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शनिवार, 19 जुलाई 2008

नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है।

पिछले आलेख पर अब तक जो टिप्पणियां मिलीं हैं, उन से एक बात पर सहमति दिखाई दी, कि अभी हिन्दी ब्लागिरी का शैशवकाल ही है। अनेक को तो पता भी नहीं कि हिन्दी ने भी एक ब्लागीर बालक को जन्म दे दिया है। लेकिन यह संकेत भी इन टिप्पणियों से मिला कि इस बालक ने अपने शैशवकाल में ही जितनी ख्याति अर्जित की है उस से उस के लच्छन पालने में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। हमारे ब्लागीरों ने जो नारे उछाले हैं, जिन शब्दों में साहस बढ़ाने और ढाँढस बंधाने के प्रयत्न किए हैं वे कमजोर नहीं हैं। उन्हें प्रेरणा वाक्यों के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जैसे......

  • ब्लॉग्गिंग आएगा और जब ये आएगा तो लोग इसी में पिले रहेंगे जैसे हम ब्लॉगर पिले हुए हैं..... :)
  • जल्द ही वह दिन आएगा जब आप ब्लागिंग पर अपने इंटरव्यू में बताएँगे ..धीरे धीरे इसका नशा सब पर होगा ..:)
  • अजी उन्हे छोड़िए. हम है ना ब्लॉगिंग के बारे में सवाल पूछने के लिए..
  • वो सुबह कभी तो आएगी...जब ब्लोगिगं धूम मचाएगी।
  • जल्द ही एक बडी संख्या इसे जानने लगेगी।
  • सुबह होगी जल्द ही।


ये सभी अच्छे संकेत हैं। अंतरजाल तेजी से बढ़ने वाला है और ब्लागिरी भी। जरूरत है लोगों की जरूरत को समझने की। अगर ब्लागिरी आम लोदों की जरूरत को पूरा करने लगती है तो धीरे-धीरे यह जीवन का आवश्यक अंग बन जाएगी और अच्छे व सिद्धहस्त ब्लागर लोगों को बताने लायक कमाई भी कर सकेंगे।  जिस तेजी से हिन्दी ब्लागीरों की संख्या बढ़ रही है। (औसतन 10 चिट्ठे प्रतिदिन) उस से लगता है। कि पाठकों की संख्या भी बढ़ेगी।
जमाना वह नहीं रहा कि हम में काबिलियत है, जिस को जरूरत होगी हमारे पास आएगा। जमाना इस से बहुत आगे जा चुका है। अब लोगों को जरूरत पैदा की जाती है और अपना माल बेचा जाता है। ब्लागीरों को भी जरूरत पैदा कर पाठक पैदा करने पड़ेंगे। एक ब्लागर चाहे तो कम से कम दस नए पाठक ब्लागिरी के लिए नए ला सकता है और उसे लाना चाहिए। उसे इस के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। ब्लागीरों को अपने स्तर को भी सभी प्रकार से उन्नत करते रहना चाहिए, तकनीकी रूप से भी और अपने माल के बारे में भी।

सभी ब्लागीरों को ब्लागिरी से एक लाभ जो हो रहा है वह यह कि वे आपस में जबर्दस्त अन्तरक्रिया कर रहे हैं जिस से उन की क्षमताएँ तेजी से विकसित हो रही हैं। वे लेखन की हों या अपने अपने क्षेत्र की जानकारियों की हों।

आज मेरे स्टूडियों से निकलने के बाद मैं ने कुछ मित्रों को संदेश दिया कि मेरा साक्षात्कार केबल पर प्रसारित होने वाला है। उन में से कुछ ने उसे देखा भी। जिस ने भी देखा उसे खूब सराहा भी। कुछ लोगों ने उसे अनायास देखा। आज अदालत मे अनेक वरिष्ठ वकीलों ने मुझे बधाई भी दी और यह भी कहा कि मेरी क्षमताएँ बहुत विकसित हैं और इस की उन्हें जानकारी नहीं थी। इस साक्षात्कार को सांयकालीन पुनर्प्रसारण में बहुत लोगों ने देखा। पूरे प्रसारण के दौरान और उस के बाद मुझे अनेक मित्रों और परिचितों के फोन आते रहे। आज के एक दिन ने मुझे बहुत बदल दिया। मैंने महसूस किया कि लोगों ने आज मुझे एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कल जब मैं अदालत पहुँचूंगा तो मुझे और भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाएगा।

