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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

समाजवाद और धर्म - व्लादिमीर इल्चीच लेनिन

व्लादिमीर इल्यीच लेनिन ने 2005 में कम्युनिस्ट पार्टी और धर्म के बारे में एक छोटा आलेख लिखा था जो नोवाया झिज्न के अंक 28 में 3 दिसंबर, 1905 को प्रकाशित हुआ था। यह धर्म के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति क्या होनी चाहिए इसे स्पष्ट करता है और एक महत्वपूर्ण आलेख है। 

र्तमान समाज पूर्ण रूप से जनसंख्या की एक अत्यंत नगण्य अल्पसंख्यक द्वारा, भूस्वामियों और पूँजीपतियों द्वारा, मज़दूर वर्ग के व्यापक अवाम के शोषण पर आधारित है। यह एक ग़ुलाम समाज है, क्योंकि "स्वतंत्र" मज़दूर जो जीवन भर पूँजीपजियों के लिए काम करते हैं, जीवन-यापन के केवल ऐसे साधनों के "अधिकारी" हैं जो मुनाफ़ा पैदा करने वाले ग़ुलामों को जीवित रखने के लिए, पूँजीवादी ग़ुलामी को सुरक्षित और क़ायम रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

मज़दूरों का आर्थिक उत्पीड़न अनिवार्यतः हर प्रकार के राजनीतिक उत्पीड़न और सामाजिक अपमान को जन्म देता है तथा आम जनता के आत्मिक और नैतिक जीवन को निम्न श्रेणी का और अन्धकारपूर्ण बनाना आवश्यक बना देता है। मज़दूर अपनी आर्थिक मुक्ति के संघर्ष के लिए न्यूनाधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब तक पूँजी की सत्ता का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता तब तक स्वतंत्रता की कोई भी मात्रा उन्हें दैन्य, बेकारी और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर सकती। धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है। धर्म जनता के लिए अफीम है। धर्म एक प्रकार की आत्मिक शराब है जिसमें पूँजी के ग़ुलाम अपनी मानव प्रतिमा को, अपने थोड़े बहुत मानवोचित जीवन की माँग को, डुबा देते हैं।

लेकिन वह ग़ुलाम जो अपनी ग़ुलामी के प्रति सचेत हो चुका है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में उठ खड़ा हुआ है, उसकी ग़ुलामी आधी उसी समय समाप्त हो चुकी होती है। आधुनिक वर्ग चेतन मजदूर, जो बड़े पैमाने के कारखाना-उद्योग द्वारा शिक्षित और शहरी जीवन के द्वारा प्रबुद्ध हो जाता है, नफरत के साथ धार्मिक पूर्वाग्रहों को त्याग देता है और स्वर्ग की चिन्ता पादरियों और पूँजीवादी धर्मांधों के लिए छोड़ कर अपने लिए इस धरती पर ही एक बेहतर जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के ख़िलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है।

धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिए। समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी न हो, इसलिए इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक व्याख्या होनी चाहिए। हम माँग करते हैं कि जहाँ तक राज्य का सम्बन्ध है, धर्म को व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए। लेकिन जहाँ तक हमारी पार्टी का सवाल है, हम किसी भी प्रकार धर्म को व्यक्तिगत मामला नहीं मानते। धर्म से राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धार्मिक सोसायटियों का सरकार की सत्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह जिसे चाहे उस धर्म को माने, या चाहे तो कोई भी धर्म न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो नियमतः हर समाजवादी समाज होता है। नागरिकों में धार्मिक विश्वास के आधार पर भेदभाव करना पूर्णतः असहनीय है। आधिकारिक काग़ज़ात में किसी नागरिक के धर्म का उल्लेख भी, निस्सन्देह, समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को न तो कोई सहायता मिलनी चाहिए और न पादरियों को अथवा धार्मिक सोसायटियों को राज्य की ओर से किसी प्रकार की रियायत देनी चाहिए। इन्हें सम-विचार वाले नागरिकों की पूर्ण स्वतन्त्र संस्थाएँ बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएँ जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों। इन माँगों को पूरा किये जाने से वह शर्मनाक और अभिशप्त अतीत समाप्त हो सकता है जब चर्च राज्य की सामन्ती निर्भरता पर, और रूसी नागरिक स्थापित चर्च की सामन्ती निर्भरता पर जीवित था, जब मध्यकालीन, धर्म-न्यायालयीय क़ानून (जो आज तक हमारी दंडविधि संहिताओं और क़ानूनी किताबों में बने हुए हैं) अस्तित्व में थे और लागू किये जाते थे, जो आस्था अथवा अनास्था के आधार पर मनुष्यों को दण्डित करते, मनुष्य की अन्तरात्मा का हनन किया करते थे, और आरामदेह सरकारी नौकरियों तथा सरकार द्वारा प्राप्त आमदनियों को स्थापित चर्च के इस या उस धर्म विधान से सम्बद्ध किया करते थे। समाजवादी सर्वहारा आधुनिक राज्य और आधुनिक चर्च से जिस चीज़ की माँग करता है, वह है-राज्य से चर्च का पूर्ण पृथक्करण।

रूसी क्रांति को यह माँग राजनीतिक स्वतन्त्रता के एक आवश्यक घटक के रूप में पूरी करनी चाहिए। इस मामले में रूसी क्रान्ति के समक्ष एक विशेष रूप से अनुकूल स्थिति है, क्योंकि पुलिस-शासित सामन्ती एकतन्त्र की घृणित नौकरशाही से पादरियों में भी असन्तोष, अशान्ति और घृणा उत्पन्न हो गयी है। रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च के पादरी कितने भी अधम और अज्ञानी क्यों न हों, रूस में पुरानी, मध्यकालीन व्यवस्था के पतन के वज्रपात से वे भी जागृत हो गये हैं, वे भी स्वतन्त्रता की माँग में शामिल हो रहे हैं। नौकरशाही व्यवहार और अफ़सरवाद के, पुलिस के लिए जासूसी करने के ख़िलाफ़- जो "प्रभु के सेवकों" पर लाद दी गयी है - विरोध प्रकट कर रहे हैं। हम समाजवादियों को चाहिए कि इस आन्दोलन को अपना समर्थन दें। हमें पुरोहित वर्ग के ईमानदार सदस्यों की माँगों को उनकी परिपूर्णता तक पहुँचाना चाहिए और स्वतन्त्रता के बारे में उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति उन्हें दृढ़ निश्चयी बनाते हुए यह माँग करनी चाहिए कि वे धर्म और पुलिस के बीच विद्यमान सारे सम्बन्धों को दृढ़तापूर्वक समाप्त कर दें। या तो तुम सच्चे हो, और इस हालत में तुम्हें चर्च और राज्य तथा स्कूल और चर्च के पूर्ण पृथक्करण का, धर्म के पूर्ण रूप से और सर्वथा व्यक्तिगत मामला घोषित किये जाने का पक्ष ग्रहण करना चाहिए। या फिर तुम स्वतन्त्रता के लिए इन सुसंगत माँगों को स्वीकार नहीं करते, और इस हालत में तुम स्पष्टतः अभी तक आरामदेह सरकारी नौकरियों और सरकार से प्राप्त आमदनियों से चिपके हुए हो। इस हालत में तुम स्पष्टतः अपने शस्त्रों की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, और राज्य की घूस प्राप्त करते रहना चाहते हो। ऐसी हालत में समस्त रूस के वर्ग चेतन मज़दूर तुम्हारे ख़िलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा करते हैं।

जहाँ तक समाजवादी सर्वहारा की पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढ़िवाद के प्रति न तो तटस्थ रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के ख़िलाफ़ हम शुद्ध सैद्धान्तिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचारपत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है। यदि बात ऐसी ही है, तो हम अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं करते कि हम अनीश्वरवादी हैं? हम अपनी पार्टी में ईसाइयों अथवा ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर क्यों नहीं रोक लगा देते?

