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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

शनिवार, 25 जून 2011

एक और असहाय औरत

सा नहीं है कि ब्लाग जगत में वृद्धजनों की उपेक्षा और उन की समस्याओं पर विचार न हुआ हो। पहले भी समय समय पर विचार होता रहा है। हो सकता है कोई ब्लाग भी केवल वृद्धजनों पर बना हुआ हो।  लेकिन अनवरत की पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है और कैसी होगी, नई आजादी? के बाद इस विषय पर अनेक ब्लागों पर पोस्टें लिखी गई और एक बहस इस बात पर छिड़ गई कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस के पीछे क्या कारण हैं। हम इस विषय पर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। लेकिन वे एकांगी ही होंगे। क्यों कि हम अपनी अपनी दृष्टि से उन पर विचार करेंगे। वास्तविकता तो यह है कि भारत एक विशाल देश है और इस देश में अनेक वर्ग हैं। हर वर्ग में इस समस्या के अनेक रूप हैं। लेकिन हर जगह पर कमोबेश हमें वृद्धजनों की उपेक्षा दिखाई पड़ती है। वास्तव में इस समस्या पर समाजशास्त्रीय शोध होना चाहिए। शोध में आए निष्कर्षों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उस पर विचार करते हुए समस्या की जड़ों को खोजने का प्रयत्न होना चाहिए। इस दिशा में हो सकता है कुछ शोध हो भी रहे हों। यदि हम समस्या की जड़ों तक पहुँचें तो फिर उन्हें नष्ट करने का सामाजिक प्रयास किया जा सकता है। 

क्त दोनों पोस्टों में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह एक सामान्य निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बीच घटित हुई थी। लेकिन इसी नगर में तीन दिन बाद ही एक दूसरी घटना सामने आई जो इस समस्या का दूसरा पहलू दिखा रहा है। आप को उस की बानगी दिखाए देते हैं ...

हुआ यूँ कि प्रभात  मजदूर वर्ग से है। उस ने कड़ी मेहनत से कमाई की और किसी तरह बचत करते हुए    यहाँ छावनी इलाके में एक दो मंजिला मकान बना लिया। भूतल के चार कमरों में किराएदार रखे हुए हैं और प्रथम तल उस के स्वयं के पास है। उस के तीन बेटियाँ और एक बेटा राजेश है। सभी बेटियाँ शादीशुदा हैं और भोपाल में रहती हैं। प्रभात भी अक्सर अपनी बेटियों के पास ही रहता है। कभी कभी कुछ समय के लिए कोटा आ कर रहता है। किराएदारों से किराया वसूलता है और वापस भोपाल चला जाता है। राजेश को शराब की लत लग गई। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। राजेश उदयपुर जा कर मजदूरी करने लगा। वहाँ उसे शराब पीने से रोकने वाला कोई नहीं था। वह अधिक पीने लगा। धीरे-धीरे शराब ने उस के शरीर को इतना जर्जर कर दिया कि वह बीमार रहने लगा और आखिर डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। इस बीच उस की पिता से बात हुई होगी तो पिता ने उसे कह दिया कि वह कोटा आ कर क्यों नहीं रहता है। हो सकता है उस ने पिता को शराब के कारण हुई अपनी असाध्य बीमारी के बारे में न बताया हो। 

चानक 13 वर्ष बाद राजेश अपनी पत्नी चंद्रिका के साथ कोटा पहुँच गया। उन के कोई संतान नहीं है। पिता ने बेटे-बहू को आया देख कर उन्हें घर में घुसने नहीं दिया और खुद मकान के ताला लगा कर कहीं निकल गया। हो सकता है वह बेटियों के पास भोपाल चला गया हो। दो दिन तक राजेश-चंद्रिका घर के बाहर ही बैठे रहे। इस बीच लगातार बारिश होती रही। दोनों ने सामने के मकान के छज्जे के नीचे पट्टी पर सोकर उन्हों ने रात गुजारी। सुबह जब तेज बारिश में दरवाजे के बाहर लोगों ने उन्हें बैठे देख पूछताछ की। उन्होंने लोगों सारा घटनाक्रम बताया दिया। उनका कहना था कि पिता जब तक मकान में घुसने नहीं देंगे, तब तक वो यहीं बैठे रहेंगे। इस पर लोगों ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस बेटे-बहू को समझा कर थाने लेकर गई। वहां बेटे ने पिता के खिलाफ पुलिस को शिकायत दी है। पुलिस मामले की जांच कर रही है। फिलहाल पिता वापस नहीं लौटे है। पिता की तलाश जारी है। 

