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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

पशुपालन का आरंभ : बेहतर जीवन की तलाश-2


बात आरंभ यहाँ से हुई थी कि आज मनुष्य जीवन को सब तरफ से आप्लावित करने वाली कंपनियों का उदय कब और क्यों कर हुआ? लेकिन हम ने आरंभ किया मनुष्य जीवन के आरंभिक काल में हो रहे परिवर्तनों से। हम ने देखा कि भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के जांगल युग में अपने रोजमर्रा के कामों के बीच हुए अनुभवों और बेहतर जीवन की तलाश ने पशुओं को काबू करने और मुश्किल दिनों के लिए उन का संरक्षण करना आरंभ कर दिया था। इसी ने विजेता समूह में पराजित समूह के सदस्यों के जीवन का अंत करने की प्रवृत्ति को दास बनाने के प्रयत्न में बदलना आरंभ किया था। इस तरह वे अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। पराजित समूह के सदस्य के लिए जानबख्शी भी बहुत बड़ी राहत थी। इस तरह अब जो मानव समूह अस्तित्व में आया उस में और पहले वाले मानव समूह में एक बड़ा अंतर यह था कि पहले वाले समूह में केवल सदस्य थे जो किसी न किसी प्रकार से रक्त संबंधों से जुड़े थे और सदस्यों के बीच कोई भेद नहीं था। लेकिन जो नया समूह जन्म ले रहा था उस में सदस्यों के अतिरिक्त दास भी सम्मिलित थे। अब समूह वर्गीय हो चले थे। दासों को बन्धन में रहते हुए वही काम करना था जो समूह के सदस्य उन के लिए निर्धारित करते थे। ये काम समूह के मुख्य कामों के सहायक काम होते थे। इस के बदले समूह उन्हें मात्र इतना भोजन देता था कि वे किसी तरह जीवित रह सकें।

दीर्घ काल तक पशुओं का संरक्षण करते रह कर मनुष्य को सीखने को मिला कि एक पशुमाता अपनी संतान का अपने स्तनों के जिस दूध से पोषण करती है वह मनुष्य के लिए भी उतना ही पोषक है जितना कि पशु के लिए और उस का उपयोग समूह के सदस्यों के पोषण के लिए किया जा सकता है। आरंभ में मनुष्य ने पशुबालक की तरह ही पशुदुग्ध का सेवन करना सीखा होगा और अनुभव ने उसे सिखाया कि सीधे पशु-माता के स्तन को मुहँ लगाए बिना भी पशु-माताओं से दूध प्राप्त किया जा कर उस का उपयोग किया जा सकता है। मनुष्य जीवन के विकास में यह एक बड़ा परिवर्तन था। जिन पशुओं का वह मात्र खाद्य के रूप में संरक्षण कर रहा था उस पशु को जीवित रख कर भी उन से पोषक भोजन प्राप्त किया जा सकता था। इसी ज्ञान ने मनुष्य को पशु-संरक्षक से पशुपालक में बदलना आरंभ कर दिया। पशुपालन विकसित होने लगा। बेशक वनोपज-संग्रह और शिकार भी जारी रहा, लेकिन वह पशुपालन से अधिक जोखिम का काम था, पशुपालन के विकास के साथ ही उस का कम होना अवश्यंभावी था। मनुष्य ने यह भी जान लिया था कि पाले गए पशुओं की संख्या में स्वतः ही वृद्धि होती रहती है। मनुष्य को उन्हें हमेशा काबू कर पालतू बनाने की आवश्यकता नहीं है। शनैः शनैः मनुष्य वनोपज संग्राहक और शिकारी से पशुपालक होता गया। एक अवस्था वह भी आ गई जब वह मुख्यतः पशुपालक ही हो गया। पशुपालन से भोजन के लिए पशुओं की आवश्यकता की भी बड़ी मात्रा में पूर्ति संभव हो गयी। उस के लिए अब शिकार की जोखिम उठाना आवश्यक नहीं रह गया था। वनोपज संग्रह और शिकार अब अनुष्ठानिक कार्यों, शौक, आनंद, औषध आदि के लिए रह गए। जांगल युग समाप्त हो रहा था और मनुष्य सभ्यता के प्राथमिक दौर में प्रवेश कर चुका था। हालांकि यह युग भी मानव इतिहास में बर्बर युग के नाम से ही जाना जाता है। 

