@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अमरीका
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बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

बुधवार, 21 जनवरी 2009

बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है

"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."  .....



यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है।  यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए।   पूंजी का अपना चरित्र है।  वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती।  पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।

शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है।  अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है।  बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है।  यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता।  वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है।  फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है।  यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।

वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."


"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"

"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."


"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके." 

"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."

अमरीका के 44वें राष्ट्रपति  की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी।  बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दिल ढूंढता है, टूटने के बहाने

मैं ने कभी यह सत्य नियम जाना था कि कोई भी चीज तब तक नहीं टूटती-बिखरती जब तक वह अंदर से खुद कमजोर नहीं होती चाहे बाहर से कित्ता ही जोर लगा लो। जब अंदरूनी कमजोरी से कोई चीज टूटने को आती है तो वह अपनी कमजोरी को छुपाने को बहाने तलाशना आरंभ कर देती है।

पाकिस्तान अपने ही देश के आंतकवादियों पर काबू पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है और जिस तरीके से वहाँ आतंकवादियों ने मजबूती पकड़ ली है उस से यह आशंका बहुत तेजी से लोगों के दिलों में घर करती जा रही है कि एक दिन पाकिस्तान जरूर बिखर जाएगा। इस आशंका के चलते पाकिस्तान के लोगों ने बहाने तलाशना आरंभ कर दिया है। वैसे तो तोड़-जोड़ कर बनाया गया पाकिस्तान पहले भी टूट चुका है। लेकिन उस बार उसे तोड़ने का श्रेय खुद पाकिस्तानियों को प्राप्त हो गया था। उन्हों ने देख लिया कि वे पूर्वी बंगाल की आबादी पर अपना कब्जा वोट के जरिए नहीं बनाए रख सकते हैं तो उन्हों ने उसे टूट जाने दिया। अब फिर वही नौबत आ रही है।

अब वे यह तो कह नहीं सकते कि भारत उन्हें तोड़ रहा है। क्यों कि इस में तो उन की हेटी है। इस से तो यह साबित हो जाता कि पाकिस्तान बनाने के लिए भारत को तोड़ा जाना ही गलत था।यह पहलवान चाहे हर कुश्ती में हारता हो लेकिन कभी भी अपने पड़ौसी पहलवान को खुद से ताकतवर कहना पसंद नहीं करता। इस लिए भारत तो इस तोहमत से बच गया कि वह पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहा है। अब किस के सर यह तोहमत रखी जाए? तो भला अमरीका से कोई पावरफुल है क्या दुनिया में? उस के सर तोहमत रखो तो कोई मुश्किल नहीं,  कम से कम यह तो कहा जा सके कि हम पिटे तो उस से, जिस से सारी दुनिया पिट रही है।

लाहौर हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर दिया है कि अमरीका पाकिस्तान में आतंकवाद फैला रहा है और मुम्बई हमला भी उसी के इशारों पर काम कर रहे आतंकवादियों का कारनामा है। यह कारनामा इस लिए किया गया है जिस से पाकिस्तान पर इस हमले को करवाने के आरोप की जद में अपने आप आ जाए।

वकीलों से खचाखच भरी इस बैठक में पारित इस प्रस्ताव में कहा गया कि अमरीका यह सब इस लिए कर रहा है जिस से उस की बनाई योजना के मुताबिक यूगोस्लाविया के पैटर्न पर पाकिस्तान को तोड़ा जा सके। (खबर यहाँ पढ़ें) बैरिस्टर ज़फ़रउल्लाह खान द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अमरीका के इस मुंबई कारनामे पर ब्रिटेन सब से अधिक ढोल बजा रहा है जिस से किसी की निगाह अमरीका के इस कुकृत्य पर न पड़ सके। इस प्रस्ताव में पाकिस्तान पर अमरीकी हमलों की निन्दा  करते हुए कहा गया है कि ये हमले पाकिस्तान के उत्तरी भाग को आगाखान स्टेट में बदलने का प्रयास है। जिस के लिए आगाखान फाउंडेशन हर साल तीस करोड़ डालर खर्च कर रहा है।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

