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सोमवार, 4 अप्रैल 2011

बस पर किस का बस है

प्राक्कथनः
हम बस में सवार थे
अचानक बस से उतार लिए गए
सड़क रुकी हुई थी
बसों, ट्रकों, जीपों कारों की कतार थी
माजरा देखा
बीच रास्ते पर शामियाना तना हुआ था
अंदर एक सफेद पर्दे पर 
प्रोजेक्टर से  निकली रोशनी
खेल रही थी
मैच चल रहा था विश्वकप का 
कभी उतार तो कभी चढ़ाव
आखिर मैच खत्म 
जश्न शुरू हुआ
नाचते गाते सुबह होने को हुई 
तो सड़क साफ हुई हम फिर बस में थे

.... और अब एक कविता अम्बिकादत्त की-

बस पर किस का बस है

  • अम्बिकादत्त

कोई नहीं जानता बस कहाँ जाएगी
बस कुएँ में पड़ी बाल्टी की तरह है
लोगों को पता है बस सरकारी है
लोग जानते हैं बस घाटे में है
लगो सोचते हैं बस कभी तो जाएगी
लगो नहीं जानते बस कब जाएगी
बस बंद है, जिन खिड़कियों में काँच नहीं है
वे खिड़कियाँ भी बन्द हैं
लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं
सामान जमा रहे हैं, बीड़ियाँ सुलगा रहे हैं
खटर-पटर सी मची है, बस चलेगी यह उम्मीद जगी हुई है
सीट पर आराम से बैठा आदमी, आशंकित है
ऊपर रखा सामान कभी भी उस के माथे पर गिर सकता है/ उस की सीट का नम्बर
किसी और को मिल सकता है
उफ! कितनी उमस है कितनी तकलीफ है
थकान है फिजूल झगड़ा है, थोड़ी देर के सफर में भी सकून नहीं
चलिए छोड़िए! जरा बताइए भाई साहब, कितना बजा है, बस कब जाएगी




मंगलवार, 22 मार्च 2011

'कविता' ... औरतों का दर्जी -अम्बिकादत्त

कोई भी रचना सब से पहले स्वान्तः सुखाय ही होती है। जब तक वह किसी अन्य को सुख प्रदान न कर दे उसे समाजोपयोगी या रचनाकार के अतिरिक्त किसी भी अन्य को सुख देने वाली कहना स्वयं रचनाकार के लिए बहुत बड़ा दंभ ही होगा। इस का सीधा अर्थ यह है कि कोई भी रचना का स्वयं मूल्यांकन नहीं कर सकता। किसी रचना का मूल्यांकन उस के प्रभाव से ही निश्चित होगा। इस के लिए उस का रचना के उपभोक्ता तक पहुँचना आवश्यक है। उपभोक्ता तक पहुँचने पर वह उसे किस भांति प्रभावित करती है, यही उस के मूल्यांकन का पहला बिंदु हो सकता है। तुलसी की रामचरितमानस से कौन भारतीय होगा जो परिचित नहीं होगा। इस रचना ने पिछली चार शताब्दियों से भारतीय जन-मानस को जिस तरह प्रभावित किया है। संभवतः किसी दूसरी रचना ने नहीं। लेकिन उस का रचियता उसे स्वान्तः सुखाय रचना घोषित करता है। तुलसीदास रामचरित मानस जैसी कालजयी रचना को रच कर भी उसे स्वांतः सुखाय घोषित करते हैं, यह उन का बड़प्पन है। लेकिन कोई अन्य किसी अन्य की रचना लिए यह कहे कि वह स्वांतः सुखाय है, तो निश्चित रूप से उस रचना ने कहीं न कहीं इस टिप्पणीकार को प्रभावित किया है और यही घोषणा उस रचना के लिए एक प्रमाण-पत्र है कि वह मात्र स्वान्तः सुखाय नहीं थी।
मैंने पिछले दिनों हमारे ही अंचल के कवि अम्बिकादत्त से परिचय करवाते हुए उन की कविताएँ प्रस्तुत की थीं। आज प्रस्तुत है उन की एक और रचना। इसे प्रस्तुत करते हुए फिर दोहराना चाहूँगा कि कवि का परिचय उस की स्वयं की रचना होती है। 


औरतों का दर्जी
  • अम्बिकादत्त


झूठ नहीं कहता मैडम!
सब औरतें आप की तरह भली नहीं होतीं
दोजख से भी दुत्कार मिले मुझ को यदि मैं झूठ बोलूँ
अल्लाह किसी दुश्मन के नसीब में भी न लिखे
औरतों का दर्जी होना! अगर होना ही पड़े तो
औरतों के दर्जी के लिए अच्छा है
गूंगा या बहरा होना
क्या कोई तरकीब ईजाद हो सकती है नए जमाने में
कि अंधा हो कर भी औरतों का दर्जी हुआ जा सके
हालांकि, आवाज से किसी औरत का 'पतवाना' लेना जरा मुश्किल काम है
किसी भी वक्त बदल जाती हैं-वो
नाप लेने के सारे साधन
अक्सर ओछे और पुराने पड़ जाते हैं
लगता है, एक तिलिस्म है/मिस्र के पिरामिड, दजला फरात या 
सिंधु घाटियों में जाने जैसा है, उन्हें नापना/
जरा सा चूक जाएँ तो लौटना मुश्किल है- नस्लों तक के सुराग न मिलें

