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रविवार, 9 अगस्त 2009

'धर्मपति' तो विश्व में एक ही है, अन्य कोई भी पुरुष कैसे धर्मपति कहाएगा?

‘नारी’ चिट्ठे पर एक प्रश्न किया गया है कि पुरुष के लिए ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता? वास्तविकता यह है कि शब्दों का निर्माण सदियों में होता है। समाज विकास की विभिन्न अवस्थाओं में शब्दों के उपयोग से उन के अर्थ परिवर्तित होते रहते हैं।  ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग क्यों नहीं होता?  इस प्रश्न का उत्तर इतिहास में नारी की स्थिति से निर्धारित होगा, वर्तमान स्थिति से नहीं। इतिहास में विशेष रुप से सामंती काल में नारी को सम्पत्ति और वस्तु के रूप में ही देखा गया है। उसी के अनुरूप उस के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अर्थ बने हैं। सहोदर या रिश्ते के भाई-बहनों के अतिरिक्त यदि कोई राखी बांध कर भाई या बहन बनते हैं तो वे ‘धर्मभाई’ या ‘धर्मबहन’ कहलाते हैं। यदि ‘धर्मपति’ शब्द को इस अर्थ में देखें तो उस शब्द से क्या अर्थ लिया जाएगा?  इस का आप स्वयं अनुमान कर सकते हैं।

शब्दकोष में एक शब्द है ‘धर्मचारिणी’, जिस का अर्थ है ‘वफादार पत्नी’। एक ही गुरुकुल में एक साथ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए शब्द ‘धर्मभ्राता’ है। एक वैध विवाह के फलस्वरूप उत्पन्न संतान के लिए ‘धर्मज’ शब्द है तो वैध विवाह के अतिरिक्त अन्य संबंध से उत्पन्न संतान को अधर्मज की संज्ञा दी गई है। ‘धर्मपत्नी’ शब्द का प्रयोग ‘वैध रूप से विवाहित पत्नी’ के लिए किया जाता है। यह दूसरी बात है कि एक वैध पत्नी के होते हुए बिना वैध विवाह-विच्छेद के उसे त्याग कर किसी अन्य स्त्री से संबंध बना लेने और समाज में उसे अपनी पत्नी प्रदर्शित करने के लिए ऐसा पुरुष उसे ही ‘धर्मपत्नी’ कहता फिरता है।

इतिहास में कुछ समुदायों में स्त्री को एकाधिक पति रखने की छूट रही है। आज भी कुछ समुदायों में सब सहोदर भाइयों की पत्नी एक ही होती है। लेकिन सद्य इतिहास में एकाधिक पतियों की परंपरा लुप्तप्रायः हो गई और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तो बिलकुल नहीं रही। इस कारण से एक प्रधानपति और अन्य उपपति जैसी स्थिति तो नहीं ही रही है। जिस से केवल उस व्यक्ति को जिस से वैध रूप से विवाह होता है उसे धर्मपति कहने की आवश्यकता हो। महाभारत में अर्जुन द्वारा द्रोपदी को वर लाने पर कुंती के यह कह देने मात्र से कि ‘सब भाई बाँट लो’, द्रोपदी सब भाइयों की साँझा पत्नी हो गई। यह स्थिति बताती है कि भले ही उस काल में स्वयंवर की परंपरा रही होगी लेकिन पत्नी एक वस्तु मात्र थी। उस परिस्थिति में द्रोपदी के लिए केवल अर्जुन ही कथित ‘धर्मपति’ हो सकता था, शेष भाई केवल पति।

भारतीय समाज में 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्व तक पुरुष एकाधिक विवाह कर सकता था और एकाधिक पत्नियाँ रख सकता था। एकाधिक पत्नियों की स्थिति में यह भी होता रहा कि एक विवाहित पत्नी होती थी और अन्य विवाह के बिना रहने वाली पत्नियाँ। ऐसी अवस्था में विवाहित पत्नी को बिना विवाह वाली पत्नियों से पृथक चिन्हित करने की आवश्यकता रही होगी। वहीं धर्मपत्नी शब्द अस्तित्व में आया। इस कारण एकाधिक पत्नियों में ‘धर्मपत्नी’ वह स्त्री है जिस से पुरुष का विधिपूर्वक विवाह हुआ है। लेकिन स्त्री को एकाधिक पति रखने का अधिकार नहीं था। उस का तो एक ही पति हो सकता था। इस कारण से ‘धर्मपति’ शब्द का प्रयोग होना संभव नहीं था। 

इन सब के अतिरिक्त ‘धर्मपति’ शब्द के अप्रयोग का मुख्य कारण कुछ और ही है, जिस से यह शब्द व्यवहार में नहीं आ सका।  ऋग्वेद में 'वरुण' को ऋत का देवता कहा गया है। जिस का अर्थ यह है कि वह विधियों (कानून-नियम, जिस में प्राकृतिक नियम भी सम्मिलित हैं) को स्थापित रखने वाला देवता है। वरुण  इंद्र से भी अधिक पूज्य और आदरणीय रहा है।  यह कहा गया है कि ऋत के कारण ही सूर्य नियम से प्रतिदिन उदय और अस्त होता है। वह  सामुहिक रुप से अर्जित संपत्ति का ठीक से बंटवारा भी करता था। वरुण समाज और प्रकृति में धर्म के आचरण का प्रमुख था। इन कारणों से उसे ‘धर्मपति’ कहा गया जिस का अर्थ था ‘धर्म का अधिष्ठाता।  एक बार वरुण के लिए ‘धर्मपति’ शब्द के रूढ़ हो जाने के कारण किसी साधारण अर्थ में इस शब्द का प्रयोग वैसे भी निषिद्ध हो चुका था। इसी से वरुण के अतिरिक्त किसी भी अर्थ में ‘धर्मपति’ शब्द कभी प्रयोग में नहीं लिया गया। आज जब स्त्रियाँ कानूनी रूप से बराबरी का अधिकार प्राप्त कर चुकी हैं और व्यवहार में इस ओर बढ़ रही हैं तब ‘धर्मपत्नी’ शब्द अपनी अर्थवत्ता खोता जा रहा है। धर्मपत्नी शब्द का प्रयोग न्यून से न्यूनतर होता जा रहा है। कुछ काल के पश्चात हो सकता है यह केवल पुस्तकों में रह जाए और केवल पति और पत्नी शब्दों का प्रचलन ही पर्याप्त हो।