लेकिन क्या यह आज से दस माह पूर्व हो सकता था? बिलकुल नहीं क्यों कि तब में एक वकील मात्र था। इस ब्लागिरी ने मुझे एक नया आयाम प्रदान किया, एक नया रूप दिया। यदि मैं ने इन दस माहों में 162 आलेख न लिखे होते उन पर आई सैकड़ों टिप्पणियों और दूसरे ब्लागीरों की सैंकड़ों पोस्टों को पढ़ कर सैंकड़ों टिप्पणियाँ नहीं की होतीं तो यह सब नहीं हो सकता था। ब्लागिरी ने मेरी क्षमताओं को विकसित किया। वह लगातार सभी ब्लागीरों की क्षमताओं को विकसित कर रही है।

ब्लागीरों को समाचार पत्रों में स्थान मिलने लगा है। अनेक ब्लागीरों की रचनाएँ समाचार पत्र पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दी ही वह समय भी आने वाला है कि जब ब्लागिरी और ब्लागीरों की चर्चा टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए एक स्थाई स्तंभ होंगे। ब्लाग आज भी ज्ञान और जानकारी के स्रोत हैं इन का दायरा भी बढ़ेगा और वे प्रचार के माध्यम भी बनेंगे। अभी कुछ अभिनेता ब्लागिरी में आए हैं। लालू जैसे नेता इस में आए हैं। समय आने वाला है जब सभी प्रोफेशन के लोगों के लिए ब्लागिरी एक जरूरी चीज बनेगी। उन की ब्लागिरी से ही उन की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

अंत में मैं लावण्या दीदी की टिप्पणी यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस में वे कहती हैं.......

आपसे मेरा सविनय अनुरोध है कि आप ब्लोगिंग पर और सिंदुर पर और अन्य विषयों पर दूसरों की चिन्ता किये बिना लिखिये -"वीकिपीडीया की तरह या डिक्शनरी की तरह ये जानकारियाँ आज नहीं आनेवाले समय तक नेट पर कायम रहेंगी और काम आयेंगी- जब आम का नन्हा बिरवा उगा ही था तब किसे पता था कि यही घना पेड बनेगा जिस के रसीले आम बरसोँ तक खाये जायेँगे -ये मेरा मत है ..कोई विषय ऐसा भी होता है जो भविष्य मेँ आकार लेता है, और वर्तमान उसे हैरत से देखता है ..कम से कम, यह मेरा विश्वास है....                           

- लावण्या
18 July, 2008 10:39 PM

और अब मुझे स्मरण हो रही हैं राजस्थानी के कवि हरीश 'भादानी' के एक गीत की मुख्य पंक्तियाँ जो सभी ब्लागीरों को कह रही हैं.....

भोर का तारा उगा है,
जाग जाने की घड़ी है।
नीन्द की साँकळ उतारो,
किरन देहरी पर खड़ी है।

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

बुधवार, 30 अप्रैल 2008

जरुरत है चिट्ठाकारों की कमाई का जरिया चिट्ठाकारी में ही तलाशने की

विगत आलेख के अंत में मै ने एक प्रश्न आप के सामने रखा था- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?

भाई अनूप सुकुल जी ने कहा वे उत्तर का इंतजार करेंगे। जवाब मिले, और केवल इसी सवाल के नहीं कुछ और सवालों के भी। मसलन हमारे ड़ॉक्टर अमर कुमार जी ने कहा कि चाहे प्रचलित अंग्रेजी या किसी भी अन्य भाषा के शब्द का हिन्दी विकल्प बना लें लेकिन शब्द तो वही चलेगा जो जनता चलाएगी। यानी जो जुबान पर चढ़ गया वही चलेगा। अब इन्हें हम हिन्दी शब्दकोष में जगह दें या न दें यह कोषकार पर निर्भर करेगा। पर जनता शब्दकोष पढ़ कर हिन्दी न बोलेगी। जो उस की समझ में आएगा वह बोलेगी। अब हिन्दी को जनता के साथ चलना है तो उसे भी इन शब्दों को अपनाना पड़ेगा। इस से उस का कुछ भी नुकसान नहीं होने का वह और बलवान और समृद्ध हो जाएगी।

