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शुक्रवार, 20 मार्च 2020

कोविद-19 का नेग


17 मार्च तक अदालत में कामकाज सामान्य था। 18 को जब अदालत गया तो हाईकोर्ट का हुकम आ चुका था, केवल अर्जेंट काम होंगे। अदालत परिसर को सेनीटाइज करने और हर अदालत में सेनीटाइजर और हाथ धोने को साबुन का इन्तजाम करने को कहा गया था, वो नदारद था। काम न होने से हम मध्यान्ह की चाय के लिए 1.30 के बजाय 12.40 पर ही चले गए। वापस लौटे तब तक अदालत के तीनों गेट बंद थे। केवल एक गेट की खिड़की चालू थी। अब अन्दर जाने के लिए गेट नंबर-1 से ही जाना होता जो दूर था। सब मुकदमों में पेशियाँ हो चुकी थीं। परिसर के अंदर वाले एक सहायक से बैग मंगाया, बाउंड्री के ऊपर से उसने दिया। मैं 2 बजे के पहले घर आ गया।

कल मैं नहीं, केवल मेरा सहायक अदालत गया। कोई आधे घण्टे में ही मोबाइल एप पर सारे मुकदमों की पेशियाँ मिल गयीं। घण्टे भर में तो सहायक भी वापस लौट कर आ गया। उसने बताया कि केवल गेट नं.1 की खिड़की खुली थी, वहाँ एक पुलिसमेन और एक अदालत कर्मचारी तैनात था। मात्र अदालत स्टाफ, वकील और उनके क्लर्कों के अलावा किसी  ही अदालत परिसर में आने दिया जा रहा था।

यूँ मेरे पास वकालत का काम हमेशा पैंडिंग रहता है, मैंने सोचा उसी को निपटाया जाए। पर मन नहीं लगा। टीवी पर फिल्म देखने बैठ गया। सालों बाद पूरी फिल्म देखी, जितेन्द्र-जया की "परिचय"। उत्तमार्ध ने सूची बना रखी थी बाजार से लाने वाले सामानों की। मैंने उसके दो हिस्से किए। कैश काउंटर से लाने वाले सामान कल ले आया। उसके यहां हमारी जरूरत वाला चाय का ब्रांड उपयुक्त साइज का नहीं था। आज उसके और कुछ और चीजों के लिए दुबारा बाजार जाना पड़ेगा। बाजार सामान्य था। बस भीड़ कम थी, इतनी कि रामपुरा बाजार और उसकी गलियों में बिना किसी से टकराए आसानी से निकला जा सकता था।

दवा वाले की दुकान से दो दवाएँ लानी थीं। उनमें से एक नहीं थी। मैं दोनों नहीं लाया। सोचा शाम को ले लूंगा, पर दुबारा बाजार जाना नहीं हुआ। उसके पास एक सेनेटाइजर जेल उपलब्ध था। लेकिन बहुत महंगा। इस कारण मैं नहीं लाया। मुझे लगा कि उसके बिना काम चलाया जा सकता है। साबुन से हाथ धोकर वे कम से कम एक माह की जरूरत के पहले से घर पर मौजूद थे। कुछ दूसरी जरूरी चीजें लेने के लिए जो घर पर लगभग खत्म होने की स्थिति में हैं आज फिर बाजार जाना पड़ेगा।

अखबार में खबर है कि नगर में विदेश से आए 112 लोगों की स्क्रीनिंग की गयी है। तीन सन्दिग्ध हैं इनमें से दो अस्पताल में भर्ती हैं, शेष एक को घर पर आइसोलेट किया गया है। अब तक आइसोलेट किए जाने वाले लोगों की संख्या 107 हैं। 7 संदिग्धों के आइसोलेशन के 28 दिन पूरे हो चुके हैं। फिलहाल 127 लोग चिकित्सा विभाग की निगरानी में हैं। अच्छी बात यह है कि अभी तक कोई कोविद-19 का पोजिटिव नहीं पाया गया है। फिर भी नगर जिस तरह से एहतियात बरत रहा है वह अच्छा है।

अखबार में यह भी खबर है कि इटली में कोविद-19 से हुई मौतों की संख्या 3405 ने चीन में हुई मौतों की संख्या 3245 को पीछे छोड़ दिया है। यह बहुत बुरी खबर है। सबसे अधिक आबादी वाला चीन ने इस कोविद-19 के विजय अभियान को बिना कोई हल्ला किए सफलता पूर्वक रोक दिया है। इटली में अभी वायरस का विजय अभियान जारी है। बाकी विश्व बुरी तरह आतङ्कित है। हमारी अपनी तैयारी को देख कर बहुत बुरा महसूस हो रहा है। हैंड सेनेटाइजर, हैंड वाश और मास्क पर जम कर कालाबाजारी हो रही है। पैनिक में खाने-पीने की वस्तुएँ बाजार से गायब हो गयी हैं। विशेष रूप से पीएमओ की नाक के नीचे एनसीआर में यह संकट है। वहाँ से जो खबरें आ रही हैं वे अच्छी नहीं हैं। नोएडा में बेटी को तीन दिन से मल्टीग्रेन आटा नहीं मिल रहा था। कल सामान्य गेहूँ आटा खऱीद कर लाना पड़ा। एक और मित्र ने कहा कि गाजियाबाद में आटा बाजार से गायब है। निश्चित रूप से गलियों में यही ऊंचे दामों पर मिल रहा होगा वह भी सीमित मात्रा में। साहेब, आप कितना ही कहें कि मास्क और सेनेटाइजरों की, घरेलू सामानों की कोई कमी नहीं है। पर जब ग्राउण्ड रिपोर्ट विपरीत आ रही हो तो साहेब की बात पर विश्वास हो तो कैसे? इसबीच खबर ये भी है कि डॉलर 76 रुपए का हो चला है।

खैर¡ आप तो इतवार के कर्फ्यू के लिए तैयार हो जाइए। बाहर कतई न निकलें। निकलेंगे तो सोच लीजिए आपके साथ क्या-क्या हो सकता है? मैं ने बताने का ठेका नहीं ले रखा। बस वेलेंटाइन-डे के अगले दिन के अखबार की खबरों को याद रखें। हाँ, थाली या ताली बजाना तो मूर्खता लगती है। मैंने सुना है और बचपन में देखा भी है कि थाली घर में बेटा होने पर बजाई जाती थी और शाम तक ताली बजाने वाले पहुँच जाते थे, अपना नेग वसूलने के लिए। आप भी तैयार हो जाइए नेग तो वसूला जाएगा ही। आखिर आपके घर कोविद-19 पैदा हुआ है।

- दिनेशराय द्विवेदी, कोटा-20.03.2020

रविवार, 15 मार्च 2020

मरीजों की दवा कौन करे


दुखते हुए जख्मों पर हवा कौन करे,
इस हाल में जीने की दुआ कौन करे,
बीमार है जब खुद ही हकीमाने वतन,
तेरे इन मरीजों की दवा कौन करे ...
 
किस शायर की पंक्तियाँ हैं ये, पता नहीं लग रहा है। पर जिसने भी लिखी होंगी, जरूर वह जख्मी भी रहा होगा और मुल्क के हालात से परेशान भी। आज भी हालात कमोबेश वैसे ही हैं।
 
कोरोना वायरस ने दुनिया भर को हलकान कर रखा है। दुनिया के सभी देश कोरोना वायरस को परास्त करने के लिए मुस्तैदी से कदम उठा रहे हैं। लेकिन हम नाटकीय लोग हैं। हम नाटक करने में जुट गए हैं। बरसात होने के बाद गड्ढों में पानी भर जाता है तो मेंढ़क बाहर निकल आते हैं, यह उनके प्रजनन का वक्त होता है। वे अंडे देने और उन्हें निषेचित कराने को अपने साथी को बुलाने के लिए टर्र-टर्र की आवाज करने लगते हैं। इसे ही हम मेंढ़की ब्याहना कहते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि बरसात मेंढ़की के ब्याहने से होती है। फिर जब कभी बरसात नहीं होती तो हम  समारोह पूर्वक मेंढ़की ब्याहने का नाटक करते हैं, जैसे उस से बरसात होने लगेगी। हम सब जानते हैं, ऐसा नहीं होता। लेकिन फिर भी नाटक करने में क्या जाता है। वैसे इन नाटकों से बहुत लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाता है। बल्कि कुछ लोग तो इन्हीं नाटकों के भरोसे जिन्दा हैं। जिन्दा ही नहीं बल्कि राज तक कर रहे हैं।
 
कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए हम क्या कर रहे हैं? लगभग कुछ नहीं। हम अपने घटिया धर्मों, परंपराओँ और अन्धविश्वासों के हथियारों से उसे हराने की बात कर रहे हैं, जिनसे इंसान के अलावा कोई परास्त नहीं होता। गोबर और गौमूत्र थियरियाँ फिर से चल पड़ी हैं। यही नहीं उससे नाम से कमाई भी की जा रही है। कुछ सौ रुपयों में गौमूत्र पेय और गोबर स्नान उपलब्ध करा दिए गए हैं। गाय को उन्होंने कब से माँ घोषित कर रखा है। जो खुद की माँ को न तो कभी समझ सके हैं और न कभी समझेंगे। यदि वे उसे समझते तो शायद गाय, गौमूत्र और गोबर के फेर में न पड़ते। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ज्यादातर वायरल बीमारियाँ पालतू जानवरों से ही मनुष्यों में फैली हैं। लेकिन हम उन्ही पालतू जानवरों के मल-मूत्र से उसकी चिकित्सा करने में जुटे पड़े हैं।
 
Image result for कोरोना वायरस
उधर बचाव के लिए जरूरी चीजें बाजार से गायब हो चुकी हैं। मास्कों, सैनिटाइजरों और हैंड-वाशों  की बाजार में कोई कमी नहीं होती। टीवी पर खूब विज्ञापन रोज चलते दिखाई देते रहे हैं। लगभग जितना स्टॉक होता है वह कम भी नहीं होता। लेकिन मांग बाजार में आने के पहले ही ये सब चीजें बाजार से गायब हो चुकी हैं। जिससे इन चीजों के दाम बढ़ाए जा सकें और मुनाफा कूटा जा सके। हम दसों दिशाओँ से मुनाफाखोरों से घिरे हैं।   
 