इस प्रश्न का उत्तर ही उन अति महत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट करेगा जो बुर्जुआ डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों द्वारा धर्म का प्रश्न उठाने के तरीक़ों में विद्यमान हैं।

हमारा कार्यक्रम पूर्णतः वैज्ञानिक, और इसके अतिरिक्त भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक कुहासे के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या भी आवश्यक रूप से शामिल है। हमारे प्रचार कार्य में आवश्यक रूप से अनीश्वरवाद का प्रचार भी शामिल होना चाहिए; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य का प्रकाशन भी, जिस पर एकतन्त्रीय सामन्ती शासन ने अब तक कठोर प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था, अब हमारी पार्टी के कार्य का एक क्षेत्र बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवतः एंगेल्स की उस सलाह का अनुसरण करना होगा जो उन्होंने एक बार जर्मन समाजवादियों को दी थी-अर्थात हमें फ़्रांस के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करना और उसका व्यापक प्रचार करना चाहिए।

लेकिन हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती। हमारी दृष्टि में, धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए उत्पीड़ित वर्ग के इस वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में एकता परलोक के स्वर्ग के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

यही कारण है कि हम अपने कार्यक्रम में अपनी नास्तिकता को न तो शामिल करते हैं और न हमें करना चाहिए। और यही कारण है कि हम ऐसे सर्वहाराओं को, जिनमें अभी तक पुराने पूर्वाग्रहों के अवशेष विद्यमान हैं, अपनी पार्टी में शामिल होने पर न तो रोक लगाते हैं, न हमें इस पर रोक लगानी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा सदा देंगे और हमारे लिए विभिन्न "ईसाइयों" की विसंगतियों से संघर्ष चलाना भी जरूरी है। लेकिन इसका जरा भी यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक प्रश्न को प्रथम वरीयता दे देनी चाहिये। न ही इसका यह अर्थ है कि हमें उन घटिया मत-मतान्तरों और निरर्थक विचारों के कारण, जो तेजी से महत्वहीन होते जा रहे हैं और स्वयं आर्थिक विकास की धारा में तेजी से कूड़े के ढेर की तरह किनारे लगते जा रहे हैं, वास्तविक क्रान्तिकारी आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष की शक्तियों को बँट जाने देना चाहिए।

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है-इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती हैं। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे - एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ़ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक ग़ुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।


-नोवाया झिज्न, अंक 28, 3 दिसंबर, 1905

https://www.marxists.org/ से साभार 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?

भारतीय परिस्थितियों में एक सवाल हमेशा खड़ा किया जाता है कि क्या अब कम्युनिस्ट पार्टी का संसदीय गतिविधियों में भाग लेना उचित रह गया है? इस प्रश्न का उत्तर हमें सोवियत क्रांति के नेता ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन की वामपंथी कम्युनिज़्म को क्रान्ति के लिए ग़लत मानते हुए उस की व्याख्या और आलोचना करते हुए लिखी गयी चर्चित पुस्तिका "वामपंथी कम्यूुनिज़्म एक बचकाना मर्ज" के सातवें अध्याय में मिलता है। यहाँ इस पुस्तिका का सातवाँ अध्याय अविकल रूप से प्रस्तुत है-

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?
 (“वामपंथी कम्युनिज्म – बचकाना मर्ज पुस्तिका का सातवाँ अध्याय)
- ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन



जर्मन “वामपंथी" कम्युनिस्ट अत्यधिक तिरस्कार के साथ - और गम्भीरता के अत्यधिक प्रभाव के साथ - इस प्रश्न का जवाब देते हैं। 'उनके तर्क? ऊपर हम जो अंश उद्धृत कर चुके हैं। उसमें लिखा है।

"... संसदीय पद्धति के ऐतिहासिक और राजनैतिक दृष्टि से कालातीत संघर्ष रूपों की ओर वापसी को हमें सारी दृढ़ता के साथ त्याग देना चाहिए।

कितने बेतुके दर्प के साथ यह बात कही गयी है और यह बात स्पष्टतः गलत है। संसदीय पद्धति की ओर "वापसी!" क्या जर्मनी में सोवियत जनतंत्र कायम हो चुका है? ऐसा लगता तो नहीं! तो "वापसी का जिक्र कहां से आ गया? क्या यह एक खोखला फ़िकर नहीं है?

"ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत'' संसदीय पद्धति - प्रचार के खयाल से ऐसा कहना सही है। पर हर कोई जानता है कि व्यवहार में उसे पार करना अभी बहुत दूर है। पूंजीवाद के बारे में हम दसियों बरस पहले पूर्ण अधिकार के साथ यह घोषणा कर सकते थे कि वह "ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गया है, पर उससे बहुत लम्बे समय तक और बहुत डटकर पूंजीवाद की धरती पर लड़ने की आवश्यकता नहीं मिट जाती। संसदीय पद्धति “ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गई है - यह बात विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से सही है, अर्थात् पूंजीवादी संसदीय पद्धति का युग समाप्त हो गया है और सर्वहारा अधिनायकत्व का युग आरम्भ हो गया है। यह बात निर्विवाद है। परन्तु विश्व-इतिहास दशकों में हिसाब गाता है। विश्व-इतिहास के मापदंड से मापने पर दस-बीस वर्ष के देर सबेर से कोई अन्तर नहीं पड़ता, विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से वह इतनी छोटी अवधि होती है कि उसका मोटे तौर से भी हिसाब नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि व्यावहारिक राजनीति को विश्व-इतिहास के मापदंड से मापना एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक ग़लती है।

क्या संसदीय पद्धति "राजनीतिक दृष्टि से कालातीत' हो गयी है? यह एक बिलकुल दूसरा पहलू है। यदि यह बात सच होती, तो “वामपंथियों” की स्थिति बहुत मजबूत हो जाती। परन्तु इस बात को साबित करने के लिए बहुत खोजबीन के साथ विश्लेषण करना होगा और “वामपंथी” तो यह भी नहीं जानते कि विश्लेषण किस ढंग से किया जाये। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अमस्टर्डम के अस्थायी ब्यूरो की बुलेटिन (Bulletin of the Provisional Bureau in Amsterdam of the Communist Internationals, February* 1920) के अंक 1 में प्रकाशित * संसदीय पद्धति के बारे में कुछ प्रतिपत्तियाँ' शीर्षक लेख में जो विश्लेषण किया गया है, उसमें डच वामपंथियों या वामपंथी उचों की प्रवृत्ति स्पष्टतः दीख रही है और वह भी बहुत ही खराब है, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे।

पहली बात यह है कि जैसा कि मालूम है रोजा लक्जेमबुर्ग तथा कार्ल लोकनेत जैसे महान राजनैतिक नेताओं के मत के विपरीत जर्मन “वामपंथियों ने जनवरी, 1916 में ही माना कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी थी। हम यह भी जानते हैं कि *वामपंथियों का यह मत ग़लत था। यह अकेला तथ्य एक ही बार में इस पूरे विचार को एकदम नष्ट कर देता है कि संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" हो गयी है। अब वामपंथियों की जिम्मेदारी है कि वे यह साबित करें कि जो बात उस वक्त अकाट्य रूप से गलत थी, अब क्यों गलत नहीं है। इसका वे जरा सा भी सबूत नहीं देते और न दे सकते हैं। किसी राजनैतिक पार्टी में कितनी लगन है, अपने वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के प्रति अपने कर्तव्यों का वह व्यवहार में कैसे पालन करती है। इसे जांचने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अचूक तरीक़ा यह देखना है कि उस पार्टी का स्वयं अपनी गलतियों के प्रति क्या रवैया है। गलती को खुले-आम स्वीकार करना, उसके कारणों का पता लगाना, जिन परिस्थितियों में वह ग़लती हुई थी उनकी छानबीन करना और उसे सुधारने के उपायों पर ध्यानपूर्वक विचार करना - यही गम्भीर पार्टी के लक्षण हैं, यही उसका अपना कर्तव्य पालन करने का मार्ग है, यही पहले वर्ग और फिर जनसाधारण का प्रशिक्षण है। अपने इस कर्तव्य का पालन न करके, अपनी स्पष्ट भूलों का अधिक से अधिक ध्यान, सावधानी तथा गम्भीरता से अध्ययन न करके, जर्मनी (और हालैंड) के 'वामपंथियों ने यह साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि मंडली मात्र हैं, कि वे जनसाधारण पार्टी नहीं हैं, बल्कि बुद्धिजीवियों तथा चन्द ऐसे मजदूरों का दल है जो बुद्धिजीवियों के सबसे खराब अवगुणों की नक़ल करते हैं।