ह परिवार पहले वाले परिवार से भिन्न है। यहाँ बेटे को इकलौता होते हुए भी पिता ने घर से निकाल दिया। बेटा भी ऐसा गया कि उस ने 13 वर्ष तक घर का मुहँ नहीं देखा। शराब ने उस के शरीर को जब जर्जर कर दिया और डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। उसे लगने लगा कि अब वह जीवित नहीं रहेगा तो अपनी पत्नी को ले कर अपने पिता के पास आ गया। उस की मंशा शायद यह रही हो कि अब उस की हालत देख कर उस के पिता उस पर रहम करेंगे और उस का इलाज ही करा देंगे। यदि इलाज न हो सका तो कम से कम उस के मरने के बाद उस की पत्नी को रहने का ठिकाना तो मिल ही जाएगा। यहाँ यह लग सकता है कि बेटा जब कुपथ पर चला गया तो घर से उसका निष्कासन करना सही था। लेकिन आज जब बेटा बीमारी से मरने बैठा है तो उसे घर में न घुसने देना कितना उचित है? एक पुत्र अपने पिता के संरक्षण में कुपथ पर कैसे चला गया?  पिता सिर्फ अपनी कमाई को जोड़ कर घर बनाता रहा और पुत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह कुपथ पर गया तो उसे सुधारने का प्रयत्न किए बिना उस का घर से निष्कासन कर देना क्या उचित कहा जा सकता है? बेटे ने 13 वर्ष कैसे गुजारे किसी को पता नहीं। बेटे का विवाह बेटे ने स्वयं किया है या उस के पिता ने उस का विवाह निष्कासन के पहले कर दिया था, यह पता नहीं है। 

र इस सब में बेटे की पत्नी का क्या कसूर है? उस के पास तो इस के सिवा कोई सहारा नहीं है कि वह मजदूरी करे और अपना जीवन यापन करे। कम से कम कानून उसे अपने पति के पिता से कोई मदद प्राप्त करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। चूंकि वह अपने ससुर के साथ नहीं रही है। इस कारण से घरेलू हिंसा कानून भी उस की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिर परिवार का क्या अर्थ रह गया है?

