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मंगलवार, 29 मई 2012

पेट्रोल की साढ़े साती


भारत की जनता को जब जब भी चुनाव से निजात मिलती है, वह अपनी हालत के बारे में सोचने लगती है। जब जनता सोचने लगे तो सरकार के दफ्तर में खतरे का अलार्म बजने लगता है। तभी जरूरी हो जाता है कि उसे फिर से औंधे मुहँ पटका जाए। इस के लिए कुछ अधिक करने की जरूरत नहीं। सरकार पेट्रोल, डीजल या फिर रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है। सेट फारमूला है। कहा ये जाता है कि मजबूरी है। दुनिया भर में खनिज तेल के दाम बढ़ रहे हैं कि कीमतें बढ़ानी पड़ीं। न बढ़ाएँ तो तेल कंपनियाँ औंधे मुहँ गिर जाएँ। फिर कौन तेल खरीदेगा, कौन शोधेगा, कौन उसे गोदामों में पहुँचाएगा और कौन पेट्रोल को पंपों तक, गैस को गैस एजेंसियो तक पहुँचाएगा। सारे वाहन रुक जाएंगे, गति थम जाएगी, गांवों में कैरोसीन नहीं होगा, अंधेरा होगा। लालू की लालटेन नहीं जलेगी, रसोइयों में गैस और केरोसीन नहीं होंगे तो रसोइयाँ रुक जाएंगी। जनता में त्राहि-त्राहि कर उठेगी। कुछ कुछ वैसा ही सीन होगा जैसा पिछले दिनों सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ में देखने को मिला। पिता दक्ष ने सती के पति को यज्ञ का न्यौता नहीं दिया, सती बिना न्यौते गई, तो पति का घोर अपमान देखा, सती आत्मदाह पर उतारू हो गई, उसे किसी ने नहीं रोका, आत्मदाह करना पड़ा। शिव क्रोधित हो कर तांडव नृत्य करने लगे। सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच उठा।  

हुत दिनों से पेट्रोल के दाम बढ़ने की खबर थी। पर कच्चे तेल के दाम गिर गए। सरकार में घबराहट में आ गई।  न आई होती तो कब के बढ़ा चुकी होती। पर रुपए ने रिकार्ड स्तर पर गिर कर सरकार की घबराहट को थाम लिया, दाम बढ़ा दिए। दाम बढ़ने की खबर जंगल में आग की तरह फैली, वाहनों ने पंपों पर कतारें लगा दीं। पेट में जितना समा सकता हो आधी रात तक समा लो, उस के बाद तो बढ़ा हुआ दाम देना ही है। पंपों पर लगी कतारों से सरकार की साँस में साँस आ गई। वह समझ गई, अभी वाहन वालों में बहुत दम है, न होता तो वे पंप के बजाए सरकार की तरफ दौड़ते।  नेतागणों ने नवीन वस्त्र पहने और मेकप करवा कर तैयार हो गए, चालकों को वाहन हमेशा तैयार रहने की हिदायत दे दी गई। टेलीफोन की घंटी बजने का इंतजार होने लगा। कब मीडिया का बुलावा आए और वे कैमरे के  सामने जा कर खड़े हों।

स्टूडियो में बहस चल रही है। विपक्ष कह रहा है -सरकार जनता का तेल निकाल रही है। सरकारी नेता बोला –दाम बढ़ाने में हमारा कोई रोल नहीं। कच्चे तेल के दाम बढ़े, कंपनियों ने पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए। इस में हम क्या कर सकते थे। नीति को विपक्षी जब सरकार में थे तो उन्हों ने तय किया था, हम तो उन का अनुसरण कर रहे हैं। इधर छोटे परदे के दर्शकों को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर गलती सरकार की है या विपक्ष की? बहस के बीच ही तेल के दाम और टैक्सों के गणित की क्लास शुरु हो जाती है। सवाल पूछा जा रहा है -35 का तेल जनता को 75 में, 40 कहाँ गए? लोग सवाल का उत्तर तलाश रहे हैं। जवाब नहीं आ रहा है। दर्शकों को पता है, चालीस कहाँ गए? पर उन से कोई नहीं  पूछता। उन्हें 75 देने हैं तो देने हैं। जनतंत्र है भाई, जनता से पूछने लगे तो कैसे चलेगा?