होमोसेपियन बराक और तकिए पर पैर

दो नवम्बर, 2008 ईस्वी को तकिए पर पैर रखे गए थे। पूरे पाँच दिन हो चुके हैं। बहुत हटाने की कोशिश की, पर मुए हट ही नहीं रहे। कल तो बड़े भाई टाइम खोटीकार जी का हुकुम भी आ गया।
डा. अमर कुमार said...अब तकिये पर से पैर हटा भी लो, पंडित जी ! अब कुछ आगे भी लिखो, अपनी मस्त लेखनी से.. !    6 November, 2008 11:18 AM
खैर पैर तो अब बराक हुसैन ओबामा के साथ तकिए पर जम चुके हैं, हटाए न  हटेंगे। पाँच बरस की हमारी गारंटी, और अमरीकी वोटरों की जमानती गारंटी है। इस  के बाद भी पाँच बरस की संभावना और है, कि जमे ही रहें। पर पैर तकिए पर जम ही जाएँ तो इस का मतलब यह तो नहीं कि बाकी शरीर भी काम करना बंद कर दे। इन्हें तो काम करना होगा और पहले से ज्यादा करना होगा। आखिर पैरों की तकिए पर मौजूदगी को सही साबित भी तो करना है।

पूरब,  पश्चिम और दक्षिण में पहुँचे गोरे बहुत बरस तक यह समझते रहे कि वे अविजित हैं, और सदा रहेंगे। अमरीकियों ने यह तो साबित कर दिया कि उन का ख़याल गलत था। देरी हुई, मगर इस देरी में उन की खाम-ख़याली की भूमिका कम और काले और पद्दलितों की इस सोच की कि गोरे लोग बने ही राज करने को हैं, अधिक थी। अब सब को समझ लेना चाहिए कि ये जो होमोसेपियन, है वह किसी भेद को बर्दाश्त नहीं करेगा, एक दिन सब को बराबर कर छोड़ेगा।

अमरीका तो अमरीका, दुनिया भर के लोग ओबामा की जीत से खुश हैं। लेकिन यह खुशी वैसी ही सुहानी है, जैसे दूर के डोल। सारी दुनिया में जो लोग होमोसेपियन्स में किसी भी तरह का भेद करते हैं। उन्हें होशियार हो जाना चाहिए कि एक दिन उन के खुद के यहाँ कोई  होमोसेपियन बराक हो जाएगा और अपने पैर तकिए पर जमा देगा।

याद आ रही है महेन्द्र 'नेह' की यह कविता .....

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं’
महेन्द्र नेह
हम सब जो तूफानों ने पाले हैं
हम सब जिन के हाथों में छाले हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

जब इस धरती पर प्यार उमड़ता है
हम चट्टानों का चुम्बन लेते हैं
सागर-मैदानों ज्वालामुखियों को
हम बाहों में भर लेते हैं।

हम अपने ताजे टटके लहू से
इस दुनियां की तस्वीर बनाते हैं
शीशे-पत्थर-गारे-अंगारों से
मानव सपने साकार बनाते हैं।

हम जो धरती पर अमन बनाते हैं
हम जो धरती को चमन बनाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

फिर भी दुनियाँ के मुट्ठी भर जालिम
मालिक हम पर कोड़े बरसाते हैं
हथकड़ी-बेड़ियों-जंजीरों-जेलों
काले कानूनों से बंधवाते हैं।

तोड़ कर हमारी झुग्गी झोंपड़ियां
वे महलों में बिस्तर गरमाते हैं।
लूट कर हमारी हरी भरी फसलें
रोटी के टुकड़ों को तरसाते हैं।

हम पशुओं से जोते जाते हैं
हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

लेकिन जुल्मी हत्यारों के आगे
ऊंचा सिर आपना कभी नहीं झुकता
अन्यायों-अत्याचारों से डर कर
कारवाँ कभी नहीं रुकता।

लूट की सभ्यता लंगड़ी संस्कृति को
क्षय कर हम आगे बढ़ते जाते हैं
जिस टुकड़े पर गिरता है खूँ अपना
लाखों नीग्रो पैदा हो जाते हैं।

हम जो जुल्मों के शिखर ढहाते हैं
जो खूँ में रंग परचम लहराते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
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सोमवार, 29 सितंबर 2008