हमारे देश के मौजूदा आका भी कम नहीं। जब जनता मुसीबत में है तब इस वक्त में भी वे मुनाफा कूटने में लगे हैं। कोरोना वायरस के प्रभाव से काफी समय बाद अन्तराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतें गिरी हैं। जब तेल के दाम बाजार से जोड़ दिए गए हैं तो होना तो यह चाहिए था कि इस का लाभ सीधे उपभोक्ताओं को मिलता। लेकिन सरकार को तेल के दाम गिरना कहाँ मंजूर है? जितने दाम गिरने चाहिए थे उतना उस पर टैक्स बढ़ा दिया है। जब जनता सब तरफ से मर रही है तब सरकार अपना खजाना भर रही है। क्यों न भरे? जनता मरे तो मरे उन्हें क्या? जब जनता भक्ति में लीन हो तो भगवान के लिए वही मौका होता है तब भक्त की जेब काट कर अपने ऐश के सामान जुटा ले। तो आपके भगवान इस वक्त की सब से बड़ी आफत के समय इसी में लगे हैं। फिलहाल विदेश यात्राएँ बंद हैं। आफत से बचने के लिए भगवान बंकर में जमींदोज हैं। खजाना भर रहा है। लेकिन कभी तो ये संकट टलेगा। जैसे ही पता लगेगा कि कोरोना अब आफत नहीं है। फिर निकलेंगे विदेश यात्रा के लिए।


शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी

ज और कल देश के 11 केन्द्रीय मजदूर संगठन हड़ताल कर रहे हैं। उन के साथ आटो, टैक्सी बस वाले और कुछ राज्यों में सरकारी कर्मचारी भी हड़ताल पर जा रहे हैं।  केन्द्रीय संगठनों ने इस दो दिनों की हड़ताल की घोषणा कई सप्ताह पहले कर दी थी।  सरकार चाहती तो इस हड़ताल को टालने के लिए बहुत पहले ही केन्द्रीय संगठनों से वार्ता आरंभ कर सकती थी। लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया। वह अंतिम दिनों तक हड़ताल की तैयारियों का जायजा लेती रही। जब उसे लगने लगा कि यह हड़ताल ऐतिहासिक होने जा रही है तो हड़ताल के तीन दिन पहले केन्द्रीय संगठनों से हड़ताल न करने की अपील की और एक दिखावे की वार्ता भी कर डाली।  न तो सरकार की मंशा इस हड़ताल को टालने की थी और न ही वह इस स्थिति में है कि वह मजदूर संगठनों की मांगों पर कोई ठीक ठीक संतोषजनक आश्वासन दे सके।  इस का कारण यह है कि यह हड़ताल वास्तव  में वर्तमान केन्द्र सरकार की श्रमजीवी जनता की विरोधी नीतियों के विरुद्ध है। श्रम संगठन तमाम श्रमजीवी जनता के लिए राहत चाहते हैं। जब कि सरकार केवल पूंजीपतियों के भरोसे विकास के रास्ते पर चल पड़ी है चाहे जनता को कितने ही कष्ट क्यों न हों। वह इस मार्ग से वापस लौट नहीं सकती।  सरकार की प्रतिबद्धताएँ देश की जनता के प्रति होने के स्थान पर दुनिया के पूंजीपतियों और साम्राज्यवादी देशों के साथ किए गए वायदों के साथ है। 
लिए देखते हैं कि इन केन्द्रीय मजदूर संगठनों की इस हड़ताल से जुड़ी मांगें क्या हैं?

  1. महंगाई के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियां बदली जाएं
  2. महंगाई के मद्देनजर मिनिमम वेज (न्यूनतम भत्ता) बढ़ाया जाए
  3. सरकारी संगठनों में अनुकंपा के आधार पर नौकरियां दी जाएं
  4. आउटसोर्सिंग के बजाए रेग्युलर कर्मचारियों की भर्तियां हों
  5. सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी प्राइवेट कंपनियों को न बेची जाए
  6. बैंकों के विलय (मर्जर) की पॉलिसी लागू न की जाए
  7. केंद्रीय कर्मचारियों के लिए भी हर 5 साल में वेतन में संशोधन हो
  8. न्यू पेंशन स्कीम बंद की जाए, पुरानी स्कीम ही लागू हो 
मांगो की इस फेहरिस्त से स्पष्ट है कि केन्द्रीय मजदूर संगठन इस बार जिन मांगों को ले कर मैदान में उतरे हैं  वे आम श्रमजीवी जनता को राहत प्रदान करने के लिए है।  

स बीच प्रचार माध्यमों, मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार यह माहौल बनाना चाहती है कि इस हड़ताल से देश को बीस हजार करोड़ रुपयों की हानि होगी।  जनता को कष्ट होगा।  वास्तव में इस हड़ताल से जो हानि होगी वह देश की न हो कर पूंजीपतियों की होने वाली है।  जहाँ तक जनता के कष्ट का प्रश्न है तो कोई दिन ऐसा है जिस दिन यह सरकार जनता को कोई न कोई भारी मानसिक, शारीरिक व आर्थिक संताप नहीं दे रही हो। यह सरकार पिछले दस वर्षों से लगातार एक गीत गा रही है कि वह महंगाई कम करने के लिए कदम उठा रही है। लेकिन हर बार जो भी कदम वह उठाती है उस से महंगाई और बढ़ जाती है। कम होने का तो कोई इशारा तक नहीं है। 
हा जा रहा है कि मजदूरों और कर्मचारियों को देश के लिए काम करना चाहिए।  वे तो हमेशा ही देश के लिए काम करते हैं। पर इस सरकार ने उन के लिए पिछले कुछ सालों में महंगाई बढ़ाने और उन को मिल रहे वेतनों का मूल्य कम करने के सिवा किया ही क्या है? ऐसे में वे भी यह कह सकते हैं कि जिस काम के प्रतिफल का लाभ उन्हें नहीं मिलता वैसा काम वे करें ही क्यों? 
मित्रों! यह हड़ताल देश की समस्त श्रमजीवी जनता के पक्ष की हड़ताल है और यह हड़ताल कैसी भी हो लेकिन इस हड़ताल का ऐतिहासिक महत्व होगा क्यों कि यह शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमजीवी वर्गों का शंखनाद है और इस बार सभी रंगों के झण्डे वाले मजदूर संगठन एक साथ हैं। यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी और भविष्य के लिए भारतीय समाज को एक नई दिशा देगी।


शुक्रवार, 29 जून 2012

अभियान का आखिरी दिन

र्किट हाउस तिराहे से अदालत की ओर मुड़ना था पर वहाँ सिपाही लगे थे और सब को सीधे निकलने का इशारा कर रहे थे।  सिपाहियों के पीछे सर्किट हाउस के गेट से कुछ आगे सड़क के बीचों बीच शामियाना तना हुआ था और रास्ता बन्द था।  अब अदालत पहुँचने के लिए मुझे दो किलोमीटर का चक्कर लगाना था।  मैं ने सोचा, आज क्या है?  फिर सुबह अखबार में पढ़ी खबर का ध्यान आया कि आज विपक्ष के महंगाई विरोधी आंदोलन का अन्तिम दिन है और पूरे देश में गिरफ्तारियाँ दी जा रही हैं। खैर, मैं घूम कर अदालत चौराहे पहुँचा। आज किस्मत अच्छी थी, मुझे पार्किंग में जगह खाली मिल गई। चौराहे का नक्शा बदला हुआ था। राजभवन और अदालत की ओर जाने वाले रास्तों पर बेरीकेड लगे थे।  दोनों ही रास्तों पर आज पार्किंग नहीं करने दी गई थी और आवागमन बंद था। केवल शहर की ओर से आने वाला रास्ता खुला था। गिरफ्तारी वालों के जलूस उधर से आ कर मंच के सामने एकत्र हो सकते थे, आ जाने के बाद खिसकने का कोई रास्ता नहीं था।  सब तरफ पुलिस जवान तैनात थे जिन में डंडा वालों से ले कर बंदूक वाले तक थे।  एण्टीरॉयट वाहन पोजीशन लिए खड़े थे।  रोज पार्क होने वाले वाहन न होने से अदालत वाली सड़क और दिनों की अपेक्षा चौगुनी चौड़ी लग रही थी। अस्पताल वाली सड़क पर गिरफ्तार करने के बाद लोगों को ले जाने के लिए बीसियों खाली बसें पंक्तिबद्ध खड़ी थीं।

रीब बारह बजे, मंच से उद्घोषणाएँ आरंभ हो गईं, ... मंच के दाईं तरफ का स्थान पत्रकारों के लिए है, कार्यकर्ता उन पर न बैठें ... बाईं तरफ सब के लिए शीतल जल की व्यवस्था है ... आदि आदि। मैं मंच की और झाँका तो मंच पर उद्घोषक के साथ दो-एक लोग थे, मंच के सामने आठ-दस लोग खड़े थे बाकी दो सौ मीटर तक लोगों के बैठने के लिए बिछाए गए फर्श खाली थे। इंतजाम देख कर मुझे लग रहा था जैसे दशहरे पर रावणवध का आयोजन किया जा रहा हो।

क बजे के लगभग ढोलों के बजने की आवाजें आने लगीं।  शायद जलूस निकट आ चुका था। तो मौके पर तैनात पुलिस वाले सतर्क हो कर बेरीकेडस् के पास एकत्र होने लगे। तभी एक अफसर ने आ कर डंडा और बंदूक वालों को एकत्र कर उन्हें कुछ निर्देश दिए।  पुलिसवालों ने पोजीशन ले ली।  मेरे दिमाग में चित्र बनने लगे ... अभी महंगाई के कारण गुस्से से भरे लोग आएंगे और बेरीकेडस् तोड़ कर कलेक्ट्री की ओर जाने की कोशिश करेंगे, पुलिस वाले रोकेंगे, वे जबरन उधर जाने की जिद करेंगे, पुलिस वाले लाठियाँ तानेंगे, तभी कोई पुलिस पर पत्थर फैंकेंगा। पुलिस वाले गुस्से में लाठियाँ चलाने लगेंगे। कुछ भगदड़ होगी, लेकिन लोग भागेंगे नहीं, फिर डट जाएंगे। तब एण्टीरॉयट वाहन से पानी की बौछारें छोड़ी जाएंगी। सारे रास्ते पानी फैलेगा। लोग भागने लगेंगे, कुछ वहीं फिसल कर गिर पडेंगे। गिरे हुए लोगों को अधिक लाठियाँ खानी पड़ेंगी, नेता और उन के कुछ चमचे फिर भी अड़े रहेंगे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा ...