नतंत्र धन से चलता है, जनता से नहीं। सरकार के पास धन नहीं होगा तो वह कैसे चलेगी? अस्पताल कैसे चलेंगे? मनरेगा कैसे चलेगा? पोषाहार ... वगैरा वगैरा  कैसे चलेंगे? घोटाले कैसे चलेंगे? नेतागण कैसे चलेंगे? नेता न चले तो सरकार कैसे चलेगी? जनतंत्र कैसे चलेगा? पेट्रोल, डीजल, गैस और केरोसीन के बिना जनता कैसे चलेगी? जनता को चलना है तो उसे ये सब खरीदना पड़ेगा, किसी कीमत पर। वह जरूर कोई परम विद्वान रहा होगा जिस ने तेल के साथ सरकार का टैक्स चिपकाया और जनतंत्र चलाने का स्थाई समाधान कर दिया। 35 का तेल, 5 की ढुलाई और डीलर कमीशन, बाकी बचे 35 तो उस से सरकार चलती है, जनतंत्र चलता है।  ये 35 सीधे जनता की जेब से आता है, किसी धनपति की  जेब से नहीं। कोई हिम्मतवाला नहीं, जो कहे कि भारत का जनतंत्र धनपति चलाते हैं, कोई हो भी तो कैसे? भारत का जनतंत्र जनता की जेब से चलता है।

क चैनल बता रहा है चीन की मुद्रा 0.6 प्रतिशत कमजोर हूई और वहाँ 9 मई को पेट्रोल की कीमतें घटाई गईं। पाकिस्तानी रुपया एक साल में 4.5 प्रतिशत कमजोर हुआ, दाम 8.5 प्रतिशत बढ़े, लेकिन अब घटाने की चर्चा है। इस घड़ी में भारत की तुलना उस के शत्रु मुल्कों से करने वाले चैनल को तुरंत देशद्रोही घोषित कर देना चाहिए था। दक्ष ने तो शिव की चर्चा तक पर प्रतिबंध लगा रखा था और उसे चाहने वाली अपनी सब से प्रिय पुत्री तक को त्याग दिया था। इस चैनल ने इतना भी ध्यान न रखा कि भारत दुनिया का सब से बड़ा जनतंत्र है जब कि इन शत्रु देशों में जनतंत्र का नामलेवा तक नहीं। इन से भारत की तुलना करना अब तक अपराध क्यों नहीं।  लेकिन भारत सरकार रहम दिल है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से तुलना पर भी इस चैनल पर प्रतिबंध नहीं लगा कर उस ने फिर से साबित कर दिया कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं।

क्ष को अनुमान नहीं था कि शिव तांडव करेंगे, दुनिया पर कहर ढा देंगे। उसे कुछ-कुछ अनुमान रहा भी हो तो उसे दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। वैसे ही जैसे नेताओं को जनता से। उस ने दुनिया की नहीं, खुद की सुरक्षा देखी, पालनहार विष्णु का भरोसा किया।  दक्ष का अहंकारी मस्तक धड़ से अलग हो यज्ञकुंड में गिरा और फटाफट भस्म हो गया। पालनहार कुछ नहीं कर पाए, शिव से गुहार लगाई, महादेव¡ कुछ करो, वरना दुनिया कैसे चलेगी? दक्ष को बकरे का सिर मिला, वह फिर से मिमियाने लगा।

नतंत्र में किसी का सिर तो नहीं काटा जा सकता न? सरे आम आग्नेयास्त्रों से कत्लेआम करने वाले कसाब तक का नहीं। उसे भी सुनवाई का, अपील का और दयायाचिका का अवसर देना पड़ता है, जनतंत्र जो है। फिर सरकार तो सरकार है, पाँच बरस के लिए चुन कर आती है, उस से पहले उस का कोई क्या बिगाड़ सकता है?  दिल्ली की सड़कों को तिरंगों से पाट कर भी अन्ना ने क्या बिगाड़ लिया? हो तो वही रहा है न, जो सरकार चाह रही है। इसलिए जो होना है वह पाँच बरस पूरे होने पर ही, उस के पहले कुछ भी नहीं।