सामी और आर्य समूहों में पशुपालन मुख्य आजीविका हो चला था लेकिन अभी वे खेती के ज्ञान से बहुत दूर थे। मनुष्य जीवन पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों से निकल कर घास के मैदानों में आ चुका था। चौपायों के पालन और उन की नस्ल बढ़ाते रहने से, समूहों के पास पशुओं के बड़े बड़े झुण्ड बनने लगे। उन के पास भोजन के लिए मांस और दूध की प्रचुरता हो गई। इस का बालकों के विकास पर अच्छा असर हो रहा था। घास के मैदानों में वे प्रकृति के नए रहस्यों से परिचित हो रहे थे कि कैसे पानी और धूप घास के जंगलों को पैदा करती रहती है? कैसे घास के बीज अँकुराते हैं और घास पैदा होती रहती है। कैसे मिट्टी से उपयोगी बर्तन बनाए जा सकते हैं, और कैसे उन्हें आग में तपा कर स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है? कैसे किसी खास स्थान की मिट्टी से धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं? जिन से उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। एक लंबा काल इसी तरह जीते रहने के उपरान्त वे सोच भी नहीं सकते थे कि वे वापस उन्हीं पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों में जा सकते हैं।

म देख सकते हैं कि जांगल युग में मनुष्य तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। वह वे ही औजार तैयार कर पाता था जिन से प्राकृतिक वस्तुएँ प्रकृति से प्राप्त करने में मदद मिलती थी। इस से अगली पशुपालन की अवस्था में उस ने पशुओं में प्रजनन के माध्यम से प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखना आरंभ किया। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बना रहा था। लेकिन इस बेहतरी ने मनुष्य समूह में दो वर्ग उत्पन्न कर दिए थे, 'स्वामी' और 'दास'। पशुओं के रूप में संपत्ति ने जन्म ले लिया था। हालांकि इस संपत्ति का स्वामित्व अभी भी सामुहिक अर्थात संपूर्ण समूह का बना हुआ था। वह व्यक्तिगत नहीं हुई थी।  (क्रमशः) 


दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

सोमवार, 26 सितंबर 2011

दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

ज शर्मा जी नया एलईडी टीवी खरीद कर लाए हैं, मनोज ने नया लैपटॉप खरीदा है या फिर मोहता जी ने नई कार खरीदी है। जब भी इस तरह का कोई समाचार सुनने को मिलता है तो अनायास कोई भी यह प्रश्न कर उठता है। टीवी या लैपटॉप कौन सी कंपनी का लाया गया है, या कार कौन सी कंपनी की है? जैसे कंपनी का नाम पता लगते ही वस्तु की रूप-गुणादि का स्वतः ही पता लग जाएंगे। कंपनी का नाम वस्तुओं के उत्पादन के साथ अनिवार्य रूप से जु़ड़ चुका है। हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ कंपनी हमारा पीछा छोड़ती दिखाई नहीं देती, वह परछाई की तरह मनुष्य का पीछा करती है। कंपनियों का जो स्वरूप आज मनुष्य समाज में सर्व व्यापक दिखाई देता है। लगभग छह सौ बरस पहले तक वह अनजाना था। आखिर पिछले छह सौ बरस पहले ऐसा क्या हुआ कि अचानक कंपनियों का उदय हुआ और थोड़े ही काल में उन्हों ने सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमा लिया?

