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रविवार, 27 जून 2010

गाँव की सामान्य अर्थव्यवस्था - -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रादेवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल से आगे ....... 
 कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था।  पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है। 
चौपाल पर गाँव का एक बालक
मैं ने उन से पूछा -खेती में तो खटना पड़ता होगा?
वे बताने लगे -खेती में आजकल कुछ नहीं करना पड़ता। सभी काम मशीनों से हो जाते हैं जो करवा लिये जाते हैं। बस खाद-बीज-कीटनाशक की व्यवस्था करनी पड़ती है। रखवाली और अन्य कामों के लिए एक हाळी (वार्षिक मजदूरी पर खेती के कामों के लिए रखा मजदूर) रख लेते हैं। हंकाई-जुताई-बिजाई ट्रेक्टर वाला किराए पर कर देता है। फसल पकने पर कंबाइन आ जाता है जो काट कर अनाज निकाल कर बोरों में भर देता है। ट्रेक्टर किराए पर ले कर फसल मंडी में बेच आते हैं। निराई आदि के काम बीच में आ जाते हैं तो मजदूर मिल जाते हैं। उन्हों ने बताया कि गाँव में जितने भी लोगों के पास खुद की भूमि है वे सभी इसी तरह काम करते हैं। किसी के पास ट्रेक्टर और दूसरे साधन हैं तो वे  भी उन से काम करने के लिए मजदूर रख लेते हैं।  गाँव में जिन के पास भूमि है उन सब के पास बहुत समय है, वे केवल खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर मौज-मस्ती में जीवन गुजारते हैं। 
-इस हिसाब से गाँव संपन्न दिखाई देना चाहिए, लेकिन वैसी संपन्नता दिखाई नहीं देती। अभी भी गांव के 70-80 प्रतिशत घरों पर पक्की छतें नहीं हैं। मैं ने पूछा।
पोस्टमेन जी बताने लगे। लोग खुद तो कुछ करते नहीं सब मजूरों और मशीनों पर कराते हैं। नतीजे में खेती में खर्चा बहुत हो जाता है बस गुजारे लायक ही बचता है। जो लोग खेती के साथ दूसरे व्यवसाय करने लगते हैं या जिन्हें नौकरियाँ मिल जाती हैं वे अवश्य संपन्न हो चले हैं, पर ऐसे लोग कम ही हैं। हाँ, जिन के पास खेती नहीं है और केवल मजदूरी पर निर्वाह कर रहे हैं उन के पास इसी कारण से काम की कमी नहीं रही है। जो अच्छा काम करते हैं उन्हें हमेशा काम मिल जाता है। वैसे साल भर काम नहीं रहता है। लेकिन जब काम नहीं मिलता है तब वे नरेगा आदि में चले जाते हैं। उन में से जिन में कोई ऐब नहीं है वे धन संग्रह भी कर पाए हैं। गाँव में स्थिति यह है कि किसी जमीन वाले को पैसे की जरूरत पड़ जाए तो ये मजदूरी करने वाले लोग तीन रुपया सैंकड़ा मासिक ब्याज पर उधार दे देते हैं। 
मैं ने अपने मोबाइल पर समय देखा पौने चार हो रहे थे। मुझे उसी दिन रातको जोधपुर के लिए निकलना था। यह तभी हो सकता था जब कि मैं कम से कम छह बजे तक कोटा अपने घर पहुँच सकता। मुझे लगा अब यहाँ से चलना चाहिए। मैं ने पोस्टमेन जी से विदा लेनी चाही लेकिन, वे मुझे मेरे मेजबान के घर तक छोड़ने आए।  