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सोमवार, 19 सितंबर 2011

उपवास-1, एकादशी महात्म्य


मैं ने बचपन से ही घर के बड़ों को एकादशी का उपवास करते देखा। हर एकादशी को वे भोजन नहीं करते। केवल दूध, चाय और पानी पीते। दुपहरी कट जाने के बाद अम्माँ एकादशी करने वालों के लिए आलू के चिप्स और साबूदाने के पापड़ तलती, सैंधा नमक और काली मिर्च से उन में स्वाद पैदा करती। सिंघाड़े या आलू का हलुआ भी उन के साथ बनाया जाता। ठाकुर जी को भोग लगाया जाता। फिर उपवासी एक साथ या एक एक कर के शाकाहार करते। हम बच्चों को भी इस शाकाहार में भाग मिलता। आलू के चिप्स और हलुआ अच्छा लगता, लेकिन सिंघाड़े का हलुआ कतई अच्छा नहीं लगता। कभी कभी कोई अम्माँ से पूछता -आप सारी ही एकादशी करती हैं क्या? अम्माँ का जवाब होता -करनी पड़ती हैं, पिछली साल दादी सास का देहान्त हुआ तब पंडित ने संकल्प करने को कहा था। मैं ने चौबीस एकादशी उन को दे दीं। अब वे तो करनी ही पड़ेंगी। जब तक चौबीस एकादशी पूरी होती कोई और निकट संबंधी परलोक गमन कर जाता। एकादशी के कर्ज खाते में कुछ एकादशी और दर्ज हो जाती। पिछले पचास वर्ष में कोई समय ऐसा नहीं आया कि अम्माँ का एकादशी कर्ज खाता कभी चुकता हो गया हो। 

कुछ बड़ा हुआ तो पता लगा कि भारत में किसान का कर्जा कभी नहीं चुकता वह कर्जे में ही पैदा होता है और कर्जे में ही परलोक चला जाता है। कर्जे की इस चक्की में महाजन माल बनाता रहता है और एक दिन ऐसा आता है कि किसान की जमीन महाजन के नाम हो जाती है। फिर किसान अपनी ही जमीन पर महाजन का कर्जदार हो कर बेगारी करने लगता है। मुझे लगने लगा था कि किसान की और मेरी अम्माँ की कर्ज की समस्या में कोई गंभीर संबंध है। फिर बहुत बाद में मैं ने भारतीय देव परिवार का विकास पढ़ा तो समझ आया कि वैदिक देवता होते हुए भी विष्णु की कोई खास पूछ नहीं थी। आर्यों और लिंगपूजकों में संघर्ष के दौरान सर्वोपरि आर्य देवता इन्द्र अपने कारनामों (गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के शील भंग जैसे कांड, जिस में उसे ऋषि गौतम के शाप के कारण अपने अंडकोष खोने पड़े थे। वापस देवलोक पहुँचने पर वहाँ के शल्य चिकित्सकों को मेंढे के अंडकोष लगा कर उसे फिर से वीर्यवान बनाना पड़ा, आखिर बिना अंडकोषों के वह देवताओँ का राजा कैसे बना रह सकता था, तीनों लोंकों में उस की भद्द न पिट जाती।) से बदनाम हो गया। शल्य चिकित्सा से वह भौतिक सुखों के योग्य तो हो गया लेकिन दुनिया में भद्द तो पिट ही गई। आर्यों द्वारा तो उसे स्वीकार करना मजबूरी थी। लेकिन अनार्य, विशेष रूप से लिंगपूजक उसे कैसे स्वीकार करते? लिंग पूजकों पर आर्यों ने भौतिक विजय तो हासिल कर ली थी लेकिन सांस्कृतिक विजय के बिना तो वह अधूरी ही रहती।

ब आर्यों के पास कोई उपाय शेष नहीं था। उधर लिंगपूजकों का पशुपति आर्यों में आदर पाने लगा था। उस की रुद्र से समानता भी थी। आखिर इंद्र के अनुज विष्णु को मैदान में उतारना पड़ गया। वह सीदा सादा था। उस पर जलंधर का रूप रख उस की पत्नी वृन्दा को छलने के सिवा कोई आरोप न था। पर उस के लिए तो आर्यों के पास उपयुक्त बचाव था, कि यदि विष्णु ऐसा न करता तो जलंधर को परास्त कर पाना असंभव था। तो विष्णु को लाँच किया गया। उस में तत्काल असफलता हासिल न हुई तो उसे भटकती मृतात्माओं के तारनहार के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह पासा चल निकला। कौन था जो अपने पूर्वजों की मृतात्माओं को भटकता देखना चाहता। कम से कम उस हालत में तो कतई नहीं जब कि वे अपने वंशजों के शरीर में आ कर उत्पात मचाती हों और उन के जीवन को नर्क बना देती हों। तब से अपने पूर्वजों की मृतात्माओं से मुक्ति और मृतात्माओं की मुक्ति के लिए एकादशी का उपवास चल रहा है, आज कल तो यह दौड़ रहा है। नगरों में तो दुकानों पर तरह तरह के स्वादिष्ट और सामान्य भोजन से कई गुना अधिक कैलोरी ऊर्जा प्रदान करने वाले फलाहारी व्यंजन उपलब्ध हैं। जिन के कारण मृतात्माओं से और मृतात्माओं की मुक्ति को अत्यन्त सरल और आनंदपूर्ण बना दिया है।

म्माँ अभी भी उपवास के कर्ज तले दबी है। मैं जान चुका हूँ कि जन्म से पहले और मृत्यु के उपरान्त आत्मा का कोई भाव नहीं, शरीर के बिना उस का अस्तित्व संभव ही नहीं। मैं सदेह मुक्त हूँ। अम्माँ का कार्यभार श्रीमती जी ने संभाल लिया है, लेकिन वे कर्जा नहीं करतीं। वे पहले से एकादशी का उपवास कर के बैंक में रखती हैं। जब भी जरूरत होती है उस में से चैक काट देती हैं। लेकिन यह उपयोगितावाद का युग है। एक वस्तु या व्यवहार का एक उपयोग आज के इंसान को बर्दाश्त नहीं। उसने उपवास के भी अनेक उपयोग निकाल लिए हैं .....