चैनलों और अखबारों ने दो दिन सरकार को खूब आड़े हाथों लिया। फिर कहने लगे -सब से बड़े जनतंत्र की सरकार ऐसी वैसी नहीं हो सकती। उसे रहमदिल होना चाहिए, वह है भी। शनि की तरह बेरहम नहीं कि एक बार साढ़े साती चढ़ जाए तो साढ़े सात से पहले उतरें ही नहीं। उस का रहम से भरपूर दिल सोच रहा है, क्यों न औंधे मुहँ पड़ी जनता को सीधा कर दिया जाए, कुछ फर्स्ट एड दी जाए। साढ़े साती को ढैया से नहीं बदला जाए तो कम से कम एक ढैया तो कम कर ही दी जाए। हो सकता है सरकार को दो साल बाद का मंजर सताने लगे, जैसे कभी कभी शनि को लंका का कैदखाना याद हो आता है। लेकिन अखबारों, चैनलों का यह प्रयास भी व्यर्थ हो गया। सरकार का बयान आया कि वह बढ़ाई गई कीमतें कम नहीं कर सकती। शायद दो बरस का समय बहुत लंबा होता है और जनता को इतने समय तक  कहाँ कुछ याद रहता है?

शुक्रवार, 25 मई 2012

थमा हुआ इंकलाब


 विचित्र दृश्य हैं।  रुपया गिर रहा है, लगातार गिर रहा है।  कब तक गिरेगा? किसी को पता नहीं है। प्रणब दा कहते हैं कि उधर यूरोप में किसी देश में जबर्दस्त आर्थिक संकट चल रहा है, उसे देख कर रुपया गिर रहा है। रुपया रुपया न हुआ कोई लड़की हो गई जो किसी लड़के को आते देख कर गिर जाए और इंतजार करे कि वह आएगा और उसे उठा लेगा।

सोना चढ़ रहा था कि रुपए की गिरावट को देख अचानक गिरा और लगातार तीन दिनों तक गिरा। लोगों ने सोचा डालर बेचो, रुपया खूब मिलेगा। मिले रुपए से सोना खरीद लो। लोग सोना खरीदने बाजार तक पहुँच भी न सके थे कि सोना एकदम चढ़ा और वापस अटारी पर जा पहुँचा।

चपन में मैं सोचता था कि जीव जंतु ही चढ़ते उतरते हैं। जैसे गिलहरी, तपाक से पेड़ पर चढ़ जाती है, उस का मन हुआ और उतर गई। फिर अखबार पढ़ने लगे तो पता लगा कि दूसरी चीजें भी चढ़ती उतरती हैं। किसी दिन तेल चढ़ता है तो किसी दिन मिर्च चढ़ जाती है। चीनी, तिलहन, दलहन, अनाज वगैरा सभी चढ़ते उतरते हैं। इस चढ़ने उतरने में सब से ज्यादा दुर्गति तिलहन,दलहन, अनाज और मसालों की होती है। जब जब फसल आती है ये गिर पड़ते हैं जैसे ही फसल मंडी से उठ कर गोदामों में पहुँचती है वे चढ़ने लगते हैं। लेकिन फसल आने के ठीक पहले फिर से गिर पड़ते हैं।

किसान सोचता है पिछले साल प्याज में अच्छी कमाई हुई थी। इतना चढ़ा, इतना चढ़ा कि सरकार तक बदल गई थी। वह सोचता है इस साल गेहूँ करने के बजाये प्याज करो। इतना प्याज कर डालता है कि प्याज जमीन पर आ जाता है। कोई खरीदने वाला नहीं मिलता। पिछले साल लहसुन ने चढ़ने में बाजी मार ली। लोगों ने प्याज को छोड़ा लहसुन कर डाला। अब लहसुन इतना हुआ कि रखने को जगह नहीं बची। बिचारा गिरने लगा तो हाल यह हो गया कि मंडी में दो रुपए किलो में कोई लेने वाला नहीं रहा। उधर अखबार में खबर पढ़ कर गृहणियाँ सोचने लगीं। कल वे जरूर दस किलो लहसुन ले कर घर में डाल लेंगी। पर जब सब्जी वाला आया तो दस रुपए किलो का भाव बोल रहा था। उस से बहस की तो कहने लगा साहब मंडी में दो रुपए किलो ही बिकता है, पर पूरा ट्रेक्टर खरीदना पड़ता है। वह न तो मैं खरीद सकता हूँ और न आप खरीद सकते हैं। हमें तो पाँच रुपए किलो खरीदना पड़ता है माशाखोर से। फिर उस में से अच्छा अच्छा छाँट कर आप के लिए लाते हैं उस में भी आप छाँट लेती हैं। अब दस रुपए किलो से कम में कैसे बेच सकते हैं।? श्रीमती जी लहसुन खरीदने के लिए बोरा लेकर गई थीं। प्लास्टिक की थैली में दो किलो लेकर घर में लौटीं।