मेजबान का घर मेहमानों से भरा था। कुछ सुस्ता रहे थे, कुछ बतियाने में लगे थे। लेकिन घर की महिलाओं और लड़कियाँ काम  में लगी थीं। रसोई में चाय बन रही थी। दो महिलाएँ हेण्डपम्प के पास बर्तन साफ करने में लगी थीं। मेहमानों के लिए चाय आई। मैं ने मना किया तो मेरे लिए तुरंत ही नींबू की शिकंजी बन कर आ गई। अब सब लोगों को भोजन कराने की तैयारी थी। जो कहीं और बन रहा था। मैं भोजन करने के लिए रुकता तो फिर जोधपुर न जा सकता था। मैं निकलने के लिए अपनी कार तक आया। उस की धूल झाड़ ही रहा था कि मेजबान का पुत्र वहाँ आ गया। भोजन बिलकुल तैयार है बस आधे घंटे में आप निपट लेंगे, मैं उस के आग्रह को न टाल सका। 
ह मुझे उस स्थान पर ले गया जहाँ भोजन बन रहा था और खिलाया जाना था। वह एक घर था जिस मेंकेवल दो कच्चे कमरेबने थे, शेष भूमि रिक्त थी। जो जानवरों को बांधने आदि के काम आती थी। वहीं भोजन बन रहा था। खाली भूमि को साफ कर दिया गया था जिस से वहाँ बैठा कर भोजन कराया जा सके। हम पाँच-छह लोग जिन्हें जाने की जल्दी थी बिठा दिए गए। भोजन में आलू-टमाटर की स्वादिष्ट सब्जी थी, कच्चे आम की आँच थी जिस में बेसन की नमकीन बूंदी डाली गई थी, इस के अलावा बेसन के चरपरे सेव थे और मीठी बूंदी थी जिसे हम यहाँ नुकती कहते हैं, गरमागरम पूरियाँ परोसी जा रही थीं। हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था, यह। गर्मी के कारण भोजन स्वादिष्ट होने पर भी ठीक से न कर पाए। भोजन के उपरांत हम गाँव से लौट पड़े।

शनिवार, 26 जून 2010

घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा और  देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है  से आगे ....... 
 णेश जी महाराज की जय! जोरों का लगातार उद्घोष सुन कर मेरी झपकी टूट गई। शायद गणेश जी को नीचे से सिंहासन पर बैठाया जा रहा था। मेरी निगाह ऊपर नीम पर गई जिस के पत्तों के बीच से सूरज झाँक-झाँक जाता था। चौपाल पर मर्दों के जाते ही वहाँ बच्चे और युवतियाँ आ खड़े हुए थे। सिंहासन पर बैठते हुए गणेश जी के दर्शन करने की उत्सुकता के साथ। उन के पीछे महिलाएँ घूंघट काढ़े एक हाथ की दो उंगलियों से उस में छेद बना कर एक आँख से दूर से ही सिंहासन पर नजर गड़ाए खड़ी थीं। मुझे मुस्कुराना आ गया। हम दूर की वस्तुएँ को साफ देखने के लिए कभी हथेली को एक नली का रूप दे कर आँख के सामने रख देखते थे तो वे साफ दिखाई देने लगती थीं। कहते हैं कि यदि गहरे कुएँ में नीचे उतर कर आसमान में देखें तो दिन में तारे देखे जा सकते हैं। शायद वही प्रयोग वे घूंघटधारी महिलाएँ कर रही थीं। निश्चित रूप से वे दूर तक अधिक साफ देख पा रही होंगी। मैं ने उधर नजर दौड़ाई तो भीड़ में कुछ न दिखाई दिया। गणेश जी भीड़ से ढके थे।
ब एक एक कर लोग चौपाल पर लौटने लगे थे। हवन फिर से होने लगा। कुछ ही देर में मेहमान और गाँव के लोग हाथों में थैलियाँ लेकर तैयार नजर आए। अब कार्यक्रम का समापन नजदीक था। अंत में पूजा करने वाले मेजबान परिवार के जोड़ों को ये सब कपड़े भेंट करने वाले थे। कुछ ही देर में यह सब भी होने लगा। इतने में नाइन आ गई, सब को ढोबा (दोनों हाथों से बनी अंजुरी)  भर-भर बताशे बांटने लगी। मुझे भी लेने पड़े। मुझे समझ नहीं आया की उन बताशों का मैं क्या करूँ। बच्चों को बुलाया और उन्हें बांटने लगा, कुछ मैं ने भी खाए। मीठे बताशे खा कर पानी पीने से लगा जैसे गर्मी में शरबत की कमी पूरी हो गई है।  