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शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है।