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सोमवार, 9 अगस्त 2010

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है।