एक-एक कर लोग कपड़े पहनाने जाते रहे और वापस लौटते रहे। चौपाल पर फिर बातें होने लगीं। कोई कह रहा था। इन गणेश जी के साथ ही गाँव के सब देवता जमीन से चबूतरों और मंदिरों में आ चुके हैं। किसी दूसरे ने कहा-गणेश जी यूँ तो प्रथम पूज्य हैं लेकिन जिम्मेदार भी हैं। शेष सब देवताओं को चबूतरों पर बिठाने के बाद अपने लिए स्थान बनवाया है। मैं उन ग्रामीणों की समझ पर दंग था। जो सब काम वे खुद कर रहे थे, उस का सारा श्रेय देवताओं को दिए जाते थे। 
भी हनुमान जी के चबूतरे की बात चल निकली। कोई नेता था जो यह श्रेय खुद लेना चाहता था। गाँव वाले कहते थे, हमारे देवता हैं तो हम ही सब कुछ करेंगे। दूसरे की मदद क्यों लें? जब गाँव वाले करने लगे तो उस ने पुलिस का सहारा लिया और गाँव वालों पर मुकदमा बना दिया। सब गाँव वाले मुकदमे में कोटा जाने की बातें ताजा करने लगे। छह माह मुकदमा चला, हर माह कोटा जाना पड़ता था। जब मुकदमा खत्म हुआ तो  आखरी दिन उन में से एक आदमी उदास हो गया। उसे नयापुरा चौराहे पर रतन सेव भंड़ार की कचौड़ियाँ अच्छी लगती थीँ। वह हर पेशी पर जाता तो कचौड़ियाँ जरूर खाता। कहने लगा अब न जाने कब कचौड़ियाँ मिलेंगी। उस की इस आदत का लोग आनंद लेने लगे। जब भी जी चाहता उसे कहते -यार नोटिस आ गए हैं, फिर से तारीखों पर चलना पड़ेगा। वह कहता -जरूर चलेंगे, कचौड़ियाँ तो खाने को मिलेंगी। धीरे-धीरे यह होने लगा कि जब भी कोई बाइक से अकेला कोटा जाने को होता तो उसे साथ चलने को कहता। वह हमेशा तैयार हो जाता, उस की एक ही शर्त होती, रतन सेव वाले की कचौड़ियाँ खिलानी पड़ेंगी।

मुझे लघुशंका हो रही थी। मैं ने एक सज्जन से पूछा किधर जाना होगा। उस ने बिजली के दो खंबों के पीछे निकल जाने को कहा। मैं उधर गया तो वह गणेश जी का पिछवाड़ा निकला। और पीछे गया तो गाँव खत्म हो चला था, खेत आ गए थे। मैं निबट कर लौटा तो एक ने आवाज दे दी -हाथ धोने इधर आ जाओ। वहाँ  बाड़े में हेण्डपंप पर चौपाल पर बैठे लोगों में से एक मौजूद था। मैं वहाँ गया हाथ धोए तो पानी बहुत ठंडा था, जैसे फ्रिज में से निकला हो। मैं ने पानी पिया भी। मैं ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, यहाँ तो पानी ठंडा करने की जरूरत ही नहीं। उन सज्जन ने कहा -यहाँ गर्मी में कोई मटकी का पानी नहीं पीता। सीधे हेण्डपंप से ही निकाल कर पीते हैं। मैं चौपाल पर पहुँचा तो वह खाली थी। सब लोग कपड़े पहना कर जा चुके थे। बस एक बचा था जो मेरा पूर्व परिचित निकला था। वह एक पोस्टमेन था जो आठ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होने तक लगातार सोलह सत्रह वर्ष तक कोटा में मेरी बीट में डाक बांटता रहा था। अब सेवानिवृत्त हो जाने पर यहाँ अपने गाँव में वापस आ कर रहने लगा था। वह कहने लगा  -लो, आप को घर दिखा दूँ। मैं उस के साथ चल पड़ा।
......... क्रमशः

शुक्रवार, 25 जून 2010

देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है

पिछली पोस्ट घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा से आगे .......