उन की आवाज में चहकते सुने हैं पंछी मैं ने
सपनों में तैरते सितारे
'लावणों' में लहराते बादल
तरह-तरह के कालरों और चुन्नटों में चमकते इन्द्रधनुष
वरेप, मुगजी, बटन, काज, हुक, बन्द, फीतों में
तड़पती देखता हूँ हजारों हजार मछलियाँ
और इन की हिदायतें ओS
इतनी हिदायतें, इतनी हिदायतें कि क्या कहूँ
कई बार तो लगता है, वे कपड़े सिलवाने आई हैं या पंख लगवाने
मेरे हाथ से गज और गिरह गिरने को होते हैं
बार बार
अरजुन के हाथ से गिरता था धनुष जैसे महाभारत से पहले
अपनी बातों ही बातों से कतरनों का ढेर लगा देती हैं
मेरी कैंची तो कभी की भोथरी साबित हो चुकी
कपड़े वक्त पर सिल कर देने का वादा, और वक्त पर न सिल पाना अक्सर
दोनों ही मेरी मजबूरियाँ हैं जिन्हें मैं ही जानता हूँ
और कोई नहीं जानता, मेरे ग्राहकों और खुदा के सिवा
आसमान की ऊँचाइयाँ कम हैं उन के लिए
समुन्दर की गहराइयाँ भी/कम हैं उन के सामने
कैसे कैसे ख्याल सजाए होती हैं, कैसे कैसे दर्द छिपाए होती हैं वे
मुझे रह रह कर याद आता है,
मेरी पुरानी ग्राहक की नई सहेली की ननद का किस्सा 
जिस की कहीं बात चल रही थी, फिर टूट गई 
उस ने जहर खाया था अनजान जगह पर 
लावारिस मिली उस की लाश को पहचाना था पुलिस ने कपड़ों से 
उस ने मेरे सिले हुए कपड़े पहन रक्खे थे, मुझे उस दिन लगा
औरतों के कफन और शादी के जोड़े क्या एक जैसे होते हैं
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को। 

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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

अभी ... कविता

ज यहाँ अंबिकादत्त की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कविता कविता के बारे में है। लेकिन जो कुछ कविता के बारे में इस कविता में कहा गया है। उसे संपूर्ण लेखन और संपूर्ण ब्लागरी के बारे में समझा जाना चाहिए। क्या ब्लागरी को भी ऐसी ही नहीं होना चाहिए, जैसी इस कविता में कविता से अपेक्षा की गई है? 




'कविता'
अभी कविता
  • अंबिकादत्त
अभी तो लिखी  गई है कविता
उन के लिए 
जिन के औजार छीन लिए गए

अभी बाकी है कविता !
उन के लिए लिखी जानी 
जिन के हाथ नहीं हैं
जीभ का इस्तेमाल जो सिर्फ पेट के लिए करते हैं

अभी बाकी है कविता का उन तक पहुँचना 
सपने जिन के राख में दबे हैं

उन के लिए बाकी है अभी कविता
जो कविता लिख रहे हैं
जो कविताएँ बाकी हैं
उन्हें कौन लिखेगा
किस के जिम्मे है उन का लिखा जाना

और हम जो लिख रहे हैं कविता
वो किस के लिए है?





बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

जिन्दा तो रहूँगा

मेरे विचार में किसी रचनाकार का परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती। आप परिचय में क्या बता सकते हैं? उस की कद-काठी, रंग-रूप, खानदान, शिक्षा, वर्तमान जीविका और उस ने अब तक क्या लिखा है, कितना लिखा है और कितना प्रकाशित किया है और कितने सम्मान मिले हैं ... आदि आदि। लेकिन यह उस का परिचय कहाँ हुआ। उस का असली परिचय तो उस की रचनाएँ होती हैं। यदि मधुशाला न होती तो कोई हरिवंशराय बच्चन को जानता? या रामचरित मानस न होती तो तुलसीदास किसी गुमनामी अंधेरे में खो गए होते धनिया व गोबर जैसे पात्र नहीं होते तो लोग प्रेमचंद को बिसरा चुके होते। 
सा ही एक रचनाकार है, वह कॉलेज में कुछ साल पीछे था, तो सोच भी न सकते थे कि वह लोगों के मन को पढ़ने  जबर्दस्त हुनर रखता होगा, कि उस में जीवन के प्रति इतना अनुराग होगा, और वह हर कहीं से जीवन-राग और उस की जीत का विश्वास तलाश कर लाएगा और आप के सामने इस तरह खड़ा कर देगा कि आप उसे सुनने को बाध्य हो जाएंगे। अम्बिकादत्त ऐसे ही रचनाकार हैं। उन के बारे में  आज और अधिक कुछ न कहूँगा।  आने वाले दिनों में उन की कविताएँ ही उन का परिचय देंगी। यहाँ प्रस्तुत हैं उन की कविता 'जिन्दा तो रहूंगा' ...

जिन्दा तो रहूँगा
  • अम्बिकादत्त

मेरे मरने की बात मत करो
पृथ्वी पर संकट है और मनुष्य मुसीबत में है
ये ही बातें तो मुझे डराती हैं
मेरे सामने इस तरह की बातें मत करो
तुम ने मुझ से मेरा सब कुछ तो छीन लिया
मेरे पास घर नहीं है/रोटी भी नहीं है
सिर्फ भूख और सपने हैं
मैं अपनी जीभ से अपना ही स्वाद चखता रहता हूँ/फिर भी
सपनों के लिए मैं ने अपनी नींद में जगह रख छोड़ी है
मैं भूख में भले ही अपने जिस्म को खा लूँ 
पर अपनी आत्मा बचाए रखूंगा 
मैं कमजोर हूँ, कायर नहीं हूँ
देखना जिन्दा तो रहूंगा। 

 






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