@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: उपन्यास
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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

पंकज सुबीर को उन के उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' पर ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार

पिछले दिनों मुझे एक विवाह के सिलसिले में सीहोर जाना और तीन-चार दिन रुकना हुआ। विवाह की व्यस्तता, और विवाह में आए बहुत से प्रिय संबंधियों का साथ था। वैसे भी इन सब से ऐसे ही अवसरों पर मिलना हो पाता है, तो समय बहुत कम मिला। पर मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं पंकज 'सुबीर' से अवश्य मिलूँ। वे ब्लाग जगत में बहुत से नए शायरों के गुरू हैं और उन्हें उन के शिष्य बहुत सम्मान देते हैं।  नए उदीयमान शायरों को ग़ज़ल का संस्कार दे कर वे बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। उन के इस श्रम से बहुत सी रचनाएँ ग़ज़ल होने लगी हैं, अन्यथा ब्लाग जगत में तो किसी भी ग़ज़लनुमा रचना को ग़ज़ल कह दिया जाता है और लोग वाह-वाही करने के लिए भी आ जाते हैं। ग़ज़लसाज़ी के अतिरिक्त पंकज सुबीर और भी बहुत कुछ हैं। उन्हें पूर्व में उन के कहानी संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' पर भारतीय नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। उन की गद्य लेखन पर अच्छी पकड़ है।
मैं ने सीहोर पहुँचने की अगली सुबह उन से टेलीफोन पर संपर्क किया तो पता लगा कि उन का कार्यालय मेरे ठहराव से पैदल दूरी पर है और रात्रि को एक बार तो मैं उन के कार्यालय के सामने पान की दुकान पर पान खा कर भी आ चुका हूँ। मैं कुछ ही देर बाद उन के कार्यालय पहुँचा। वे अपने काम में व्यस्त थे। उन्हें देख कर मुझे चौंकना पड़ा। उन के ब्लाग पर देख कर, उन के बारे में मेरे दृष्टिपटल पर जो चित्र था उस में  मेरी कल्पना थी कि उन की उम्र कम से कम 45 की अवश्य होगी। लेकिन वहाँ मैं एक नौजवान को देख रहा था। वे केवल 35 वर्ष के हैं और सीहोर बस स्टैंड के ठीक सामने स्थिति सम्राट कॉम्प्लेक्स के बेसमेंट में उन का कंप्यूटर इन्स्टीट्यूट चलता है। यहाँ कंप्यूटर सीखने आने वाले छात्रों के भी वे सम्माननीय गुरु हैं। वहीं से वे सुबीर सम्वाद सेवा नाम से एक इंटरनेट समाचार ऐजेंसी चलाते हैं। 
35 वर्ष की अल्पायु में एक कहानी संग्रह का आना और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उसे पुरस्कृत किया जाना बड़ी उपलब्धि है। मैं ने उन के साथ कुछ देर गुफ्तगूँ की और एक कॉपी पी। उन्हों ने मुझे अपना पहला उपन्यास जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने ही प्रकाशित किया है, की एक प्रति भेंट की। तीन दिन बाद जिस दिन शाम मुझे सीहोर से वापस लौटना था वे शिवना प्रकाशन की ओर से एक समारोह आयोजित कर रहे थे जिस में गीतकार राकेश खंडेलवाल जी को शिवना सारस्वत सम्मान प्रदान किए जाने वाला था। उन्हों ने मुझ से भी उस कार्यक्रम में रुकने का आग्रह किया। मैं परिवार सहित सीहोर में था और अपने कार्यक्रम को बिना सब की सलाह के बदल सकना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। इस कारण मैं ने उन्हें कहा कि मैं कोशिश करूंगा। लेकिन यह अवश्य कहा कि मैं उन का यह उपन्यास पूरा नहीं तो कम से कम उस के कुछ अंश अवश्य पढ़ूंगा और जब अगली बार मिलूंगा तो उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दूंगा। 