चौपाल पर बैठे लोग आप में बतिया रहे थे। मैं अपरिचित था। इस लिए केवल सुनता रहा। कह रहे थे। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ केवल खलिहान हुआ करता था। जहाँ गणेश जी की मूर्ति थी वहीं जागीरदार के कारिंदे अपना मुकाम लगाते।  गाँव नीचे होता था। गाँव जागीरी का था। जागीरदार किसानों से लगान तो वसूलता ही था जरूरत पड़ने पर खाने को अनाज बाढ़ी (यानी जितना अनाज दिया उस से सवाया या ड्योढ़ा फसल पर लौटाना होता)  पर उधार देता था। सारे गाँव की फसल कट कर पहले खलिहान पर आती जहाँ जागीरदार के कारिंदे मौजूद होते थे। फसल से दाने निकालने के बाद पहले लगान और बाढ़ी चुकता होती, उस के बाद ही किसान फसल घर ले जा सकते थे। कुल मिला कर फसल जो आती थी वह साल भर के लिए पर्याप्त नहीं होती थी। और घर चलाने के लिए फिर से कर्जे पर अनाज उधार लेना पड़ता था। कोई किसान न था जो कर्जे में न डूबा रहता हो। कुछ किसान फसल का हिस्सा चुराने की कोशिश भी करते थे। किसी समय कपड़े आदि में अनाज बांध कर कारिंदों की नजर बता कर खलिहान के बाहर डाल देते जहाँ दूसरा साथी मौजूद होता जो अनाज को घऱ पहुँचाता। पकड़े जाने पर जागीरदार सजा देता। लेकिन सजा का भय होते हुए भी लोग भूख से बचने को चोरी करते थे। फिर जागीरें खत्म हो गईं। धीरे-धीरे जागीरदार ने सब जमीनें बेच दीं। हवेली शेष रही उस का क्या करता सो उसे स्कूल को दान कर दिया। इस तरह जागीरी समाप्त हुई।
मैं ने पूछा-फसलें कैसी होती हैं, अब गाँव में? तो कहने लगे फसलें अच्छी होती हैं। मैं ने फिर पूछा -सब स्थानों पर भू-जल स्तर कम हो गया है, यहाँ की क्या स्थिति है। वे बताने लगे यहाँ पानी का तो वरदान है। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ तीस-पैंतीस फुट पर पानी निकल आता है। साल भर हेंड पम्प चलते हैं। मैं ने गांव में एक भी  सार्वजनिक हेंड पम्प नहीं देखा था। इस लिए पूछा -मुझे तो एक भी नजर नहीं आया। एक बुजुर्ग बोले-कैसे नजर आएगा। बाहर कोई हेंड पम्प है ही नहीं। हर घर में कम से कम एक हेंड पम्प है। किसी किसी में दो भी हैं। उधर गांव की निचली तरफ तो कुईं खोदो तो इतना पानी है कि हाथ से लोटा-बाल्टी भर लो। उधर ही एक बोर पंचायत ने करवाया था। उस में इतना पानी है कि स्वतः ही बहता रहता है। हमने उस में पाइप लगा कर खेळ में भर रखा है जिस में जानवर पानी पीते हैं। वहीं कुछ जगह ऐसी बना दी है कि लोग पाइप लगा कर सीधे स्नान कर सकते हैं। जब जरूरत नहीं होती तो पानी खाळ (नाला) में बहता रहता है। वह खाळ एक छोटी नदी जैसा बन गया है। 
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। इतना पानी जमीन में कहाँ से आ रहा है? मैं ने पूछा -आस पास कोई तालाब है? 
-नहीं, कोई नहीं।
-नदी कितनी दूर है? 
-नदी कोई दो कोस (लगभग तीन किलोमीटर) दूर है।
-तो जरूर पानी वहीं से आता होगा? 
