@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जन्मदिन
जन्मदिन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जन्मदिन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

हमारे सहजीवन की पहली सब से बड़ी खुशी

क सप्ताह पहले ही दादा जी हमारे बीच नहीं रहे थे। जैसे ही मुझे सूचना मिली मैं बाराँ के लिए रवाना हो गया। उत्तमार्ध शोभा मेरे साथ नहीं जा सकी। वह पूरे दिनों से थी। मैं अंत्येष्टी में शामिल हो कर वापस लौटा और तीसरे दिन फिर से अस्थिचयन में जा कर सम्मिलित हुआ। घर में यह विचारणीय हो गया था कि मुझे तुरन्त वापस लौटना चाहिए। ऐसे दिनों में शोभा को अकेला छोड़ना किसी भी तरह से उचित नहीं है। यूँ पहले अम्माँ का साथ आना तय था। लेकिन दादा जी के न रहने से परिवार में जो स्थितियाँ बनी थीं उन में उस का साथ आना संभव नहीं था। तो छोटी बहिन अनिता साथ आई। चार दिन बाद ही 23 मार्च का भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत का दिन था। पंजाब सभा भवन में शाम को बड़ी सभा थी। मुझे उस में जाना ही था। अनिता की भी इच्छा थी कि वह भी इस कार्यक्रम में जाए। शोभा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं? उस ने हमें कार्यक्रम में आने की अनुमति दे दी।
पूर्वा और हम दोनों

शहीद दिवस समारोह से वापस लौटते लौटते रात के साढ़े नौ बज गए थे। हम घर पहुँचे, भोजन किया उस के तुरन्त बाद ही शोभा ने कहा कि इसी वक्त अस्पताल चलना होगा। ईसाई मिशनरी का अस्पताल पास ही था। हम ने तुरंत आवश्यक तैयारी की और अस्पताल पहुँच गए। अस्पताल में प्राथमिक जाँच के बाद शोभा को भर्ती कर लिया गया। मुझे बताया गया कि अभी तुरंत कोई परिणाम आने वाला नहीं है हो सकता है दस-बारह घंटे लगें। अगले दिन सुबह ही मैं ने अपनी मौसी को भी सूचना दी और वे तुरन्त ही मेरे साथ अस्पताल चली आईं।  प्रातः शोभा को प्रसव पीड़ा होने लगी। उसे जाँच कर नर्स ने लेबर रूम में पहुँचाया। सुबह साढ़े नौ बजे नर्स ने सूचना दी कि बिटिया हुई है। मैं बड़ा प्रसन्न था। मैं चाहता था कि मेरी पहली सन्तान बेटी हो। मुझे मुहँ मांगी मुराद मिल गयी थी। 

पूर्वा
मामाजी को खबर हुई तो वे मामीजी को ले कर शाम के समय मिलने आए। मामाजी बोले- मैं अस्पताल जा कर क्या करूंगा। मामाजी घर पर ही रुके मैं मामीजी को शोभा और नवजात से मिलाने अस्पताल ले आया। करीब आधा घंटे बाद मामीजी को ले कर वापस घर पहुँचा तो मामा जी ने नवजात की जन्म कुंडली बना कर रखी हुई थी। मैं ने उसे देखा तो पता लगा कि उस के जन्म के समय चंद्रमा पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में स्थित था। तब तक मेरा दिमाग लगातार यह सोच रहा था कि नवजात कन्या का नाम क्या रखा जाए। यूँ जन्म नक्षत्र के हर चरण के लिए एक नामाक्षर का सुझाव दिया हुआ है। उस दृष्टि से उस का नाम सौ अक्षर से आरंभ होना चाहिए था। मामाजी ने 'सौदामिनी' नाम का सुझाव दिया था। नाम बहुत सुंदर था लेकिन मुझे कुछ बड़ा सा लग रहा था। मैं शोभा की तरह दो अथवा मेरे नाम की तरह तीन अक्षरों का नाम चाहता था। मैं ने बहुत विचार किया किन्तु सौ शब्द से कोई नाम न सूझा। आखिर मेरे दिमाग में पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र का पूर्वा शब्द अंकित हो गया। आखिर हम ने अपनी बेटी का नाम पूर्वा रखा। 

पूर्वा का एक जन्मदिन
दादाजी का द्वादशा और पहला मासिक श्राद्ध हो जाने के बाद अम्माँ भी कोटा आ गयी। कुछ दिन रह कर शोभा और पूर्वा दोनों को अपने साथ बाराँ ले गयी। करीब दो माह बाद जब शोभा इस स्थिति में आ गयी कि पूर्वा को संभालने के साथ साथ घर को भी देख सके तो ही कोटा वापस लौटी। तब तक पूर्वा इतनी बड़ी हो गयी थी कि मैं उसे संभाल सकता था। तब गर्मी के दिन आरंभ हो गए अदालतें सुबह की हो चुकी थीं। मैं अदालत से दोपहर 1-2 बजे तक घर आ जाता था।