स साल बरसात अच्छी हुई थी। खरीफ की फसल भी अच्छी हुई। फिर रबी की फसल पकी तो लगा कि धरती पर सोना ही सोना उग आया है।  दस-बीस साल पहले सोना उगता था तो पहले कटता था। फिर बैलों के पैरों तले रोंदा जाता था। फिर हवा में बरसाया जाता था तब गेहूँ का दाना तैयार होता था। पूरा महिने दो महिने यह चलता रहता था। अब वो सब नहीं होता। पंजाब के लोग कम्बाइन ले कर आते हैं हैं और एक दो सप्ताह में ही खेत के खेत काट कर गेहूँ निकाल कर चल देते हैं। कुछ ही दिनों में सारा सोना सिमट जाता है। किसान के पास सोना रखने की जगह नहीं। वह ट्रेक्टर ट्राली पर सोना लाद कर चलता है मंडी की और रुपया खरीदने। जिस से उसे बेटी-बेटे ब्याहने हैं, बैंक-साहूकार के कर्जे उतारने हैं। बच जाए तो छप्पर ठीक कराना है, फिर बच्चे पढ़ाने हैं.. आदि आदि।

मंडी अनाज से भरी है, मंडी के बाहर किलोमीटरों तक सड़कें सोने से भरी ट्रालियों से पट गई हैं, जाम लग गया है। व्यापारी के पास इतना पैसा ही नहीं कि खरीद ले। किसान के सोने का दाम गिरने लगता है। सरकार ने निर्धारित मूल्य पर खरीद का इंतजाम किया है। लेकिन कारकून कम हैं वे एकदम नहीं खरीद सकते उन्हें तौलना पड़ेगा, फिर बोरों में भरना पड़ेगा। किसानों को सड़क पर ट्रेक्टर लिए पड़े दो चार दिन हो गए हैं। जितना गेहूँ खरीदा जाता है उस से ज्यादा फिर आ जाता है। सरकारी खरीद केंद्र के कारकूनों के चेहरे खिल उठे हैं। सरकारी खरीद में दाम तो ऊँचे नीचे नहीं हो सकते लेकिन वे किसी का तुरन्त खरीद सकते हैं किसी को कुछ दिनों का इंतजार करा सकते हैं। वे किसानों से मोल भाव कर रहे हैं। गेहूँ बेचना है? एक ट्रॉली पर हमें कितना दोगे? दाम लगने लगे हैं। एक ट्रॉली पर हजार, दो हजार, तीन हजार, साढ़े तीन हजार ... किसान हिसाब लगा रहे हैं कि तीन दिन रुकेंगे तो कितना खर्चा होगा? कारकून को ले-दे कर तुलवा देंगे तो कितना नुकसान होगा? आखिर कारकून का भाव दो हजार तय होता है। दो दिन गेहूँ तुलता है। तीसरे दिन खबर आती है कि बोरे खत्म हो रहे हैं, उन के आने तक इंतजार करना पड़ेगा। कारकूनों का भाव दो हजार से तीन हजार हो जाता है।

लाल-पीले झंडे वाले आते हैं, बोलते हैं। बोरे ऐसे नहीं आएंगे, कलेक्ट्री पर जा कर इंकलाब जिन्दाबाद करना पड़ेगा। इधर राजस्थान में कलेक्ट्रियों पर दुरंगा इंकलाब हो रहा है तो मध्यप्रदेश की कलेक्ट्रियों पर तिरंगा इंकलाब हो रहा है। कलेक्टर बताता है कि वे बारदाने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिना बोरों के भी गेहूँ खरीदा जाएगा। दुरंगा-तिरंगा इंकलाब थम जाता है। किसान वापस मंडी की तरफ लौटने लगते हैं। उधर डालर हँस रहा है।