आज कद्दू खाएँ, कद्दू दिवस मनाएँ

मुझे कल ही पता लगा कि आज के दिन यानी 29 सितम्बर को भारत में गरीब की सब्जी कहे जाने वाले फल  कद्दू के लिए कद्दू-दिवस मनाया जाता है। आकार में सब से विशाल होते हुए भी इस फल को अक्सर बड़ी ही बेचारगी से देखा जाता है। लेकिन यह बहुत गुणकारी है। वैसे आज कल हमारे यहाँ कद्दू पखवाड़ा चल रहा था जिस का समापन आज 29 सितम्बर को होना है।
आज कल श्राद्ध-पक्ष चल रहा है। इन दिनों की खास डिश जो घरों में बनाई जाती है वह चावल की खीर और मालपुए हैं। इस के साथ उड़द दाल की कचौड़ी या बेड़ई, या इमरती जरूर होती है। सब्जियों में आलू सदा बहार है। मगर मालपुए बने हों तो कद्दू की सूखी सब्जी के बिना उन का स्वाद अधूरा रह जाता है। नतीजा यह है कि इन दिनों सब से सस्ती सब्जी होते हुए भी कद्दू का भाव दूसरी सब्जियों को छूने लगता है। परसों सब्जीमंडी की सैर हुई धर्मपत्नी जी के सौजन्य से। जो सब्जी वाले मोहल्ले में आ रहे थे वे कद्दू ले कर आ ही नहीं रहे थे। इक्का दुक्का ले कर आ रहे थे वे गहरे पीले रंग का कद्दू ला रहे थे वह श्रीमती जी को पसंद नहीं था, स्वादिष्ट जो नहीं होता। हम मंडी से कद्दू लाए 15 रुपए किलो। जब कि दूसरा अधिक पीला या केसरिया रंग वाला 8 रुपए किलो बिक रहा था। वाकई कल कद्दू की सब्जी को सराहा गया। एक- दो लोग जो इस के नाम से ही चिढ़ते थे उन्हें आग्रह के साथ खिलाया गया तो वे भी इस का लोहा मान गए।

यह स्वादिष्ट तो है ही गुणकारी भी बहुत है। कद्दू हृदयरोगियों के लिए लाभदायक यह फल कोलेस्ट्राल कम करता है, पेट की गड़बड़ियों को ठीक रखता है इसी कारण शायद मालपुओं जैसे भारी खाने के साथ इस की जुगलबंदी हो गई है। शर्करा नियंत्रक होने के कारण मधुमेह रोगियों के भी बड़े काम का है।  इस में विटामिन ए का स्रोत बीटा केरोटीन मौजूद है। इस के बीजों में आयरन, जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम होने से बड़े काम के हैं।अधिक जानकारी के लिए बड़े काम की चीज है कद्दू अवश्य पढ़ें।अमरीका में पैदा हुआ यह फल आज विश्व नागरिक बन पूरी दुनिया की सेवा में लगा है। आप से आग्रह है आज जब श्राद्ध पक्ष का समापन है और सर्वपितृ श्राद्ध है कद्दू को भोजन में किसी भी रूप में इस्तेमाल करें और कद्दू दिवस भी साथ मनाएँ।

गुरुवार, 15 मई 2008

उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है

कल शाम जब से जयपुर बम विस्फोट का समाचार मिला है मन एक अजीब से अवसाद में है। आखिर इस समाज और राज्य को क्या हो गया है? जिस में आतंकवाद की कायराना हरकतों को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह मिल जाती है। लोग उन के औजार बनने को तैयार हो जाते हैं। वे अपना काम कर के साफ निकल जाते हैं।

लगता है कि न समाज है और न ही राज्य। ये नाम अपना अर्थ खो चुके हैं। पहले से चेतावनी है, लेकिन उस से बचाव के साधन भोंथरे सिद्ध हो जाते हैं। समाज को कोई चिन्ता नहीं है, उस ने अपने अस्तित्व को कहाँ विलीन कर दिया है? कुछ पता नहीं। जैसे ही घटना की सूचना मिलती है। चैनल उस पर टूट पड़ते हैं जैसे कोई शिकार हाथ लग गया हो और एक प्रतिद्वंदिता उछल कर सामनें आती है। कहीं कोई दूसरा उस से अधिक मांस न नोच ले। चित्र दिखाए जाते हैं, इस चेतावनी के साथ कि ये आप को विचलित कर सकते हैं। लोग इन्हें ब्लॉग तक ले आते हैं। विभत्सता प्रदर्शन, कमाई और नाम पाने का साधन बन जाती है। कुछ चैनल अपने को शरलक होम्स और जेम्स बॉण्ड साबित करने पर उतर आते हैं।