पूर्वा और हम दोनों पिछली दीवाली पर
एक दिन अदालत से लौटा तो शोभा ने बताया कि पूर्वा को दस्त लगे हैं। मैंंने उलट कर पूछा कि ऐसा क्यों कर हो सकता है? मैं ने आयुर्वेद पढ़ा था तो मैं उस के उपचार के बारे में सोचने लगा। शोभा ने अपना अनुमान बताया कि बच्ची की पहली गर्मी है उसी के कारण इसे दस्त लगे हो सकते हैं। उन दिनों मैं रोज सुबह ब्राह्मी की सूखी पत्तियाँ और पोस्तदाना भिगो कर जाता था जिस से शाम को ठंडाई बनाई जा सके। मुझे तुरंत भीगी हुई ब्राह्मी याद आई मैं ने दो तीन पत्तियों को पानी से निकाला और उन्हेंं ठीक से निचोड़ कर आधा चाय के चम्मच के बराबर रस निकाला। यही रस मैं ने पूर्वा को पिला दिया और प्रतिक्रिया देखने लगा। असर यह हुआ कि पूर्वा के दस्त उस के बाद सामान्य हो गए। इस तरह उसे पहले शारीरिक उपद्रव से आराम मिला। मुझे उसी दिन यह अहसास हुआ कि आयुर्वेद के अध्ययन और बीएससी तक जीव विज्ञान पढ़ने से जितना ज्ञान मुझे मिला उस के आधार पर मैं कम से कम अपने परिवार की स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रारंभिक चिकित्सा कर सकता हूँ। इस काम में मुझे शोभा की भी मदद मिल सकती है। वह बचपन से अपने चिकित्सक पिता के साथ रही थी और आवश्यकता होने पर रोगियों की परिचर्या में उन की मदद करती थी। 


पूर्वा का पिछला जन्मदिन
पूर्वा ने हमें बहुत खुशियाँ दीं। उस ने अपने बचपन में हमें कभी तंग नहीं किया। वह अन्य बच्चों की तरह रोती भी न थी। रात को भी यदि उसे नीन्द न आ रही होती तो लेटे लेटे बस नीले रंग के नाइट बल्ब को ताकती हुई मुस्कुराती रहती और नीन्द आने पर चुपचाप सो जाती। बाद  में पूर्वा के कारण ही मेरा परिचय एक होमियोपैथी चिकित्सक से हुआ। करीब एक वर्ष तक आवश्यकता पड़ने पर हमारे चिकित्सक वही रहे। मुझे होमियोपैथी में रुचि हुई तो फिर होमियोपैथी भी सीखी। दोनों बच्चों के वयस्क होने तक हम ने उन की चिकित्सा अक्सर खुद ही की। अभी भी दोनों बच्चों के पास होमियोपैथी की दवाएँ रहती है जिस से वे आकस्मिकता होने पर तुरन्त खुद अपनी प्रारंभिक चिकित्सा कर सकें। उस का लाभ यह भी है कि अधिकांश शारिरिक उपद्रवों का उपचार इस प्रारंभिक चिकित्सा से ही हो जाता है। बहुत अधिक आवश्यकता होने पर नियमित चिकित्सक की सलाह और उपचार लिया जा सकता है। खैर उस की तफसील फिर कभी।


आज पूर्वा का जन्मदिन है। मेरे और शोभा के सहजीवन की पहली सब से बड़ी खुशी के आने का दिन। 

पूर्वा को जन्मदिन पर असीम शुभकामनाएँ और बधाइयाँ!

बुधवार, 23 नवंबर 2016

ये नौ



महेन्द्र नेह

भाई “महेन्द्र नेह” को ...

उपहार समझ लें


उन के 69वें जन्मदिन पर ...


1.

तुम्हारा पैसा दे दें तुम्हें

तो पूंजीपति को क्या दें?

आखिर बैंक और हम

उसी ने बनाए हैं

2.

वे हैं

जब तक

साजिशों का जाल है।

मौत के ऐलान के बाद

भी जिन्दा बचे हैं

यही तो उन का कमाल है।

3.

भूत कैसे मरे?

मर कर ही तो बनता है।

इसलिए वह उसे

2000 की बोतल में बंद करता है।

4.

बहुत जरूरत है

एक हिटलर एक मुसोलिनी बनाएँ।

न बने, तो

खुद को बनाएँ।

5.

उसके लक्षण ढूंढें

चरक, सुश्रुत, माधव

या हनिमेन की किताब में।

किसी रोग का सूत्र न मिले

लाक्षणिक चिकित्सा करें।

6.

आज कल वह हँसता नहीं

बस बात बात पर रो देता है।

परेशान है

अक्सर आपा खो देता है।

7.

मैं ने नया गेजेट बनाया

इस में गेम है

गेम में सवाल हैं

सवालों के लिए कुछ बटन हैं

हर सवाल पर कोई बटन दबाओ

फिर मैं फैसला करूंगा

मैं जीता कि मैं हारा

कौन उल्लू का पट्ठा

खुद हारना चाहता है?

8.

ताजमहल

एक दुनियावी आश्चर्य

अपने अन्दर समेटे कब्र को

मंदिर

अपने अंदर समेटे एक मूरत

पार्लियामेंट,

न मंदिर न ताजमहल

इस की सीढ़ी चूमो

एप घिसो

इंसान को उल्लू बनाने के

साधन कम नहीं।

9.

असल बात जे है

के हम जिस की भौत इज्जत करैं

उसके पाँव छुएँ हैं

और खसक लेवैं हैं।

और हम

पार्लियामिंट की तो

भौत से भी भौत

इज्जत करैं हैं।


शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

सोमवार, 3 सितंबर 2012

जन्मदिन कब मनाया जाए?