क जमाना था जब मनुष्य रोज की आवश्यकताओं को रोज पूरी करता था। भोजन के लिए जंगलों की उपज एकत्र करके लाना या शिकार करना ही इस के साधन थे। लेकिन इस तरह प्राप्त भोजन इतना ही होता था कि मनुष्य की प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा कर दे। न तो शिकार को बचा कर रखा जा सकता था और न ही जंगल से संग्रह की गई वनोपज को। भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के उस जांगल युग में मनुष्य ने अपने शिकार पशुओं का व्यवहार समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उस ने अनुभव से जाना कि कुछ जानवर ऐसे हैं जिन्हें शिकार किए बिना जीवित ही काबू किया जा सकता है। उन्हें घेर कर या बांध कर रखा जा सकता है, और शिकार न मिलने के कठिन दिनों में उन का उपयोग कर क्षुधापूर्ति की जा सकती है। यह मनुष्य समाज के विकासक्रम में आगे आने वाली महत्वपूर्ण अवस्था का पूर्वरूप था। जब पशु घेर कर या बान्ध कर रखे जाने लगे तो उन की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। काबू में किए गए पशु घेरा या बन्धन तोड़ कर स्वयं स्वतंत्र हो सकते थे, अन्य हिंस्र पशु भोजन की तलाश में उन पर हमला कर सकते थे, या कोई दूसरा मानव समूह उन पर कब्जा कर सकता था। मनुष्य को अपने समूह के सदस्यों के एक भाग को भोजन संग्रह और शिकार के काम से अलग कर इन काबू किए गए पशुओं की सुरक्षा में लगाना पड़ा। भोजन संग्रह और शिकार अभी मनुष्य के मुख्य काम थे और पशु संरक्षा के काम में लगाए गए स्त्री-पुरुष समूह के वे सदस्य थे जो इस के लिए कम योग्य या अयोग्य समझे जाते थे। लेकिन पशु संरक्षा का यह काम आरंभ करते समय मनुष्य को यह अनुमान तक नहीं था कि आगे आने वाले युग में भोजन संग्रह और शिकार गौण हो जाने वाला है और उस ने पशुओं को काबू करना सीख कर जीवन यापन के लिए एक नए, उन्नत और अधिक उपयोगी साधन के विकास की नींव रख दी है। 

भोजन संग्रह और शिकार युग में कभी कभी काम के दौरान दो मानव समूहों की भेंट भी हो जाती थी। यह भेंट वैसी नहीं होती थी जैसी आज दो देशों के राजनयिक या सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलों की होती है। वह अनिवार्य रूप से हिंस्र होती थी। यह हिंसा होती थी संग्रह किए जाने वाले भोजन या शिकार पर कब्जे के लिए। यह भेंट कुछ कुछ आज कल किसी क्षेत्र में अवैध व्यापार करने वाली गेंगों के बीच होने वाली गैंगवार जैसी होती होगी। जब तक एक समूह को पूरी तरह नष्ट न कर दिया जाए या क्षेत्र से बहुत दूर न खदेड़ दिया जाए, तब तक दूसरे समूह के लोगों को कत्ल कर देने का सिलसिला खत्म न होता था। पशु संरक्षा के नए काम ने इन हिंसक मुलाकातों के अंत का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब पशु संरक्षा के काम को आरंभ कर चुके समूहों को पशुओं की सार संभाल के लिए कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हो रही थी जो बन्धन में रहकर काम कर सकें। उस काल तक एक समूह को पराजित कर देने के उपरान्त पराजित समूह के सभी सदस्यों की हत्या कर देने के और शेष बचे सदस्यों को भाग जाने देने के स्थान पर बन्दी बना कर उन से काम लेना अधिक उपयोगी था। पराजित समूह के शेष बचे सदस्यों के लिए भी लड़ कर जीवन का सदा के लिए अन्त कर देने के स्थान पर बन्दी बन कर जीवन बचाए रखना अधिक उपयोगी था, उस में स्वतंत्र जीवन की आस तो थी। मानव विकास का यह मोड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसे हम मनुष्य समाज के विकासक्रम में दास युग का प्रारंभ कह सकते हैं। (क्रमशः)

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अश्यी काँई ख्हे दी ब्हापड़ा नें