दूसरे, फ्रैंकफुर्ट के “वामपंथियों की उसी पुस्तिका में, जिसमें से कुछ अंश हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं, यह भी लिखा है :
"... जो लाखों मज़दूर आज भी मध्य मार्ग "(कैथोलिक "मध्यमार्गीय" पार्टी)" की नीति का समर्थन करते हैं, वे क्रान्तिविरोधी हैं। गांवों के सर्वहारागण में से क्रान्ति-विरोधी सैनिकों की पलटनें भरती की जाती हैं' (उपरोक्त पुस्तिका का तीसरा पृष्ठ)।
हर वाक्य यही बताता है कि इस कथन में बड़ी अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। पर इसमें कही गयी बुनियादी बात निर्विवाद रूप से सच है और “वामपंथियों ने इसे मानकर साफ़ तौर से अपनी गलती साबित कर दी है। जब “लाखों" सर्वहारागण उनकी पूरी की पूरी "पलटनें" अभी तक न सिर्फ संसदीय पद्धति के पक्ष में हैं, बल्कि एकदम "क्रान्ति विरोधी" है तब कोई यह कैसे कह सकता है कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी है! ? जाहिर है कि जर्मनी में अभी भी संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है। जाहिर है कि जर्मनी में “वामपंथियों ने अपनी इच्छा को, अपने राजनैतिक सैद्धान्तिक रुख को, यथार्थ वास्तविकता मान लिया है। यह क्रान्तिकारियों के लिए सबसे खतरनाक ग़लती है। रूस में बहुत ही लम्बे काल तक जारशाही का खूंखार और बर्बर शासन विविध प्रकार के क्रान्तिकारियों के लिए सब से खतरनाक गलती करता रहा है और इन क्रान्तिकारियों ने आश्चर्यजनक साधना, उत्साह, वीरता और दृढ़ता का परिचय दिया है। इसलिए रूस में हमने क्रान्तिकारियों की यह गलती बहुत निकट से देखी है, बड़े ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन किया है और हमें उसका प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसलिए दूसरों में भी हम इस दोष को बहुत जल्दी और साफ़ देख सकते हैं। बेशक, जर्मनी में कम्युनिस्टों के लिए संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत” हो गयी है, लेकिन असली बात यह है कि हमारे लिए जो कुछ कालातीत पड़ गया है हम उसे वर्ग के लिए, जनसाधारण के लिए कालातीत न समझें। यहां हम फिर देखते हैं कि वामपंथी' लोग तर्क करना नहीं जानते, वे वर्ग की पार्टी की तरह, जनसाधारण की पार्टी की तरह काम करना नहीं जानते। आपको जनसाधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुंच जाना चाहिए। यह बात निर्विवाद है। आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए। आपको उसके पूंजीवादी-जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए। परन्तु साथ ही आपको इस बात को भी बड़ी गम्भीरता के साथ देखना चाहिए कि पूरे वर्ग की (केवल उसके कम्युनिस्ट हिरावल की ही नहीं) और सारे मेहनतकश जनसाधारण की (केवल आगे बढ़े हुए प्रतिनिधियों की ही नहीं) वर्ग-चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत क्या है। 

"लाखों" और "पलटनों” की बात जाने दीजिये, यदि औद्योगिक, मजदूरों का एक अच्छा खासा अल्पमत भी कैथोलिक पादरियों के पीछे चलता है और उसी प्रकार यदि देहाती मजदूरों का एक खासा अल्पमत जमींदारों और कुलकों (Grossbauern) के पीछे चलता है, इससे निस्सन्देह यह निष्कर्ष निकलता है कि जर्मनी में संसदीय पद्धति अभी भी राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है, कि संसद के चुनावों में तथा संसार के मंत्र से होनेवाले संघर्षों में भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए ठीक इसलिए आवश्यक है कि वह अपने बर्ग के पिछड़े हुए लोगों को शिक्षित कर सके और देहातों के अविकसित, दलित तथा अज्ञान-ग्रस्त जनसाधारण में जागृति और ज्ञान का प्रकाश फैला सके। जब तक आप पूंजीवादी संसद और दूसरी हर प्रकार की प्रतिक्रियावादी संस्थाओं को भंग नहीं कर सकते, तब तक आपके लिए उन संस्थाओं के अन्दर काम करना लाज़िमी है और ठीक इस कारण से कि वहां अभी ऐसे मज़दूर हैं, जिन्हें पादरियों ने और देहाती जीवन की नीरसता ने धोखे में डाल रखा है। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो केवल गाल बजानेवाले बनकर रह जायेंगे।

तीसरे, 'वामपंथी' कम्युनिस्ट हम वोल्शेविकों की तारीफ़ में बहुत कुछ कहते हैं। कभी-कभी मन में आता है कि इनसे यह कहा जाए कि हमारी तारीफ़ कम करो और बोल्शेविकों की कार्यनीति को समझने की कोशिश ज्यादा करो, उसे जानने की कोशिश ज्यादा करो! हम लोगों ने सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में रूस की पूंजीवादी संसद के, संविधान सभा के चुनाव में भाग लिया था। उस समय हमारी कार्यनीति सही थी या नहीं? यदि नहीं, तो साफ़-साफ़ कहिये और सावित कीजिये, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म की सही कार्यनीति बनाने के लिए यह करना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यदि यह कार्यनीति सही थी, तो उससे भी कुछ निष्कर्ष निकालिये। जाहिर है कि रूस की परिस्थितियों को पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों के बराबर नहीं रखा जा सकता। फिर भी, जहां तक इस विशेष प्रश्न का सम्बन्ध है कि इस अवधारणा का क्या अर्थ है कि “संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत हो गयी है”, तो इस सिलसिले में हमारे अनुभव पर ध्यानपूर्वक विचार करना आवश्यक है। कारण कि यदि ठोस अनुभव को ध्यान में नहीं रखा जाता, तो ऐसी अवधारणाएँ बड़ी आसानी से खोखले वाक्य बनकर रह जाती हैं। क्या सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में हम रूसी बोल्शेविकों को पश्चिम के किन्हीं भी कम्युनिस्टों से कहीं अधिक यह समझने का अधिकार नहीं था कि संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से रूस में कालातीत पड़ गयी है? बेशक, हमें यह अधिकार था, क्योंकि यहां सवाल यह नहीं है कि पूजीवादी संसद बहुत दिनों से कायम है या कम दिनों से, बल्कि यह है कि व्यापक मेहनतकश जनसाधारण सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए और पूंजीवादी-जनवादी संसद को भंग कर देने के लिए (या उसे भंग हो जाने देने के लिए) किस हद तक (सैद्धान्तिक, राजनैतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से) तैयार है। यह बात बिलकुल निर्विवाद एवं पूर्णतः सिद्ध ऐतिहासिक सत्य है कि कई विशेष कारणों से रूस के शहरी मजदूर और सैनिक तथा किसान, सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने तथा अधिक से अधिक जनवादी-पूंजीवादी संसद को भी भंग कर देने के लिए विशेष रूप से तैयार थे। फिर भी बोल्शेविकों ने संविधान सभा का बहिष्कार नहीं किया, बल्कि सर्वहारा वर्ग के राजनैतिक सत्ता पर अधिकार करने के पहले और बाद में भी उसके चुनावों में भाग लिया। मैं आशा करने का साहस करता हूँ कि मैंने अपने उपरोक्त लेख में, जिसमें रूस की संविधान सभा के चुनावों के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण है, यह बात साबित कर दी है कि इन चुनावों से बहुत ही मूल्यवान (और सर्वहारा वर्ग के लिए बहुत ही लाभदायक) राजनैतिक नतीजे निकले थे।

इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह एकदम निर्विवाद है। यह साबित हो गया है कि सोवियत जनतंत्र की विजय के चन्द हफ्ते पहले भी और उसके बाद भी, एक पूंजीवादी-जनवादी संसद में भाग लेने से क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचता, बल्कि वास्तव में उससे पिछड़े हुए जनसाधारण के सामने यह साबित करने में मदद मिलती है कि ऐसी संसदें क्यों भंग कर देने योग्य हैं; उससे इन संसदों को सफलतापूर्वक भंग करने में मदद मिलती है। उससे पूजीवादी संसदीय पद्धति को "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" बना देने में मदद मिलती है। इस अनुभव को नजरअंदाज करना और फिर भी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबंध रखने का दावा करना - उस इंटरनेशनल से, जिसे अंतर्राष्ट्रीय ढंग से अपनी कार्यनीति (संकुचित, एकतरफ़ा राष्ट्रीय कार्यनीति नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कार्यनीति) निर्धारित करनी है - दुनिया में सबसे बड़ी गलती करना है। यह अंतर्राष्ट्रीयतावाद को शब्दों में मानना, पर वास्तव में उसे तिलांजलि दे देना है।