सब से पुराना चित्र
पृथ्वी (भू) से आकाश (ख) एक गेंद की तरह दिखाई देता है और लगता है कि धरती इस के मध्य बिंदु पर स्थित है।  अब आकाश का अध्ययन करना हो तो खगोल के हिस्से तो करने ही होंगे।   सूर्य हमें नित्य ही पूरब से पश्चिम की ओर यात्रा करता दिखाई देता है।  इस कारण जिस वृत्तीय रेखा पर हो कर वह यात्रा करता है उस रेखा पर हम ने खगोल को बारह भागों में बाँट रखा है।  वृत्त को हम ने 360 अंशों में विभाजित किया है। इस तरह बारह भागों मे बँटे इस खगोल का एक एक भाग 30-30 अंशों का है।  इन में से प्रत्येक भाग को उस भाग में सूर्य यात्रा के वृत्तीय मार्ग के निकट स्थित तारे जो आकृति बनाते हैं उन के नाम दे दिए हैं।  इन नामों को हम राशियों के नाम से जानते हैं।  प्रतिमाह सूर्य एक भाग से दूसरे में प्रवेश करता है, अर्थात एक राशि से दूसरी में जाता हुआ दिखाई देता है।  एक राशि से दूसरी में  सूर्य के इस प्रवेश करने को ही हम संक्रांति तथा एक के बाद एक दो संक्रांतियों के बीच के माह को हम सौर मास कहते हैं।  वर्ष में इस तरह बारह संक्रांतियाँ होती हैं।  एक सौर वर्ष 365.2564 दिनों का होता है। अब वर्ष किसी एक दिन से आरंभ हो कर किसी एक दिन समाप्त हो जाता है इस लिए उसे 365 दिन का मानते हैं। शेष लगभग चौथाई दिन इस गणना में नहीं आता इस कारण  हम हर चौथे वर्ष में एक दिन बढ़ा देते हैं और वह वर्ष 366 दिन का हो जाता है। इस बढ़े हुए दिन वाले वर्ष को हम लीप इयर कहते हैं। 

1968
माह की पहली अवधारणा पूरे चांद से पूरे चांद के या नवचंद्र से नवचंद्र के पहले वाले दिन तक के लिए हुई।  लेकिन चान्द्रमास तो 29.5306 दिन का ही होता है।  इस तरह के 12 माह को जोड़ें तो यह लगभग 354.3672 दिन का वर्ष ही होगा।  इस तरह सौर वर्ष और बारह चांद्र मासों के वर्ष में 10.8892 दिनों का अंतर आ जाता है। जो तीन वर्ष में 32.6676 दिन का हो जाता है। इस तरह हम पाते हैं कि तीन वर्षों में जहाँ संक्रांतियाँ केवल 36 होंगी वहीं चान्द्र मास 37 हो जाएंगे। इस तरह कोई भी एक चांद्र मास ऐसा होगा जिस में कोई संक्रांति नहीं होगी।  इस कारण से यह तय किया गया कि  नवचंद्र से आरंभ होने वाले जिस चांद्र मास में संक्रांति नहीं होगी उसे अधिक मास माना जाए और ऐसे महिने वाले वर्ष को 13 मास का माना जाए।  इस वर्ष भाद्रपद मास की अमावस्या से अगली अमावस्या तक कोई संक्रांति नहीं पड़ रही है इस कारण से यह नवचंद्र मास अधिक मास हुआ और इस वर्ष में दो भाद्रपद मास हुए। अभी यही अधिक मास चल रहा है।

1975
मेरा जन्म विक्रम संवत 2012 सन् 1955 में हुआ।  यह वर्ष भी तेरह मास का था और दो भाद्रपद मास थे।  पहला भाद्रपद बीत जाने के उपरांत दूसरे भाद्रपद मास की प्रतिपदा तिथि शनिवार को मेरा जन्म हुआ।  उस जमाने में जन्मदिन अंग्रेजी केलेंडर की तारीख से नहीं मनाया जाता था बल्कि तिथि से मनाया जाता था। भले ही मेरा जन्म अधिक मास में हुआ हो पर वह प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की प्रतिपदा को मनाया जाने लगा।  यह दिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन आता था।  बचपन से यही स्मरण रहा कि जन्मदिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन आता है।  लेकिन तिथि से वास्तविक जन्मदिन तो तब हो जब भाद्रपद मास में अधिकमास आ रहा हो।  जन्म के वर्ष के अतिरिक्त ऐसा केवल तीन बार हुआ है। 1974 में 1993 में और अब 2012 में भाद्रपद मास में अधिक मास हुए हैं।  इस में आश्चर्य जनक समानता यह है कि इन वर्षों में हर बार 19 वर्ष का अंतराल है। 