तीसरे दिन सुबह, जिस की शाम खंडेलवाल जी को सम्मानित किया जाने वाला था, उन से पुनः भेंट हुई। वे कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त थे। अपने कंप्यूटर इंस्टीट्यूट का उन्हों ने अवकाश रखा था। इंस्टीट्यूट के हॉल से सारे कंप्यूटर हटा दिए गए थे और उसे शाम के समारोह के लिए इस तरह तैयार कर दिया था, जैसे अभी-अभी समारोह आरंभ होने वाला था। अब वे बाहर से आने वाले अतिथियों के स्वागत की तैयारी में थे। उन की इसी व्यस्तता के बीच कुछ देर उन से बात हुई। मैं उपन्यास पढ़ चुका था, उपन्यास की पृष्ठभूमि सीहोर नगर ही था। मैं ने उस से सीहोर के बारे में बहुत कुछ जाना। इन तीन दिनों में उस उपन्यास में आए पात्रों के पीछे के कुछ व्यक्तित्वों से भी तब तक मैं मिल चुका था। मैं ने इस उपन्यास के लिए उन्हें बधाई दी। यह बहुत साहसपूर्ण कार्य था। लेकिन इस के बावजूद कि उन्हें इस उपन्यास के लिए नगर के कुछ लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है, उन्हों ने सचाई को सामने रखा और सीहोर नगर को अमर कर दिया। कुछ लोगों की नाराजगी के बावजूद सीहोर के लोगों का प्यार उन्हें अवश्य प्राप्त होगा। मैं ने उन्हें कहा कि लेखन की दूसरी विधाओं की अपेक्षा उन्हे गद्य लेखन, विशेष रूप से कहानी और उपन्यास लेखन पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस से वे भारतीय और अपने आसपास के जनजीवन की सचाइयाँ लोगों तक पहुँचा सकेंगे। 
मुझे न जाने क्यों औपचारिक सम्मान समारोहों से अजीब सी वितृष्णा है, लेकिन फिर भी राकेश खंडेलवाल जी, और विशेष रूप से गौतम राजऋषि मैं शाम को खंडेलवाल जी के सम्मान समारोह में पहुँचा था। समारोह के पूर्व कुछ देर तक  खंडेलवाल जी से बात हुई। सम्मान समारोह मेरी कल्पना से भी बहुत अधिक औपचारिक हो उठा था। गौतम से समारोह के बीच आँख मिली और आँखों में ही बात हुई। समारोह के बीच जब गौतम बाहर निकले तो मैं भी पीछे-पीछे बाहर निकला और उन से कुछ देर बात हो सकी। इस बीच मुझे संदेश मिला कि मैं शीघ्र अपने ठहराव पर पहुँचूँ। मुझे समारोह के बाद का मुशायरा बीच में छोड़ कर ही लौटना पड़ा। सुबह जल्दी ही मुझे सीहोर से वापस लौटना था। सुबीर जी और गौतम से फिर भेंट नहीं हो सकी।
ज सुबह मेरे मोबाइल पर संदेश था कि सुबीर जी को उन के उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' पर पुनः भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल रहा है और 29 दिसंबर की शाम दिल्ली में चल रहे पुस्तक मेले में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया जाएगा। मैं चाहता तो था कि इस समारोह में भाग लूँ, लेकिन मेरी विवशता कि कोटा से दिल्ली पहुँचने के सभी मार्ग गुर्जर आन्दोलन ने बंद कर रखे हैं। पाठकों में से जो लोग इस समारोह में पहुँच सकें अवश्य पहुँचें। इस पुस्तक को भी अवश्य खरीदें। यह न केवल पढ़ने योग्य है, अपितु अपने निजि पुस्तकालय में संग्रहणीय पुस्तक है। अंत में पंकज सुबीर को इस सफलता पर बहुत बहुत बधाइयाँ।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

फिर से पढना, मुल्कराज आनंद के उपन्यास "कुली" का