अब "डच वामपंथियों' के उन तर्कों पर विचार करें, जो उन्होंने संसदों में भाग न लेने के पक्ष में दिये हैं। यह “डच" प्रतिपत्तियों में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपत्ति नं. ४ है, जो अंग्रेजी से अनूदित है:
 "जब उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था टूट गयी हो और सभा क्रान्ति की अवस्था में हो, तब संसदीय सरगर्मी का महत्व खुद जनसाधारण की कार्रवाइयों की तुलना में धीरे-धीरे कम होता जाता है। इसलिए, जब ऐसी परिस्थितियों में संसद क्रान्ति-विरोध का केन्द्र और साधन बन जाती है और दूसरी ओर, जब मजदूर वर्ग सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर लेता है, तब यह भी आवश्यक हो सकता है कि हम हर तरह की संसदीय कार्रवाई से अलग रहें और उसमें भाग न लें।"
 जाहिर है कि पहला वाक्य गलत है, क्योंकि जनसाधारण की कार्रवाई - उदाहरण के लिए एक बड़ी हड़ताल - केवल क्रान्ति के दौरान में या क्रान्तिकारी परिस्थिति में ही नहीं, बल्कि हर समय संसदीय कार्रवाई से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह स्पष्टतः असंगत और ऐतिहासिक तथा राजनैतिक दृष्टि से गलत तर्क इस बात को बिलकुल साफ़ कर देता है कि इन वक्तव्यों के लेखकगण, जहां तक गैर-कानूनी संघर्ष के साथ कानूनी संघर्ष को मिलाने का महत्त्व है, न तो आम यूरोपीय अनुभव को (1848 पौर 1870 की क्रान्तियों के पहले के फ्रांसीसी अनुभव ; 1878-1860 के जर्मन अनुभव, इत्यादि को) ध्यान में रखते हैं, न रूसी अनुभव को (देखिये ऊपर)। यह सवाल आम तौर से और खास तौर से भी बहुत महत्व का है क्योंकि अब सभी सभ्य एवं उन्नत देशों में वह समय बहुत तेजी से नजदीक आ रहा है, जब इन दोनों प्रकार के संघर्षों को इस तरह से मिलाना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए अधिकाधिक आवश्यक होता जायेगा - बल्कि आंशिक रूप से अभी ही आवश्यक हो गया है- क्योंकि सर्वहारा वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध की स्थिति परिपक्व होती जा रही है, उसके छिड़ने की घड़ी निकट आती जा रही है, क्योंकि जनतांत्रिक सरकारें और आम तौर से पूँजीवादी सरकारें कम्युनिस्टों का भीषण दमन करती हैं और कानून को हर तरह तोड़ती हैं। (पहले अमरीका की ही मिसाल देखिये), इत्यादि। इस बहुत महत्वपूर्ण सवाल को डचों और आम तौर से सभी बामपंथियों ने बिलकुल नहीं समझा है।


जहां तक दूसरे वाक्य का प्रश्न है, पहली बात यह है कि इतिहास की दृष्टि से वह गलत है। हम बोल्शेविकों ने घोर से घोर प्रतिक्रियावादी संसदों में भाग लिया है और अनुभव ने इसे साबित कर दिया है कि उनमें भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए न केवल लाभदायक बल्कि आवश्यक भी था। इसकी आवश्यकता रूस की पहली पूंजीवादी क्रान्ति (1905) के ठीक बाद प्रतीत हुई थी, ताकि दूसरी पूंजीवादी क्रान्ति (फ़रवरी, 1917) के लिए और फिर समाजवादी क्रान्ति (नवम्बर, 1917) के लिए तैयारी की जा सके। दूसरे, यह वाक्य आश्चर्यजनक हद तक तर्कहीन है। यदि संसद क्रान्ति-विरोध का साधन और “केन्द्र” बन गये हैं (वास्तव में संसद न कभी "केन्द्र" बनी है और न बन सकती है, पर जाने दीजिये इस बात को) और मजदूर सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर रहे हैं, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को संसद के खिलाफ़ सोवियतों के संघर्ष के लिए, सोवियतों द्वारा संसद के भंग किये जाने के लिए, सैद्धान्तिक, राजनैतिक और तकनीकी तैयारी करनी चाहिए। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि क्रान्ति-विरोधी संसद के अन्दर किसी सोवियत विरोध-पक्ष के रहने से इस संसद को भंग करने में अड़चन पड़ेगी, या उसमें सहायता नहीं मिलेगी। देनीकिन और कोल्चोक के खिलाफ़ हमारे विजयी संघर्ष के दौरान हमें कभी यह नहीं प्रतीत हुआ था कि दुश्मनों के खेमे में एक सोवियत विरोध-पक्ष। सर्वहारा विरोध-पक्ष के अस्तित्व का हमारी सफलता के लिए कोई महत्व नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि 5 जनवरी, 1918 को संविधान सभा भंग करने में इस बात से कोई अड़चन पड़ना तो दूर, सचमुच बड़ी मदद मिली कि क्रान्ति-विरोधी संविधान सभा में, जिसे भंग किया जानेवाला था, एक सुसंगत, बोल्शेविक, सोवियत विरोध-पक्ष के साथ ही एक असंगत, वामपंथी समाजवादी क्रान्तिकारी, सोवियत विरोध-पक्ष भी था। इस प्रतिपत्ति के लेखकगण उलझकर यदि सभी नहीं, तो कम से कम अनेक क्रान्तियों का यह अनुभब बिलकुल भूल गये हैं कि क्रान्ति के समय प्रतिक्रियावादी संसद के बाहर होनेवाले जन-संघर्षों के साथ ही यदि संसद के अन्दर भी क्रान्ति से सहानुभूति रखनेवाला (या बेहतर यह कि प्रत्यक्ष रूप से क्रान्ति का समर्थक) कोई विरोधी दल हो, तो वह कितना उपयोगी होता है। डच और आम तौर से सभी "वामपंथी" यहां उन लकीर पीटनेवाले क्रान्तिकारियों की तरह तर्क करते हैं, जिन्होंने कभी किसी वास्तविक क्रान्ति में भाग नहीं लिया है, या जिन्होंने कभी क्रान्तियों के इतिहास पर गम्भीरता से सोचा नहीं है, अथवा जिन्होंने किसी प्रतिक्रियावादी संस्था के आत्मपरक ढंग से “अस्वीकार किए जाने” को भोलेपन के साथ यह मान लिया है, मानो वह बहुत से बाह्य कारणों के सम्मिलित प्रहार के कारण सचमुच नष्ट हो गयी हो। किसी नये राजनैतिक (और केवल राजनैतिक ही नहीं) विचार को बदनाम करने और नुकसान पहुंचाने का सबसे कारगर तरीका यह है। समर्थन करने के नाम पर उसे मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया जाये। कारण यह है कि प्रत्येक सत्य को (जैसा कि बड़े डीयेट्ज़गेन ने कहा था) अति बड़ा बनाकर और उसकी वास्तविक उपयोगिता की सीमा से बाहर ले जाकर मूर्खता में बदला जा सकता है, बल्कि कहना चाहिये कि ऐसा करने से प्रत्येक सत्य लाजिमी तौर से मूर्खता में बदल जाता है। सोवियत सत्ता पूँजीवादी-जनवादी संसद से बेहतर है - इस नवीन सत्य का डच और जर्मन वामपंथी इसी तरह अपकार कर रहे हैं। इतनी बात तो समझ में आती हैं कि यदि कोई पुराने विचार का समर्थन करता है, या आम तौर से यह मानता है कि पूंजीवादी संसदों में किसी भी हालत में भाग लेने से इनकार करना अनुचित है, तो वह ग़लती करता है। मैं यहाँ उन परिस्थितियों को नहीं बता सकता, जिनमें बहिष्कार करना लाभदायक होता है, क्योंकि इस पुस्तिका का उद्देश्य इससे कहीं छोटा है : यहाँ हम अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट कार्यनीति के कुछ तात्कालिक प्रश्नों के सम्बन्ध में ही रूसी अनुभव का अध्ययन करना चाहते हैं। रूसी अनुभव में हमें बोल्शेविकों द्वारा बहिष्कार का एक सही और सफल उदाहरण (1905) में और एक गलत उदाहरण (1906 में) मिलता है। पहले उदाहरण का विश्लेषण कीजिये तो पता चलता है कि एक ऐसी परिस्थिति में जब जनसाधारण की गैर-संसदीय क्रान्तिकारी कार्रवाइयां (विशेषकर हड़तालें) असामान्य तेजी से बढ़ रही थीं, जब सर्वहारा वर्ग और किसानों का कोई भी हिस्सा किसी भी रूप में प्रतिक्रियावादी सरकार का समर्थन नहीं कर सकता था और जब आम पिछड़ी जनता के ऊपर हड़तालों तथा किसान-आन्दोलन के द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का असर बढ़ रहा था, हमने प्रतिक्रियावादी सरकार को एक प्रतिक्रियावादी संसद बुलाने से रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बिलकुल साफ़ है कि इस अनुभव को आज के यूरोप की हालत पर लागू नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी बिलकुल साफ़ है - और ऊपर की बहस से यह बात साबित हो जाती है कि संसदों में भाग लेने से इनकार करने की नीति का समर्थन करके इन तथा अन्य “वामपंथी" - भले ही वे शर्तों के साथ ऐसा करते हों - बुनियादी तौर से ग़लत और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हेतु के लिए हानिकारक काम कर रहे हैं।

पश्चिमी यूरोप और अमरीका में मजदूर वर्ग के आगे बढ़े हुए क्रान्तिकारी सदस्यों के लिए संसद विशेष रूप से घृणा की वस्तु बन गयी है। यह बात निर्विवाद और आसानी से समझ में आनेवाली है, क्योंकि युद्ध के दिनों में तथा उसके बाद संसदों के अधिकांश समाजवादी तथा सामाजिक-जनवादी सदस्यों का जैसा व्यवहार रहा, उससे अधिक नीच, घृणित और विश्वासघाती व्यवहार की कल्पना करना भी कठिन है। परन्तु इस सामान्यतः स्वीकृत बुराई से लड़ने के तरीके का फैसला करते समय यदि हम इस भावना के वशीभूत हो गये, तो वह न केवल गलत, बल्कि मुजरिमाना हरकत होगी। पश्चिमी यूरोप के बहुत से देशों में आजकल क्रान्तिकारी भावना, हम कह सकते हैं कि एक "नयी चीज", एक ऐसी “अनोखी चीज़" के रूप में सामने आयी है, जिसका लोग अधीर होकर बहुत दिनों से व्यर्थ ही इन्तजार कर रहे थे और शायद यही कारण है कि लोग इतनी आसानी से भावना के वशीभूत हो जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता में क्रांतिकारी भावना के बिना, इस भावना के बढ़ने में सहायता पहुंचानेवाली परिस्थितियों के अभाव में क्रान्तिकारी कार्यनीति को कभी कार्य-रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। परन्तु रूस में हमने एक बहुत लम्बे , तकलीफ़देह और खूनी अनुभव से यह सचाई सीखी है कि क्रान्तिकारी कार्यनीति केवल क्रान्तिकारी भावना के सहारे नहीं बनायी जा सकती। कार्यनीति निर्धारित करने के लिए पहले उस राज्य-विशेष की (उसके आस-पास के राज्यों की तथा संसार भर के राज्यों की) सारी वर्ग-शक्तियों का और साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों के अनुभव का गंभीर तथा सर्वथा वस्तुपरक मूल्यांकन करना आवश्यक है। संसदीय अवसरवाद पर केवल गालियों की बौछार करके, केवल संसदों में भाग लेने का विरोध करके अपना “क्रान्तिकारीपन' साबित कर देना बहुत आसान है और बहुत आसान होने की वजह से ही यह एक कठिन और कठिनतम समस्या का हल नहीं हो सकता। यूरोपीय संसदों में एक सचमुच क्रान्तिकारी संसदीय दल तैयार करना रूस से कहीं ज्यादा कठिन काम है। यह बात ठीक है। पर वह इस आम सत्य की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है कि 1617 की ठोस , इतिहास की दृष्टि से बहुत ही विशेष परिस्थिति में रूस के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू कर देना आसान था, परन्तु क्रान्ति को जारी रखना और उसे पूर्णता तक पहुंचाना रूस के लिए यूरोपीय देशों से अधिक कठिन होगा। 1918 के आरम्भ में ही मैंने इस बात की ओर संकेत किया था और पिछले दो वर्ष के अनुभव ने उसे पूरी तरह साबित कर दिया है। रूस की कुछ विशेष परिस्थितियाँ इस समय पश्चिमी यूरोप में मौजूद नहीं हैं और ऐसी या इनसे मिलती-जुलती परिस्थितियां दुबारा आसानी से उत्पन्न नहीं होंगी। वे परिस्थितियां ये है:
1) सोवियत कान्ति को इस क्रान्ति के फलस्वरूप साम्राज्यवादी युद्ध को समाप्त कर देने के सवाल के साथ जोड़ने की संभावना, जिसने मजदूरों और किसानों का एकदम कचूमर निकाल दिया था; 
2) साम्राज्यवादी डाकुओं के दो बड़े संसार-व्यापी दलों के आपसी सांघातिक संघर्ष से कुछ वक्त तक फायदा उठाने की सम्भावना, जो अपने सोवियत शत्रु के खिलाफ़ एक होने में असमर्थ थे;

3) देश के बहुत ही विस्तृत प्रकार के कारण और संचार के साधनों के बहुत पिछड़ेपन की वजह से एक अपेक्षाकृत लम्बा गृहयुद्ध चलाना सम्भव था;

4) किसानों में एक इतने गहरे पूजीवादी-जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन का अस्तित्व कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने किसानपार्टी (समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टी, जिसके अधिकतर सदस्य निश्चित रूप से बोल्शेविज्म के विरोधी थे) की क्रान्तिकारी मांगों को लेकर, राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के अधिकार करने के फलस्वरूप, उन्हें तुरन्त पूरा कर दिया।

कुछ और कारणों के अलावा, इन परिस्थितियों के अभाव में पश्चिमी यूरोप के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू करना उससे कठिन है, जितना हमारे लिए था। क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिक्रियावादी संसदों का उपयोग करने के कठिन काम को "फलांगकर इस कठिनाई से बचने की कोशिश करना सरासर बचपना है। आप एक नया समाज बनाना चाहते हैं? फिर भी प्रतिक्रियावादी संसद में पक्के, वफ़ादार और बहादुर कम्युनिस्टों का एक अच्छा संसदीय दल बनाने की कठिनाइयों से घबराते हैं! यह बचपना नहीं, तो और क्या है? यदि जर्मनी में कार्ल लीव्कनेख्त और स्वीडन में ज़ेट हेगलुंड नीचे से जनता का समर्थन न मिलने पर भी प्रतिक्रियावादी संसदों के सचमुच क्रान्तिकारी उपयोग की मिसालें पेश कर सके, तो कोई कैसे कह सकता है कि एक तेजी से बढ़ती हुई क्रान्तिकारी जन-पार्टी युद्ध के बाद की उस परिस्थिति में, जब जनता के भ्रम टूट रहे हों और उसका क्रोध बढ़ रहा हो, खराब से खराब संसद में भी एक तपा-तपाया कम्युनिस्ट दल नहीं बना सकती? । पश्चिमी यूरोप के पिछड़े हुए आम मजदूर और उनसे भी ज्यादा-छोटे किसान रूस की तुलना में पूंजीवादी-जनवादी तथा संसदीय पूर्वाग्रहों के कहीं अधिक वशीभूत है। ठीक यही कारण है कि केवल पूंजीवादी संसद जैसी संस्थाओं के अन्दर से ही कम्युनिस्ट एक लम्बा और अनवरत तथा कठिनाइयों के सामने कभी सिर न झुकानेवाला संघर्ष चला सकते हैं (और उन्हें ज़रूर चलाना चाहिए), ताकि उन पूर्वाग्रहों का पर्दाफ़ाश किया जा सके, उनको छिन्न-भिन्न किया जा सके और उनपर विजय प्राप्त की जा सके। 