1992
स तरह यदि द्वितीय भाद्रपद की प्रतिपदा को जन्मदिन मनाया जाए तो इस वर्ष जन्मदिन शनिवार 1 सितंबर 2012 को ही हो चुका है।  इस दिन भी शनिवार था जैसा कि मेरे जन्मवर्ष संवत् 2012 ईस्वी सन् 1955 में था। जन्म रात्रि के 3.25 बजे हुआ था।  तब तक तारीख बदल कर 3 सितम्बर के स्थान पर 4 सितम्बर हो चुकी थी और प्रतिपदा समाप्त हो कर द्वितिया तिथि आरंभ हो चुकी थी। यदि जन्म समय की तिथि को देखा जाए तो रविवार 2 सितंबर 2012 को द्वितिया तिथि है।  इस तरह रविवार को भी जन्मदिन मनाने का मौका था। जन्म के समय नक्षत्र उत्तराभाद्रपद था। यह नक्षत्र 3 सितंबर 2012 को प्रातः तक है तो इस दिन भी जन्मदिन मनाया जा सकता है और 4 सितंबर 2012 को तो मनाया ही जा सकता है क्यों कि अंग्रेजी केलेंडर के हिसाब से वही मेरा जन्मदिन है।   

2010
फेसबुक और इंटरनेट पर उपलब्ध साधनों ने मित्रों को सितंबर की पहली तारीख से ही मेरे जन्मदिन की सूचना देना आरंभ कर दिया था और उसी दिन से शुभकामनाएँ भी मिलनी आरंभ हो गई हैं।  अब तक अनेक मित्र शुभकामनाएँ दे चुके हैं।  मैं भी चारों दिन शुभकामनाएँ प्राप्त करने के लिए तैयार बैठा हूँ। 

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

आज जन्मदिन की शुभकामनाएँ! किसे दें ?

आज  हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन ब्लाग के ब्लागर

हर दिल अजीज बी.एस. पाबला जी का जन्मदिन है

बुधवार, 21 सितम्बर, 2011










पाबला जी को असीम, अनन्त, अशेष शुभकामनाएँ!!!

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तुम्हें जन्मदिन की बधाई! (हैप्पी बर्डे टू यू)

क्सर होता ये है कि मैं तारीख बदलने के पहले नहीं सोता। लोगों से कहता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करता कि आज सोऊँ और कल उठूँ, इसलिए जिस तारीख में सोता हूँ उसी में उठता हूँ। या यूँ भी कहा जा सकता है कि जिस तारीख में उठता हूँ सोने के लिए उस तारीख का इंतजार करता रहता हूँ। इस का नतीजा ये भी है कि मुझे टेलीफोन पर जिन लोगों को जन्मदिन की मुबारकबाद देनी होती है। रात 12 बजे तारीख बदलते ही फोन की घंटी बजा देता हूँ। पर कल ऐसा नहीं कर सका। 
बेटी होली पर यहीं थी। उसे इस होली पर केवल एक रविवार का ही अवकाश था। दो अवकाश उस ने अपने खाते में ले लिए। बुध को सुबह चार बजे जाग कर यहाँ से गई थी। दोपहर में सीधी अपने दफ्तर पहुँची और शाम को अपने आवास पर। उस ने चार दिन की गर्द भी झाड़ी होगी। बहुत थक गई होगी और सो गई होगी इस कारण कल रात जब तारीख बदली तो मैं ने ही उसे फोन नहीं किया। सुबह भी उसे दफ्तर जाना था, उसे तैयार होने में बाधा होगी यह सोच कर उसे फोन नहीं किया। दोपहर के अवकाश में जब फोन किया तो वही सुनाती रही कि उस के दफ्तर की एक साथी ने उस का जन्मदिन याद रखा और अपने साथ केक ले आयी थी। फिर दफ्तर के लोगों ने उस का जन्मदिन मना डाला। कह रही थी कि लोगों ने उसे फूल भेंट किए जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूछने पर उस का उत्तर था कि उसे फूलों को भेंट करना कभी अच्छा नहीं लगता। फूल पौधे पर खिले रहें तो अन्तिम समय तक सुरभि बिखेरते हैं और उन की सुंदरता बनी रहती है। सजावट के काम में लेना तो वह बर्दाश्त कर लेती है लेकिन भेंट करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कुछ ही देर में बेकार हो जाते हैं। उस का यह कहना मुझे अच्छा लगा और मैं उसे मुबारकबाद देना ही भूल गया।  
शाम को उस का फोन आया तो भारत-आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच आधा हो चुका था। वह बताने लगी कि उस के सहपाठियों ने उसे जन्मदिन मुबारक कहते समय उसे मजाक में भाई कह कर संबोधित किया। अन्य ने पूछा कि लड़की भाई कैसे हो सकती है? उन का कहना था कि हो सकती है, यदि वह सब पर अपना दबदबा बना कर रख सके। पहले वे लोग उसे झाँसी की रानी कहते थे। उस ने मुझ से ही प्रश्न कर डाला कि उस के साथी उसे ऐसा क्यों कहते हैं? जब कि वह तो किसी से कभी झगड़ती भी नहीं है। मैं ने उसे कहा झाँसी की रानी झगड़ालू नहीं जुझारू थी। शायद ऐसा ही तुम में भी उन ने कुछ देखा हो और कहने लगे हों। उधर भारत की पारी शुरू हो गई और वह अपनी मकान मालकिन के साथ क्रिकेट देखने लगी। बता रही थी कि वे हर वह मैच देखती हैं जिसे भारत खेल रहा हो। इन्हीं बातों के बीच मैं फिर उसे जन्मदिन की मुबारकबाद देना भूल गया। 
रात के क्रिकेट मैच खत्म होते ही फोन की घंटी बजी तो बेटी ही थी। इस बार मैं फिर मुबारकबाद देना न भूल जाऊँ, मैं ने सब से पहले उसे 'हैप्पी बर्डे' कह दिया। भारत की जीत से वह प्रसन्न थी। उस ने पूछा -मुझे जन्मदिन की बधाई दे रहे हो, या मैच जीतने की? मैं ने कहा -बधाई तो जन्मदिन की ही दे रहा हूँ, जीत को तो तुम तोहफा समझो भारतीय टीम की ओर से। फिर वह मैच की बात करने लगी, -बीच में तो लग रहा था कि भारत हारा! लेकिन रैना ने मैच जिता दिया। मैं ने पूछा, युवराज का कुछ नहीं? तो कहने लगी। युवराज तो मैन ऑफ मैच है ही। पर मैच तो असल में रैना ने जिताया। वह इतना अच्छा साथ न देता तो? इस बात पर हम दोनों सहमत थे।
विश्व चैम्पियन पर जीत