घणो बवाल मचायो! अश्यी काँईं ख्ह दी।  य्हा ई तो बोल्यो थरूर के कैटल क्लास म्हँ जातरा कर ल्यूंगो।  अब थें ई सोचो;  ब्हापड़ा नें घणी घणी म्हेनत करी। पैदा होबा के फ्हेली ई हिन्दुस्तान आज़ाद होग्यो जी सूँ बिदेस म्हँ पैदा होणी पड्यो। फेर बम्बई कलकत्ता म्हँ पढणी पड़्यो। इत्य्हास मँ डिगरी पास करी व्हा बी अंग्रेजी म्हँ प्हडर। फेर अमरीका ज्यार एम्में अर पीएचडयाँ करणी पड़ी। नरी सारी कित्याबाँ मांडी। जद ज्यार ज्यूएन म्हँ सर्णार्थ्याँ का हाई कमीस्नर बण्यो। फेर परमोसन लेताँ लेताँ कणा काँई सूँ कणा काँईं बण बैठ्यो।  फेर बडी मुसकिल सूँ जुगाड़ भड़ायो अर ज्यू एन का सेकरेटरी जर्नल को चुणाव ज्या लड्यो। ऊँम्हँ भी हारबा को अंदसो होयो तो नाम ई पाछो जा ल्यो।
अब यो अतनो ऊँचो कश्याँ बण्यो? थाँ ईँ याद होव तो बताओ! न्हँ तो म्हूँ बताऊँ छूँ। अतनो बडो आदमी अश्याँ  ई थोड़ी बण ज्याव छे। घणा पापड़ बेलणी पड़ छे, ज्यूएन म्हँ घुसबा कारणे। जमारा भर का मोटा मोटा सेठ पटाणी पड़े छे।  कान काईँ बण ज्याबा प व्हाँ की सेवा करणी पड़े छे। जद परमोसन मले छे। अब अश्याँ परमोसन लेताँ लेताँ दोन्यूँ को गठजोड़ो अतनो गाढ़ो हो ज्यावे छे जश्याँ फेवीकोल को जोड़। दोन्यूँ आडी हाथी अड़ा र खींचे  जद  भी न छूटे। 
अब थाँ ई बोलो! जमारा भर का सेठाँ सूं गठजोड़ो बांधे अर फेर भी व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास म्हाइनें जातरा करे। य्हा कोई जमबा हाळी बात छे कईँ। अब य्हा ई तो गलती होगी, के उँठी ज्यूएन छोडर अठी आ मर् यो। पण काँई करतो ब्हापड़ो, उँठी मंदी की मार पड़ री छी। गठजोड़ा हाळा सन्दा सेठा के ही व्हा गळा में आ री छी तो यो व्हाँ काई करतो। अठी इटली हाळी माता जी नें देखी के यो ज्यूएन को बंदो फोकट म्हँ पल्ले पड़ रियो छे तो ईं ने छोडो मती, पकड़ ल्यो।  व्हाँ ने पकड़्यो अर किसमत नें जोर मारि्यो, अर चुणाव में जीतग्यो। अठी जीत्यो अर उठीं उँ की पौ बारा।  झट्ट सूं सेकिण्ड बिदेस मंतरी जा बणायो। आखर कार ऊँ ने गठजोड़ा को धरम भी तो निभाणो छो। 
अब थें ई बताओ! अतनो बडो आदमी ज्ये जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ो बणावे अर व्हाँ के कारणे सैकिंड बिदेस मंतरी बण के दिखावे। ऊँ से था खेवो के भाया खरचा माथे व्हाई ज्हाज का थर्ड किलास में बैठणी पड़सी। अब माता जी को खेबो भलाईँ न्ह माने पण गठजोड़ा को धरम तो निभाणी पडे। अर माताजी न्हें भी थोड़ी आँख्याँ दखाणी पड़े; के थें यूँ मती सोच जो के म्हूँ थाँ के न्हाईं छूँ। थानें हिन्दूस्तानी व्हाई ज्हाज का डिरेवर सूँ गठजोड़ो बणायो, पण म्हंने तो जमारा भर का सेठाँ सू बणायो छे, आज ताईँ निभायो छे। अर आगे भी निभाबा को पक्को इरादो कर मेल्यो छे। 
थें ई बताओ, के ससी थरूर न्हें काँई झूट बोल्यो? हिन्दुस्तान का व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास गायाँ भैस्याँ के बरोबर छे क कोई न्हँ? थाईं तो याद छे के व्ह परदेसी गायाँ जे पच्चीस-पच्चीस सेर दूध देव व्हाँ के ताँई कूलर एसी म्हँ रखाणणी पड़े छे। अब ससी थरूर साइब के ताईं जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ा को सरूर न्हँ होवेगो तो काँईँ थारे ताँई होवेगो के ?