देश के वित्तमंत्री बूढ़े हो चले हैं, थक गए हैं, कह रहे हैं अगली बार चुनाव नहीं लडेंगे। उन से पूछा जाता है कि राष्ट्रपति का चुनाव तो लड़ सकते हैं? वे जवाब नहीं देते, मुस्कुरा भर देते हैं।

शनिवार, 29 जनवरी 2011

खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?

चमुच परिस्थितियाँ बहुत विकट हैं। परसों इसी ब्लाग पर मैं ने लिखा था सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है। लेकिन इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निराशा अधिक दिखाई देती थी। भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने  कहा -  ईमानदारी! भ्रष्टाचार! बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन? ऊपर से प्रारम्भ होता है किसी भी चीज का, ऊपर ठीक तो नीचे खुद-ब-खुद ठीक..Blogger satyendra...ने कहा -अब हजार-दो हजार रुपये महीने में मिलावटखोरों के लिए काम करने वाले कर्मचारी पकड़े जाएंगे और कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी।Blogger  Blogger Abhishek Ojha का कहना था - ...जनता ऐसी शहादतों को भुलाने में बहुत वक्त नहीं लगाती।  ललित शर्मा जी का कहना भी कुछ भिन्न नहीं था - राजनेताओं के हाथ माफ़िया की डोरी है। भ्रष्टाचार का पेड़ उल्टा है, जिसकी जड़ें आसमान में हैं। शाखाएं जमीन पर। इस महारोग का इलाज असंभव है।  Raviratlami जी तो पेट्रोल की मिलावट के भुक्तभोगी निकले - मेरे नए वाहन के इंजिन का हेड जिसकी गारंटी अवधि (गनीमत) अभी खत्म भी नहीं हुई थी, मिलावटी पेट्रोल की वजह से ब्लॉक हो गया था... आमतौर पर पेट्रोल में हर जगह भयंकर रूप से मिलावट होती है। अपवाद स्वरूप ही किसी पेट्रोलपंप में शुद्ध पेट्रोल मिलता होगा। जाहिर है, अफ़सरों से लेकर नेताओं तक सभी का मिला-जुला कारनामा होता है यह। मुझे नहीं लगता कि सोनवणे की शहादत से बाल बराबर भी कोई फ़र्क़ कहीं आएगा... Blogger महेन्द्र मिश्र  का कहना था - निसंदेह दुखद वाकया है ... इस तरह की घटनाओं से व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है। Blogger cmpershad जी का सोचना भी कुछ भिन्न नहीं था - सत्येंद्र दुबे..... सोनवाने.... ना जाते कितने गए इस ईमानदारी की घुट्टी के कारण :( परिणाम तो वही ढाक के तीन पात।
ब से तीव्र प्रतिक्रिया सुरेश चिपलूनकर  जी की थी। मेरे महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारियों के बारे में यह कहने पर कि उन में अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं...  उन्हों ने एक लंबा ठहाका चस्पा किया, फिर लिखा - हा हा हा, सर जी… मुझे नहीं पता था कि आप इतना बढ़िया "हास्य-व्यंग्य" भी लिख लेते हैं… :) फिर मेरे यह कहने पर कि ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे…"  उन का कहना था कि - यह "सपना" मैं भी देखता हूँ, आप भी देखिये… :)
सुरेश जी की टिप्पणी पर मैं ने प्रतिटिप्पणी की - भ्रष्टाचार को समाप्त करने या नियंत्रित करने के प्रश्न पर अधिकतर टिप्पणीकर्ताओं की राय निराशावादी है। यानी कि वे मानते हैं कि यह वह फोड़ा है जो ठीक नहीं हो सकता, कैंसर ही सही। कैंसर अभी तक लाइलाज है। लेकिन उस की चिकित्सा किए जाने के प्रयास छोड़ नहीं दिए गए हैं। चिकित्सक और शोधकर्ता लगातार उस ओर प्रयासरत हैं। मुझे विश्वास है कि उस की चिकित्सा कभी न कभी संभव हो जाएगी।