मंगलवार, 4 जनवरी 2011

मैं एक विस्फोट भी हूँ ......

ज उस का जन्मदिन है, और वह जेल में है। क्या था उस का कुसूर? बस यही न कि उस ने उस सरकारी कारखाने में काम करने वाले ठेकेदार मजदूरों के लिए एक अस्पताल विकसित किया था, जो अपने स्थाई कर्मचारियों के लिए बेहतर से बेहतर सुविधाएँ प्रदान करता है, लेकिन वही अस्पताल एक मरती हुई मजदूरिन को अपने यहाँ चिकित्सा सुविधा नहीं दे सकता। कि उस ने गाँव गाँव में चिकित्सा सुविधाएँ पहुँचाने के काम में अपने जीवन के बेहतरीन साल गुजारे। जिस ने सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा बंदूकों की नोंक अपने गाँवों से हाँक कर सरकारी केम्पों में ले जाए गए आदिवासियों के स्वास्थ्य की दुर्दशा के विरुद्ध आवाज उठाई। यही आवाज न केवल सलवा जुडूम योजना पर अपितु सरकार की नीयत पर भी प्रश्न चिन्ह बन गई। बस उसे देशद्रोही करार दिया गया और जेल में बंद कर दिया जीवन भर के लिए। 
लेकिन क्या, उसे बंद करने से जंगलों, गाँवों, कस्बों, नगरों और महानगरों से न्याय के लिए उठ रही आवाजें रुक जाएँगी। निश्चय ही वे आवाजें ऐसे नहीं रुक सकतीं। रुकना होगा तो उन्हें जो इन आवाजों को रोकने में लगे हैं। वे नहीं रुकेंगे, तो खत्म हो जाएँगे, जनता की यह आवाज तो उठेगी, कोलाहल बन कर न सुनने वालों को बहरा कर देगी, कि वे सुनने के काबिल नहीं रहेंगे। 
डॉ. बिनायक सेन के 61 वें जन्मदिन पर मुझे अपने दिवंगत साथी शिवराम की यह कविता स्मरण हो आती है - - -

मैं एक विस्फोट भी हूँ

-शिवराम

कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटि हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आंधी हूँ
तूफान हूँ

और उन्हों ने 
सचमुच कुचल दिया मुझे

एक जोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथड़े हो गए वे

उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट भी हूँ।

**********************

मेरे दोस्त !
जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हें,

उन्हें पता है, 
तुम्हें अंदर कर के 
उन्हों ने कितनी बड़ी गलती की है

पर अब  करें तो क्या?
तीर तो कमान से निकल चुका
____________________________________________________________________________

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

जन्मदिन पर शिवराम के नाटकों-कविताओं की शानदार प्रस्तुति

ल साल का सब से छोटा दिन गुजर गया। एक काम शिवराम के जिम्मे था, वे इसे ले कर बहुत चिंतित थे, लेकिन पूरा नहीं कर सके थे। पिछले तीन दिनों में लग कर यह काम संपन्न कर लिया गया तो मेरे साथ अन्य साथियों ने भी राहत की साँस ली। लेकिन सर्दी अपना रंग दिखा गई। कल रात भोजन कर के जल्दी सोया था। सुबह पौने पाँच पर आँख खुली तो लगा जैसे पेट में गूजर धरना दिए बैठे हैं, रास्ता जाम है, पेट फूला हुआ है। शौच वगैरह सब सामान्य था लेकिन जो कुछ पेट में था वह सरकने को तैयार नहीं था। आज उपवास कर लिया  गया। शाम तक ठीक महसूस हुआ तो शिवराम के जन्मदिन पर आयोजित अभिव्यक्ति नाट्य मंच के कार्यक्रम में अलबर्ट आइंस्टाइन सीनियर सैकंडरी विद्यालय पहुँचा। देखा विद्यालय का प्रांगण दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। मुझे अपने लिए स्थान बनाने में कुछ मशक्कत करनी पड़ी।

