@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: दोहे
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रविवार, 15 अगस्त 2010

चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश

तिरेसठ बरस पहले बर्तानियाई संसद का एक कानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 लागू हुआ, और हम आजाद हो गए। हमारे देश पर अब बर्तानिया का नियंत्रण नहीं रह गया था। लेकिन हम दो देश बन गए थे। एक इंडिया और दूसरा पाकिस्तान। केवल एक गवर्नर जनरल छूट गया था। तकरीबन ढाई बरस में हमने अपना संविधान बना कर लागू किया और उसे भी अलविदा कह दिया। हम अब पूरी तरह आजाद थे। पूरी तरह खुदमुख्तार। हमने देश बनाना शुरू किया और आज तक बना ही रहे हैं। हमने जो कुछ बनाया है हमारे सामने है। महेन्द्र 'नेह' ने इन बारह दोहों में अपने बनाए देश की पड़ताल की है।
प भी गुनगुनाइये ये दोहे .......

महेन्द्र 'नेह' के बारह 'दोहे'
 तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार।।
वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ।
युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ।।


हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत।
गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत।।

अब मजहब की देह से, रिसने लगा मवाद।
इन्सानों के कत्ल का, नाम हुआ जेहाद।।


फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप।
लोक-तंत्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाँप।।

घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान।
नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान।।

फुटपाथों पर चीखता, सिर धुनता है न्याय।
न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय।।

सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय।
काले-धन की वापसी, आखिर कैसे होय।।

जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत। 
वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत।।

कहने को जनतंत्र है, सच में है धन-तंत्र।
आजादी बस नाम की, जन-गण है पर-तंत्र।।
चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश।
वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश।।

चलो चलें फिर से करें, नव-युग का आगाज।
लहू-पसीने से रचें,  शोषण-हीन समाज।।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

सौंदर्य और सार -शिवराम के कुछ दोहे

पिछले दो दिनों से आप अनवरत पर शिवराम की कविताएँ पढ़ रहे हैं। नवम्बर में जब मैं यात्रा पर था तो उन की तीन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। यात्रा से लौटते ही उन की तीनों पुस्तकें मिलीं, उन्हें पढ़ रहा हूँ। शिवराम का बहुत कुछ साथ रह कर सुना पढ़ा है। पर जब वह सब कुछ पुस्तक रूप में सुगठित हो कर आया है तो अहसास हो रहा है कि वे कितने बड़े कवि हैं। वास्तव में पुस्तकबद्ध साहित्य अपनी कुछ और ही छाप छोड़ता है। तीन पुस्तकों में एक "खुद साधो पतवार" उन के दोहों की पुस्तक है। दोहों में एक विशेषता है कि वे संक्षिप्त और स्वतंत्र होते हैं। सारा सौंदर्य और सार चंद शब्दों में व्यक्त होता है। उन के अर्थ के अनेक आयाम होते हैं। यहाँ उन के कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ जो साहित्य के सब से प्राचीन विवाद 'तत्व और रूप' या 'सौन्दर्य और सार' पर अपनी बात कह रहे हैं।  

सौंदर्य और सार
  • शिवराम

दृष्टि जो अटके रूप में, सार तलक नहिं जाय।
सुंदरता के सत्य को, समझ वो कैसे पाय।।


मन, दृष्टि और वस्तु का, द्वंद जो ले आकार।
तब कोई रूप अनूप बन, होता है साकार।।


रूप अनोखा है मगर, सारहीन है सार।
ऐसी थोथी चारुता, आखिर को निस्सार।।


सुंदरता मन में बसे, बसे दृष्टि के माँहि।
असली सुंदर वो छवि, जाकी छवि मन माँहि।।


सुंदरता के मर्म की, क्या बतलाएँ बात।
किसी को दिन सुंदर लगे, किसी को लगती रात।।

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गुरुवार, 9 जुलाई 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ के चंद दोहे

मैं ने आप को अब तक अपने शायर दोस्त पुरुषोत्तम यक़ीन की ग़ज़लें खूब पढ़ाई हैं। आज उन के चंद दोहों का लुत्फ उठाइए .....



दोहे
  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

.1.
वर दे विद्यादायिनी, नहीं रहे अभिमान
मिटा सकें संसार से, उत्पीड़न अपमान


.2.
पूजा सिज्दे व्यर्थ हैं, बेजा है अरदास
हमें ग़ैर के दर्द का, नहीं अगर अहसास


.3.
कैसे सस्ती हो कभी, महँगाई की शान
अपने-अपने मोल का, सब रखते हैं ध्यान


.4.
क्या कैरोसिन, लकड़ियाँ, क्या बिजली क्या गैस
सब के ऊँचे भाव हैं, करो ग़रीबो ऐश


.5.
कैसी ये आज़ादियाँ, क्या अपनों का राज
कितना मुश्किल हो गया, जीवन करना आज


.6.
जब से आई देश में, अपनों की सरकार
बढ़ीं और बेकारियाँ, हुए और लाचार



.7.
कहते हैं बूढ़े-बड़े, आज ठोक कर माथ
व्यर्थ गया अंग्रेज़ से, करना दो-दो हाथ


.8.
किस के सर इल्ज़ाम दें, कहाँ करें फ़र्याद
हम ने ख़ुद ही कर लिया, घर अपना बर्बाद


.9.
मूर्ख करें यदि मूर्खता, उन का क्या है दोष
ज्ञानी दुश्मन ज्ञान के यूँ आता है रोष



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