मंत्रियों की बयानबाजी आरम्भ हो जाती है। मुख्यमंत्री को तुरन्त प्रतिक्रिया करने में परेशानी है। जैसे यह देश और प्रान्त में पहली बार हो रहा है। वे पहले जायजा (सोचेंगी और राय करेंगी कि किस में उन का हित है, जनता और देश जाए भाड़ में) लेंगी फिर बोलेंगी। प्रान्त के सब से बड़े अस्पताल का अधीक्षक गर्व से कहता है उन पर सब व्यवस्था है, कितने ही घायल आ जाएं। पर व्यवस्था आधे घंटे में ही नाकाफी हो जाती है। रक्त कम पड़ने लगता है। रक्तदान की अपीलें शुरू हो जाती हैं। अपील सुन कर इतने लोग आते हैं कि रक्त लेने के साधन अत्यल्प पड़ जाते हैं। घायलों को जो पहली अपील के बाद सीधे बड़े अस्पताल पहुँचते हैं उन्हें दूसरे अस्पतालों को भेजा जा रहा है। पहले ही पास के अस्पताल पहुंचने की अपील करने का ख्याल नहीं आया।

मुख्यमंत्री जानती हैं कि उन पर दायित्व आने वाला है। आखिर आंतरिक सुरक्षा राज्यों की जिम्मेदारी है. केन्द्र की नहीं तो वे फिर से पोटा या उस जैसा कानून लागू नहीं करने के लिए केन्द्र को कोसना प्रांऱभ कर देती हैं। यह उन के दल का ऐजेण्डा है और केन्द्रीय नेता उस पर बयान दे चुके हैं।

अगले दिन राज्य भर में राजकीय शोक की घोषणा कर दी जाती है। स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर और अदालतें बन्द रहती हैं। एक दल को बन्द की याद आती है। वह बन्द की घोषणा कर देते हैं। (सब से आसान है, तोड़फोड़ के आतंक से लोग दुकानें, व्यवसाय बन्द करते ही हैं) बस कुछ रंगीन पटके ही तो गले में डाल कर घूमना है। बन्द रामबाण इलाज है हर मर्ज का। बाजार बन्द कर दो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक आतंक की शिकार जनता के सामने दूसरा आतंक परोस दो। पहले वाले की तीव्रता कुछ तो कम होगी। वकीलों ने शोक सभा करनी है, शोक के राजकीय अवकाश से बन्द अदालतों के कारण संभव नहीं हुआ। अब अगले दिन शोक-सभा होगी, फिर अदालतों का काम बन्द। इस के अलावा कोई चारा भी नहीं, काम के बोझ से कमर तुड़ाती अदालतें दो दिन का काम करेंगी तो पेशियाँ बदलने के सिवा क्या कर सकती हैं? वैसे भी हर रोज 80% काम तो वे ऐसे ही निपटाती हैं।

वे साजिश रचते हैं, कामयाब होते हैं। आप अभी सूत्र तलाश कर रहे होते हैं। तक वे अपनी कामयाबी के मेक की वीडियो चैनलों को मेल कर देते हैं। चैनल चीखने लगते हैं, उन्हीं का स्वर। उन के  हाथ बटेर लग गई है। अखबारों में शोक संदेशों की 'क्यू'लगी है। अमरीका के झाड़ बाबा से ले कर राष्ट्रीय पार्टी के जातीय प्रकोष्ठ की मुहल्ला कमेटी के मंत्री तक के बयान आए जा रहे हैं। संपादक देख रहा है उसे कौन, कैसे नवाजता है? किस से कितना बिजनेस मिलता है और मिल सकता है? किस का शोक छापना है किस का नहीं?

सायकिल और बैग बेचने वाले नहीं जानते उन से माल किस ने खरीदा, या उन्हों ने किस को बेच दिया। उन को केवल सेल्स से मतलब है। वे बता देते हैं उन्हों ने बच्चों और महिलाओं को बेचे हैं। कफन बेचने वाले को पता नहीं कफन किस के लिए खरीदा जा रहा है? जीवित के लिए या मृत के लिए, या कि कल बेचा हुआ कफन कल उसी के लिए तो काम नहीं लिया जाएगा?

