@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: तानाशाही
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

नोटबंदी की काली छाहँ में



विवाह के समय मेरी उम्र 19 साल साढ़े आठ महीने थी। मैं बीएससी अन्तिम वर्ष की परीक्षा दे चुका था। विवाह से 37 दिन बाद ही आपातकाल आरंभ हो गया। मैं तब एक्टिविस्ट था। जल्दी ही समझ में आ गया कि यह कोई सामाजिक क्रान्ति न हो कर तानाशाही थी। इन्दिरागांधी का 20 सूत्री कार्यक्रम आ चुका था जो तानाशाही पर पर्दा डालने की कार्यवाही थी। इस में परिवार नियोजन भी एक सूत्र था। परिवार नियोजन एक अच्छा प्रगतिशील सामाजिक कार्यक्रम था जिसे माहौल बना कर लोगों को प्रेरित कर प्रभावी बनाना था। पर तानाशाही में तो प्रेरणा का मतलब डंडा होता है। इस कारण से वैसे ही परिवार नियोजन भी लागू हुआ। बड़े बड़े कैम्प लगते, हर सरकारी कर्मचारी का कोटा होता कि वह कितने लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर नसबंदी के लिए लाएगा। पुलिस इस काम में सहयोग करती। हुआ ये कि लोगों को पकड़ पकड़ कर नसबंदी की जाने लगी। जब प्रेरक लोग प्रेरणा देने गाँवों में जाते तो ग्रामीण गाँव छोड़ कर खेतों और जंगलों में भाग जाते। हजारों लोगों को पकड़ कर नसबंदी कर दी गयी थी। हमारे एक साथी कवि हंसराज का हाड़ौती गीत उन दिनों बहुत पापुलर हुआ था। जिस के बोल इस तरह के थे। “बेगा बेगा चालो म्हारा भोळा भरतार, पाछे पाछे आवतो दीखे छे थाणेदार। ............ नसबंदी करा देगी या सरकार”।

निश्चित रूप से परिवार नियोजन का कार्यक्रम सामाजिक सुधार का कार्यक्रम था। “दो या तीन बच्चे” और बाद में “हम दो हमारे दो” के नारे गलत नहीं थे। हमारी बढती आबादी जो धीमी गति से होने वाली हमारे देश की भौतिक प्रगति को लील जाती है उस से निजात पाने के लिए जरूरी कार्यक्रम था। इस का कोई काला पक्ष नहीं था। लेकिन इस कार्यक्रम को जिस तरीके से जबरन लागू किया गया उस ने इस के सारे पक्षों को काला कर दिया था। बाद में 1977 के आम चुनाव में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जो बुरी पराजय हुई उस में इस जबरन नसबंदी का बहुत बड़ा योगदान था।

आज उस घटना को फिर से याद दिलाने की एक मात्र वजह यही है कि मौजूदा नोटबंदी उस नसबंदी से भी अधिक सामाजिक परिवर्तन का कार्यक्रम कहा जा रहा है। लोगों की जेब में जो बैंक नोट थे उन्हें रातों-रात प्रधानमंत्री के एक रिकार्डेड वीडियो से अवैध घोषित कर दिया और अब उन्हें बदलने के लिए तमाम जनता को लगातार तरसाया जा रहा है। लोगों के पास भोजन जुटाने को नोट नहीं है, लोगों को पगार नहीं मिल रही है। अनियमित रोजगार करने वाले और रोज कमा कर खाने वाले जिन की जनसंख्या इस देश में 40 प्रतिशत हैं परेशान हैं। उस जबरन नसंबंदी से जितने लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे, उस से कई गुना लोग इस नोटबंदी से प्रभावित हैं। निश्चित रूप से यह नोटबंदी आगामी समय में चुनावों को प्रभावित करेगी।

लोग कहते हैं कि विपक्ष मुर्दार है, वह असंगठित है जिस का लाभ उठा कर मात्र 31 प्रतिशत मत ले कर मोदी ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया है। विपक्ष बंटा होना अभी भी वैसा ही है और इस कारण मोदी फिर से सत्तासीन हो जाएगा। पर यह सब अभी से कैसे कहा जा सकता है। इमर्जेंसी लगी तब भी विपक्ष एक साथ नहीं था। जिस दिन चुनाव के लिए इमर्जेंसी हटाई गयी उस दिन भी विपक्ष एक नहीं था। लेकिन दो ढाई माह में ही उस ने एक हो कर इन्दिरा गांधी और उन की कांग्रेस पार्टी को लोहे के चने चबवा दिए थे और उसे सत्ता के बाहर कर दिया था। भारत की जनता यह कारनामा दोबारा दोहरा सकती है। यह भी है कि दूसरी बार जब वही कारनामा दोहराना हो तो अधिक दक्षता के साथ दोहराया जा सकता है, बल्कि उस में अधिक पैनापन होना बहुत स्वाभाविक है।


शनिवार, 10 अगस्त 2013

क्या लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही नहीं चाहते हैं?

म लोग आम भाषा में बात करते हैं। भारत में रावण बुराइयों का प्रतीक है। लेकिन आम लोग आप को उस की बढ़ाई करते मिल जाएंगे। यह कहते हुए मिल जाएंगे कि वह बहुतों से अच्छा था। लेकिन जब वे इस तरह की बात करते हैं तो वे रावण के किसी एक गुण की बात कर रहे होते हैं जो तुलना किए जाने वाले व्यक्तित्व में नहीं होता। या वे उस दुर्गुण की बात कर रहे होते हैं जो रावण में नहीं था और आज कल के नेताओं में होता है। मसलन रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की तो क्या उस के निकट आने की कोशिश तक नहीं की। वह भय और प्रीत दिखा कर ही सीता को अपना बनाने के प्रयत्न करता रहा। खैर! यह तो एक मिथकीय चरित्र था। लेकिन आम लोग सामान्य जीवन में क्रूरतम शासकों की तारीफ भी करते दिखाई दे जाते हैं। 
मेरे एक पड़ौसी अक्सर आज के जनतंत्र के मुकाबले राजाओं और अंग्रेजों के राज की तारीफ करते नहीं थकते थे। मुझे लगता था कि वे सिरे से ही जनतंत्र के विरुद्ध हैं और मैं उन से अक्सर बहस में उलझ जाता था। लेकिन धीरे धीरे मुझे पता लगा कि वे वास्तव में जनतंत्र के विरुद्ध नहीं हैं। लेकिन इस जनतंत्र के नाम पर जो छद्म चल रहा है, जिस तरह पूंजीपति-भूस्वामी एक वर्ग की तानाशही चल रही है और जिस तरीके से सत्ता में बने रहने के लिए इन वर्गों की पार्टियाँ और उन के नेता जनता को बेवकूफ बनाते हैं उस के वे सख्त खिलाफ थे और चाहते थे कि कानून का राज होना चाहिए न कि व्यक्तियों का। कानून का व्यवहार सब के साथ समान होना चाहिए। यदि अतिक्रमियों के विरुद्ध कार्यवाही हो तो सब के विरुद्ध समान रूप से हो न कि कुछ के विरुद्ध हो जाए और बाकी लोगों को छोड़ दिया जाए। 
स तरह के लोग वास्तव में यह प्रकट कर रहे होते हैं कि जनतंत्र तो ठीक है,  लेकिन आम जनता के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले लोगों और कानून का पालन न करने वाले लोगों के विरुद्ध तानाशाह जैसी सख्ती बरतनी चाहिए। लेकिन वे इसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाते और इतिहास के बदनाम तानाशाहों का हवाला दे कर कहने लगते हैं कि इन शासकों से तो वही अच्छा था। साधारण और गैर राजनैतिक लोगों से यह चूक इस कारण से होती है कि वे शासन के वर्गीय चरित्र और जनतांत्रिक पद्धति में सरकारों की भूमिका को नहीं समझ पाते। हम उन्हें इस चीज को समझाने के स्थान पर उन से बहस में उलझ पड़ते हैं। 
ज ही फेसबुक पर मेरे एक सूत्र पर टिप्पणी करते हुए राज भाटिया जी ने टिप्पणी कर दी कि "चोर लुटेरो से तो अच्छा हिटलर ही हे..." तब मैं ने उस का तुरन्त प्रतिाद किया कि "राज जी, आप गलत हैं, वह किसी से अच्छा न था। इंसानियत के नाम पर कलंक था।" मैं उन से इस बात पर वहाँ बहस नहीं करना चाहता था, क्यों कि मैं समझ रहा था कि राज जी हिटलर को अच्छा बता कर क्या कहना चाहते थे। लेकिन फिर मसिजीवी जी ने टिप्पणी की- "जरा बताए कि हिटलर चोर-लुटेरों या किसी से भी कैसे अच्‍छा हो सकता है ? खेद है कि आपका कथन शर्मनाक है।"
इस पर राज जी नाराज हो गए उन्हों ने टिप्पणी की -"जी आप को कोई अधिकार नही मुझ से प्रशन करने का, आप जैसे हालात मे खुश हे भगवान आप को उन्ही हालात मे रखे..."
राज जी ने उस के बाद मेरी टिप्पणी का उत्तर भी दिया "दिनेशराय द्विवेदी मानता हू आप की बात हिटलर इंसानियत के नाम पर कलंक हे, लेकिन उसे वहां तक लाया कोन था..? उसे वो सब करने पर मजबुर किस ने किया।....गंदी को साफ़ करने के लिये गंदी मे उतरना पडता हे, तो लोग उसे ही गंदा कहते हे, पहले सोचे वो इतना नीच कैसे हो गया... जो आम आदमी था." खैर!
स पोस्ट की बात छोडें। अपनी बात पर आएँ। वास्तव में लोग जनतंत्र भी चाहते हैं और जनहित के विरुद्ध काम कर रहे तत्वों पर सख्त तानाशाही भी। लेकिन जिस तरह का तंत्र वे चाहते हैं उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पातेष उस के लिए उन के पास उदाहरण भी नहीं हैं। वैसे हालातों में वे बदनाम और क्रूर तानाशाहों तक का उदाहरण दे बैठते हैं। 
हाँ तक मैं समझता हूँ कि वे यह चाहते हैं कि आम श्रमजीवी जनता के लिए जनतंत्र होना चाहिए लेकिन उन्हें समाज के नियम और कानून के साथ चलाने के लिए सख्ती भी चाहिए। मौजूदा पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग राजनेताओं और नौकरशाहों को भ्रष्ट कर के जिस तरह से अपनी तानाशाही चलाता है उस से निजात भी चाहिए वह निजात इन वर्गों पर तानाशाही के चलते ही संभव हो सकती है। वस्तुतः ऐसे लोग जनता की जनतांत्रिक तानाशाही चाहते हैं। जिस में आम श्रमजीवी जनता को लोकतांत्रिक अधिकार मिलें, लेकिन उन्हें अनुशासित रखने के लिए सख्ती भी हो साथ ही पूंजीपति-भूस्वामियों के लुटेरे वर्गों और उन के सहयोगी राजनेताओं व नौकरशाहों पर तानाशाही भी हो।