जर्मन “वामपंथी अपनी पार्टी के बुरे" नेताओं की शिकायतें करते हैं, निराश हो जाते हैं और यहां तक कि “नेताओं को मानने से इनकार करने की बेहूदगी तक करने लगते हैं। परन्तु जब परिस्थितियां ऐसी हैं कि "नेताओं को अक्सर छिपाकर रखना पड़ता है, तब अच्छे, भरोसे के, अनुभवी और प्रभावशाली नेताओं की तैयारी बहुत कठिन हो जाती है और इन कठिनाइयों को सफलतापूर्वक तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि क़ानूनी और गैर-कानूनी कामों को मिलाया नहीं जाता और जब तक अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ संसद के क्षेत्र में भी “नेताओं को परखा नहीं जाता। आलोचना - सख्त से सख्त और अधिक से अधिक निर्मम आलोचना - संसदीय पद्धति या संसदीय काम की नहीं, बल्कि उन नेताओं की करनी चाहिए, जो संसद के चुनावों का और संसद के मंच का क्रान्तिकारी ढंग से, कम्युनिस्ट ढंग से उपयोग करने में असमर्थ है - और जो लोग यह करना चाहते भी नहीं, उनकी तो और भी ज्यादा आलोचना होनी चाहिए। ऐसी आलोचना मात्र ही और उसके साथ-साथ अयोग्य नेताओं को निकालकर उनकी जगह योग्य नेताओं को रखना ही - ऐसा उपयोगी तथा लाभप्रद क्रान्तिकारी काम होगा, जिससे “नेता" मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के विश्वासभाजन बनना सीखेंगे और जनसाधारण राजनैतिक परिस्थिति को और उससे पैदा होनेवाली अक्सर बहुत पेचीदा और उलझी हुई समस्याओं को ठीक ढंग से समझना सीखेंगे।"
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* इटली के “वामपंथी' कम्युनिज्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने का मुझे बहुत कम अवसर मिला है। कामरेड बोदिंगा और उनका " कम्युनिस्ट-बहिष्कारवादियों' (Comunista asternsiortista) का गुट संसद में भाग न लेने का समर्थन करके निश्चय ही एक गलत काम कर रहे हैं। परन्तु मुझे लगता है कि एक बात पर कामरेड बोदिंगा का मत सही है - कम से कम, उनके पत्र 'सोवियत' के (6// Society, 18 जनवरी और 1 फ़रवरी, 1920 के अंक 3 और 4) दो अंकों से, कामरेड सेती की बहुत उम्दा पत्रिका 'कम्युनिज्म' के Cottaraisriow, 1 अक्तूबर से 30 नवम्बर, 1916 तक के 1- 4अंक) चार अंकों से और इटली के पूंजीवादी पत्रों के उन इक्के-दुक्के अंकों से, जो मुझे मिल सके हैं, मुझे ऐसा ही लगता है। कामरेड वोदिंगा और उनका गुट तुराती और उनके अनुयायियों पर इस बात के लिए हमला करते हुए सही है कि वे लोग एक ऐसी पार्टी के सदस्य बने रहे हैं, जो सोवियत सत्ता मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व को स्वीकार कर चुकी है, पर संसद के सदस्यों की हैसियत से अब भी अपनी पुरानी घातक और अवसरवादी नीति चला रहे हैं। बेशक, इस बात को सहन करके कामरेड सेती और इटली की पूरी समाजवादी पार्टी ऐसी गलती कर रही है। जिससे उतना ही ज्यादा नुकसान होने पर वैसे ही खतरों के पैदा होने की आशंका है। जैसे खतरे ऐसी ही एक गलती से हंगरी में पैदा हो गये थे, जहां हंगरी के तुरातियों ने पार्टी और सोवियत सरकार दोनों के खिलाफ़ अन्दर से तोड़-फोड़ की थी। संसद के अवसरवादी सदस्यों के प्रति ऐसे ग़लत, असंगत या दुलमुल रवैये से एक ओर तो वामपंथी कम्युनिज्म पैदा होता है, दूसरी और कुछ हद तक उसके अस्तित्व को औचित्य प्रदान किया जाता है। अब कामरेड सेती संसद के सदस्य तुराती पर "असंगत व्यवहार” का आरोप लगाते हैं (<<Comunismo>>, अंक ३), तो वे स्पष्ट ही गलती करते हैं, क्योंकि "असंगत व्यवहार” वास्तव में इटली की समाजवादी पार्टी कर रहीं है कि वह तुराती और उनके साथियों जैसे संसद के अवसरवादी सदस्यों को अभी तक अपने अंदर स्थान दिये हुए है।


रविवार, 26 अगस्त 2018

कम्युनिस्ट पार्टियों में टूटन और एकीकरण

म्युनिस्ट पार्टियों में अन्दरूनी विवाद होना और फिर पार्टी से किसी गुट का अलग हो जाना अब कोई असामान्य घटना नहीं रह गयी है। हम इस पर विचार करें कि ऐसा क्यों होता है? उस से पहले इस आलेख में मैं कुछ ताजा घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूँ। यहाँ कोटा में भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के राजस्थान के प्रान्तीय सम्मेलन के नाम से 18-19 अगस्त 2018 को एक दो दिन का आयोजन होने का समाचार कोटा के कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उस के साथ ही पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य और प्रान्तीय कमेटी के कार्यवाहक सचिव महेन्द्र नेह की ओर से बयान आया है कि जो लोग सम्मेलन कर रहे हैं वे पार्टी के संविधान के अनुसार अनुशासनिक कार्यवाही की जनतांत्रिक प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद पार्टी के पदों से हटाए गए लोग हैं। सम्मेलन के समाचार से पता लगता है कि इस के मुख्य अतिथि कुलदीप सिंह थे, जिन्हें एमसीपीआई (यू) का महामंत्री बताया गया है। 


सीपीआईएम के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड जगजीत सिंह लायलपुरी ने पार्टी के कांग्रेस पार्टी के साथ सम्बधों के विवाद पर 1992 में अपने कुछ साथियों के साथ सीपीआईएम छोड़ दी थी। तब वे अपने साथियों के साथ भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एमसीपीआई) में शामिल हो गए। एमसीपीआई 1986 में सीपीआईएम से समय समय पर अलग हुए अनेक समूहों की दमदम में हुई एक कांग्रेस से अस्तित्व में आई थी। का. लायलपुरी के एमसीपीआई में शामिल होने के बाद कुछ और कम्युनिस्ट समूह पार्टी में शामिल हुए। 2006 में हुई एमसीपीआई की पार्टी कांग्रेस में पार्टी के नाम में परिवर्तन किया जाकर उसे एमसीपीआई (यू) कर दिया गया तथा जगजीत सिंह लायलपुरी इस के महासचिव चुने गए। वे अपने जीवनकाल में 27 मई 2013 तक एमसीपीआई (यू) के महासचिव बने रहे। 

कामरेड लायलपुरी की मृत्यु के उपरान्त तुरन्त किसी को पार्टी का महासचिव चुना जाना था, तब पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में कुलदीप सिंह ने किसी पत्र का हवाला देते हुए बताया कि का. लायलपुरी जी चाहते थे कि उन्हें महासचिव चुना जाए। इस पर केंद्रीय कमेंटी ने विचार करते हुए कुलदीप सिंह को पार्टी का कार्यकारी महासचिव चुन लिया। इस के बाद एमसीपीआई (यू) की अगली पार्टी कांग्रेस मार्च 2015 में हैदराबाद में हुई। इस पार्टी कांग्रेस में कुलदीप सिंह व राजस्थान के कुछ लोगों ने इतना विवाद खड़ा किया कि नई केंद्रीय कमेटी और महासचिव का चुनाव नहीं हो सका और पार्टी कांग्रेस ने निर्णय किया कि इन दोनों कामों को आगे प्लेनम में किया जाएगा। 2016 में विजयवाड़ा में पार्टी का प्लेनम हुआ और उस में नयी केन्द्रीय कमेटी के चुनाव के साथ एक नौजवान साथी का. मोहम्मद घौस को सर्वसस्मति से पार्टी का महासचिव चुन लिया गया, इस प्लेनम में वे सभी लोग उपस्थित थे जो इस से पहले पार्टी कांग्रेस में भी मौजूद थे। का. मोहम्मत घौस के पार्टी का महासचिव चुने जाने के साथ ही उन्हों ने पार्टी को जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के आधार पर एक क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने के काम को गति प्रदान की। पार्टी का दिल्ली में कोई कार्यालय नहीं था। दिल्ली में पार्टी का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया गया। 

पार्टी के पंजाब, राजस्थान और केरल के कुछ अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं को जो सामंती तरीके से पार्टी पर काबिज होना चाहते थे, का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में पार्टी का एक क्रान्तिकारी पार्टी में बदले जाने के प्रयत्नों से बड़ा धक्का लगा। वे सभी एक वर्गसहयोगवादी गुट के रूप में काम करने लगे, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठकों में आना बन्द कर दिया और पार्टी के नेतृत्व को नकारना आरंभ कर दिया। जिस से पार्टी में अनुशासन बनाए रखने के लिए उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करना जरूरी हो गया। दिल्ली में 5-6 मार्च 2018 को हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक में केन्द्रीय कमेटी द्वारा प्रदत्त अधिकार से पंजाब के कुलदीप सिंह व प्रेमसिंह भंगू, आंध्रप्रदेश के एम.जी. रेड्डी तथा राजस्थान के गोपीकिशन, ब्रजकिशोर और रामपाल सैनी को उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए पार्टी की केन्द्रीय कमेटी से पार्टी के संविधान के अंतर्गत अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए निष्कासित कर दिया गया। इन की पार्टी सदस्यता के बारे में अंतिम निर्णय एमसीपीआई (यू) की केन्द्रीय कमेटी की आगामी बैठक में लिया जाना शेष है। 