ब्लॉगर के प्रोफेशनल होने पर तो घोस्ट बस्टर जी के अलावा किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन यह चिन्ता थी कि ब्लॉगर कहीं इसे केवल कमाई का साधन न बना ले। मेरे सवाल का सब से खूबसूरत जवाब देहरादून की खूबसूरत प्रेटी वूमन रक्षन्दा जी ने दिया कि ब्लॉगर प्रोफेशनल जरूर हो, लेकिन ब्लॉगिंग उस का प्रोफेशन न हो जाए। उन्हों ने प्रोफेशन शब्द के दो अलग अलग अर्थों का एक ही वाक्य में सुन्दर प्रयोग किया, और इस सवाल के मुख्य द्वंद को स्पष्ट भी किया।

कुल मिला कर सब की चिन्ता एक ही थी कि ब्लॉगिंग का उपयोग समाजिक ही रहे। धन लालसा उसे असामाजिक न बना दे। वह शिवम् बनी रहे, कल्याणकारी ही रहे। भले मानुषों की यह चिन्ता होनी भी चाहिए।

मैं एक प्रोफेशनल वकील हूँ। इस का अर्थ यह है कि मैं अपने हर काम में जीत हासिल करने की इच्छा ही नहीं रखता बल्कि उस के लिए प्रयत्न भी करता हूँ। काम हाथ में लेते समय भी परखता हूँ कि इस में सफलता मिल सकती है या नहीं। इस का यह भी अर्थ नहीं कि मैं सफलता हासिल होने वाले ही काम हाथ में लेता हूँ। ऐसे काम भी हाथ में लेता हूँ जिन में रत्ती भर भी गुंजाइश सफलता की नहीं होती, लेकिन वह लड़ाई महत्वपूर्ण होती है। वहाँ लड़ते-लड़ते हार जाना भी जीत ही होती है। लेकिन संभावित परिणामों से प्रारंभ में ही अपने सेवार्थी को अवगत करा देना, उस का तोड़ है। वह फिर भी लड़ना चाहे तो उस की लड़ाई जरूर लड़ी जाती है।

हर काम में धन की कमाई जरूरी भी नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि मिलने वाले शुल्क से काम में खर्च होने वाला धन अधिक हो जाता है, तब नुकसान भी होता है। लेकिन अगर काम हाथ में ले लिया तो यह नहीं देखा जाता कि इस में नुकसान है या फायदा। एक अच्छे प्रोफेशनल की पहचान ही यही है कि वह अपने काम को मिशन की तरह ले। यही नहीं उस की कमाई पर निर्भर भी करे। क्या आप ये चाहेंगे कि मैं पूरे समय वकालत करूँ और मेरा घर किसी और साधन से चले। अगर ऐसा होने लगा तो मैं वकालत और अपने सेवार्थी के प्रति कभी भी ईमानदार नहीं रह सकूंगा। मैं फिर लोगों पर उपकार करने का नाटक करने वाला ढ़ोंगी बन कर रह जाऊँगा, और अपने सेवार्थी के हित की चिन्ता करने के बजाय उस का भला बने रहने की चिन्ता अधिक करूंगा। कमाई के जाजरू वाले रास्ते देखने लगूँगा।

एक चिट्ठाकार अपना चार-छह घंटों का कीमती समय रोज खर्च भी करे और घर चलाने के लिए दूसरी और झाँके, तो फिर चिट्ठाकारी चलनी नहीं है। वह आज की तरह रेंगती ही रहेगी।

और अंत में यह भी कि कोई भी सामाजिक मिशन बिना प्रोफेशनल कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के शिखर पर नहीं पहुँचता। इसलिए हिन्दी चिट्ठाकारी को प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की सख्त जरुरत है, और ऐसे प्रोफेशनल चिट्ठाकारों की कमाई के जरिए चिट्ठाकारी में ही तलाशने की जरुरत है।

क्या अब भी आप चाहेंगे कि पूरी तरह समाज को समर्पित चिट्ठाकार आर्थिक दबावों में किसानों की तरह आत्महत्या करने लगें?