अचानक इस्पाती समाज भंगुर दिखाई देने लगता है। न जाने कब इस की भंगुरता टूटेगी? टूटेगी भी या नहीं। या ऐसे ही यह विलुप्त हो जाएगा। एक से एक-एक में, कई एकों में। वह बूढ़ा याद आता है जो मरने के पहले अपने बेटों से अकेली लकड़ियाँ तुड़वा रहा था और गट्ठर किसी से न टूटा अब गट्ठर भी टूट रहा है। बस पहले उसे बाँधने वाली रस्सी की गाँठ खोल लो, फिर एक एक लकड़ी.......

और ......... यह हम भारत के लोगों द्वारा रचा गया गणराज्य? अब गण की उपेक्षा करता हुआ। विदेशी साम्राज्य को विदा कर अस्तित्व में आया और अब कह रहा है हम विश्व अर्थव्यवस्था से अछूते नहीं रह सकते, और विश्व आतंकवाद से भी।

आज आज और रहेगा याद यह आतंकवाद। कल भुलाएंगे और परसों से कोई और ब्रेकिंग न्यूज होगी चैनलों पर। फिर से बयानों की क्यू होगी। बधाई या शोक संदेश? कुछ भी। आज भोंचक्के लोग परसों फिर रोटी की जुगाड़ में होंगे, और चैनल भी, उन्हें भी अपनी रोटी का जुगाड़ करना है।

गुरुवार, 1 मई 2008

नारकीय जीवन का जुआ उतार फेंकने के संकल्प का दिन

अनेक देशों में पहली मई को वसंत के आगमन, पृथ्वी पर जीवन व नयी फसलों के आगमन और मनुष्य जीवन में खुशियों के स्वागत के लिए मनाया जाता रहा। लेकिन 122 वर्ष पूर्व हुए एक बड़े कत्लेआम और उस के फलस्वरूप खून से रंग कर लाल हुई सड़कों ने इस का स्वरूप ही बदल कर रख दिया।

खुशियों के स्वागत के इस दिन, पहली मई 1886 को अमरीका के श्रमजीवी शिकागो, न्यूयॉर्क, पिटस्बर्ग और कुछ अन्य नगरों में लाखों की संख्या में संख्या में एकत्र हुए और उन्हों ने काम के घंटे आठ किए जाने की मांग के लिए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाइटस् ऑफ लेबर, न्यू अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, विभिन्न श्रमिक अराजकतावादियों और समाजवादियों का समर्थन प्राप्त था। इन प्रदर्शनों को अमरीका के कारखाना मालिकों के अखबारो ने अमरीका में पेरिस कम्यून जैसी अवस्था कायम करने की कोशिश करार दिया था।

पहली मई के तीन दिन बाद श्रम अराजकतावादियों ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जिस पर पुलिस दमन में सैंकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गए, आठ को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया, जिन में से चार को मृत्युदण्ड दे दिया गया।

इस के बाद 1889 में पेरिस में हुई समाजवादियों और अन्य श्रमिक कार्यकर्ताओं की अन्तर्ऱाष्ट्रीय बैठक में यह तय हुआ कि पहली मई को आठ घंटों के काम की मांग के लिए दुनियाँ भर में प्रदर्शन किए जाएंगे। 1890 में इस दिन को प्रतिवर्ष प्रदर्शन किये जाने का निर्णय कर लिया गया।

आठ घंटों के काम के दिन के लिए प्रारंभ हुए इस संघर्ष का आज 120 सालों के बाद भी कोई अंत नहीं है। एक ओर दुनियाँ भर में बेरोजगारी है, और दूसरी ओर लोग अपने जीवन यापन और जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए 20-20 घंटो तक काम करना पड़ रहा है। कुछ एक देशों को छोड़ दें तो सारी दुनियाँ में यही व्यवस्था जारी है। जिस का अर्थ है कि विकास का मूल्य अपने श्रम को बेचकर जीवनयापन कर रहे आम श्रमजीवी ही चुका रहे हैं।