चिपलूनकर जी इसे मजाक, व्यंग्य या हास्य समझते हैं कि अधिकांश कर्मचारी ईमानदार हैं। लेकिन यह ठोस हकीकत है। सब लोग कभी बेईमान नहीं हो सकते। एक समूह की केवल अल्पसंख्या ही बेईमान हो सकती है, अधिसंख्या नहीं।
बेईमान व्यक्ति भी हर व्यवहार में बेईमान नहीं होता, न हो सकता है।
ईमानदारी मनुष्य का मूल गुण है, बेईमानी नहीं। इस कारण बेईमान से बेईमान व्यक्ति में भी ईमानदारी का गुण मौजूद रहता है। जरूरत तो इस बात की है कि लोगों के अंदर छिपे ईमानदारी के उस गुण को उभारा जाए। बेईमानी को हतोत्साहित किया जाए। यह समूह ही कर सकता है। जब लोग बेईमानी के विरुद्ध उद्वेलित हों तो वे सामूहिक रूप से इस तरह के निर्णय ले सकते हैं। यदि समूह के नेतृत्व में इच्छा हो तो वह इसे अभियान के रूप में ले सकता है।
इसे अभी मजाक, व्यंग्य या हास्य समझा जा सकता है। लेकिन वह दिन तो अवश्य आना है जब यही जनसमूह ऐसे निर्णय करेगा। इतिहास और मिथक ऐसी घटनाओं और कहानियों से भरा पड़ा है। जनता जब करने की ठान लेती है तो कर गुजरती है। मुझे तो जनता की शक्ति पर अटूट विश्वास है। बस देर इस बात की है कि स्वयं जनता उस शक्ति को कब और कैसे पहचानती है।
स पर चिपलूनकर जी ने पुनः टिप्पणी करते हुए लिखा - यह निराशावादी नहीं बल्कि "यथार्थवादी" विचार हैं…। आपने स्वयं स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार अब "कैंसर" बन चुका है तब सरकारी कर्मचारियों में "अधिकांश"(?) कैसे ईमानदार रह सकते हैं? कैंसर का इलाज क्रोसिन से होने वाला नहीं है, इसके लिये एक बड़े और दर्दनाक ऑपरेशन की जरुरत है… वरना सोनवणे, सत्येन्द्र दुबे, मंजूनाथ जैसे अधिकारी मारे ही जाते रहेंगे…। जनता तो जागने से रही, फ़िलहाल सरकारी कर्मचारी भी इसलिये "जागे"(?) हैं कि उनका साथी मारा गया है, कुछ दिन बीतने दीजिये सारा उबाल ठण्डा पड़ जायेगा… पिछले 15 साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-NCP की सरकार है, मालेगाँव में राष्ट्रीय जाँच एजेंसियों का "आना-जाना" लगा ही रहता है… क्या सब के सब अंधे-बहरे हैं? कौन नहीं जानता कि कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या हो रहा है… यही यथार्थ है, निराशावाद नहीं…  और जिस "जनता" से आप आशा लगाये बैठे हैं, उसे जानबूझकर महंगाई के कुचक्र में ऐसा फ़ँसा दिया गया है, कि उसके पास दो जून की रोटी के बारे में सोचने के अलावा कुछ अन्य सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं है…
संयोग से कल मैं चिपलूनकर जी के नगर के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी के सानिध्य में था। मैं ने उन से भी यही प्रश्न पूछा कि सरकारी कर्मचारियों में कितने ईमानदार होंगे? उन का दृष्टिकोण चिपलूनकर जी से बहुत अधिक भिन्न नहीं था। जब मैं ने उन से जिन विभागों में वे रहे उन के बारे में एक-एक कर पूछना आरंभ किया तो उन का कहना था कि ऊपर के अफसरों से ले कर निचले अफसरों तक में मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ईमानदार होंगे। लेकिन जब क्लर्कों, चपरासियों और अन्य कर्मचारियों के संबंध में बात की गई और हिसाब लगाया तो पता लगा कि उन में से अधिकांश ईमानदार हैं। फिर मैं ने उन से किसी भी विभाग के सभी कर्मचारियों और अफसरों की संख्या में ईमानदार लोगों के बारे में हिसाब लगाने को कहा तो उन्हें मानना पड़ा कि सरकारी कर्मचारियों में अभी भी आधे से अधिक ईमानदार हैं। 