-नदी तो बहुत नीचे है, वहाँ से पानी कैसे आएगा? यह तो भूमि ही ऐसी है कि बरसात में पानी सोख लेती है और साल भर देती रहती है।
मेरी इच्छा थी कि गाँव के दूसरे छोर पर, जा कर देखा जाए कि नलके से अपने आप पानी कैसे निकल रहा है। लेकिन कड़ी धूप थी। उस समय कोई मेरे साथ सहर्ष जाने को तैयार भी न था। कहने लगे शाम को चलेंगे। इतने में हवन का प्रथम खंड पूरा हो गया। गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर लाने की तैयारी आरंभ हो गई। चौपाल  की बातें गणेश जी पर केंद्रित  हो गईँ।
लोग किस्सा सुना रहे थे, कैसे मेजबान के परदादा और उन के मित्र नदी से गणेश जी को उठा कर बैलगाड़ी में रख कर गाँव लाए थे? यूँ तो गणेश जी बहुत भारी हैं दो जनों के बस के नहीं है। फिर भी उन की खुद मर्जी थी इस लिए उन के साथ चले आए। इतने बरस नीम की जड़ में नीचे ही बैठे रहे। अब उन की मर्जी हुई तो चबूतरा भी बन गया और सिंहासन भी। 
मैं ने पूछा -अभी गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर सिंहासन तक कैसे लाएँगे? 
वे कहने लगे -सब ले आएँगे। दो से न उठेंगे तो दस मिल कर उठा लेंगे। 
-और उन की मरजी न हुई तो? 
कुछ ऐसे ही थे वे गणेश
- नहीं कैसे नहीं होगी। उन की मरजी न होती तो चबूतरा-सिंहासन बनता? अब वे कैसे नखरे करेंगे। फिर ये कोई एक की मरजी थोड़े ही है। गाँव के पाँच लोगों ने तय कर के चबूतरा-सिंहासन बनाने की बात की है। गणेश जी को पाँच आदमियों की बात माननी होगी। 
मैं ने फिर कहा- और पाँच आदमियों की बात भी न मानी तो।
-कैसे न मानेंगे? पाँच आदमियों (पंचों) की बात वे टाल नहीं सकते। ऐसा हुआ तो गणेश जी पर से ही विश्वास उठ जाएगा। 
मैं सोचता रह गया, बहुत सारे देवताओं को मानने वाले  ग्रामीणों ने उन्हें खुला नहीं छोड़ रखा है। उन्हें भी लोगों  की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और लोग रोजमर्रा के व्यवहारों को ले कर  पूरी तरह व्यवहारिक हैं। मुझे देवीप्रसाद चटोपाध्याय की 'लोकायत' के विवरण स्मरण आने लगे। तभी चौपाल के  सभी मर्द गणेश  जी को उन के सिंहासन पर बिठाने उधर चले गए। मैं एकांत पा कर लेट गया। नीम के नीचे छाहँ थी और हवा चल रही थी। मुझे  झपकी लग गई।
...... क्रमशः

घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा

भी तीन दिन पहले की बात है, हम इतरा रहे थे, कि हमें घमौरियाँ नहीं होतीं। बस आज हो गईं। हमारे अहंकार को इतनी जल्दी झटका इस से पहले कभी न लगा था। हम कहते थे कि पहले हम जब बाराँ में रहते थे तो बहुत होती थी। लेकिन जब से कोटा आए हैं घमौरियाँ विदा ले गई हैं। शायद हमारी बात घमौरियों ने सुन ली। सोचने लगीं। बहुत इतरा रहे हो जनाब! अब चखो मजा। आज घमौरियाँ हो ही गईं। पीठ में सुरसुराहट हो रही है। उस की सोचता हूँ तो झट से छाती पर सुरसुराहट होने लगती है। अब मैं किस किस की सोचूँ, मैं ने सोचना छोड़ दिया ठीक भारत सरकार की तरह। वह एंडरसन की सोचती तो अमरीका नाराज हो जाता। अमरीका की सोचती तो जनता नाराज हो जाती। बस उसने जो चाहा कर लिया, सोचना बंद कर दिया। इसी तरह हमने भी घमौरियों के बारे में सोचना बंद कर दिया।
गाँव का आसमान
ज मुझे श्रीमती जी के साथ एक गांव में जाना पड़ा। यह राष्ट्रीय राजमार्ग सं. 76 पर कोटा से कोई 37 किलोमीटर बाराँ की ओर जाने के बाद उत्तर की ओर सात किलोमीटर अंदर पड़ता है। जैसे ही हम राजमार्ग से हट कर सड़क पर गए तो सड़क एक दम इकहरी हो गई। पर वह गाँव तक डामर की थी। बीच में जितने भी गाँव पड़े वहाँ डामर के स्थान पर हमें पत्थर का खुरंजा मिला। खुरंजे पर कार दूसरे या तीसरे गियर में ही चल सकती थी, अर्थात गति 20-30 किलोमीटर प्र.घं. से अधिक न हो सकती थी। फिर भी उन खुरंजों पर मिट्टी के बनाए स्पीड ब्रेकर मिले। आखिर स्पीड ब्रेकर नगरों में ही थोड़े बन सकते हैं, गाँव इन कामों में पीछे क्यूँ रहें?