लूस निकट आ गया। मंच से नारे लगने लगे। मैं अदालत की सीमा में एक टेबल पर खड़ा हो देखने लगा। कुछ लोग ढोल बजा रहे थे, कुछ नाचते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे। लगा अभी बेरीकेड को टक्कर मारेंगे और वह गिर पड़ेगा। पर ऐसा कुछ न हुआ। जलूस चौराहे पर बने सर्कल से मंच की ओर मुड़ गया। लोग मंच के आगे जा कर बैठने लगे। ये सब देहात वाले थे। कुछ देर बाद नगर वालों का जलूस भी आ पहुँचा। वह भी देहात वालों की नकल करता हुआ मंच की तरफ मुड़ गया। मंच के सामने कम लोग बैठे। ज्यादातर ने पानी के इंतजाम के आसपास भीड़ लगा दी। मंच से फिर निर्देश दिए जाने लगे, पत्रकारों का स्थान खाली रखना है, वहाँ केवल पत्रकार ही बैठें; पानी एक-एक कर लें, भीड़ न लगाएँ, आदि आदि। पन्द्रह मिनट बाद सभा जमी, मंच से भाषण होने लगे।  केन्द्र और राज्य की सरकारों को कोसा जाने लगा। जनता की दुर्दशा का बखान होने लगा। पौन घंटे में सब नेता निपट लिए। फिर घोषणा हुई कि सब अनुशासन पूर्वक गिरफ्तारी देंगे, किसी तरह की वायलेंस नहीं करेंगे। लोग खड़े हो गए, पुलिस भी सतर्क हो गई। लोग सीधे गिरफ्तारी के बाद बैठाए जाने वाली बसों की ओर दौड़ पड़े। कुछ बस में चढ़े, कुछ बसों में जगह खाली होने पर भी उन की छतों पर चढ़ गए। छत का आनंद अलग होता है। बसें चल पड़ीं। बसों में पुलिस एक भी नहीं थी जिस की लोगों को एक फर्लांग आगे जा कर लोगों को सुध आई।  लोगों ने बस रुकवा दी और उतर कर वापस लौट लिए। फिर पुलिस ने उन्हें दूसरी बसों में बैठाया गया। इस बार डंडे वाली पुलिस दो-दो जवान भी हर एक बस में चढ़े।  बहुत से लोग ऐसे भी थे जो किसी बस में नहीं चढ़े वे पैदल ही खिसक लिए। पुलिस ने उन्हें खिसकने दिया। बीसेक मिनट में चौराहा खाली हो गया। केवल पुलिस वाले रह गए। किसी अफसर ने इशारा किया तो मजदूर आ गए और बेरिकेडस् हटाने लगे।


गले दिन अखबारों में आंदोलन के चित्र छपे, चित्र ऐसे थे कि दो तीन सौ आदमी भी हजारों नजर आएँ। यह भी छपा था कि लोगों को पास के स्टेडियम के पास ले जा कर छोड़ दिया गया। गिरफ्तार होने वाले आँकड़ों पर बहस छिड़ी थी। पुलिस ने गिरफ्तार लोगों की संख्या 300 बताई जब कि नेता कह रहे थे 1873 लोग गिरफ्तार हुए, बसें कम पड़ गईं। नेता जी का बयान छपा था- महंगाई मौजूदा सरकार की गलत नीतियों के कारण बढ़ रही है। आमजन के लिए जीवन यापन चुनौती बन गया है।  हमारा महंगाई विरोधी अभियान का आज अंतिम दिन था। अभियान भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन विपक्ष सरकार की गलत नीतियों का विरोध करता रहेगा।

रविवार, 24 जून 2012

किसान और आम जनता की क्रय शक्ति की किसे चिंता है?


किसी भी विकासशील देश का लक्ष्य होना चाहिए कि वह जितनी जल्दी हो सके विकसित हो, उस की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो। लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी है कि यह विकास किस के लिए हो? किसी भी देश की जनता के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य व चिकित्सा तथा शिक्षा प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। विकास की मंजिलें चढ़ने के साथ साथ यह देखना भी आवश्यक है कि इन सब की स्थितियाँ देश में कैसी हैं? वे भी विकास की ओर जा रही हैं या नहीं? और विकास की ओर जा रही हैं तो फिर उन के विकास की दिशा क्या है?

भोजन की देश में हालत यह है कि हम अनाज प्रचुर मात्रा में उत्पन्न कर रहे हैं।  जब जब भी अनाज की फसल कट कर मंडियों में आती है तो मंडियों को जाने वाले मार्ग जाम हो जाते हैं।  किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कई कई दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है।  इस के बाद भी जिस भाव पर उन की फसलें बिकतीं हैं वे किसानों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं हैं।  अनाज की बिक्री की प्रतीक्षा के बीच ही बरसात आ कर उन की उपज को खराब कर जाती है।  सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर अनाज की खरीद करती है। लेकिन अनाज खरीदने वाले अफसर अनाज की खरीद पर रिश्वत मांगते हैं।  मंडी के मूल्य और सरकारी खरीद मूल्य में इतना अंतर है कि मध्यम व्यापारी किसानों की जरूरत का लाभ उठा कर उन से औने-पौने दामों पर अनाज खरीद कर उसे ही अफसरों को रिश्वत दे कर सरकारी खरीद केंद्र पर विक्रय कर देते हैं।  दूसरी और किसान अपने अनाज को बेचने के लिए अपने ट्रेक्टर लाइन में खड़ा कर दिनों इंतजार करता रहता है।  उसे कभी सुनने को मिलता है कि बारदाना नहीं है आने पर तुलाई होगी, तो कभी कोई अन्य बहाना सुनने को मिल जाता है।  एक किसान कई दिन तक ट्रेक्टर ले कर सरकारी खरीद में अनाज को बेचने के लिए खड़ा रहा।  उस ने रिश्वत दे कर भी अपना माल बेचने की जुगाड़ लगाने की कोशिश की लेकिन अनाज बेचने के पहले उस के पास रिश्वत देने को धन कहाँ?  तो वह हिसाब भी न बना।  आसमान पर मंडराते बादलों ने उस की हिम्मत को तोड़ दिया और वह सस्ते में अपना माल व्यापारी को बेच कर गाँव रवाना हुआ।  उसे क्या मिला?  बीज, खाद, सिंचाई, पेस्टीसाइड और मजदूरी का खर्च निकालने के बाद इतना भी नहीं कि जो श्रम उस ने उस फसल की बुआई करने से ले कर उसे बेचने तक किया वह न्यूनतम मजदूरी के स्तर तक पहुँच जाए।

सल बेच कर किसान घर लौटा है। अब अगली फसल की तैयारी है। बुआई के साथ ही खाद चाहिए, पेस्टीसाइड्स चाहिए।  लेकिन जब वह खाद खरीदने पहुँचता है तो पता लगता है उस के मूल्य में प्रति बैग 100 से 150 रुपए तक  की वृद्धि हो चुकी है।  उसे अपनी जमीन परती नहीं रखनी।  उसे फसल बोनी है तो खाद और बीज तो खरीदने होंगे।  वह मूल्य दे कर खरीदना चाहता है लेकिन तभी सरकारी फरमान आ जाता है कि खाद पर्याप्त मात्रा में नहीं है इस कारण किसानों को सीमित मात्रा में मिलेगा।

किसान को खेती के लिए खाद, बीज, बिजली, डीजल और आवश्यकता पड़ने पर मजदूर की जरूरत होती है।   इन सब के मूल्यों में प्रत्येक वर्ष वृद्धि हो रही है, खेती का खर्च हर साल बढ़ता जा रहा है लेकिन उस की उपज? जब वह उसे बेचने के लिए निकलता है तो उस के दाम उसे पूरे नहीं मिलते।   नतीजा साफ है, किसानों की क्रय क्षमता घट रही है। पैसा खाद, बीज पेस्टीसाइडस् बनाने वाली कंपनियों और रिश्वतखोर अफसरों की जेब में जा रहा है।

देश की 65-70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है जिस की आय में वृद्धि होने के स्थान पर वह घट रही है।  उस की खरीद क्षमता घट रही है।  वह रोजमर्रा की जरूरतों भोजन, वस्त्र, चिकित्सा और स्वास्थ्य तथा शिक्षा पर उतना खर्च नहीं कर पा रहा है जितना उसे खर्च करना चाहिए। उस से हमारे उन उद्योगों का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है जो किसानों की खरीद पर निर्भर है।  उन का बाजार सिकुड़ रहा है।

देश की सरकार आर्थिक संकट के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को बाजार की सिकुड़न के लिए जिम्मेदार बता कर किनारा करती नजर आती है।   देश के काबिल अर्थ मंत्री को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। लेकिन इस बात की चिंता किसी राजनैतिक दल को नहीं है कि देश की इस 65-70 प्रतिशत आबादी की क्रय क्षमता को किस तरह बनाए ही नहीं रखा जाए, अपितु उसे विकसित कैसे किया जाए।   देश के उद्योंगों का विकास और देश की अर्थ व्यवस्था इसी आबादी की खरीद क्षमता पर निर्भर करती है।   कोई राजनैतिक दल इस समय इस के लिए चिंतित दिखाई नहीं देता।   इस समय राजनैतिक दलों को केवल एक चिंता है कि क्या तिकड़म की जाए कि जनता के वोट मिल जाएँ और किसी तरह सत्ता में अपनी अच्छी हिस्सेदारी तय की जा सके।

