंधों के साथ आरंभ होता है? और यही वह बात है जो इस शोरगुल के पीछे खड़ी है या कथित विचारकों के जेहन में है। वे कहते हैं कि इस तरह आप विवाहपूर्व और विवाहेतर संबंधों को कानूनी शक्ल दे देंगे। पर क्या इस तरह के संबंध कानूनी शक्ल   दिए बिना भी कानून के अस्तित्व में नहीं है? और क्या इसे कानून की शक्ल दे देने के बाद भी बने नहीं रहेंगे? यदि हम भारत में किए गए सर्वेक्षणों को देखें तो आप के जबड़े घुटनों पर आ जाएंगे।
उन्होंने तथ्य प्रस्तुत करते हुए अनेक प्रश्न सामने रखे हैं।
जैसे ....
क्या गारंटी है कि पुरुष विवाह होने के बाद अपनी संगिनी को धोखा नहीं देगा?
क्या विवाह दो ऐसे व्यक्तियों को जो एक दूसरे के पसीने की गंध से वाकिफ नहीं उन्हें साथ सोने को कह देता है। क्या इसे पसंद का मामला नहीं होना चाहिए।
इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वे विचार करते हैं। यदि आप को इस विषय में रुचि है और अंग्रेजी पढ़ने में आप को कोई परेशानी नहीं है तो आप को यह आलेख अवश्य ही पढ़ना चाहिए।  
आप चाहें तो यहाँ Is It Not A Matter Of Choice? पर जा कर उसे स्वयं पढ़ सकते हैं। हालांकि वे जो लिख रहे हैं यह उस का पहला भाग है। मैं समझता हूँ सभी भाग रोचक, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक होंगे।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।