गाँव में हमारे जिन रिश्तेदार के यहाँ हमें जाना था वे पिछले जून में उत्तराखंड के तीन धाम की यात्रा कर आए थे। वापस गाँव लौटे तो गणेश जी के दर्शन करने गए। पाया कि गणेश जी एक पेड़ की जड़ पर भूमि पर ही विराजमान  हैं और लगातार धूल-धूसरित होते रहते हैं। कभी कभी जब कोई मानववृन्द पास नहीं होता है तो कुकुर जैसे प्राणी भी उन्हें स्नान करा जाते हैं। ये गणेश जी पास की नदी से उन के परदादा कोई डेढ़ सौ बरस पहले उठा कर लाए थे और गांव के बाहर एक बाड़ी (बगीची) में स्थापित किया था। गाँव की प्रगति इतनी हो गई कि अब स्थापना स्थल गाँव की परिधि में आ चुका था। बगीची बिक चुकी थी, वहाँ मकान बन गए थे। बगीची की बाड़ उन की रक्षा करती थी वह नदारद हो चुकी थी। अब गणेश जी को स्थान की आवश्यकता थी। रिश्तेदार महोदय ने छोटे भाई को आदेश दिया कि गणेश जी के लिए ऊंचा चबूतरा बना दिया जाए खर्च सब भाई मिल कर भुगत लेंगे। चबूतरा बना, उस पर पक्का सिंहासन बन गया। उसी पर गणेश जी को विराजना था। पहले पूजा, हवन आदि हुए, फिर गणेश जी को नए सिंहासन पर बिठाया गया। फिर आगंतुकों और गाँव के लोगों को भोजन-प्रसादी का कार्यक्रम हुआ। 
गाँव की चौपाल पर एक बुजुर्ग
म गाँव पहुँचे तो दिन के ग्यारह बजे थे और अभी गणेश जी की पूजा आरंभ होनी थी। यानी हम कम से कम तीन-चार घंटे फालतू थे। गाँव में बिजली का दिन भर आना जाना लगा रहता है इस कारण से पंखाशऱण तो हो नहीं सकते थे। हम ने देखा पास ही एक चबूतरे पर नीम के पेड़ के नीचे तिरपाल और दरी बिछाई गई है और वहाँ लोग बैठे हैं। हम समझ गए यहीं ग्रामीणों की मेहमानों के साथ चौपाल लगनी है। हम भी वहीँ जा बैठे। पास ही शीतल जल की व्यवस्था थी। एक बीस लीटर की प्लास्टिक के आयल के खाली डिब्बे के आसपास जूट के टाट को सिल दिया गया था। टाट भीगा हुआ था जो पानी को शीतल कर रहा था। प्लास्टिक का डब्बा और जूट की टाट का टुकड़ा खेती के काम में आए वस्तुओँ का कचरा था जिस का उपयोग इस वाटरकूलर को बनाने में किया गया था। हम जैसे ही चौपाल पर बैठे एक ग्रामीण ने हम से पानी के लिए पूछा और एक लोटे में भर कर दिया। वह शीतल था। एक लोटे ने न केवल प्यास बुझाई अपितु रास्ते की थकान को भी दूर कर दिया।  
............क्रमशः