मशाल
कार्यक्रम का आरंभ शिवराम द्वारा आरंभ की गई परंपरा के अनुसार मशाल जला कर हुआ। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच, कोटा के अध्यक्ष महेन्द्र 'नेह' ने शिवराम के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डाली। तुरंत बाद शिवराम का नाटक 'घुसपैठिए' का मंचन आरंभ हो गया।
घुसपैठिए
नपतियों की काली कमाई से पोषित मीडिया अक्सर हमें 'घुसपैठियों' के रूप में उन्हीं आतंकवादियों की तस्वीरें दिखाता है, जो कभी करगिल, कभी कश्मीर, तो कभई समुद्र के रास्ते देश की सीमाएँ तोड़ कर खून-खराबा करते हैं और हत्याओं का घिनौना खेल खेलते हैं। यह नाटक देश, जनता और अमन के उन दुश्मनों को तो उजागर करता ही है, वहीं नट-नटी, दातुनवाला, सब्जीवाला, सूत्रधार और अभिनेता के माध्यम से उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी ऐजेंसियों की हमारे सत्ताधारियों के माध्यम से हुई 'घुसपैठ' को ठीक उसी तरह से बेनकाब करता है, जिस तरह कुछ राजा-महाराजाओं के मार्फत 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने घुसपैठ कर के हमारी रोटी, रोजगार, स्वदेशी स्वावलंबन और आजादी का अपहरण किया था। इस नाटक में शिवराम ने दर्शकों के लिए एक चुनौती छोड़ी है -कौन खदेड़ेगा देश और जनता को लूटने वाले इन घुसपैठियों को? कौन? कौन? कौन? कौन? आखिर कौन? 
ह नाटक स्वयं शिवराम के निर्देशन में 'अनाम' ने अनेक बार देश के अनेक स्थानों पर खेला। इस बार भी उन्ही कलाकारों ने इसे यहाँ प्रस्तुत किया।  वृद्ध की भूमिका में अजहर, तथा नेता की भूमिका में डॉ.पवन कुमार स्वर्णकार ने विशेष  रुप से प्रभावित किया। वहीं आशीष  मोदी, राजकुमार चौहान, रोहन शर्मा, तथा संजीव शर्मा ने विभिन्न भूमिकाओं में प्रभावी अभिनय किया। अन्य कलाकारों में मनोज शर्मा, शशिकुमार, रोहित पुरुषोत्तम, आकाश सोनी, आशीश सोनी व रविकुमार का अभिनय सराहनीय था। 
स नाटक के उपरांत ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ कविताओं का सस्वर प्रभावशाली पाठ किया। और फिर आरंभ हुआ शिवराम का सुप्रसिद्ध नाटक 'जनता पागल हो गई है' इस नाटक को पहली बार आपातकाल के दौरान 1976 में बारां में खेला गया था। जो जो लोग इस नाटक में अभिनय कर चुके हैं वे सभी ख्यात भी हुए। मुझे भी इस की आठ-दस प्रस्तुतियों में एक भूमिका करने का अवसर मिला था, इस की सर्वाधिक सफल प्रस्तुति शिवराम के निर्देशन में रविन्द्र रंगमंच जयपुर पर हुई थी। वह दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन साथियों से कुछ ऐसा हुआ था कि मुझे बहुत गुस्सा आने वाला था, शिवराम इसे भांप गए थे और उन्हों ने हमारे सभी साथियों को यह बता दिया था कि मैं आज बहुत गुस्सा होने वाला हूँ। जैसे ही मैं ठहरने के स्थान पर पहुंचा सारे वरिष्ठ साथी मुझे मनाने में लग गए। थोड़ी देर बाद जब  शांत हुआ तो मुझे लज्जा हुई, लेकिन उस से क्या? इस बहाने बुजुर्ग सभी को कॉफी और कचौड़ियों की दावत खिला चुके थे।
जनता पागल हो गई है 
नाटक 'जनता पागल हो गई है' को हम ऐसा क्लासिक कह सकते हैं, जिसे भव्य रंगमंच से ले कर सड़क पर आम जनता के बीच नुक्कड़ नाटक की तरह खेला जा सकता है। हिन्दी में नुक्कड़ नाटकों के जन्मदाता शिवराम का यह नाटक वस्तुतः जनता तक अपनी बात को पहुँचाने के माध्यम के रुप में विकसित हुआ था, जो अब तक का सब से लोकप्रिय, भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुदित हो कर देश के कोने-कोने में खेला जा चुका है और विदेशों में भी वहाँ की स्थानीय भाषाओं में इस की प्रस्तुतियाँ हुई हैं। इस नाटक के कुछ दृष्य  कुछ फेरबदल के साथ कुछ हिन्दी फिल्मों का हिस्सा भी बने हैं।
स नाटक का प्रारंभ देश की उस कोटि-कोटि भूखी-प्यासी जनता के आर्तनाद से होता है जो अपने परिश्रम से जहाज से ले कर सुई तक का उत्पादन करती है, लेकिन जिसे धनपतियों, नेताओं, हाकिमों द्वारा रूखी-सूखी रोटियों पर इसलिए जीवित रखा जाता है जिस से उस की कमाई और अपार धन-दौलत को निचोड़ा जा सके। नाटक में जनता कहती है-
"खेत सूखे, पेट भूखे, गाँव हैं बीमार
हम लोगों की मेहनत, कोठे भरता जमींदार
देह सूखी, प्राण सूखे, सूना सब संसार
कोई सुनता नहीं हमारी, क्या बोलें सरकार"
मैदान में हो रहे 'जनता पागल हो गई है' नाटक का एक दृश्य
ब चुनाव के मौसम में नेता वोट के लिए जनता को झूठे आश्वासन दे कर भरमाने का प्रयत्न करते हैं तो तो 'पागल' उसे सचेत करता है-
"वोट दो..... वोट दो.... ठोक दो.... ठोक दो....
इस जालिम सरकार के दिल पर चोट दो
इस ने रेल-हड़ताल में मेरा भाई डाला मार
मेरा बच्चा चबा गई यह जालिम सरकार!!"
'जनता पागल हो गई है' एक व्यस्त चौराहे पर
रकार के कहने से पूंजीपति जनता को कारखाने में काम देता है, लेकिन जब उसे सूखी रोटी भी नसीब नहीं होती तो वह हड़ताल कर देती है। सरकार, पुलिस, और मीसा-एस्मा जैसे काले कानूनों की मदद से जब जनता का निर्दयता पूर्वक दमन करती है तो जनता विद्रोह कर देती है। विद्रोह में कुर्बानियों के बाद जनता की जीत होती है। पूंजीपतियों और सरकार का दंभ जल कर खाक हो जाता है। इस नाटक का यही आशावादी स्वर, जज्बा, और विश्वास युवा नाट्यकर्मियों में जन-ऊष्मा का संचार करता है और देश के किसी भी हिस्से के हों, कोई भी भाषा बोलते हों, इस नाटक के मंचन के लिए कभी रंगमंच पर कभी नुक्कड़ पर और कभी चौपाल पर खेलने के लिए मचल उठते हैं। यह नाटक तानाशाह हुक्मरानों के विरुद्ध भारतीय जनता के विद्रोह का महा-आख्यान है, इसी लिए यह अपार लोकप्रियता हासिल कर सका है। जब तक हवाओं में शोषण, दमन और गुलामी का धुँआ रहेगा, यह सिलसिला जारी रहेगा। 
ज जनता की भूमिका में आशीष मोदी का मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय, और रोहित पुरुषोत्तम की सरकार के रुप में चुटीली भूमिका ने बहुत प्रभावित किया। पागल की भूमिका में अजहर अली ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया और सराहना पाई। पुलिस अधिकारी के रूप में संजीव शर्मा और सिपाहियों की भूमिका में रोहन शर्मा और मनोज शर्मा ने सधा हुआ अभिनय किया। शिवराम की अनुपस्थिति में नगर के नाट्य निर्देशक अरविंद शर्मा ने इन नाटकों की तैयारी में सहयोग किया और संगीत संयोजन में सुधीर व रामू शर्मा ने अपना योगदान दिया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि नगर के स्वतंत्रता सेनानी और वयोवृद्ध पत्रकार आनन्द लक्ष्मण खाण्डेकर और विशिष्ठ अतिथि गुरुकुल इंजिनियरिंग  कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर आर.सी. मिश्रा थे। कार्यक्रम के अंत में अल्बर्ट आइंस्टाइन स्कूल के प्राचार्य डॉ.गणेश तारे ने सभी का तथा सहयोगी संस्थाओं का आभार व्यक्त किया और सभी से शिवराम के दिखाए मुक्तिकामी संघर्षों की राह पर अनवरत चलते रहने का आव्हान किया। इस अवसर पर रविकुमार द्वारा निर्मित कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी अत्यन्त आकर्षक थी जिस में शिवराम की कविताओं पर निर्मित पोस्टर विशेष रूप से देखने को मिले।
कार्यक्रम की समाप्ति शिवराम के पूरे परिवार उन की बेटी और दामाद तीनों पुत्र और भाभी जी से एक साथ मुलाकात से भेंट मेरे लिए बड़ी सौगात थी।