क्या अब भी आप कहेंगे कि चिट्ठाकार को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए?

मैं ने चिटठाकार समूह पर एक सवाल छोड़ा था। प्रोफेशनलिज्म के लिए हिन्दी शब्द क्या हो सकता है? जवाब भी खूब मिले। व्यवसायिकता  इस के लिए सही शब्द हो सकता है, लेकिन यह भी समानार्थक नहीं। प्रोफेशनलिज्म शब्द का हिन्दी में कोई समानार्थक नहीं। मेरी जिद भी है कि जब आप को कोई समानार्थक शब्द अपनी भाषा में न मिले तो उसे अपनी भाषा का संस्कार दे कर अपना लिया जाए इस से हिन्दी न तो हिंगलिश होगी और न ही उस की कोई हानि होगी। लाभ यह होगा कि आप के भाव को प्रकट करने वाला एक और शब्द आप के शब्द कोष में सम्मिलित हो जाएगा। इस से भाषा समृद्ध ही होगी।

मूल बात थी कि प्रोफेशनलिज्म का अर्थ क्या?  यह एक गुण या गुणों का समुच्चय है। जो आप के काम को करने के तरीके को निर्धारित करता है और आप के काम के परिणाम और उस से उत्पन्न उत्पाद की गुणवत्ता को भी।

मैं एक वकील हूँ, एक प्रोफेशनल। मेरे पास एक सेवार्थी अपनी कोई समस्या ले कर आता है। मुझे उस की समस्या हल करनी है। कोई आते ही यह भी कहता है कि 'वकील साहब,  एक नोटिस देना है' मैं उस से यह भी कह सकता हूँ कि 'दिए देते हैं' अगर मैं ने यह जवाब दिया, तो समझो मैं प्रोफेशनल नहीं हूँ, और एक वकील, एक लॉयर नहीं हूँ। फिर मैं एक दुकानदार हूँ, जो माल बेचता है। क्यों कि ग्राहक ने कहा नोटिस दे दो, और मैं ने दे दिया।

भाई, वकील तो मैं हूँ। यह तुम ने कैसे तय कर लिया कि, नोटिस देना है? और समस्या के हल के लिए यह एक सही प्रारंभ है। सेवार्थी का काम है, मुझे समस्या बताने का। मेरा काम है, उस से वे सभी तथ्य और उन्हें प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य की उपलब्धता जाँचने का, और फिर इस सामग्री के आधार पर समस्या का हल तलाश करने का। मैं तय करूगा कि, समस्या का हल कैसे करना है?

अगर मेरे सारे कामों में यह गुण विद्यमान रहता है तो मैं एक सही प्रोफेशनल हूँ, अन्यथा नहीं। अपने काम के प्रति पूरी सजगता होना, उस के लिए जरुरी कुशलता हासिल करना और उसे उत्तरोत्तर विकसित करते रहना जरुरी है। सेवार्थी को सर्वोत्तम सेवाएं प्रदान करने के लायक बने रहना ही प्रोफेशनलिज्म है। प्रोफेशनलिज्म का यह अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता। अनेक और बाते हैं जो इस में समाहित होती हैं। पर आज के लिए इतना पर्याप्त है।

अंत में एक सवाल- क्या चिट्ठाकारों को प्रोफेशनल नहीं होना चाहिए? 

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

गेम "कैसे बनें सफल व्यापारी"

मैं ने 1978 में वकालत शुरु की। साल भर कुछ भी नहीं कमाया। केवल काम की धुन सवार थी। सोचते थे, काम करो, तो नाम होगा। नाम होगा, तो काम भी मिलेगा, और दाम भी।

एक कहावत हाड़ौती में बहुत कही जाती है। घर का जोगी जोगणा, आन गाँव का सिद्ध। मतलब ज्ञान की पूछ घर में नहीं होती, बाहर वाले को अधिक पूछा जाता है।

हम बाराँ से निकल लिए। आ गए कोटा। काम यहाँ जैसे हमारे इन्तजार में था। खूब काम किया, नाम भी हुआ, दाम भी मिलने लगा। बच्चे हुए, घर बनाया।