इस के उपरान्त 13 मई 2018 को का. मोहम्मद घौस ने जयपुर में मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर पार्टी की राजस्थान प्रान्तीय कमेटी की बैठक बुलाई। लेकिन उस में केन्द्रीय कमेटी से निष्कासित सदस्य और उन के कुछ समर्थक बैठक में नहीं आए। इस पर अगले मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर 8 व 9 जून 2018 को कोटा में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी की बैठक और पार्टी सदस्यों की प्रान्तीय जनरल बाडी की बैठकें बुलाई गयी। प्रान्तीय कमेटी की बैठक में गोपीकिशन गुट के लोग उपस्थित नहीं हुए न ही उन्हों ने अपने विरुद्ध अनुशासनहीनता के आरोपो का उत्तर दिया। ऐसे में अगले दिन पार्टी के महासचिव का. मोहम्मद घौस की उपस्थिति में आयोजित राजस्थान के पार्टी सदस्यों की जनरल बॉडी मीटिंग में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी को भंग कर दिया गया और दिसंबर 2018 में उदयपुर में होने वाले पार्टी के प्रान्तीय सम्मेलन तक कार्यकारी प्रान्तीय कमेटी का गठन कर पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य महेन्द्र नेह को उस का कार्यकारी सचिव बनाया गया। 

सब से हास्यास्पद बात यह हुई है कि कुलदीप सिंह जिन्हें कोटा में 18-19 अगस्त 2018 को आयोजित कथित प्रान्तीय सम्मेलन में पार्टी का महासचिव बताया गया उन्हें पंजाब में एमसीपीआई (यू) के सचिव पार्टी सदस्य बताते हैं। इसी कथित सम्मेलन में गोपीकिशन को प्रान्तीय सचिव चुन लिया गया है। अब यह साफ है कि इन वर्ग-सहयोगवादी नेताओं ने खुल कर एक अलग गुट के रूप में काम करना आरंभ कर दिया है, लेकिन उन्हें अपने पार्टी से अलग किए जाने या होने का कारण बताने में इतनी लज्जा आती है कि वे अभी भी एमसीपीआई (यू) के नाम का ही उपयोग कर रहे हैं। 

उधर का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में एमसीपीआई (यू) ने मजदूर वर्ग की पार्टियों की एकता की ओर एक और कदम आगे बढ़ाया है। 18 अगस्त को नई दिल्ली में हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की रीवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (आरएमपीआई) के नेतृत्व के साथ हुई बैठक में दोनों पार्टियों की समामेलन प्रक्रिया पर विचार हुआ और दोनों पार्टियों की एक दस सदस्यीय संयुक्त कमेटी बनाई गयी है। यह कमेटी दोनों पार्टियों के समामेलन तथा संयुक्त जन संघर्षों के लिए काम करेगी जिस की बैठक अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में हैदराबाद में होने जा रही है। इस संयुक्त कमेटी में एमसीपीआई (यू) से कामरेड मोहम्मद घौस, अशोक औंकार, किरनजीत सिंह सैंखों, अनुभवदास शास्त्री व महेन्द्र नेह तथा आरएमपीआई से का. के. गंगाधरन, मंगतराम पासला, राजेन्द्र परांजपे, के.एस. हरिहरन तथा हरकँवल सिंह सम्मिलित हैं कामरेड मो. घौस तथा कामरेड मंगतराम पासला संयुक्त रूप से इस कमेटी के संयोजक का काम कर रहे हैं। 

किसी भी देश में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में वर्गसहयोगवादी तत्वों को पार्टी से बाहर करना और समान विचारधारा वाले मजदूरवर्गीय राजनैतिक समूहों का एकीकरण एक सतत प्रक्रिया है जो तब तक चलती रहेगी जब तक उस देश में सत्ता मजदूरवर्ग और सहयोगी वर्गों के हाथ में नहीं आ जाती है। कामरेड लेनिन ने “जर्मन कम्युनिस्टों की फूट” पर लिखी अपनी एक टिप्पणी में लिखा था- 

“ऐसे कारण मौजूद हैं, जिनसे भय लगता है कि जैसे “मध्यमार्गियों के साथ (या काउत्स्कीवादियों, लॉन्गेपंथियों, “स्वतंत्रों'', आदि के साथ) होनेवाली फूट अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने की घटना बन गयी है, वैसे ही वामपंथियों'' अथवा संसदीय पद्धति के विरोधियों के साथ (जो आंशिक रूप में राजनीति के, राजनैतिक पार्टी बनाने के और ट्रेड-यूनियनों में काम करने के भी विरोधी हैं) होने वाली यह फूट भी एक अन्तर्राष्ट्रीय घटना बन जायेगी। यही होना है, तो हो। हर हालत में फूट उस उलझाव से बेहतर होती है, जो पार्टी के सैद्धांतिक, वैचारिक एवं क्रान्तिकारी विकास को रोक देता है, पार्टी को परिपक्व नहीं होने देता और उसे वह वैसा सुसंगत, सच्चे मानी में संगठित, अमली काम करने से रोकता है, जो सही मानी में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए रास्ता तैयार करता है।”

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जोधपुर में लाल सैलाब

भारत की समृद्धि लगातार बढ़ रही है, हमारे पूंजीपति दुनिया भर के पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। हो सकता है कुछ बरस बाद सुनने को मिले कि दुनिया के सब से अमीर सौ व्यक्तियों में चौथाई भारतीय हैं। हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर हमारे गरीब भी दुनिया भर के गरीबों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यही भारतीय व्यवस्था का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। भारत की मुख्य धारा की राजनीति इस अंतर्विरोध की उपेक्षा करती रही है और लगातार कर रही है। यह अंतर्विरोध लगातार कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इस अंतर्विरोध को हल करने वाली राजनीति की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है।  आम जनता जानती है कि देश में जितना भ्रष्टाचार है वह पूंजीपतियों का फैलाया हुआ है, उस के बिना पूंजीवाद एक कदम आगे नहीं चल सकता, उस के बिना लूट को जारी रख सकना कठिन है, लेकिन उस का इलाज भी किसी के पास नहीं है। आम लोग जानते हैं कि जिस रोग ने देश को ग्रस्त किया हुआ है वह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी राजनैतिक दलों का देश की परिस्थितियों के बारे में मूल्यांकन सतही है, और वह फटे टाट को पैबंद लगा कर चलाते रहने की चिकित्सा ही प्रस्तुत करते हैं। 
दूसरी और वाम और साम्यवादी दल हैं जिन में देश की परिस्थितियों, राजनैतिक शक्तियों के मूल्यांकन पर राय में विभिन्नता है और उसी के अनुरूप उन के राजनैतिक कार्यक्रम भिन्न हैं। लेकिन उन में एक समानता है कि वे देश के इस अंतर्विरोध को आमूल-चूल परिवर्तन के माध्यम से हल करना चाहते हैं। इस के लिए लगातार विचार-विमर्श करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अर्थात क्रांति का जनता करती है, कोई राजनैतिक दल नहीं। लेकिन राजनैतिक दलों का काम जनता को संगठित करने और उसे शिक्षित करने का अवश्य है। जब क्रांति नजदीक नहीं होती और उस के लिए किए जा रहे प्रयास परवान चढ़ते नजर नहीं आते तो क्रांतिकारी राजनैतिक शक्तियों में मतभेद होते हैं और अनेक समूह बनते दिखाई देते हैं। इस से ऐसा लगने लगता है कि जब क्रांतिकारी शक्तियाँ ही विभाजित हैं तो क्रांति की बात करना बेमानी है, शायद जनता बेड़ियों में जकड़े रहने को अभिशप्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। 
जैसे जैसे मूल अंतर्विरोध तीव्र होता जाता है और क्रांति के लिए परिस्थितियाँ पकने लगती हैं, वैसे ही इन क्रांतिकामी शक्तियाँ एक होने लगती हैं, उन की शक्ति बढ़ने लगती है। ऐसा ही एक अवसर इन दिनों भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) एमसीपीआई (यू) की दूसरी काँग्रेस में पिछले चार दिनों में देखने को मिला। सीपीआईएम नेतृत्व के गैर जनवादी रैवेये के कारण उस से अलग हुए अथवा अंदरूनी संघर्ष के कारण वहाँ से निकाले गए जुझारू लोगों ने एमसीपीआई का गठन किया था। अपने गठन के साथ ही यह पार्टी एक ऐसी शक्ति बन गई थी जो लगातार जनता के बीच काम करते हुए समान विचारधारा वाले गुटों और पार्टियों के साथ विमर्श करती है और क्रांतिकामी शक्तियों के एकीकरण के काम में जुटी है। शिवराम इसी दल के पॉलिट ब्यूरो सदस्य थे। मुझे भी पार्टी काँग्रेस में सम्मिलित होना था। लेकिन व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण में इस में शिरकत नहीं कर सका। लेकिन मुझे भी कुछ घंटों के लिए पार्टी काँग्रेस के निकट रहने का सौभाग्य मिल ही गया।
निवार को काँग्रेस का प्रातः कालीन सत्र समाप्त होने के उपरांत रैली और सभा का आयोजन था। मैं ने इस रैली में शिरकत की। जैसे ही रैली स्थल पर पहुँचा देखा कि लाल रंग का सैलाब आया हुआ है। जिधर देखता था उधर लाल कैप पहने लाल झंडे हाथों में थामे पार्टी सदस्य  दिखाई देते थे। रैली आरंभ हुई रैली में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता सम्मिलित थे और ढोल बजाते, नृत्य करते, नारों से जोधपुर नगर को गुंजाते चल रहे थे। सब से आगे एक झाँकी थी जिस में एक व्यक्ति साम्राज्यवाद का प्रतीक था जो रस्सियों से जकड़ा हुआ था जिन के दूसरे सिरे कुछ लोगों के हाथों में थे जो कि स्वयं मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के प्रतीक थे। साम्राज्यवाद हर किसी को खाना चाहता था, लेकिन ये श्रमजीवी शक्तियाँ उसे ऐसा करने से रोक रही थीं। इस झाँकी को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ तक कि रैली के साथ और पूरे शहर में तैनात पुलिस कर्मी उस झाँकी और कार्यकर्ताओं के उल्लास भरे नृत्य को देख कर आनंदित थे। वे जानते थे कि इस अनुशासित कार्यकर्ता समूह की रैली की व्यवस्था के लिए उन्हें किसी तरह के श्रम और तनाव की आवश्यकता नहीं है। रैली का जोधपुर नगर के लोगों ने स्थान-स्थान पर स्वागत किया, नेताओं को जोधपुरी साफे और पुष्प मालाएँ पहना कर उन का सम्मान किया। जोधपुर की श्रमजीवी जनता की कामना थी कि यह ताकत यूँ ही तेजी से बढ़ती रहे और अपना लक्ष्य प्राप्त करे। 
समाचार पत्रों में इस रैली के समाचार इस तरह थे.... 