आज की विश्व व्यवस्था ने इन श्रमजीवियों को मजदूर, सुपरवाइजर, अधिकारी, प्रबन्धक और वकील, डाक्टर, सलाहकार आदि श्रेणियों में बांट दिया है। लालच दिखाने के लिए इन में से कुछ को अच्छे वेतन, मानदेय, व शुल्क दिए जाते हैं, किन्तु इन सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों के सामान्य सदस्यों को जिनकी संख्या 95 प्रतिशत से भी अधिक है अपने वर्तमान जीवन स्तर को बचाने के प्रयत्नों में कठोर संघर्ष की लपटों के बीच जीवन भर झुलसते रहना पड़ता है। फिर भी वे अपना जीवन स्तर बनाए नहीं रख पाते और नीचे की श्रेणियों में जाने को विवश हैं।

श्रमजीवियों के वेतनों, मजदूरियों, मानदेयों व शुल्कों को उत्पादन से जोड़ कर उनके काम के घण्टों की सीमा को समाप्त कर दिया गया है। अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें बारह से बीस-बीस घण्टों तक प्रतिदिन काम करना पड़ रहा है।

इस अवस्था ने एक ओर नौजवानों के लिए नियोजनों के अवसरों को सीमित कर बेरोजगारी को तेजी से बढ़ाया है, तो दूसरी ओर असीमित काम के घण्टों, माल व सेवा उत्पादनों की जिम्मेदारियों ने नियोजित श्रमजीवियों के जीवन को नारकीय कर दिया है। उनका पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन नष्ट हो रहा है। पर्याप्त शारीरिक-मानसिक विश्राम के अभाव में लोग तनाव में जी रहे हैं। अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार हो रहे हैं। उन की पत्नियां/पति उन का साथ छोड़ रहे है, सन्तानें राहच्युत हो रही हैं। अनेक आत्महत्या करने को विवश हैं, तो अधिकांश मानसिक और शारीरिक रोगों के ग्रास बन कर जीवनभर कष्ट भोगते हुए अपनी-अपनी मृत्यु की ओर कदम बढ़ाने को अभिशापित कर दिए गए हैं।

इस मई दिवस पर सभी श्रेणियों के श्रमजीवियों से मेरा आग्रह है कि क्या उन्हें अपने इस नारकीय जीवन को ऐसे ही चलते हुए, और अधिक नारकीय होते सहन करते रहना चाहिए? क्या इस का अन्त नहीं होना चाहिए? क्यों कि मेरा मानना है कि उन के जीवन के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, नारकीय जीवन का जुआ वे खुद अपने काँधों पर ढोए हुए हैं। कोई भी उन के इस जुए को उतारने के लिए नहीं आएगा। उन्हें यह जुआ खुद ही उतारना होगा। बस देर है तो इकट्ठा होने और संकल्प कर यह तय करने की कि वे यह जुआ कब उतारने जा रहे हैं।

शनिवार, 29 दिसंबर 2007

दुनियाँ को बचा लो.....

उधर बेनजीर के कत्ल की खबर टीवी पर आई और इधर ब्रॉडबेंड का बेंड बज गया शाम पाँच बजे नेट लौटा। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन तब तक ब्लॉग जगत में इस पर बहुत कुछ आ चुका था और हत्या से विचलित मानवीय संवेदनाओं का ज्वार तब तक विमर्श तक पहुँच चुका था। जब भी कोई घटना दुनियां के एक बड़े जन समूह के मानस को झकझोर दे तो वह विमर्श के लिए सही समय होता है। सभी के सूत्र घटना से जुड़े होते हैं। यदि विमर्श की दिशा सही हो तो इस समय के विमर्श से सोच को एक नई और सही दिशा प्राप्त हो सकती है। हिन्दी ब्लॉगिंग आज ऐसे विमर्श की सामर्थ्य प्राप्त कर चुका है। वैश्विक आतंकवाद इस समय विश्व के एजेण्डे पर है। हिन्दी ब्लॉगिंग चाहे तो इस विमर्श को प्रारम्भ कर कम से कम भारतीय उप महाद्वीप में इस वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध सोच का एक नया सिलसिला शुरू कर सकती है।