यही हाल अभी हिन्दी ब्लॉगिंग यानी हिन्दी चिट्ठाकारी का है। उस का अभी बचपना है, यानी खेलने-खाने के दिन। हम एडसेंस का बिल्ला चिपका कर "कैसे बनें सफल व्यापारी" खेल रहे हैं। अभी हमें मीलों चलना है। दुनियाँ अपनी बनानी है।

बकौल रवि रतलामी के तीन हजार चिट्ठे हैं, उन पर भी आपसी बातें अधिक, ज्ञान कम। तो पाठक भी कम हैं। अपने काम के प्रति समर्पित कम और शौकिया अधिक। टिप्पणियों में सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा वाले अधिक। उन की परवाह न करने वाले कम। हम अपना काम किए जाएँ। लोग अपने आप पहचानेंगे। रोज दस्तक देंगे आप के द्वारे, अगर हम अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए।

यह तकनीक और अर्थव्यवस्था का युग है। हम नहीं  देखते कि हम क्या उत्पादित कर रहे हैं? हमारा उत्पाद लोगों की जरुरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं? फिर लोगों को पता भी है या नहीं कि हम उन की जरुरत का माल पैदा कर रहे हैं? हम लोगों तक पहुँचने का प्रयत्न कर ही नहीं रहे हैं। जंगल में मोर नाचा किसने देखा?

सब से पहले हमें जानना चाहिए कि हमारे श्रेष्टतम उत्पाद क्या-क्या हो सकते है? उन में कौन सा उत्पाद है, जिस की लोगों को सर्वाधिक आवश्यकता है? हम यह शोध कर लें, फिर जरुरत का माल उत्पादित करें, और इसे घर में रख कर न बैठ जाएँ।

जी हाँ अपने चिट्ठे को ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत या कुछ और एग्रीगेटरों पर दर्ज करा देना, उत्पादन को घर में डाल देना ही है। कितने नैट प्रयोगकर्ताओं को ब्लॉगवाणी चिट्ठाजगत पता है? हम ने माल पैदा किया, और घर में डाला। अब घर के मेम्बर ही एक दूसरे के माल की तारीफ कर रहे हैं, या मीन-मेख निकाले जाते हैं। एक दूसरे का माल खरीदने से रहे।

शानदार संगीत महफिल जमी है। सभी संगीतकार हैं। गाए जा रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि कोई दूसरा उस की तारीफ कर दे, तो जीवन सफल हो जाए। नया पुराने से और पुराने नयों से तारीफ की आकांक्षा करते हैं। असली गाहक कोई नहीं। बस रियाज हो रहा है। शिष्य गा रहे हैं, उस्ताद कमी निकाल कर बता रहे हैं। यहाँ, यहाँ और यहाँ सुर और साध लो, बस फिर तुम्हारी फतह। उस्ताद गा कर बता रहे हैं, ऐसा! शिष्य साधने में लग जाते हैं। असली परीक्षा, प्रदर्शन का दिन अभी बहुत दूर है।

कुछ शिष्य थकने लगे हैं। वापस भागने लगते हैं, तो दूसरे आस बंधाते हैं और रोक लेते हैं। वे फिर रियाज में लग जाते हैं। गुरुकुल में नए-नए लोग आ रहे हैं। गुरुकुल आबाद हो रहा है। गुरुकुल को आबाद होने दीजिए। इतना, कि दूर से ही अलग दिखाई देने लगे। तब वे भी आएंगे जो सिर्फ गाहक होंगे। दुनियाँ बहुत बड़ी है। हिन्दी की दुनियाँ भी बहुत बड़ी है, और हम अभी बहुत छोटे। इतने, कि ठीक से दिखाई ही नहीं देते। बस कुछ दिखने लायक हो जाएं, कुछ हमारे पास दिखाने लायक हो जाए। फिर घर से निकलें। फेरी लगाएं, गाहक के पास जाएँ, या फिर गाहक को दुकान तक पकड़ कर लाएँ। दुकान में ऐसा कुछ होगा तो गाहक दुबारा, तिबारा और बार-बार वहाँ आएगा।