इस दिन की नाट्य प्रस्तुतियों के चित्र रविकुमार के ब्लाग "सृजन और सरोकार" की पोस्ट नाट्य प्रस्तुतियों के छायाचित्र  पर देखे जा सकते हैं। 

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

शिवराम को एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि !!!

नाटककार, रंगकर्मी, कवि, आलोचक, साहित्यकार, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता, शीर्ष राजनैतिक नेता शिवराम के व्यक्तित्व के अनेक आयाम थे। लेकिन उन के सभी कामों का एक ही उद्देश्य था। जनता को सचेतन करना, शिक्षित करना और संगठित होने के लिए प्रेरित करना और संगठित होने में उन की मदद करना। उन की राय में श्रमजीवी जनता की मुक्ति का यही एक मार्ग था। उन के इस बहुआयामी व्यक्तित्व में रंगकर्म सब से पहले आता था। इसी से उन्हों ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का सफर आरंभ किया था और अंतिम दिनों तक वे इस से जुड़े रहे। पिछली पहली अक्तूबर को उन्हों ने हम से सदा सर्वदा के लिए विदा ली है। तीन माह भी नहीं गुजरे हैं कि 23 दिसंबर 2010 को उन का बासठवाँ जन्मदिन आ रहा है। 
शिवराम अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच (अनाम) कोटा के जन्मदाता थे। इस 23 दिसंबर को अनाम अपने जन्मदाता की अनुपस्थिति में उन्हें एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पहली बार उन का जन्मदिन मनाएगा। इस दिन साँयकाल 6.30 बजे एलबर्ट आइंस्टाइन सीनयर सैकण्डरी विद्यालय, वसंत विहार, कोटा के रंगमंच पर, जहाँ शिवराम की उपस्थिति और उन के निर्देशन में अनाम ने पहले भी अनेक नाटकों का मंचन किया है, अनाम शिवराम के सब से उल्लेखनीय और शायद सब से अधिक मंचित नाटक 'जनता पागल हो गई है' और 'घुसपैठिए' का मंचन करने जा रहा है। इस अवसर पर शिवराम की एक शिष्या ऋचा शर्मा उन की कविताओं का सस्वर पाठ करेंगी और उन के पुत्र रविकुमार अपने कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी सजाएंगे। इस अवसर पर नगर के वयोवृद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी मुख्य अतिथि होंगे तथा गुरूकुल इंजिनियरिंग कॉलेज कोटा के प्राचार्य डॉ. आर.सी. मिश्रा विशिष्ट अतिथि होंगे। शिवराम के रंगकर्म और उन के  अन्य कार्यों के सहयोगी विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा, श्रमजीवी विचार मंच कोटा तथा एलबर्ट आइंस्टाइन सी.सै. विद्यालय, कोटा इस आयोजन में अनाम का सहयोग कर रहे हैं। 