आज वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका ने अविराम युद्ध की घोषणा की हुई है। पर क्या यह युद्घ आतंकवाद के विरुद्ध है? और क्या यह विश्व से आतंकवाद का समूल नाश करने में सक्षम है? क्या वैश्विक स्तर पर आतंकवाद को जन्म देने में खुद अमरीका की भूमिका प्रमुख नहीं? क्या अमरीका अब उन सभी कृत्यों से विमुख हो गया है जिन के कारण आतंकवाद जन्म ही नहीं लेता, अपितु फलता फूलता भी है? क्या आतंकवाद की समाप्ति के लिए अमरीकी पथ सही है? यदि नहीं तो सही रास्ता क्या है। इन तमाम प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।

आतंकवाद के विरुद्ध खड़े लोगों की कमी नहीं। आतंकवाद को धराशाई करना भी असंभव नहीं। लेकिन इस के खिलाफ सफलतापूर्वक तभी लड़ा जा सकता है जब पहले इस की जन्मभूमि की तलाश कर के इस का उत्पादन बन्द कर दिया जाए। यह एक लम्बा काम है। इस से भी पहले महत्वपूर्ण है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े योद्धाओं की आपसी लड़ाई को समाप्त करना। यहां हो यह रहा है कि योद्धा इस बात को ले कर आपस में भिड़े हुए हैं कि, मेरा सोच ज्यादा सही है। फिर ऐसा वाक् युद्ध छेड़ देते हैं कि आतंकवाद को ही बल मिलता नजर आता है, आतंकवाद के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों को वापस आतंकवाद के साथ खड़ा कर देते हैं। कभी तो लगने लगता है कि आतंकवाद के खिलाफ जोर जोर से बोलने वाले लोग उन्हीं के भाईबन्द हैं और उन्हीं की मदद कर रहे हैं।

आज शाम ब्रॉडबैंड शुरू होते ही सब से पहले हर्षवर्धन के 'बतंगड़' की पोस्ट पर टिप्पणी से ही काम शुरू किया। टिप्पणी अपलोड होती तब तक बैंड फिर बज गया। पता नहीं क्या गड़बड़ होती है 'ज्ञान' जी की तरह कोई हमारे बीच बीएसएनएल से भी होता तो अंदर की बात पता लगती रहती। अगर कोई हो भी तो सामने नहीं आया है। कोई हो उसे इस पोस्ट के बाद सामने आ ही जाना चाहिए। वरना फिजूल में ब्लॉंगर्स की आदत गालियां देने की पड़ जाएगी। वैसे एक टिप मिली है कि ये सब टेलीकॉम कम्पनियों के कम्पीटीशन का नतीजा भी हो सकता है। मै बतंगड़ पर की गई अपनी टिप्पणी यहां भी दे रहा हूँ। ताकि विमर्श का कोई रास्ता बने।

बतंगड़ पर की गई टिप्पणी-

हर्ष जी, कल खबर आते ही ब्रॉडबेंड का बैंड बज गया, अभी पाँच बजे नेट लौटा है। खबर से मन खराब हो गया। कुछ लिखना चाहता था। लेकिन अब तक ब्लॉग्स पर बहुत कुछ आ चुका है। आप की पोस्ट पर टिप्पणी से ही बात शुरू कर रहा हूँ। आप की पोस्ट के शीर्षक की अपील, पोस्ट पर कहीं नजर नहीं आई। आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है, वे उन से अलग हैं जिन के लिए मिहिर भोज ने टिप्पणी की है। यह फर्क यदि मिहिर भोज समझ लें, तो हमें एक हीरा मिल जाए। वे यह भी समझ लें कि आप ने जिन मुसलमानों से अपील की है उन की संख्या मिहिर के इंगित मुसलमानों की संख्या से सौ गुना से भी अधिक है। मेरा तो मानना है कि एक सच्चा मुसलमान एक सच्चा हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, जैन, और सर्वधर्मावलम्बी हो सकता है। जिस दिन हम यह फर्क चीन्ह लेंगे और सच्चे धर्मावलम्बी व इंसानियत के हामी एक मंच पर आ जाएंगे उस दिन से दुनियां में शान्ति की ताकतें विजयी होना शुरू हो जाएंगी। आतंकी कहीं नहीं टिक पाएंगे।

- दिनेशराय द्विवेदी