रविवार, 29 अप्रैल 2012

शामियाना सुधार अभियान

वित्त मंत्री वाशिंगटन गए। वहाँ जा कर बताया कि प्रधानमंत्री बहुत मजबूत हैं। वे आर्थिक सुधार करने के लिए कटिबद्ध हैं (चाहे कुछ भी क्यों न हो)। उन्हों ने यह भी कहा कि फिलहाल अगले चुनाव में एक पार्टी की सरकार बनने की कोई संभावना नहीं है, फिर भी आर्थिक सुधारों की नैया को केवल अकेले प्रधानमंत्री के भरोसे छोड़ा जा सकता है। वित्त मंत्री के बयान का मतलब इधर दिल्ली में निकाला गया कि सरकार के स्तर पर सब कुछ बेहतरीन है, इस मोर्चे पर किसी और की कोई जरूरत नहीं, गाहे बगाहे हलचल हो भी तो टेका लगाने को वित्त मंत्री मौजूद हैं। कोई संकट है तो पार्टी में। उसे खुद की बे-बैसाखीदार सरकार बनानी है। उस के लिए सेनानियों की जरूरत होगी। अब सब से महत्वपूर्ण काम यही है कि पार्टी को मजबूत करो। यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा दिखाया जाए कि इस दिशा में काम किया जा रहा है। खबर है कि तत्काल अग्रिम पंक्ति के सेनानियों ने पार्टी प्रधान को पत्र लिख कर सूचना दे दी कि वे पार्टी के लिए सरकार में अपने पद की बलि देने को तैयार हैं। बलि के बकरे देवी के मंदिर खुद ही पहुँचने लगे जैसे अगली सरकार में मंत्री पद के बीमे की किस्त जमा कराने आए हों।

प्रधानमंत्री जब भी या कहते या किसी और के श्रीमुख से कहलवाते हैं कि वे आर्थिक सुधारों के प्रति कटिबद्ध हैं, जनता की सांस उखड़ने लगती है। उधर कटिबद्धता का ऐलान होता है कि इधर डीजल मुक्त होने को छटपटाने लगता। जनता डिप्रेशन में आ जाती है। पेट्रोलियम मंत्री को तुरंत बयान देना पड़ता है कि रसोई गैस की सबसिडी वापस नहीं ली जाएगी। जनता को वेंटीलेटर मिल जाता है। वह गैस सिलेण्डर से साँस लेने लगती है। जान बची लाखों पाए। बची हुई जान सिलेण्डर में अटकी रहती है। अस्पताल में कोई वीवीआईपी भर्ती होने न आ जाए वरना सिलेंडर इधर से निकाल कर उधर लगा लगा दिया जाएगा। जान पर फिर बन आएगी।

... मैं सपना देख रहा हूँ। युद्ध स्तर पर पार्टी का शामियाना मजबूत करने के प्रयास चल पड़े हैं। जिस से वह आंधी या बवण्डर आने पर उस का मुकाबला कर पाए। सेनानी शामियाने का निरीक्षण कर रहे हैं। कई छेद दिखाई दे रहे हैं, छोटे-छोटे बड़े-बडे। उनमें पैबंद लगाने की जरूरत है। अनेक पैबंद पहले से लगे हैं, उन में से कई उधड़ गए हैं। बहस चल पड़ी है कि जो पैबंद पहले से उधड़े पड़े हैं उन्हें ठीक किया जाए या फिर नए छेदों में पैबंद लगाए जाएँ? बहस हो रही है। थर्मामीटर में पारा ऊपर की ओर चढ़ रहा है। सब लोग आपस में उलझने लगे हैं। कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। इस बीच कुछ लोग बहस से अलग हो कर फुसफुसाते हैं –बहस से कुछ नहीं होगा, जल्दी से उधड़े हुए पैबंद सियो। पता नहीं कब आंधी चल पड़े। कुछ लोग सुई धागे ले कर उधड़े हुए पैबंद सीने को पिल पड़े हैं, कुछ लोग नये पैबंदों के लिए कपड़े का इन्तजाम करने दौड़ पड़े हैं। पैबंद सीने के लिए सुई घुसाई जाती है, दूसरी ओर से पकड़ कर खींची जाती है। खींचते ही शामियाने की तरफ से धागा कपड़े को चीर देता है। सुई धागे के साथ पैबंद हाथ में रह जाता है, शामियाना छूट जाता है। सीने वालों में से कोई कह रहा है पैबंद लगाना मुश्किल है। शामियाना सुई को तलवार समझ रहा है, शामियाना बदलना पड़ेगा। दूसरों ने तत्काल उस के मुहँ पर हाथ रख कर उसे बंद कर दिया। आवाज वहीं घुट कर रह गई। -शगुन के मौके पर अपशगुनी बात करता है। लोग उसका मुहँ दबाए उसे लाद कर मंच से बाहर ले जाते हैं और सीन से गायब हो जाते हैं।


ह गायब हो गया, पर उस के मुहँ से निकली हुई बात मंच पर रह गई। बात हवा में तैरते हुए हाईकमान के बंद कमरे के रोशनदान से अंदर प्रवेश कर गई। उसे सुन कर वहाँ मीटिंग करते लोग चौंक पड़े। ये खतरनाक बात कहाँ से आई? शामियाना किसी हालत में नहीं बदला जा सकता। सारी साख तो उसी में है। साख चली गई तो सब कुछ मटियामेट, कुछ नहीं बचेगा। नया शामियाना नहीं लगाया जा सकता। लोग उस में बैठने को आएंगे ही नहीं। तब फिर क्या किया जाए? कुछ बोले - पैबंद लगाने से काम चल जाएगा। कुछ ने कहा -कोई और उपाय करना पड़ेगा। एक सलाह आई -शामियाने का ऊपरी कपड़ा वही रहने दिया जाए, अंदर का अस्तर बदल दिया जाए। अस्तर बदलने से पैबंद भी टिकने लगेंगे। कोई कह रहा है -यह उपाय पुराना है, पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है। लेकिन और कोई नया उपाय किसी को नहीं सूझ रहा है। सब एकमत हो गए हैं कि अंदर का अस्तर बदल दिया जाए, साथ ही बाहरी सतह पर अच्छी किस्म का लेमीनेशन करा लिया जाए। बात बहस करने वालों के भेजे में फौरन घुस गई, फैसला हुआ। लेमीनेशन कराया जाएगा। फिर नई बहस शुरू हो गई। लेमिनेशन किस से कराया जाए? राष्ट्रीय कंपनी को इस काम में लगाया जाए या फिर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को इस का आर्डर दिया जाए? मामले में सहमति नहीं बन पा रही है। मुद्दे पर गंभीरता से विचार हो रहा है कि राष्ट्रीय कंपनी को इस काम में लगाने पर कहीं संदेश यह तो नहीं जाएगा कि पार्टी आर्थिक सुधारों से पीछे हट रही है? उधर यह तर्क भी दिया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी को आर्डर दिया तो शामियाने की राष्ट्रीय छवि नष्ट हो जाएगी। विपक्षियों को दुष्प्रचार का मौका घर बैठे मिल जाएगा। ... मेरी नीन्द खुल गई। देखा बिजली चली गई है, पंखा कूलर बंद है, मैं पसीने में नहाया हुआ हूँ।

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सैक्स-सीडी और जनता-इश्क

सेक्स (करना) सभी एकलिंगी जीवधारियों का स्वाभाविक कृत्य है और बच्चों की पैदाइश सेक्स का स्वाभाविक परिणाम। जब भी स्वाभाविक परिणाम को रोकने की कोशिश की जाती है तो अस्वाभाविक परिणाम सामने आने लगते हैं। बच्चों की पैदाइश रोकी जाती है तो सीडी पैदा हो जाती हैं। बच्चों को पैदा होते ही माँ की गोद मिलती है। लेकिन जब सीडी पैदा होती है तो उसे सीधे किसी अखबार या वेब पोर्टल का दफ्तर मिलता है। अदालत की शरण जा कर उसे रुकवाओ तो वह यू-ट्यूब पर नजर आने लगती है, वहाँ रोको तो फेसबुक पर और वहाँ भी रोको तो उस की टोरेंट फाइल बन जाती है। आराम से डाउनलोड हो कर सीधे कंप्यूटरों में उतर जाती है। रिसर्च का नतीजा ये निकला कि सेक्स के परिणाम को रोकने का कोई तरीका नहीं, वह अवश्यंभावी है। 

रिणाम जब अवश्यंभावी हो तो उसे रोकने की कोशिश करना बेकार है। उस से मुँह छुपाना तक बेकार है। एक सज्जन ने परिणाम रोकने की कोशिश नहीं की बच्चे को दुनिया में आने दिया। पर उस से मुहँ छुपा गए। बच्चा बालिग हुआ तो अपनी पहचान बनाने को अदालत जा पहुँचा। वहाँ भी सज्जन मुहँ छुपा गए तो अदालत ने डीएनए टेस्ट करने का आर्डर जारी कर दिया। उस के लिए मना किया तो अदालत ने फैसला दे दिया कि बच्चे की बात सही है। पुरानी पीढ़ी के इस अनुभव से नए लोगों को सीख लेनी चाहिए। वे बच्चे न चाहते हों तो कोई बात नहीं, पर उन्हें आने वाले परिणामों से बचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। बचने के परिणाम गंभीर होते हैं।

रकार भले ही एकवचन हो पर इस का आचरण बहुवचनी होता है। वह एक साथ अनेक के साथ सेक्स कर सकती है। वह एक और तो वित्तीय सुधार करते हुए वर्ड बैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स के साथ सेक्स कर सकती है, दूसरी ओर शहरी और ग्रामीण विकास योजनाएँ चला कर जनता के साथ इश्क फरमा सकती है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब जनता के साथ इश्क फरमाने से वर्डबैंक, आईएमएफ और मल्टीनेशनल्स नाराज हो जाते हैं। उधर उन के साथ सेक्स करने की खबर से जनता नाराज हो जाती है।