किसी भी शाकाहारी के लिए वह भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिस के लिए किसी भी तरह के अंडा और लहसुन तक त्याज्य हो,  यात्रा करना एक चुनौती से कम नहीं। वह भी तब जब कि उसे भारत से बाहर जाना पड़ रहा हो। बेटी पूर्वा के साथ भी यही चुनौती उपस्थित हुई थी। उसे पहली बार किसी कार्यशाला के लिए एक अफ्रीकी  देश जाना था। कुल एक सप्ताह की यात्रा थी। आखिर उस की मित्रों ने सलाह दी की तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ। यह बात जब शोभा तक पहुँची तो पत्थर की लकीर हो गया। बेटी जब पहली बार विदेश जा रही हो तो उस से मिलने जाना ही था। खैर, शोभा ने बेटी के लिए खाद्य बनाए। कुछ और वस्तुएँ जो उसे पहुँचानी थी, ली गई। यात्रा दो से चार दिन की हो सकती थी। कुछ किताबें पढ़ने के लिए होनी चाहिए थीं। मैं ने अपनी अलमारी टटोली और दो बहुत पहले पढ़ी हुई पुस्तकों का चयन किया। इन में से एक भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक मुल्कराज आनंद के उपन्यास कुली का हिन्दी अनुवाद था।
कुली आजादी के पूर्व के परिदृश्य में एक अनाथ पहाड़ी किशोर की कहानी है। चाचा चाची कहते हैं कि वह पर्याप्त बड़ा हो गया है उसे कमाना आरंभ कर देना चाहिए। उसे नजदीक के कस्बे में एक बाबू जी के घर नौकर रख दिया जाता है। उद्देश्य यह की खाएगा वहाँ और जो नकद कमाएगा वह जाएगा चाचा की जेब में। अपना ही निकटतम पालक परिजन  जब शोषक बन जाए तो औरों की तो बात कुछ और ही है। वह शोषण और निर्दयता का मुकाबला करता हुआ उस से भाग कर एक नए जीवन की तलाश में भटकता रहता है। लेकिन जहाँ भी जाता है वहाँ शोषण का अधिक भयानक रूप दिखाई पड़ता है। अंततः 15 वर्ष की आयु में वह यक्ष्मा का शिकार हो कर मर जाता है। 
स उपन्यास में देश में प्रचलित अर्ध सामंती, नए पनपते पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शोषण के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। इस में लालच के मनुष्यों को हैवान बना देने के विभत्स रूप देखने को मिलते हैं, तो कहीं कहीं शोषितों के बीच सहृदयता और प्यार के क्षण भी हैं।  भले ही यह उपन्यास आजादी के पहले के भारत का परिदृश्य प्रस्तुत करता है। लेकिन पढ़ने पर आज की दुनिया से समानता दिखाई देती है। शोषण के वे ही विभत्स रूप आज भी हमें अपने आसपास उसी बहुतायत से दिखाई देते हैं। वे हैवान आज भी हमारे आस-पास देखने को मिलते हैं। जिन्हें हम देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं, वैसे ही जैसे बिल्ली कुत्ते को देख कर आँख मूंद लेती है।
मैं इस उपन्यास को आधा कोटा से फरीदाबाद जाते हुए ट्रेन में ही पढ़ गया। शेष भाग फरीदाबाद में पढ़ा गया। बहुत दिनों बाद पढ़ने पर लगा कि जैसे मैं उसे पहली बार पढ़ रहा हूँ। बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। जो हमारे वर्तमान समाज के यथार्थ को शिद्दत के साथ महसूस कराती है। यह पुस्तक मिल जाए तो आप भी अवश्य पढ़िए। जो लोग इसे खरीदने में समर्थ हैं वे इसे खरीद कर अपने पुस्तकालय में इसे अवश्य सम्मिलित करें।  यात्रा में ले जाई गई दूसरी पुस्तक का मैं एक ही अध्याय फिर से पढ़ सका। आज मेरे एक कनिष्ट अधिवक्ता उसे पढ़ने के लिए ले गए हैं। देखता हूँ वह कब वापस लौटती है। इस दूसरी पुस्तक के बारे में बात फिर कभी।