मंगलवार, 19 जनवरी 2010

खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा

ल एक गलती हो गई। भुवनेश शर्मा अपने गुरू श्री विद्याराम जी गुप्ता को बाबूजी कहते हैं। मैं समझता रहा कि वे अपने पिता जी के बारे में बात कर रहे हैं।  भुवनेश जी के पिता भी वकील हैं। कल की पोस्ट में मैं ने उन के पिता का उल्लेख कर दिया। आज शाम भुवनेश जी ने मुझे फोन कर गलती के बारे में बताया। अब गलती हटा दी गई है।
ज मैं उस घटना के बारे में बताना चाहता हूँ जो मेरे कॉलेज जीवन में घटित हुई। यह सन् 1971 का साल था। बांग्लादेश का युद्ध हुआ ही था और अटलबिहारी जी ने इंदिरागांधी को दुर्गा कहा था। कम्युनिस्टों के बारे में वही धारणाएँ मेरे मन में थीं जो भारत में उन के विरोधी प्रचारित करते रहे हैं। मैं समझता था। कम्युनिस्ट बहुत लड़ाके किस्म के लोग होते हैं। विरोधियों को बात-बात में चाकू छुरे से घायल कर देते हैं, जेब में बम लिए घूमते हैं। ईश्वर को नहीं मानते। लिहाजा वे अच्छे लोग नहीं होते और उन की परछाई से भी दूर रहना चाहिए। एक दिन मैं अपने कालेज से लौट रहा था। मार्ग में वैद्य मामा जी का घर पड़ता था। उसी में नीचे की मंजिल में उन का औषधालय और औषध-निर्माणशाला थी। मन में आया कि मामाजी से मिल चलूँ। औषधालय में अंदर घुसा तो वहाँ अपने पिताजी  और तेल मिल वाले गर्ग साहब को वहाँ पाया। मामा जी भी वहीं थे। गर्ग साहब किसी के लिए दवा लेने आए थे। आपस में बातें चल रही थीं। मैं भी सुनने लगा।

र्ग साहब कुछ बातें ऐसी कर रहे थे कि मुझे वे तर्कसंगत नहीं लगीं। मैं उन से बहस करने लगा। हालांकि मैं अपने पिताजी के सामने कम बोलता था। लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ कि गर्ग साहब से बहस करने लगा। गर्ग साहब बहस के बीच कहीं निरुत्तर हो गए। मेरी बात काटने के लिए  बोले तुम-कम्य़ुनिस्ट हो गए हो इस लिए ऐसी बातें कर रहे हो। मैं भी तब तक कुछ तैश में आ गया था। मैं ने कहा - आप यही समझ लें कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ। लेकिन उस से क्या मेरी किसी तर्कसंगत और सच्ची बात भी मिथ्या हो जाएगी क्या?
खैर! वहाँ बात खत्म हो गई। गर्ग साहब भी उन की दवाएँ ले कर चल दिए। कुछ देर बाद मैं और पिताजी भी वहाँ से एक साथ घर की ओर चल दिए। रास्ते में पिताजी ने पूछा -तुम कम्युनिस्ट हो? मैं ने कहा -नहीं। तो फिर जो तुम नहीं हो कहते क्यों हो?
मेरे मन में यह बात चुभ गई। मेरा प्रयत्न रहने लगा कि किसी तरह मैं जान सकूं कि  आखिर कम्युनिस्ट क्या होता है। कुछ समय बाद मेरे हाथ गोर्की का उपन्यास 'माँ' हाथ लगा। उसे मैं एक बैठक में पढ़ गया। उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरी गोर्की के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हुई तो मैं दूसरे दिन उस की जीवनी के तीनों भाग खरीद लाया। इस तरह मैं ने जानने की कोशिश की कि कम्युनिस्ट क्या होता है? हालांकि यह सब कम्युनिस्टों के बारे में जानने के लिए बहुत मामूली अध्ययन था। बाद में जाना कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे।  यशपाल कम्युनिस्ट थे,  राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट थे, मुंशी प्रेमचंद कम्युनिज्म से प्रभावित थे। बहुत बाद में कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो मेरे हाथ लगा भी तो समझ नहीं आया। उसे समझने में बरस लग गए।  पहला कम्युनिस्ट अपने शहर में देखने में तो मुझे चार बरस लग गए। जब उसे देखा तो पता लगा कि कम्युनिस्ट भी एक इंसान ही होता है, कोई अजूबा नहीं। उस के शरीर में भी वही लाल रंग का लहू बहता है जो सब इंसानों के शरीर में बहता है। उस के सीने में भी दिल होता है जो धड़कता है। लेकिन यह भी समझ आया कि उस का दिल अपने लिए कम, बल्कि औरों के लिए अधिक धड़कता है। खुद को जाँचा तो पाया की मेरा दिल भी वैसे ही धड़कता है जैसे उस कम्युनिस्ट का धड़कता था।

र्क था तो इतना ही कि वह उन लोगों के लिए जिन के लिए उस का दिल धड़कता था, चुनौतियाँ लेने को तैयार रहता था। वह शायद बहुत मजबूत आदमी था, शायद फौलाद जैसा।  मैं उसी की तरह यह तो चाहता था कि दुनिया के चलन में कुछ सुधार हो लेकिन उस के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करने में मुझे भय लगता था। मुझे लगता था कि मेरे पास अभी एक खूबसूरत दुनिया है और मैं उसे खो न बैठूँ। यह डर उस कम्युनिस्ट के नजदीक भी न फटकता था। कई बार तो मुझे उसे देख कर डर भी लगता था कि कैसा आदमी है? कभी भी अपनी जान दे बैठेगा। मुझे उसे देख कर लगा कि मैं शायद जीवन में कभी भी कम्युनिस्ट नहीं बन सकता, मुझ  में इतनी क्षमता और इतना साहस है ही नहीं। मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा।

चित्र- भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन और यशपाल