 
 जब वर्ड बैंक वगैरा वगैरा नाराज होते हैं तो सरकार को उन्हें मनाने के लिए आर्थिक सलाहकार भेजना पड़ता है। वहाँ जा कर वह समझाता है कि जनता के साथ इश्क फरमाना सरकार की मजबूरी है, आम चुनाव सर पर हैं, जनता के साथ इश्क का नाटक न किया तो सरकार सरकार ही नहीं रहेगी, फिर आप किस के साथ सेक्स करेंगे? आप तो जानते ही हैं कि हम सब से कम बदबूदार सरकार हैं। कोई और सरकार हो गया तो बदबू के कारण उस के पास तक जाना दूभर होगा, सेक्स तो क्या खाक कर पाएंगे? आप सवाल न करें, हमारा साथ दें। इस बार बिना रिश्तेदारों की सरकार बनाने में हमारी मदद करें तो सेक्स में ज्यादा आनंद आएगा।

धर मान मनौवल चल ही रही थी कि सीडी बन कर देस पहुँच गई। सरकार को घेर लिया गया। आर्थिक विकास की गाड़ी गड्ढे में क्यों फँसी पड़ी है? क्या जनता के साथ सरकार का इश्क झूठा नहीं है? सरकार इश्क में धोखा कर रही है। इश्क जनता से, और सेक्स परदेसी से? इधर सरकार की भी सीडी बनने लगी। उधर सलाहकार देस लौटा। कहता है उस की परदेस में बनाई गई सीडी नकली है, फर्जी है। असली तो खुद उस के पास है, देख लो। सरकार के पैरों से सिर तक के अंग सफाई देने लगे। जनता के साथ उस का इश्क सच्चा है, वह किसी और के साथ सेक्स करती है तो वो भी जनता के फायदे के लिए। जनता सोच रही है कि ये सरकार इश्क के काबिल रही भी या नहीं? अब इस से नहीं तो इश्क किस से किया जाए?

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को जनतांत्रिक राजनैतिक संगठन में बदलना ही होगा

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कोर कमेटी के दो सदस्यों पी वी राजगोपालन और राजेन्द्र सिंह ने अपने आप को टीम से अलग करने का निर्णय लिया है, उन का कथन है कि अब आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर रहा है। हिसार चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाने का निर्णय कोर कमेटी का नहीं था। उधर प्रशान्त भूषण पर जम्मू कश्मीर के संबंध में दिए गए उन के बयान के बाद हुए हमले की अन्ना हजारे ने निन्दा तो की है लेकिन इस बात पर अभी निर्णय होना शेष है कि जम्मू-कश्मीर पर उन के अपने बयान पर बने रहने की स्थिति में वे कोर कमेटी के सदस्य बने रह सकेंगे या नहीं। इस तरह आम जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होने पर भी इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नेतृत्वकारी कमेटी की रसोई में बरतन खड़कने की आवाजें देश भर को सुनाई दे रही हैं। 

न्ना हजारे जो इस टीम के सर्वमान्य मुखिया हैं, बार बार यह तो कहते रहे हैं कि उन की टीम किसी चुनाव में भाग नहीं लेगी, लेकिन यह कभी नहीं कहते कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं। यदि वे ऐसा कहते भी हैं तो यह दुनिया का सब से बड़ा झूठ भी होगा। राजनीति करने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि राजनीति करने वाला कोई भी समूह चुनाव में अनिवार्य रूप से भाग ले। यदि कोई समूह मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध या उस के किसी दोष के विरुद्ध जनता को एकत्र कर सरकार के विरुद्ध आंदोलन का संगठन करता है तो तरह वह राज्य की नीति को केवल प्रभावित ही नहीं करता अपितु उसे बदलने की कोशिश भी करता है तथा इस कोशिश को केवल और केवल राजनीति की संज्ञा दी जा सकती है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि विगत अनेक वर्षों से अन्ना हजारे जो कुछ कर रहे हैं वह राजनीति ही है। 

दि कोई समूह या संगठन राजनीति में आता है तो उस संगठन या समूह को एक राजनैतिक संगठन का रूप देना ही होगा। उस की सदस्यता, संगठन का जनतांत्रिक ढांचा, उस के आर्थिक स्रोत, आय-व्यय का हिसाब-किताब, उद्देश्य और लक्ष्य सभी स्पष्ट रूप से जनता के सामने होने चाहिए। लेकिन इंडिया अगेंस्ट करप्शन के साथ ऐसा नहीं है, वहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि इंडिया अगेंस्ट करप्शन को अपना जनान्दोलन संगठित करना है तो फिर उन्हें अपने संगठन को जनता के संगठन के रूप में संगठित करना होगा, उस संगठन का संविधान निर्मित कर उसे सार्वजनिक करना होगा, उस के आर्थिक स्रोत और हिसाब किताब को पारदर्शी बनाना होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट करने होंगे। इस आंदोलन को एक राजनैतिक स्वरूप ग्रहण करना ही होगा, चाहे उन का यह संगठन चुनावों में हिस्सा ले या न ले। यदि ऐसा नहीं होता है तो इस आंदोलन को आगे विकसित कर सकना संभव नहीं हो सकेगा।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करने के साथ उन तक पहुँचाना भी होगा


किसी ने कहा शिवराम बेहतरीन नाटककार थे हिन्दी नुक्कड़नाटकों के जन्मदाता, कोई कह रहा था वे एक अच्छे जन कवि थे, किसी ने बताया शिवराम एक अच्छे आलोचक थे, कोई कह रहा था वे प्रखर वक्ता थे, किसी ने कहा वे अच्छे संगठनकर्ता थे और हर जनान्दोलन में वे आगे रहते थे, एक लड़की कह रही थी, बच्चों को वे मित्र लगते थे। टेलीकॉम वाले बता रहे थे वे जबर ट्रेडयूनियनिस्ट थे, दूसरे ने बताया वे श्रेष्ठ अभिनेता और नाट्यनिर्देशक थे। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के जिला सचिव बता रहे थे वे पार्टी के पॉलिट ब्यूरो के सदस्य थे, उन के देहान्त का समाचार मिलते ही एक और पॉलिट ब्यूरो सदस्य उन की अंत्येष्टी में कोटा पहुँचे थे और जब सब लोग कह रहे थे कि कोटा और राजस्थान के जनान्दोलन की बहुत बड़ी क्षति है तो वे कहने लगे कि वे कोटा की नहीं देश भर के श्रमजीवी जन-गण की क्षति हैं। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उन से देशव्यापी नेतृत्वकारी भूमिका की अपेक्षा रखता था। इतने सारे तथ्य शिवराम के बारे में सामने आ रहे थे कि हर कोई चकित था। शायद कोई भी संपूर्ण शिवराम से परिचित ही नहीं था। हर कोई उन का वह दिखा रहा था जो उस ने देखा, अनुभव किया था। इन सब तथ्यों को सुनने के बाद लग रहा था कि संपूर्ण शिवराम को पुनर्सृजित कर उन्हें पहचानने में अभी हमें वर्षों लगेंगे। फिर भी बहुत से तथ्य ऐसे छूट ही जाएंगे जो शायद उन के पुनर्सर्जकों के पास नहीं पहुँच सकें। जब वे 'संपूर्ण शिवराम' का संपादन कर के उसे प्रेस में दे चुके होंगे तब, जब उस के प्रूफ देखे जा रहे होंगे तब और जब वह प्रकाशित हो कर उस का विमोचन हो रहा होगा तब भी कुछ लोग ऐसे आ ही जाएंगे जो फिर से कहेंगे, नहीं इस शिवराम को वे नहीं जानते, हम जिस शिवराम को जानते हैं वह तो कुछ और ही था। 

शिवराम को हमारे बीच से गए एक वर्ष हो चुका है। यहाँ कोटा में उन के पहले वार्षिक स्मरण के अवसर पर 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा ने दोपहर एक बजे श्रद्धांजलि सभा तीन बजे 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकारों ने सभास्थल के बाहर सड़क पर उन के सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का नुक्कड़-मंचन किया। इस के बाद दूसरे सत्र में एक गोष्ठी का आयोजन किया।  प्रेस-क्लब सभागार में हुई श्रद्धांजलि सभा दिल्ली से आए मुख्य-अतिथि शैलेन्द्र चौहान द्वारा मशाल-प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ हुई। इस सभा में हाड़ौती अंचल के विभिन्न श्रमिक कर्मचारी संगठनों एवं सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ शिवराम की माताजी और पत्नी श्रीमती सोमवती द्वारा उनके के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा में उन के पुत्र रवि कुमार, शशि कुमार और डॉ. पवन अपनी भूमिकाओं के साथ उपस्थित थे। 

शैलेन्द्र चौहान ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें शिवराम की स्तुति करने के बजाय उनके विचारों, कार्य-पद्धति और श्रमजीवी जन-गण के प्रति समर्पण से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने कहा कि पुरानी जड़ परम्परा और नैतिकता के स्थान पर श्रमिकों, किसानों के जीवन के यथार्थ से जुड़ी सच्चाइयों का अध्ययन करते हुए क्रांतिकारी नैतिकता को आत्मसात करना चाहिए। क्रांतिकारी नैतिकता के बिना जन-गण के किसी भी संघर्ष को आगे बढ़ा सकना संभव नहीं है।  सफल प्रथम-सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साम्यवादी विजय शंकर झा ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अपने पतन के कगार पर है, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश की शोषित, पीड़ित जनता के जीवन में खुशहाली संभव है। शिवराम इस परिवर्तन के लिए समर्पित थे। श्रद्धांजलि-सत्र के पश्चात् शिवराम के प्रसिद्ध नाटक जनता पागल हो गई हैकी नुक्कड़ नाटक प्रस्तुति को सैंकड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। नाटक में रोहित पुरूषोत्तम (सरकार), आशीष मोदी (जनता), अजहर (पागल), पवन कुमार (पुलिस अधिकारी) और कपिल सिद्धार्थ (पूंजीपति) की भूमिकाओं को बेहतरीन रीति से अदा किया। लगा जैसे इसे शिवराम ने ही निर्देशित किया हो।  