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

बलात्कार की रपट थाने में नहीं उच्च न्यायालय में दर्ज कराएँ

क महिला के साथ छेड़छाड़ हो जाए, यह केवल सारे समाज के लिए शर्म की बात ही नहीं है, अपितु भारतीय दंड संहिता में अपराध है, जिस के लिए अपराधी को दंडित कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार ने यह जिम्मेदारी अपनी पुलिस को सौंपी हुई है। पुलिस इस तरह के मामलों में किस तरह का बर्ताव करती है, यह सर्वविदित है। पुलिस को इस तरह के छोटे-मोटे मामलों पर शर्म नहीं आती। आए भी क्यों जब पुलिस महानिदेशक ऐसा करे तो साधारण पुलिस वाले तो उस का अनुकरण कर ही सकते हैं।
लो छेड़छाड़ की बात छोड़ दी जाए। किसी महिला के साथ बलात्कार हो, वह भी एक के साथ नहीं, एकाधिक महिलाओं के साथ और एक बार नहीं, पूरे सप्ताह भर तक; फिर यह सब करें पुलिस वाले, वह भी पुलिस थाने में और पुलिस थाने से महिला की आँखों पर पट्टी बांध कर कहीं और ले जा कर।   पुलिस को इस पर भी शर्म आने से रही। शायद वे ऐसा न करें तो उन की मर्दानगी पर लोग सन्देह जो करने लगेंगे। फिर जब वे महिलाएँ पुलिस के उच्चाधिकारियों के पास जा कर अपनी रिपोर्ट दर्ज करने की कहें और उच्चाधिकारी सुन लें यह कदापि नहीं हो सकता। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? पुलिस महकमे की इज्जत जो दाँव पर लगी होती है। आखिर पुलिस महकमे की इज्जत किसी महिला की इज्जत थोड़े ही है जिस से जब चाहे खेल लिया जाए। 
ब महिलाएँ क्या करें? कहाँ जाएँ? महिलाओं ने हिम्मत की और उच्चन्यायालय को शिकायत लिखी। उच्च न्यायालय ने पुलिस से जब जवाब तलबी की तब  जा कर पुलिस ने महिलाओं के बयान दर्ज किए। पुलिस को अब भी विश्वास नहीं है कि उन के सिपाही ऐसा कर सकते हैं, यह करतब कर दिखाने वाली अंबाला पुलिस  का कहना है कि यह राजस्थान के बावरिया गिरोह की सदस्य महिलाएँ हैं और खुद पर लगे आरोपों से बचने के लिए उलटे पुलिस पर ऐसे आरोप लगा रही हैं। महिलाओं के आरोप हैं कि पुलिस वालों ने न केवल बलात्कार किया, उन्हें बिजली का करंट भी लगाया जिस से एक महिला का गर्भ गिर गया और यह भी कि एक महिला इस बलात्कार के परिणाम स्वरूप गर्भवती हो गयी। 
खैर, पुलिस आखिर अपने सिपाहियों और अफसरों का बचाव न करेगी तो जनता उस के चरित्र पर संदेह करने लगेगी। लेकिन अब जनता क्या समझे? ये कि अब किसी महिला के साथ बलात्कार हो तो उसे पुलिस में रिपोर्ट करने नहीं जाना चाहिए, बल्कि सीधे उच्च न्यायालय में रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए। यानी अब पुलिस थाने का काम उच्च न्यायालय किया करेंगे?  
पुलिस द्वारा रिपोर्ट दर्ज न करने का किस्सा आम है। एक आम आदमी, जब भी उसे पुलिस में किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज करानी हो तो किसी रसूख वाले को क्यों ढूंढता है? यह किसी एक राज्य का किस्सा नहीं है, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पूरे भारत में पुलिस का यह चरित्र आम है। तो फिर क्यों नहीं पुलिस के चरित्र को बदलने के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा जाता। लगता है सरकारों, राजनेताओं और उन के आका थैलीशाहों को ऐसी ही पुलिस की जरूरत है।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

शुक्रवार, 26 जून 2009

चार-चार बच्चों वाली औरतें

अदालत से वापस आते समय लालबत्ती पर कार रुकी तो नौ-दस वर्ष की उम्र का एक लड़का आया और विंड स्क्रीन पर कपड़ा घुमा कर उसे साफ करने का अभिनय करने लगा। बिना विंडस्क्रीन को साफ किए ही वह चालक द्वार के शीशे पर आ पहुँचा।  उस का इरादा सफाई का बिलकुल न था। मैं ने शीशा उतार कर उसे मना किया तो पेट पर हाथ मार कर रोटी के लिए पैसा मांगा।  आम तौर पर मैं भिखारियों को पैसा नहीं देता। पर न जाने क्या सोच उसे एक रुपया दिया। जिसे लेते ही वह सीन से गायब हो गया। तीस सैकंड में ही उस के स्थान पर दूसरे लड़के ने उस का स्थान ले लिया।  इतने में लाल बत्ती हरी हो गई और मैं ने कार आगे बढा दी।

25 जून हो चुकी थी, लेकिन बारिश नदारद थी।  रायपुर से अनिल पुसदकर जी  ने रात को उस के लिए अपने ब्लाग पर गुमशुदा की तलाश का इश्तहार छापा।  उसे पढ़ने के कुछ समय पहले ही भिलाई से पाबला जी बता रहे थे बारिश आ गई है।  मैं ने पुसदकर जी को बताया कि बारिश को भिलाई में पाबला जी के घर के आसपास देखा गया है।  रात को तारीख बदलने के बाद सोये।  रात को  बिजली जाने से नींद टूटी।  पार्क में खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ आवाज कर रहे थे, तेज हवा चल रही थी। कुछ देर में बूंदों के गिरने की आवाज आने लगी।  पड़ौसी जैन साहब के घर से परनाला गिरने लगा जिस ने बहुत सारे शोर को एक साथ पृष्ठभूमि में दबा दिया। गर्मी के मारे बुरा हाल था। लेकिन बिस्तर छोड़ने की इच्छा न हुई। आधे घंटे में बिजली लौट आई। इस बीच लघुशंका से निवृत्त हुए और घड़ी में समय देखा  तीन बज रहे थे।