वास्तव में होता यह है कि हम जब भी सरकारी कर्मचारियों के बारे में बात करते हैं तो उन के बारे में बात करते हैं जिन से हमारा काम पड़ता है। वहाँ हमें अधिकांश लोग बेईमान दिखाई पड़ते हैं। इस से हमारी यह धारणा बनती है कि अधिसंख्य सरकारी कर्मचारी बेईमान हैं। लेकिन यह यथार्थ नहीं है। यदि हम यह मान लें कि सारा सरकारी अमला बेईमान है तो फिर देश में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं जिसे किसी सरकारी कार्यालय से कभी काम न पड़ा हो। फिर तो जरूर उस ने कभी न कभी अपना काम कराने के लिए कर्मचारी को पैसा दिया होगा।  इस तरह काम कराने के लिए पैसा देना भी तो बेईमानी और भ्रष्टाचार है। इस तरह तो भारत की सम्पूर्ण आबादी बेईमान है। भारत बेईमानों का देश है। इस से निजात एक ही रीति से संभव है कि भारत की तमाम आबादी नष्ट हो जाए। फिर नए सिरे से ईमानदार लोग पैदा हों। नई सृष्टि की रचना हो। यानी प्रलय और पुनः सृजन। यह तो अनीश्वरवादी सांख्य का दृष्टिकोण है जो चिपलूनकर जी के माध्यम  से निसृत हुआ है। 
सा भी नहीं था कि इस पोस्ट पर सारे ही स्वर निराशावादी हों, कुछ स्वर ऐसे भी थे जिन में आशा झलकती थी। Blogger प्रवीण पाण्डेय का कहना था -यही समय है, कमर कसने के लिये। Udan Tashtari वाले समीरलाल जी का कह रहे थे - हद हो चुकी है अब!Blogger राज भाटिय़ा  कहना था -ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं।जी आप की इस बात से मै शत प्रति शत सहमत हुं, ओर जिस दिन इस जनता मे एक जुटता आ गई उस दिन इन नेताओ को भागना भी कठिन होगा, ओर यह दिन अब दुर नहीDeleteBlogger Rangnath Singh ने कहा - दुष्यंत के शब्दों में कहें तो, हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए..Blogger निर्मला कपिला जी  का कहना था कि, - 'ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए।' निश्चित रूप से यही विकल्प बचा है लेकिन क्या आम आदमी इस रोग से अछूता है? आखिर हम जैसे लोग भी तो इसमे लिप्त हैं। फिर भी अगर चन्द बचे हुये ईमानदार कोशिश करें तो जरूर सुधार हो सकता है।Blogger रमेश कुमार जैन ने कहा -आपके पोस्ट और टिप्पणियों में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ।  मगर कई अन्य लेखकों के विचार भी तर्क पूर्ण है. उनके तर्कों नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 
जैसा भी समाज और राज्य व्यवस्था मौजूदा समय में है, निश्चित रूप से वह ठीक नहीं। मनुष्य जीवन बहुत बदसूरत हो चला है। उसे यदि ठीक करना है और एक नई खूबसूरत दुनिया बनानी है तो जो कुछ है और जहाँ है उसी से आरंभ करना होगा। कुछ लोगों ने यह भी सही कहा कि सब कुछ ऊपर से चल रहा है, वहीं से दुरुस्त हो सकता है। लेकिन हम तो सब से नीचे बैठे हैं, उसे दुरुस्त कैसे करें?  तो भाई ऊपर चलना होगा। कुतुब की मरम्मत करनी है, ऊपर की मंजिल से आरंभ करनी है। हम नीचे खड़े हैं, ऊपर जाना है। पहले सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर तक पहुँचना होगा। फिर उस के लिए आरंभ नीचे से ही करना होगा। कुतुब की पहली सीढ़ी नीचे ही है जिस पर हम पैर रख कर ऊपर चढ़ेंगे। निश्चित रूप से हमें खुद से, अपने आसपास से आरंभ करना होगा। हम जहाँ हैं वहाँ से इस का आरंभ कर सकते हैं। यह आरंभ कैसे करें? यह मैं बताउंगा तो आप उसे मानेंगे नहीं, और उसे स्वीकार भी नहीं करेंगे, इसलिए नहीं बताउंगा। आप खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?
 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है