साँयकालीन सत्र में साथी शिवराम के संकल्पों का भारतविषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्तमान दौर में  अमेरिका सहित पूरी पूंजीवादी दुनिया गहरे आर्थिक संकट में फँस गई है। हमारे देश के शासक घोटालों और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर जन-विरोधी रास्ते पर चल पड़े हैं। आने वाले दिनों में समूची दुनिया में जन-आन्दोलन बढ़ेंगे तथा भ्रष्ट-सत्ताएं ताश के पत्तों की तरह बिखरेंगी। सत्र के अध्यक्ष आर.पी. तिवारी ने कहा कि मेहनतकश जनता का जीवन निर्वाह शासकों ने मुश्किल बना दिया है, लेकिन बिना क्रान्तिकारी विचार और संगठन के परिवर्तन संभव नहीं। दोनों सत्रों में त्रिलोक सिंह, प्यारेलाल, टी.जी. विजय कुमार, शब्बीर अहमद, विजय सिंह पालीवाल, जाकिर भाई, विवेक चतुर्वेदी, पुरूषोत्तम यकीन’, तारकेश्वर तिवारी और राजेन्द्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन महेन्द्र पाण्डेय ने किया। दोनों सत्रों के दौरान प्रसिद्ध नाट्य अभिनेत्री ऋचा शर्मा ने शिवराम की कविताओं का पाठ किया, शायर शकूर अनवर एवं रवि कुमार ने शायरी एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी बातें कही।

2 अक्टूबर को कोटा के प्रेस क्लब सभागार में ही विकल्प’ अखिल भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा' द्वारा जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक साथी शिवरामएवं अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषयों पर परिचर्चाओं का आयोजन किया। कार्यक्रम का आगाज हाडौती अंचल के वरिष्ठ गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा, मदन मदिर, महेन्द्र नेह सहित मंचस्थ लेखकों ने मशाल प्रज्ज्वलित करके किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में ओम नागर और सी.एल. सांखला ने शिवराम के प्रति अपनी सार्थक कविताएँ प्रस्तुत की तथा ऋचा शर्मा ने शिवराम की कुछ प्रतिनिधि कविताओं का पाठ किया।

प्रथम गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने बताया कि शिवराम का लेखन ठहराव से बदलाव की ओर ले जाने का लेखन है। उन्हों ने साहित्य के बन्धे-बन्धाए रास्तों को तोड़ कर आम जन के पक्ष में युगान्तरकारी भूमिका निभाई। मुख्य वक्ता मदन मदिर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि सत्ता और मीडिया ने जनता के पक्ष की भाषा और शब्दों का अवमूल्यन कर दिया है। शिवराम ने अपने नाटकों और साहित्य में जन भाषा का प्रयोग करके अभिजनवादी संस्कृति को चुनौती दी। वे सच्चे अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। कथाकार लता शर्मा ने कहा कि शिवराम ने अपनी कला का विकास उस धूल-मिट्टी  और जमीन पर किया जिसे श्रमिक और किसान अपने पसीने से सींचते हैं। उनका लेखन उनकी दुरूह यात्रा का दस्तावेज है। डॉ. फारूक बख्शी ने फैज अहमद फैज की गज़लों के माध्यम से शिवराम के लेखन की ऊँचाई को व्यक्त किया। डॉ. रामकृष्ण आर्य ने शिवराम को एक निर्भीक एवं मानवतावादी रचनाकार बताया। टी.जी. विजय कुमार ने उन्हे संघर्षशील एवं विवेकवान लेखक की संज्ञा दी। प्रथम सत्र का संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

दूसरे सत्र में अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों-कलाकारों की भूमिकाविषय पर आयोजित परिचर्चा का आरंभ संचालक शकूर अनवर ने गालिब की शायरी के माध्यम से अपने समय की यथार्थ अक्कासी और आजादी के पक्ष में शिवराम की भूमिका को खोल कर किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि शिवराम की भूमिका स्पष्ट थी, उन के संपूर्ण कर्म का लक्ष्य जन-गण की हर प्रकार के शोषण की मुक्ति था। उन्हों ने अपने नाट्यकर्म, लेखन, संगठन और शोषित पीड़ित जन के हर संघर्ष में उपस्थिति से सिद्ध किया कि साहित्य युग परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेखकों और कलाकारों को जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करना ही नहीं है, प्रेमचंद की तरह उसे जनता तक पहुँचाने की भूमिका भी खुद ही निबाहनी होगी। मुख्य वक्ता श्रीमती डॉ. उषा झा ने अपने लिखित पर्चे में साहित्य की युग परिवर्तनकारी भूमिका को कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों के उद्धरणों से सिद्ध किया।  अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि बाजारवाद ने हमारे साहित्य एवं जन-संस्कृति को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। नारायण शर्मा ने कहा कि जब प्रकृति क्षण-क्षण बदलती है तो समाज को क्योंकर नही बदला जा सकता ? रंगकर्मी संदीप राय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नाटक जनता के पक्ष में सर्वाधिक उपयोगी माध्यम है। प्रो. हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने विचलित कर देने वाले नाटक लिखे और प्रतिपक्ष की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अरविन्द सोरल ने कहा कि समय की निहाई पर शिवराम के लेखन का उचित मूल्यांकन होगा।

प्रसिद्ध चित्रकार व कवि रवि कुमार द्वारा शिवराम की कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनी को नगर के प्रबुद्ध श्रोताओं, लेखकों, कलाकारों ओर आमजन ने सराहा। विकल्पकी ओर से अखिलेश अंजुम ने सभी उपस्थित जनों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।     
जनता पागल हो गई है' नाटक की एक प्रस्तुति

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लंबा और सतत संघर्ष जरूरी

ब ये सवाल उठाया जा रहा है कि क्या जन-लोकपाल विधेयक के ज्यों का त्यों पारित हो कर कानून बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? यह सवाल सामान्य लोग भी उठा रहे हैं और राजनैतिक लोग भी। जो लोग वोट की राजनीति को नजदीक से देखते हैं, उस से प्रभावित हैं  और हमारी सरकारों तथा उन के काम करने के तरीकों से भी नजदीकी से परिचित हैं उन के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन आज यही प्रश्न कोटा में राजस्थान के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल ने कुछ पत्रकारों द्वारा किए गए सवालों के जवाब में उठाया। मुझे इस बात का अत्यन्त क्षोभ है कि एक जिम्मेदार मंत्री इस तरह की बात कर सकता है। जनता ने जिसे चुन कर विधान सभा में जिस कर्तव्य के लिए भेजा है और जिस ने सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री पद की शपथ ले कर कर्तव्यों का निर्वहन करने की शपथ ली है वही यह कहने लगे कि इस कर्तव्य का निर्वहन असंभव है तो उस से किस तरह की आशा की जा सकती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि आज देश की बागडोर ऐसे ही लोगों के हाथों में है। मौजूदा जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में यह जनता की विवशता है कि उस के पास अन्य किसी को चुन कर भेजे जाने का विकल्प तक नहीं है। ऐसी अवस्था में जब रामलीला मैदान पर यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आप पार्टी क्यों नहीं बनाते, खुद सरकार में क्यों नहीं आते अरविंद केजरीवाल पूरी दृढ़ता के साथ कहते हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो उन की बात तार्किक लगती है। 

स्थिति यह है कि विधान सभाओं और संसद के लिए नुमाइंदे चुने जाने की जो मौजूदा व्यवस्था है वह जनता के सही नुमाइंदे भेजने में पूरी तरह अक्षम सिद्ध हो चुकी है। उसे बदलने की आवश्यकता है। जब तक वह व्यवस्था बदली नहीं जाती तब तक चुनावों के माध्यम से जनता के सच्चे नुमाइंदे विधायिका और कार्यपालिका में भेजा जाना संभव ही नहीं है। वहाँ वे ही लोग पहुँच सकते हैं जिन्हें इस देश के बीस प्रतिशत संपन्न लोगों का वरदहस्त और मदद प्राप्त है। वे इस चुनावी व्यवस्था के माध्यम से चुने जा कर जनप्रतिनिधि कहलाते हैं। लेकिन वे वास्तव में उन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इस देश को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। देश में फैला भ्रष्टाचार उन की जीवनी शक्ति है। इसी के माध्यम से वे इन कथित जनप्रतिनिधियों को अपने इशारों पर नचाते हैं और जन प्रतिनिधि नाचते हैं। 

भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आंदोलन इस देश में अब खड़ा हो रहा है वह अभी नगरीय जनता में सिमटा है बावजूद इस के कि कल हुए प्रदर्शनों में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग जो घरों, दफ्तरों व काम की जगहों से निकल कर सड़क पर तिरंगा लिए आ गए हैं और वंदे मातरम्, भारत माता की जय तथा इंकलाब जिन्दाबाद के नारों से वातावरण को गुंजा रहे हैं। भारतीय जनता के बहुत थोड़ा हिस्सा हैं। लेकिन यह ज्वाला जो जली है उस की आँच निश्चय ही देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। पूरे देश में विस्तार पा रही इस अग्नि को रोक पाने की शक्ति किसी में नहीं है। यह आग ही वह विश्वास पैदा कर रही है जो दिलासा देती है कि भ्रष्टाचार से मुक्ति पाई जा सकती है। लेकिन जन-लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने मात्र से यह सब हो सकना मुमकिन नहीं है। यह बात तो इस आंदोलन का नेतृत्व करने रहे स्वयं अन्ना हजारे भी स्वीकार करते हैं कि जन-लोकपाल कानून 65 प्रतिशत तक भ्रष्टाचार को कम कर सकता है, अर्थात एक तिहाई से अधिक भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगी उसे कैसे समाप्त किया जा सकेगा? 

लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि  जो जनता इस आंदोलन का हिस्सा बन रही है जो इस में तपने जा रही है उस में शामिल लोग अभी से यह तय करना शुरू कर दें कि वे भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं बनेंगे तो भ्रष्टाचार को इस देश से लगभग समाप्त किया जा सकता है। भ्रष्टाचारी सदैव जिस चीज से डरता है वह है उस का सार्वजनिक रूप से भ्रष्ट होने का उद्घोष। जहाँ भी हमें भ्रष्टाचार दिखे वहीं हम उस का मुकाबला करें, उसे तुरंत सार्वजनिक करें। एक बार भ्रष्ट होने का मूल्य समाज में सब से बड़ी बुराई के रूप में स्थापित होने लगेगा तो भ्रष्टाचार दुम दबा कर भागने लगेगा। अभी उस के लिए अच्छा वातावरण है, लोगों में उत्साह है। यदि इसी वातावरण में यह काम आरंभ हो जाए तो अच्छे परिणाम आ सकते हैं। जो लोग चाहते हैं कि वास्तव में भ्रष्टाचार समाप्त हो तो उन्हें एक लंबे और सतत संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

रविवार, 21 अगस्त 2011

भट्टी में जाने के पहले, ईंट ये गल-बह जाए

त्ताधीश का कारोबार बहुत जंजाली होता है। उसे सदैव भय लगा रहता है कि कहीं सत्ता उस के हाथ से छिन न जाए। इस लिए वह अपने जंजाल को लगातार विस्तार देता रहता है। ठीक मकड़ी की तरह, जो यह सोचती है कि उस ने जो जाल बनाया है वह उसे भोजन भी देगा और रक्षा भी। ऐसा होता भी है। उस के भोज्य जाल में फँस जाते हैं, निकल नहीं पाते और प्राण त्याग देते हैं। तब मकड़ी उन्हें आराम से चट करती रहती है। लेकिन मकड़ी के जाल की अपनी सीमा है। जिस दिन बारिश से सामना होता है, जाल भी बह जाता है और साथ ही मकड़ी भी। बारिश न भी हो तो भी एक दिन मकड़ी का बनाया जाल इतना विस्तृत हो जाता है कि वह खुद ही उस से बाहर नहीं निकल पाती, उस का बनाया जाल ही उस के प्राण ले लेता है। 


ब देश में सत्ता किस की है? यह बहुत ही विकट प्रश्न है। किताबों में बताती हैं कि सत्ता देश की जनता की है। आखिर इकसठ साल पहले लिखे गए संविधान के पहले पन्ने पर यही लिखा था "हम भारत के लोग ...." लेकिन जब जनता अपनी ओर देखती है तो खुद को निरीह पाती है। कोई है जो केरोसीन, पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ा देता है, फिर सारी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। जनता है कि टुकर-टुकुर देखती रहती है। समझ आने लगता है कि सत्ता की डोरी उन के आसपास भी नहीं है। सत्ता को सरकार चलाती है। हम समझते हैं कि सरकार की सत्ता है। जनता सरकार को कहती है कानून बनाने के लिए तो सरकार संसद का रास्ता दिखाती है। हम समझते हैं कि संसद की सत्ता है। सरकार कहती है संसद सर्वोच्च है तो संविधान का हवाला दे कोई कह देता है कि संसद नहीं जनता सर्वोच्च है। संसद को, सरकार को जनता चुनती है। जनता मालिक है और संसद और सरकार उस के नौकर हैं। 

जरीए संविधान, यह सच लगता है कि जनता देश की मालिक है। यह भी समझ आता है कि संसद और सरकार उस के नौकर हैं। लेकिन ये कैसे नौकर हैं। तनख्वाह तो जनता से लेते हैं और गाते-बजाते हैं पैसे रुपए (पैसा तो अब रहा ही कहाँ)  वालों के लिए, जमीन वालों के लिए। तब पता लगता है कि सत्ता तो रुपयों की है, जमीन की है। जिस का उस पर कब्जा है उस की है। बड़ा भ्रष्टाचार है जी, तनखा हम से और गीत रुपए-जमीन वालों के। इन गाने वालों को सजा मिलनी चाहिए। पर सजा तो कानून से ही दी जा सकती है, वह है ही नहीं। जनता कहती है -कानून बनाओ, वे कहते हैं -बनाएंगे। जनता कहती है -अभी बनाओ। तो वे हँसते है, हा! हा! हा! कानून कोई ऐसे बनता है? कानून  बनता है संसद में। पहले कच्चा बनता है, फिर संसद में दिखाया जाता है, फिर खड़ी पंचायत उसे जाँचती परखती है, लोगों को दिखाती है, राय लेती है। जब कच्चा, अच्छे से बन जाता तब  जा कर संसद के भट्टे में पकाती है। गोया कानून न हुआ, मिट्टी की ईंट हुई।  जनता कहती है अच्छे वाली कच्ची ईंट हमारे पास है, तुम इसे संसद की भट्टी में पका कर दे दो। वे कहते हैं -ऐसे कैसे पका दें? हम तो अपने कायदे से पकाएंगे। फिर आप की ईंट कैसे पका दें? हमें लोगों ने चुना है हम हमारी पकाएंगे और जब मरजी आएगी पकाएंगे। देखते नहीं भट्टे में ऐसी वैसी ईँट नहीं पक सकती। कायदे से बनी हुई पकती है। 42 साल हो गए हमें अच्छी-कच्ची बनाते। भट्टे में पक जाए ऐसी अब तक नहीं बनी। अब तुरत से कैसे बनेगी? कैसे पकेगी?


 सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो। मुखौटा मनमोहक होता है, ऐसा कि जनता समझती रहे कि सत्ता उसी की है। उसे मनमोहन मिल भी जाते हैं। वे पाँच-सात बरस तक जनता का मन भी मोहते रहते हैं। जब सत्ता संकट में फँसती है तो संकट-हरन की भूमिका भी निभाते हैं। वे कहते हैं -हम ईंट पकाने के मामले पर बातचीत को तैयार हैं, उस के लिए दरवाजे हमेशा खुले हैं।  लेकिन हम सर्वसम्मति से बनाएंगे। सर्व में राजा भी शामिल हैं और कलमाड़ी भी। उन की बदकिस्मती कि वे तो जेल में बंद हैं। बहुत से वे भी हैं, जो खुशकिस्मत हैं और जेल से बाहर हैं। उन सब की सम्मति कैसे होगी? मनमोहन मन मोहना चाहते हैं। तब तक जब तक कि बारिश न आ जाए।  ये जनता जिस ईंट को पकवाना चाहती है वह बारिश के पानी में गल कर बह न जाए।  वे गा रहे हैं रेन डांस का गाना ....

इन्दर राजा पानी दो
इत्ता इत्ता पानी दो 

मोटी मोटी बूंदो वाली
तगड़ी सी बारिश आए
भट्टी में जाने के पहले 
ईंट ये गल-बह जाए



शनिवार, 16 जुलाई 2011

जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा

ड़े पूंजीपतियों, भूधरों, नौकरशाहों, ठेकेदारों, और इन सब की रक्षा में सन्नद्ध खड़े रहने वाले राजनेताओं के अलावा शायद ही कोई हो जो देश की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट हो। शेष हर कोई मौजूदा व्यवस्था में बदलाव चाहता है। सब लोग चाहते हैं कि भ्रष्टाचार की समाप्ति हो।  महंगाई पर लगाम लगे। गाँव, खेत के मजदूर चाहते हैं उन्हें वर्ष भर रोजगार और पूरी मजदूरी मिले। किसान चाहता है कि वह जो कुछ उपजाए उस का लाभकारी दाम मिले,  पर्याप्त पानी और चौबीसों घंटे बिजली मिले, बच्चों को गावों में कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक की स्तरीय शिक्षा मिले। नजदीक में स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त हों। गाँव तक पक्की सड़क हो और आवागमन के सार्वजनिक साधन हों। नए उद्योग नगरों में खोले जाने के स्थान पर नगरों से 100-50 किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किए जाएँ। ग्रामीणों के बच्चे नगरों के महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएँ तो उन्हें वहाँ सस्ते छात्रावास मिलें और उन से उच्च शिक्षा में कम शुल्क ली जाए। 

गरों के निवासी चाहते हैं कि उन के बच्चों को विद्यालयों में प्रवेश मिले। विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में समानता लाई जाए। सब को रोजगार मिले, मजदूरों को न्यूनतम वेतन की गारंटी हो, कोई नियोजक मजदूरों की मजूरी न दबाए। राशन अच्छा मिले, यातायात के सार्वजनिक साधन हों। जिन के पास मकान नहीं हैं उन्हें मकान बनाने को सस्ते भूखंड मिल जाएँ। खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट न हो। अस्पतालों में जेबकटी न हो। चिकित्सक, दवा विक्रेता और दवा कंपनियाँ उन्हें लूटें नहीं। बेंकों में लम्बी लम्बी लाइनें न लगें। सरकारी विभागों में पद खाली न रहें। रात्रि को सड़कों पर लगी बत्तियाँ रोशन रहें। नलों में पानी आता रहे। बिजली जाए नहीं। नियमित रूप से सफाई होती रहे, गंदगी इकट्ठी न हो। सड़कों पर आवारा जानवर इधर उधर मुहँ न मारते रहें। अपराध न के बराबर हों और हर अपराध करने वाले को सजा मिले। सभी मुकदमों में एक वर्ष में निर्णय हो जाए। अपील छह माह से कम समय में निर्णीत की जाए। बसों, रेलों में लोग लटके न जाएँ। जिसे यात्रा करना आवश्यक है उसे रेल-बस में स्थान मिल जाए। वह ऐजेंटों की जेबकटी का शिकार न हो। दफ्तरों से रिश्वतखोरी मिट जाए।  आमजनता के विभिन्न हिस्सों की चाहतें और भी हैं। और उन में से कोई भी नाजायज नहीं है।