आप गाहक को लाए, और वहाँ ऐसा कुछ न हुआ कि वह दुबारा वहाँ आए, तो उसे वहाँ लाना भी बेकार ही सिद्ध होगा।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

क्यो न कमाएँ? चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से

मैं जब हिन्दी चिट्ठे पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि कुछ लोग इस बात से परेशान हैं, कि कुछ हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए रुपया या डॉलर जो भी हो, धन कमा रहे हैं। भाई आप नहीं चाहते कि लक्ष्मी आप के घर या बैंक खाते में आए, तो आप मत आने दीजिए उसे। मगर जहाँ आ रही है, उन्हें तो भला-बुरा मत कहिए। आप कह भी देंगे तो जिस के घर आ रही है वहाँ आना बन्द न कर देगी और आप के बैंक खाते का रुख भी नहीं करने वाली। आप फिजूल में ही पड़ौस के केमिस्ट की दुकान पर बरनॉल की बिक्री बढ़ा रहे हैं।

ठहरिए! जरा सोचिए! कितना कमा रहा है, एक हिन्दी चिट्ठाकार अपने हिन्दी चिट्ठे से? सोचने में परेशानी हो रही है तो आप किसी तरह पता लगा लीजिए एडसेंस से।

अब मैं तो देख रहा हूँ नियमित रूप से लिखने वाले और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पाँच हिन्दी चिट्ठौं में से एक पाण्डे ज्ञानदत्त जी को। उन को इस का भारी शोक है कि लोग विज्ञापनों को क्लिक ही नहीं करते। दूसरे हम हैं जो रोज अपना एडसेंस खाता क्लिक कर-कर परेशान हैं, उस में जमा डॉलर उतना का उतना ही पड़ा रहता है। जैसे हमारे चिट्ठे किसी गली के ट्रेफिक-जाम में फँस गए हों। अब आज का हमारा एडसेंस का ऑल टाइम खाता देखिए और खुद ही बताइए कि हमने पिछले पाँच माह में क्या कमाया अपने दो हिन्दी चिट्ठों से?

देख लिया?

कुल 3.13 डॉलर!

आह! कितनी बड़ी रकम है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मैं यह सोच कर प्रसन्न होऊँ या माथे पर हाथ धर कर बैठूँ कि इस से कहीं अधिक धन तो वह बरनॉल बेचने वाला केमिस्ट कमा चुका होगा।

खैर हमें नहीं सोचना यह सब, और भी ग़म हैं सोचने को दुनियाँ में।

मगर मैं सोच तो सकता ही हूँ, और क्यों न सोचूँ कि दुनियाँ गोल है। कोई सोच पर पहरा कैसे लगा सकता है।

मार पीट कर गैलीलियो से चर्च हिमायतियों ने कहलवाया कि उसने गलत कहा कि धरती गोल है, वह तो वाकई चपटी है। जेल से छूटने पर उस से पूछा। मैं ने सोचा धरती गोल है, उन्होंने कहलवा लिया चपटी। पर मेरे सोच पर कोई पहरा नहीँ। कहूँगा नहीं तो क्या? सोच तो सकता ही हूँ कि धरती गोल ही है। पर हुआ क्या? गैलिलियो ने सोचा, कुछ और ने सोचा, और धरती चपटी से गोल हो गई। अब तो चर्च भी कह रहा है कि धरती गोल ही है। मुझे पुरानी धरती का कोई चित्र नहीं मिल रहा जब धरती गोल थी। सब जगह तलाश किया तो पता लगा तब कैमरा नहीं बना था।

तो मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न कमाएं हिन्दी चिट्ठे अपने चिट्ठाकारों के लिए?

क्या कहा? आप भी सोचना चाहते हैं, ऐसा ही कुछ। तो चलिए हमारे साथ।

आखिर कबीरदास जी कह गए हैं-जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।

आप साथ चले तो रहेगी चर्चा जारी, वरना हम अकेले ही सोचेंगे। अपने चिट्ठे पर लिखेंगे भी। आप आज ही थोक में बरनॉल खरीद लाइए होलसेल केमिस्ट से जल्दी ही मांग और दाम बढ़ने वाले हैं।

क्या पता सोचते-सोचते चपटी धरती गोल हो ही जाए।