तिरिक्त कलेक्टर यशवंत सोनवणे को तेल माफिया द्वारा जिंदा जलाकर मारने के विरोध में महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारी आज हड़ताल पर रहे। कर्मचारियों के इस दबाव में महाराष्ट्र सरकार को मजबूर कर दिया कि वह तेल माफिया के खिलाफ दिखाई देने वाली कार्यवाही करे। आज ही महाराष्ट्र में करीब 200 जगहों पर तेल में मिलावट करने वालों पर छापा डाला गया है। और इस कार्रवाई में अब तक 180 लोगों को गिरफ्तार करने की सूचना है। पुलिस ने इस हत्याकांड के 11 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन महाराष्ट्र में यह आम चर्चा है कि तेल माफियाओं की कमान प्रदेश के राजनेताओं के हाथों में है, कहीं कहीं दबी जुबान से इस बात को मीडिया ने भी कहा है।उधर नई दिल्ली में भी केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने आपात बैठक बुलाई है जिस में तेल कंपनियों के अधिकारी और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भाग ले रहे हैं। इस बैठक का दिखता हुआ  उद्देश्य देश भर में पेट्रोल में चल रहे मिलावट के गोरखधंधे पर लगाम लगाने के लिए योजना बनाना है।
प्रश्न सामने हैं कि महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय यह सब कार्यवाही करने के लिए अब तक क्या यशवंत सोनवणे की हत्या किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था? यह सब कार्यवाही पहले क्यों नहीं की जा सकती थी? क्या ये सब कार्यवाहियाँ लगातार नहीं चलती रहनी चाहिए थीं? वास्तविकता यह है कि यशवंत सोनवणे की हत्या से महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये सब उसी मशीनरी के हिस्से हैं जो इस माफिया को पनपाता है। इस व्यापार में इन सब की भी कहीं न कहीं भागीदारी है। फिर भी महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कार्यवाही इसलिए करनी पड़ रही है कि इस घटना ने महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों, तेल उपभोक्ताओं और आम जनता को उद्वेलित किया है। उद्वेलित जनता कुछ भी कर सकती है। उसी के भय से इन्हें यह सब करना पड़ रहा है। हमारा अनुभव है कि समय गुजरने के साथ ये सब कार्यवाहियाँ दिखावा या आत्मरक्षा के लिए की गई फौरी कार्यवाहियाँ साबित होती हैं।
न 18 लाख सरकारी कर्मचारियों में, जो आज हड़ताल पर रहे हैं अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं  और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं या फिर कुछ कमी हो तो उस के लिए नौकरी के बाद कुछ न कुछ काम करते हैं। वे श्रमजीवी हैं, वे ही हैं जो सारी मार झेलते हैं, चाहे वह महंगाई हो, या फिर मिलावट कर के फैलाया जा रहा ज़हर हो। ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं। कमी है तो इस बात की है कि उन्हें अपनी इस शक्ति का बोध नहीं है। उस के इस्तेमाल के लिए वे उस तरह से संगठित भी नहीं हैं जैसे उन्हें होना चाहिए था। यह ही वह शक्ति है जो केवल दिनों में नहीं घंटों में भ्रष्टाचार से निपट सकती है, उसे क़ब्र में दफ़्न कर सकती है। केवल एक चेतना और एक साथ कार्यवाही करने की क्षमता इन में उत्पन्न हो जाए तो यह बात कोई स्वप्न नहीं है, यह हो सकता है और एक दिन हो कर रहेगा। ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए। निश्चित रूप से महंगाई, भ्रष्टाचार, मिलावट के ज़हर से सताई हुई जनता भी इन्हीं के साथ खड़ी होगी। यह वक्त है जब वे यह संकल्प कर सकते हैं और उस पर चल सकते हैं। यही वह रास्ता है जिस से यशवंत सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है।