लेकिन बदलाव का रास्ता नहीं सूझता। पहले लोग सोचते थे कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री चीजों को ठीक कर सकता है। लेकिन ईमानदार प्रधानमंत्री भी देख लिया। मुझे अपने ननिहाल का नदी पार वाला पठारी मैदान याद आ जाता है। जहाँ हजारों प्राकृतिक पत्थर पड़े दिखाई देते हैं, सब के सब गोलाई लिए हुए। लेकिन जिस पत्थर को हटा कर देखो उसी के नीचे अनेक बिच्छू दिखाई देते हैं। लोग सोचते थे कि वोट से सब कुछ बदल जाएगा। जैसे 1977  में आपातकाल के बाद बदला था वैसे ही बदल जाएगा। लेकिन वह बदलाव स्थाई नहीं रह पाया। मोरारजी दस सालों में देश की सारी बेरोजगारी मिटाने की गारंटी दे रहे थे। कोटा  यात्रा के दौरान उन दिनों नौजवानों के नेता महेन्द्र ने उन से कहा कि हमें आप की गारंटी पर विश्वास नहीं है, आप सिर्फ इतना बता दें कि ये बेरोजगारी मिटाएंगे  कैसे तो वे आग-बबूला हो कर बोले। तुम पढ़े लिखे नौजवान काम नहीं करना चाहते। बूट पालिश क्यों नहीं करते? महेन्द्र ने उन से पलट कर पूछा कि आप को पता भी है कि देश के कितने लोगों को वे जूते नसीब होते हैं जिन पर पालिश की जा सके? वे निरुत्तर थे। अफसरशाही का सारा लवाजमा महेन्द्र को देखता रह गया। मोरारजी कोटा से चले गए, सत्ता से गए और दुनिया से भी चले गए। बेरोजगारी कम होने के स्थान प बदस्तूर बढ़ती रही। महेन्द्र का नाम केन्द्र और राज्य के खुफिया विभाग वालों की सूची में चढ़ गया। अब तीस साल बाद भी सादी वर्दी वाले उन की खबर लेते रहते हैं। 

वोट की कहें तो जो सरकारें बैठी हैं उन्हें जनता के तीस प्रतिशत का भी वोट हासिल नहीं है। पच्चीस प्रतिशत के करीब तो वोट डालते ही नहीं हैं। वे सोचते हैं  'कोउ नृप होय हमें का हानि' जिन्हें लुटना है वे लूटे ही जाएंगे। जिन्हें लूटना है वे लूटते रहेंगे। बाकी में से बहुत से भिन्न भिन्न झंडों पर बँट जाते हैं। फिर चुनाव के वक्त ऐसी बयार बहती है कि लोग सोचते रह जाते हैं कि लक्स साबुन को वोट दिया जाए कि हमाम को। चुनाव हो लेते हैं। या तो वही चेहरे लौट आते हैं। चेहरे बदल भी जाएँ तो काम तो सब के एक जैसे बने रहते हैं। बदलाव और कुछ अच्छा होने के इंतजार में पाँच बरस बीत जाते हैं। फिर नौटंकी चालू हो जाती है। वोट से कुछ बदल भी जाए। कुछ अच्छा करने की नीयत वाले सत्ता में आसीन हो भी जाएँ तो वहाँ उन्हें कुछ करने नहीं दिया जाता। उसे नियमों कानूनों में फँसा दिया जाता है। वह उन से निकल कर कुछ करने पर अड़ भी जाए तो भी कुछ नहीं कर पाता। उस का साथ देने को कोई नहीं मिलता। अब हर कोई समझने लगा है कि सिर्फ वोट से कुछ न बदलेगा।  लेकिन बदलाव तो होना चाहिए। सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो? हमारे यहाँ कहते हैं कि बिना रोए माँ दूध नहीं पिलाती और बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता। तो भाई लोग, जो बदलाव चाहते हैं वे सोचते रहें कि कोई आसमान से टपकेगा और रातों रात सब कुछ बदल देगा। तो ऐसी आशा मिथ्या है। जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा में नाकाम क्यों रहती हैं?

जून माह की 20 तारीख को बंगाल की खाड़ी से चले मानसूनी बादल हाड़ौती की धरती पर पहुँचे और बरसात होने लगी। कई वर्षों से बंगाल की खाड़ी से चले ये बादल इस क्षेत्र तक पहुँच ही नहीं रहे थे। नतीजा ये हो रहा था कि वर्षा के लिए जुलाई के तीसरे सप्ताह तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। पहली ही बरसात से धरती के भीतर बने अपने घरों को छोड़ कर कीट-पतंगे बाहर निकल आए और रात्रि को रोशनियों पर मंडराने लगे। रात को एक-दो या अधिक बार बिजली का गुल होना जरूरी सा हो गया। उत्तमार्ध शोभा ने अगले ही दिन से पोर्च की बिजली जलानी बंद कर दी। रात्रि का भोजन जो हमेशा लगभग आठ-नौ बजे बन कर तैयार होता था, दिन की रोशनी ढलने के पहले बनने लगा। अब आदत तो रात को आठ-नौ बजे भोजन करने की थी, तब तक भोजन ठण्डा हो जाता था। मैं ने बचपन में अपने बुजुर्गों को देखा था जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चातुर्मास में  ब्यालू करते थे, अर्थात रात्रि भोजन बंद कर देते थे। अधिकांश जैन धर्मावलंबी भी चातुर्मास में रात्रि भोजन बंद कर देते हैं। कई ऐसे हैं जिन्हों ने जीवन भर के लिए यह व्रत ले रखा है कि वे रात्रि भोजन न करेंगे। कई जैन तो ऐसे भी हैं जो रात्रि को जल भी ग्रहण नहीं करते। मेरा भी यह विचार बना कि मैं भी क्यों न रात्रि भोजन बन्द कर दूँ, कम  से कम चातुर्मास  के लिए ही। देखते हैं इस का स्वास्थ्य पर कैसा असर होता है? चातुर्मास 11 जुलाई से आरंभ होना था, मैं ने 6 जुलाई से ही अभ्यास करना आरंभ कर दिया। अभ्यास का यह क्रम केवल 9 जुलाई को एक विवाह समारोह में टूटा। वहाँ घोषित रूप से भोजन साँय 7 बजे आरंभ होना था पर हुआ साढ़े आठ बजे। 11 जुलाई से यह क्रम बदस्तूर जारी है। सोच लिया है कि किसी जब रोशनी में भोजन न मिल पायेगा तो अगले दिन ही किया जाएगा। स्वास्थ्य पर इस नियम का क्या असर होता है यह तो चातुर्मास पूर्ण होने पर ही पता लगेगा।

ल संध्या भोजन कर के उठा ही था कि टेलीविजन ने मुम्बई में विस्फोटों का समाचार दिया। मुम्बई पर पिछले आतंकवादी हमले को तीन वर्ष भी नहीं  हुए हैं कि इन विस्फोटों ने उन घावों को फिर से हरा कर दिया। मुम्बई से बहुत करीबी रिश्ता रहा है। तेंतीस वर्ष पहले मैं मुम्बई में बस जाना चाहता था। गया भी था, लेकिन महानगर रास नहीं आने से लौट आया। फिर ढाई वर्ष बेटी मुम्बई में रही।  पिछले आतंकवादी हमले के समय वह वहीं थी। अब बेटा वहाँ है। यह सोच कर कि बेटा अभी काम पर होगा और कुछ ही देर में घर से निकलेगा। उसे विस्फोटों की खबर दे दी जाए। उस से बात हुई तो पता लगा उसे जानकारी हो चुकी है। फिर परिचितों और संबंधियों के फोन आने लगे पता करने के लिए कि बेटा ठीक तो है न। 

मुम्बई पर पिछले वर्षों में अनेक आतंकवादी हमले हुए हैं। न जाने कितनी जानें गई हैं। कितने ही अपाहिज हुए हैं और कितने ही अनाथ। सरकार उन्हें कुछ सहायता देती है। सहायता मिलने के पहले ही मुम्बई चल निकलती है। लोग आशा करने लगते हैं कि इस बार सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करेगी जिस से मुम्बई को ये दिन न देखने पड़ें। कुछ दिन, कुछ माह निकलते हैं। कुछ नहीं होता है तो सरकारें दावे करने लगती हैं कि उन का सुरक्षा इंतजाम अच्छा हो गया है। लेकिन जब कुछ होता है तो इन इन्तजामात की पोल खुल जाती है। फिर जिस तरह के बयान सरकारी लोगों के आते हैं। वे जनता में और क्षोभ उत्पन्न करते हैं। तब और भी निराशा हाथ लगती है जब सत्ताधारी दल के युवा नेता जिसे अगला प्रधानमंत्री कहा जा रहा है यह कहता है कि सभी हमले नहीं रोके जा सकते। प्रश्न यह भी खड़ा हो जाता है कि आखिर सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा करने में नाकाम क्यों हो जाती हैं?

क्यों नहीं सारे हमले रोके जा सकते? मुझे तो उस का एक ही कारण नजर आता है। जनता के सक्रिय सहयोग के बिना यह संभव नहीं है।  लेकिन जनता और प्रशासन के बीच सहयोग तब संभव है जब कि पहले सरकारी ऐजेंसियों के बीच पर्याप्त सहयोग औऱ तालमेल हो और सरकार को जनता पर व जनता को सरकार पर विश्वास हो। लेकिन न तो जनता सरकार पर विश्वास करती है औऱ न ही सरकारें जनता के नजदीक हैं। हमारी सरकारें पिछले कुछ दशकों में जनता से इतना दूर चली गई हैं कि वे ये भरोसा कर ही नहीं सकतीं कि वे सारे आतंकवादी हमलों को रोक सकती है और जनता को संपूर्ण सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। सरकारी दलों का रिश्ता जनता से केवल वोट प्राप्त करने भर का रह गया है। यह जनता खुद भली तरह जानती है और इसी कारण से वह सरकारों पर विश्वास नहीं करती।  

लेकिन इस का  हल क्या है? इस का हल एक ही है, जनता को अपने स्तर पर संगठित होना पड़ेगा। गली, मोहल्लों, बाजारों और कार्य स्थलों पर जनता के संगठन खड़े करने होंगे और संगठनों के माध्यम से मुहिम चला कर प्रत्येक व्यक्ति को  निरंतर सतर्क रहने की आदत डालनी होगी। तभी इस तरह के हमलों को रोका जा सकता है।