  स आयोजन का निमंत्रण यहाँ प्रस्तुत है। आप सभी से अनुरोध है कि जो भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकता है वह इस अवसर पर अवश्य उपस्थित हों।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

विजिटिंग कार्ड बनाम बर्डे का न्यौता

ह 1990 के साल के मार्च महिने की चौबीस तारीख थी। मैं अदालत से वापस लौटा ही था। अचानक पहले कॉलबेल बजी, फिर लोहे के मेनगेट के बजने की आवाज आई। मैं देखने बाहर की और लपका तो वहाँ पास ही सेना का एक ट्रक खड़ा था। वह उसी से उतरी लगती थी। एक 6-7 वर्ष की एक सुंदर सी लड़की सजी-धजी खड़ी थी। एक महिला ट्रक से नीचे झाँक रही थी। लड़की के हाथ में मेरा विजिटिंग कार्ड था। तभी ट्रक से एक फौजी अफसर उतरा।पूछने लगा वकील दिनेशराय द्विवेदी का मकान यही है? मैं ने हाँ में सिर हिलाया। लड़की पूछ रही थी -पूर्वा यहीँ रहती है? फौजी अफसर ने बताया कि वह लड़की उस की बेटी है, पूर्वा के साथ पढ़ती है, उसे छोड़ कर जा रहे हैं दो घंटे बाद लौटेंगे। तब तक पूर्वा भी बाहर आ कर अपनी सहपाठिन को ले कर घर में जा चुकी थी।
म अंदर लौटे। वह पूर्वा का जन्मदिन था। वह टॉफियाँ ले कर स्कूल गई थी और अपने सहपाठियों को वितरित की थीं। पर जन्मदिन मनाने के लिए इतना पर्याप्त कैसे हो सकता था। सभी सहपाठियों में से दोस्तों को तो किसी तरह अलग करना था। श्वेत आइवरी शीट पर छप कर आए मेरे नए विजिटिंग कार्ड्स में से कुछ वह अपने साथ स्कूल ले गई थी और अपने दोस्तों को दे कर उन्हें घर आने का न्यौता दे चुकी थी। एक दोस्त आ भी चुकी थी और हमें अब खबर हो रही थी। हम ने सोचा था शाम को बाजार जाएंगे पूर्वा के लिए उपहार खरीदेंगे और वहीं किसी रेस्तराँ में शाम का भोजन करेंगे। पर हमारी योजना तो ध्वस्त हो चुकी थी।तुरंत नयी योजना पर काम आरंभ करना था।
मुझे यह पता करने के लिए कि पूर्वा ने कितने मित्रों को आमंत्रित किया था, उस से जिरह करनी पड़ी। पता लगा कि वह करीब आठ-दस कार्ड दे कर आई है। हमारा अनुमान था कि आधे मित्र तो आ ही जाएंगे। पत्नी ने कहा यदि तीन-चार बच्चे ही हुए तो पार्टी का कोई आनंद नहीं रहेगा। मुहल्ले के कुछ बच्चों को और आमंत्रित किया गया। मैं नमकीन, मिठाइयाँ और केक लेने बाजार दौड़ा। वापस लौटा तो ड्राइंग रूम सजाने के लिए  गुब्बारे-शुब्बारे कर आया, एक-दो मददगारों को भी बोल कर आया कि वे जल्दी पहुँचें। उन दिनों आज के शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' तब शायर नहीं हुए थे और फोटोग्राफी का स्टू़डियो चलाते थे, उनसे कहता आया कि उन्हें फोटो लेने आना है।  कुछ देर बाद एक और दंपति अपनी दो बेटियों के साथ नमूदार हुए। ये श्री बोहरा थे, इंजिनियरिंग कॉलेज में गणित के अध्यापक। वे भी अपनी बेटियों को छोड़ कर चले गए।
मरे को सजाया गया, केक काटा गया और पार्टी आरंभ हुई और चलती रही। पहला झटका तब लगा जब फौज की गाड़ी पहली लड़की को लेने आ पहुँची। धीरे-धीरे सब चले गए। बाद में बोहरा परिवार से दोस्ती हुई जो आज तक कायम है और पूरे जीवन रहेगी। इस दोस्ती की नींव तो बच्चों ने रखी थी लेकिन उसे परवान चढ़ाया गृहणियों ने। गृहणियाँ सदैव परिवार की धुरी रही हैं। ऐसी ही दो धुरियों पर परिवारों की दोस्ती कायम हो जाए तो स्थायी बन जाती है।
बोहरा और द्विवेदी दंपति