सुबह उठे, घर के बाहर झाँका तो पार्क खिला हुआ था। सड़क पर यूकेलिप्टस ने बहुत सारे पत्ते गिरा दिए थे और बरसात ने उन्हें जमीन से चिपका दिया था। नुक्कड़ पर बरसात का पानी जमा था।  नगर निगम के ठेके दार ने वहाँ सड़क बनाते वक्त सही ही कसर रख दी थी। वरना रात को हुई बारिश का निशान तक नहीं रहता। मैं ने अन्दर आ कर सुबह की काफी सुड़की और नेट पर समाचार पड़ने लगा। बाहर कुछ औरतों और बच्चों की आवाजें आ रही थीं।  पत्नी तुरंत बाहर गई और उन से निपटने लगी।  कुछ ही देर में वह चार पाँच बार बाहर और अंदर हुई। मुझे माजरा समझ नहीं आ रहा था।

पत्नी इस बार अन्दर किचन में गई तो मैं ने बाहर जा कर देखा।  हमारे और पड़ौसी जैन साहब के मकान के सामने की सड़क पर चिपके यूकेलिप्टस के पत्ते और दूसरी गंदगी साफ हो चुकी थी।  नुक्कड़ पर पानी पहले की तरह भरा था।  दो औरतें गोद में एक-एक बच्चा लिए तीन-तीन बच्चों के साथ जा रही थीं। माजरा कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।  मैं किचन में गया तो पत्नी बरतन साफ करने में लगी थी।  -तुम ने फ्रिज में पड़ा बचत भोजन साफ कर बाहर की सफाई करवा ली दिखती है।  मैं ने कहा।  -हाँ, किचन में पड़ा आटे की रोटियाँ भी बना कर खिला दी हैं उन्हें।

मुझे शाम वाले बच्चे याद आ गए।  फिर सोचने लगा -एक औरत के साथ चार-चार बच्चे? 
लेकिन कौन उन औरतों को बताएगा कि आबादी बढ़ाना ठीक नहीं और इस को रोकने का उपाय भी है।  मुझे वे लोग भी आए जो भिखारी औरतों को देख कर लार टपकाते रहते हैं और कुछ अधिक पैसा देने के बदले आधे घंटे कहीं छुपी जगह उन के साथ बिता आते हैं।  कौन जाने बच्चों के पिता कौन हैं? शायद माँएँ जानती ह या शायद वे भी नहीं जानती हों।



ब्लाग पढने आता हूँ।  वहाँ बाल श्रम पर गंभीर चर्चा है, कानूनों का हवाला है।  महिलाओं की समानता के लिए ब्लाग बने हैं।  कोई कह रहा है महिलाओं का प्रधान कार्य बच्चे पैदा करना और उन की परवरिश करना है।  ब्लाग लिखती महिलाओं में से एक उलझ जाती है।  दंगल जारी है।  देशभक्ति और देशद्रोह की नई परिभाषाएँ बनाई जा रही हैं, तदनुसार तमगे बांटे जा रहे हैं।  लालगढ़ पर लोग चिंतित हैं कि कैसे सड़क, तालाब, पुलियाएँ आदिवासियों ने बना कर राज्य के हक में सेंध लगा दी है।  वे लोग किसी को अपने क्षेत्र में न आने देने के लिए हिंसा कर रहे हैं।  वे जरूर माओवादी हैं।  माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लग गया है। तीन दिन में बंगाल की सरकार भी प्रतिबंध लगाने पर राजी हो गई है।  बिजली चली जाती है और मैं ब्लाग की दुनिया से अपने घर लौट आता हूँ।  कल लाल बत्ती पर मिले बच्चे और वे चार-चार बच्चों वाली औरतें और उन के बच्चे? सोचता हूँ, वे इस देश के नागरिक हैं या नहीं? उन का कोई राशनकार्ड बना है या नहीं? किसी मतदाता सूची में उन का नाम है या नहीं?