रविवार, 18 जनवरी 2009

नाड़े और इज़ारबंद, लटकाने, दिखाने, इतराने और कविता कहने के

आज दीतवार है।   बकौल मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा के ब्लाग पर उदृत पत्र के लेखक आर डी सक्सेना यह आदित्यवार है।  उधर मालवी में ही नहीं, इधर हाड़ौती में भी इसे दीतवार ही बागते हैं।  मगर हमारे नवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक जी की नजर में इस का रिश्ता अंग्रेजी से भी है।  कक्षा में जब पूछा गया कि कल का सवाल हल कर लाए? तो एक छात्र का उत्तर था, -खाल तो दीतवार छो। (कल तो इतवार था, छुट्टी का दिन)  छात्र से उस का गांव पूछा तो पटना बताया।  पटना से यहाँ कैसे आए? तो जवाब था, पैदल।  अध्यापक जी चकरा गए।  बिहार की राजधानी से राजस्थान तक का सफर रोजाना पैदल?  दूसरे छात्रों ने बताया कि पटना आठ किलोमीटर पर एक गाँव का नाम है जहाँ से वह रोज पढ़ने आता है।  अध्यापक जी बोले, अब समझा यहाँ के लोग वार के पहले दी लगाकर बोलते हैं, दीतवार, दी सोमवार, दी मंगलवार............।

 आज भी दीतवार है, कुछ वक्त का लुत्फ उठाया जा सकता है।

 नए मुकदमे के सब कागज तैयार, अदालत में पेश करने के लिए कवर लगा कर सिलाई का काम ही शेष रह गया।  तभी आवाज आई नाड़ा कहाँ गया?  मुंशी बोल रहा था। सब जगह तलाश करने पर नाड़ा मेज के नीचे पाया गया।  कागजों को सहजते संवारते चुपके से नीचे खिसक गया था।  नाड़ा, यानी फाइल सीने का फीता जो कभी लाल रंग का होता था, आज हरे रंग का होने लगा है ताकि कोई इसे लाल फीताशाही न कहे।  हरी फीताशाही भारत में भी खूब चल रही है।  किसी जमाने में पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने सारे सरकारी फीतों को लाल से हरे रंग में बदल डाला था।  लाल फीताशाही एक ऑर्डर से खत्म हो गई।  फीताशाही वहाँ भी कायम है और यहाँ भी।  शाह अफसर या मंत्री कोई भी हो, फर्क क्या पड़ता है?

अब नाड़े का जिक्र हुआ तो उस के शानदार नाम इज़ारबंद का उल्लेख होना वाजिब है।   तो सीधे ग़ालिब पर ही आ जाएँ।  निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं....

इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था।  इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है। इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी।  ये इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे और औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे। 
औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे। लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे। 
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे। ये छुपाने के लिए नहीं होते थे।  पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे।  पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था। 
 
ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे।  जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे। सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे।
फ़ाज़ली साहब ने यहाँ इज़ारबंद से ताल्लुक रखते कुछ मुहावरों का उल्लेख भी किया है, जैसे एक ‘इज़ारबंद की ढीली’  जो उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. फ़ाज़ली साहब ने  इस मुहावरे को इस तरह छंदबद्ध किया है-
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ा
इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा


‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो'।  इस मुहावरे का शेर इस तरह है,
अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले
जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले

इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता।  पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता।
घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे
इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे

इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना।
पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल।
निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे
इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे

ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे।
कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना।  कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे।   इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे।  अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बनाते थे।
नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे।  जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भाषा का प्रमाण है। उनकी नज़्म के कुछ शेर -
छोटा बड़ा, न कम न मझौला इज़ारबंद
है उस परी का सबसे अमोला इज़ारबंद
गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा
थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद

तो ये हुआ इस दीतवार लुत्फ़िया।  इस में बीबीसी और निदा फ़ाजली साहब का उल्लेख हुआ है और इस्तेमाल भी।  दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया।