@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अपराध
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शनिवार, 22 जून 2019

प्रधानाध्यापक की गवाही

पोक्सो की विशेष अदालत में (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) बच्चों का यौन अपराधों से बचाव अधिनियम में म.प्र. के झाबुआ जिले के एक आदिवासी भील नौजवान के विरुद्ध मुकदमा चल रहा है। उस पर आरोप है कि वह एक आदिवासी भील नाबालिग लड़की को भगा ले गया और उस के साथ यौन संबंध स्थापित किए। चूंकि मुकदमे में लड़की को नाबालिग बताया गया है इस कारण से यह यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में भी आता है। इस बलात्कार को साबित करने के लिए यह भी जरूरी है कि पीड़ित लड़की को नाबालिग साबित किया जाए। इस के लिए पुलिस अन्वेषक ने लड़की का पहली बार स्कूल में भर्ती होते समय भरा गया प्रवेश आवेदन पत्र तथा स्कॉलर रजिस्टर, अगले स्कूल की टी.सी. को भी सबूत के रूप में पेश किया था। इन दस्तावेजों को साबित करने के लिए जरूरी था कि मूल असली रिकार्ड न्यायालय के समक्ष लाया जाए जिसे स्कूल का वर्तमान प्रभारी इन दस्तावेजों को अपने बयान से प्रमाणित करे। 

उस प्राथमिक शाला का प्रधानाध्यापक गवाही देने आया। हालांकि स्कॉलर रजिस्टर की प्रतिलिपि अदालत में पुलिस द्वारा पेश की गयी थी। लेकिन वह असल रिकार्ड ले कर नहीं आया था। वैसी स्थिति में उस के बयान लेने का कोई अर्थ नहीं था। उसे हिदायत दी गयी कि वह अगली पेशी पर स्कॉलर रजिस्टर तथा प्रवेश पत्र साथ लेकर आए। 

अगली पेशी पर प्रधानाध्यापक असल स्कॉलर रजिस्टर साथ ले कर आया। साथ में प्रवेश आवेदन पत्र भी था। लेकिन मुझे प्रवेश आवेदन पत्र नकली और ताजा बनाया हुआ लगा। 2007 में जब प्रवेश आवेदन पत्र भरा गया था तब आधारकार्ड वजूद में नहीं थे। जब कि लाए गए प्रवेश आवेदन पत्र पर आधार कार्ड का विवरण दाखिल करने का कालम छफा हुआ मौजूद था। जो हर हाल में 2009 या उस के बाद का था। इस के अलावा उस का कागज बिलकुल अछूता लगता था, किसी फाइल में नत्थी करने के छेद उस में नहीं बने थे। मैं ने अदालत का ध्यान बंटाया कि यह प्रवेश आवेदन पत्र फर्जी लगता है और ताजा बनाया गया है। अदालत ने मेरी आपत्ति को तब दरकिनार किया और कहा कि एक बार यह दस्तावेज रिकार्ड पर तो आए। फिर देखेंगे। आखिर हेडमास्टर की गवाही शुरू हुई। मैं ने जिरह की। गवाही के अन्त में मैं ने गवाह से प्रवेश आवेदन पत्र के बारे में पूछना आरंभ किया। 

- क्या यह प्रवेश आवेदन पत्र पीड़ित लड़की का ही है? 

– हाँ। 

- इसे आप कहाँ से लाए? 

- स्कूल रिकार्ड से लाया हूँ। 

- पर यह तो ताजा बना हुआ प्रतीत होता है, पुराना नहीं लगता। इस पर किसी फाइल में नत्थी करने के निशान तक नहीं हैं। यह कब बनाया गया? 

- अभी चार-पाँच रोज पहले बनाया है। 

- क्या आप पीड़िता के पिता को जानते हैं? 

- नहीं जानता। 

- तो इस आवेदन पत्र पर जो पीड़िता के पिता की अंगूठा छाप है, वह कब लगवाई गई? कैसै लगवाई गयी? 

- वहीँ गाँव में किसी से लगवा ली थी। 

- मतलब यह प्रवेश आवेदन पत्र अभी चार-पाँच दिन पहले तुमने ही बनाया है? 

- हाँ, मैंने ही बनाया है। 

- तो हेडमास्टर साहब, आपने ये फर्जी क्यों बनाया? 

- पिछली पेशी से जाने के बाद मैं ने स्कूल में जा कर सारा रिकार्ड खंगाला। मुझे पीड़िता का प्रवेश आवेदन पत्र नहीं मिला। जब कि रिकार्ड में होना चाहिए था। अदालत ने इस पेशी पर इसे हर हाल में लाने के लिए कहा था, इस कारण मुझे बनाना पड़ा। अदालत के आदेश की पालने कैसे करता? 

- तुम्हें पता भी है, तुमने एक दस्तावेज को नकली बनाया और फिर उसे पेश कर न्याय को प्रभावित करने का प्रयत्न किया है? यदि अदालत चाहे तो इसी वक्त तुम्हें हिरासत में ले सकती है और जेल भेज सकती है। 

- सर¡ मुझे नहीं पता। मैं तो एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का प्रधानाध्यापक हूँ। पढ़ाई पर ध्यान देता हूँ। स्कूल में कोई बच्चा फेल नहीं होता। कभी शहर में नहीं रहा। अब कागजों दस्तावेजों का मामला है तो सब ऐसे ही बना लेते हैं, किसी को कुछ होते न देखा। मुझे लोगों ने सलाह दी कि बना लो। किसी को पता थोड़े ही लगेगा। नहीं ले जाओगे और अदालत ने विभाग को कुछ लिख दिया तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। इस लिए बना लिया। 

-और अभी तुरन्त जेल जाना पड़ा और इस फर्जी दस्तावेज के कारण नौकरी चली गयी तो क्या करोगे? अभी जमानत का इंतजाम भी तुम परदेस में नहीं कर पाओगे। और तुम्हारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? 

प्रधानाध्यापक मेरे सवालों को सुन कर हक्का-बक्का खड़ा था। उस की समझ में कुछ नहीं आया था। आखिर उस ने ऐसा कौन सा गलत काम या अपराध कर दिया था जिस के कारण उसे जेल जाना पड़ सकता है और उस की नौकरी जा सकती है? वह अपना बयान शुरु होते समय बहुत खुश था, अब रुआँसा हो चला था। अदालत के जज साहब भी हक्के-बक्के थे। वे मुझे कहने लगे क्या करें, इस का? इस प्रवेश आवेदन पत्र से संबंधित बयान को गवाही में शामिल किया तो इसे तो जेल भेजना पड़ेगा। 

मुझे भी लगा कि प्रधानाध्यापक ने जो किया था वह उसकी समझ से गलत या अपराध नहीं था, बल्कि उस ने आदिवासी जीवन की सरलता में, नागरिक जीवन के सवालों को धता बताने के लिए एक होशियारी जरूर कर ली थी। उसे उसका परिणाम भी पता नहीं था। 

मैंने जज साहब से कहा कि इस आदमी का आशय न्याय को धोखा देना कतई नहीं था। अब ये जेल चला जाएगा और इसकी नौकरी जाएगी और यही नहीं परिवार भी बरबाद हो जाएगा। बेहतर है कि इस के प्रवेश आवेदन पत्र वाले बयान को इस की गवाही से निकाल दिया जाए। जज ने सरकारी वकील की ओर देखा तो उस की भी इस में सहमति नजर आई। आखिर फर्जी प्रवेश आवेदन पत्र अदालत में ही नष्ट कर दिया गया। प्रधानाध्यापक के उस के बारे में दे गए बयान को उस की गवाही से निकाल दिया गया। उसे डाँट लगाई गयी। आइंदा के लिए उसे कड़ी हिदायत दी गयी कि ऐसा करेगा तो जेल जाएगा। अब तक प्रधानाध्यापक समझ गया था कि उस ने कोई भारी अपराध कर दिया था। मैं इजलास से बाहर निकला तो प्रधानाध्यापक मेरे पीछे आया और मेरा अहसान जताने लगा। मैं ने भी उसे कहा कि वह जो कुछ भी करे बहुत सोच समझ कर किया करे। हमेशा ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जो तुम्हारे अपराध को इस तरह अनदेखा कर दें। आखिर वह चला गया। मैं भी खुश था कि लड़की को नाबालिग साबित करने में अभियोजन पक्ष असफल रहा था।

-दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 9 मई 2015

क़ायदा-ए-ज़मानत ज़ारी रहे

लमान खान को ताजीराते हिन्द की दफा 304 पार्ट 2 में पाँच साल की सजा हुई। सजा देने वाली अदालत को इस सजा को अपील करने के कानूनी वक्त के दौरान सस्पैंड करने का अधिकार नहीं था। लेकिन सलमान की घुड़साल के घोड़े पहले से दौड़ने को तैयार खड़े थे। वे दौड़े और ऐसा दौड़े कि हाईकोर्ट तक को उसी दिन अन्तरिम जमानत का आर्डर देना पड़ा। अगले दिन अपील पेश हो गयी और उस से अगले दिन अपील के पैसले तक की जमानत का आर्डर भी हो गया। जब हाईकोर्ट जमानत का आर्डर दे तो सेशन कोर्ट की क्या औकात है कि वह टाइम से उठ जाए। उस ने घोड़ों की इज्जत रखी और टाइम के बाद भी रुक कर अन्तरिम जमानत को तस्दीक किया। ऐसा लगा जैसे सलमान की नहीं पूरे देश की अटकी हुई साँसे चलने लगी है, वर्ना न जाने क्या से क्या हो जाता। 
बहुत लोग सोचते होंगे कि ये जमानत क्या चीज है जिस के लिए इत्त्ती जद्दोजहद होती है कि वकील तो वकील पूरे देश का मीडिया लाइव खड़े रहने के लिए अपनी छतरियाँ लगी गाड़ियाँ सलमान के घर से ले कर फिल्म इंडस्ट्री, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और जेल तक इधर से उधर दौड़ाता रहता है? 
तो सुन लीजिए,  एक जमाना था जब न्याय जमींदार कर दिया करते थे। फिर राज्य थोड़े मजबूत हुए तो जमींदारों की शिकायतें राजा तक जाने लगीं और राजा उन की सुनवाई करने लगा। तब तक जमानत का कोई कायदा नहीं था। जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता था मुलजिम को जेल में ही रहना पड़ता था। फिर जब मुकदमे बहुत बढ़़ गए और न्याय अकेले राजा के बस का न रहा तो फौजदारी अदालतें कायम हुई। 
दुनिया में अंग्रेजों का सितारा बुलन्द था इस लिए आधुनिक न्याय व्यवस्था का जन्म भी वहीं होना था, सो हुआ। सेशन अदालतें खोली गयीं और उन में न्याय होने लगा। अदालतें मुकदमे की सुनवाई रोज करती थी जब तक कि सारे सबूत सामने न आ जाएँ और मुकदमे का फैसला न हो जाए। इस काम में महिना पन्द्रह दिन लगते थे। जब न्याय होने लगा तो गाँव गुआड़ी के लोग भी अपराधों की शिकायत करने लगे। इस से दूर दराज के इलाकों में न्याय करने की जरूरत पड़ने लगी। पर वहाँ मुकदमे इतने नहीं थे कि सेशन अदालतें खोली जाएँ। 
तरकीब निकाली गयी कि कुछ सेशन अदालतें ऐसी खोली जाएँ जो गाँवों-तहसीलों में जा कर मुकदमों की सुनवााई करें और फैसले करें। जब मुकदमा निपट जाए तो दूसरे गाँव-तहसील जाएँ और मुकदमों की सुनवाई करें। इन्हें सर्किट अदालतें कहा गया। लेकिन सर्किट अदालत तो गाँव-तहसील जब जाती तब जाती थीं, जब उसे फुरसत होती। अब अपराध करने वाला कभी यह नहीं सोचता कि वह पकड़ा जाएगा। इसलिए यह भी नहीं सोचता कि सर्किट अदालत आने के दिनों में ही अपराध किया जाए बाकी समय खाली बैठा जाए। अपराध तो कभी भी हो जाते थे। पुलिस मुलजिम को पकड़ भी लेती थी। लेकिन उन को फैसले तक बन्दी बना कर रखना पड़ता था। यह राज्य के लिए एक नई मुसीबत थी।
पराधी को बन्दी बना कर रखो तो उस के रहने खाने का इन्तजाम राज्य को करना पड़ता। राज्य के कोष में कमी आती। इस का यह रास्ता निकाला गया कि जहाँ अपराध हो वहाँ का शेरिफ यदि यह समझे कि मुलजिम भागेगा नहीं और सर्किट अदालत के आने पर अदालत के सामने हाजिर हो जाएगा तो वह उसे अपनी रिस्क पर छोड़ देता था। शेरिफ का दबदबा इतना था कि मुलजिम इधर से उधर नहीं हो सकता था और हो गया तो शेरिफ को ही यह कवायद करनी पड़ती थी कि उसे कैसे भी अदालत के सामने हाजिर करे। अब शेरिफ ये रिस्क क्यों ले? शेरिफ लोग इस तरह मुलजिमों को आजाद करने से हिचकिचाने लगे। जेलें फिर भरी रहने लगी, राज्य के खजाने को फिर बत्ती लगने लगी। 
फिर नया रास्ता खोजा गया। मुलजिम को आजाद होना हो तो वह इतनी नकदी जमा करा दे जिस से उसे वापस आना ही पड़े। अब मुलजिम नकद जमा कर के आजाद होने लगे। पर मुलजिमों को भी रास्ता मिल गया कि वे नकद राशि जमा कर के किसी दूसरे राज्य में भाग जाएँ तो सजा से हमेशा के लिए छुट्टी मिली। तो वे ऐसा भी करने लगे। मुलजिमों को धन के माध्यम से सजा से मुक्ति मिलने लगी। धन तो आया पर मुलजिमों के भागने से राजा की बदनामी होने लगी।
मुसीबत फिर भी बनी रही। तब यह कायदा बना कि नकदी के बजाए हैसियत वाले लोगों की जमानत क्यों न ली जाए। इस से यह होगा कि किसी को नकदी न जमा करनी पड़ेगी बस एक कांट्रेक्ट होगा और मुलजिम जमानत पर आजाद। यदि वह अदालत में सुनवाई पर हाजिर न हुआ तो जमानतियों को बुला कर उन से जमानत की रकम वसूस कर ली जाएगी। अब जमानती ने अपराध तो किया नहीं जो वह अपनी रकम जब्त कराए। वह जरूर मुलजिम को ढूंढ कर लाएगा। तो इस तरह मौैजूदा जमानत और मुचलके का कायदा चल पड़ा और दुनिया भर में ऐसे फैला जैसे बोद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म भी न फैले।
तो जनाब! ये जमानत का कायदा पैदा ही इस लिए हुआ कि राज्य फौरन न्याय नहीं कर सकता था, ऐसा करना उसे महंगा पड़ता था। मुलजिमों को ज्यादा दिन बंदी नहीें रखा जा सकता था क्यों कि इस पर भी राज्य का खर्चा बढ़ता था। 
धर भारत का हाल ये है कि जितनी अदालतों की जरूरत है उस की बीस फीसदी अदालतें भी वह खोल नहीं पा रहा है। अब सुनवाई में देरी भी होगी और नम्बर भी देर से आएगा। उधर वकीलों का धन्धा इस बात पर निर्भर करने लगा कि जितनी देरी होगी मुलजिम को बरी कराने में उतना ही सुभीता रहेगा। तो उन्हों ने तरह तरह की दर्ख्वास्तों की ईजाद कर डाली और रोज करते हैं जिस से मुकदमे देरी से निपटें।  सुनवाई और फैसलों में देरी होने लगी और जमानत का कानून पक्का ही नहीं हो गया। सुनवाई में देरी के कारण वह मुलजिमों का हक बन गया। 
जमानत के कायदे का फायदा मुजरिम उठाने लगे। अब तो अदालत पर भी उंगलियाँ उठती हैं। ऐसा ही हाल रहा तो कही हाथ भी न उठने लगें। इस का तो एक ही इलाज है वो ये कि इधर मुलजिम गिरफ्तार हो और उधर दस-पन्द्रह दिन में सुनवाई शुरू हो कर दस पन्द्रह दिन में समाप्त हो जाए। जमानत के कायदे की जरूरत ही नहीं पड़े। पर ये कैसे हो? नयी अदालतें खोलने में भी तो नियमित पैसा खर्च होता है। इत्ता पैसा राज्य कहाँ से लाए। फिर मुलजिम लोगों की लॉबी कोई कमजोर थोडे़े ही है, वह इत्ती अदालतें राज को खोलने दे तब ना। आखिर राज पे कब्जा भी तो उन का ही है। तो सुन लो मितरों! ये जमानत का कायदा जारी रहेगा। मुलजिम लोग मजा लेते रहेंगे। टीवी वालों की छतरियाँ सलामत रहेंगी और जनता का मनोरंजन सलामत रहेगा। सोच लो तुम्हें क्या करना है।

सोमवार, 21 मई 2012

स्त्री के साथ छल से किया गया यौन संसर्ग पुलिस हस्तक्षेप लायक गंभीर अपराध नहीं


पुलिस के सामने इस तरह के मामले अक्सर आते हैं जिन में किसी महिला द्वारा यह शिकायत की गई होती है किसी पुरुष ने उस के साथ विवाह करने का विश्वास दिला कर यौन संसर्ग किया। पुरुष अब उस के साथ धोखा कर किसी दूसरी महिला के साथ विवाह कर लिया है या करने जा रहा है। शिकायत आने पर पुलिस भी इस तरह के मामले में कुछ न कुछ कार्यवाही करने के लिए तत्पर हो उठती है। मुंबई पुलिस ने इसी तरह के एक मामले को भारतीय दंड संहिता की धारा 420 तथा 376 के अंतर्गत दर्ज कर लिया। ऐसी अवस्था में आरोपी गिरीश म्हात्रे को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। बंबई उच्च न्यायालय ने इस मामले में गिरीश म्हात्रे को अग्रिम जमानत का आदेश प्रदान कर दिया। इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना कि विवाह का वायदा कर के किसी व्यक्ति के साथ यौन संसर्ग करना न तो बलात्कार की श्रेणी में आता है और न ही कोमार्य को संपत्ति माना जा सकता है जिस से इस मामले को धारा 420 के दायरे में लाया जा सके।

धारा 420 दंड संहिता के अध्याय 17 का एक भाग है जो संपत्ति के विरुद्ध अपराधों और चोरी के संबंध में है। इस कारण यह केवल मात्र संपत्ति से संबधित मामलों में ही लागू हो सकती है। इस धारा के अंतर्गत छल करना और संपत्ति हथियाने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करने के लिए दंड का उपबंध किया गया है। हालांकि धारा 415 में छल की जो परिभाषा की गई है उस में शारीरिक, मानसिक, ख्याति संबंधी या सांपत्तिक क्षतियाँ और अपहानि सम्मिलित है। लेकिन छल का यह कृत्य धारा 417 में केवल एक वर्ष के दंड से दंडनीय है और एक असंज्ञेय व जमानतीय अपराध है। जिस के अंतर्गत पुलिस कार्यवाही आरंभ करने के लिए सक्षम नहीं है केवल न्यायालय ही उसे की गई शिकायत पर उस का प्रसंज्ञान ले सकता है और उसे भी जमानत पर छोड़ना होगा।

दंड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत किसी पुरुष द्वारा किसी 16 वर्ष की आयु प्राप्त स्त्री के साथ उस की असहमति से स्थापित किए गए यौन संसर्ग को अपराध ठहराया गया है यदि सहमति उस स्त्री के समक्ष उसे या उस के किसी प्रिय व्यक्ति को चोट पहुँचाने या हत्या कर देने का भय उत्पन्न कर के प्राप्त की गयी हो, या ऐसी सहमति उस स्त्री के समक्ष यह विश्वास उत्पन्न कर के प्राप्त की गई हो कि वह व्यक्ति उस का विधिपूर्वक विवाहित पति है, या ऐसी सहमति प्रदान करने के समय स्त्री विकृत चित्त हो, या किसी प्रकार के नशे में हो जिस से वह सहमति के फलस्वरूप होने वाले परिणामों के बारे में न सोच सके तो भी वह इस धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। लेकिन किसी स्त्री को उस के साथ विवाह करने का या किसी भी अन्य प्रकार का कोई लालच दे कर उस के साथ यौन संसर्ग करने को बलात्कार का अपराध घोषित नहीं किया गया है।

स स्थिति का अर्थ है कि कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से जो 16 वर्ष की हो चुकी है छल करते हुए यौन संसर्ग स्थापित करे तो उसे अधिक से अधिक एक वर्ष के कारावास और अर्थदंड से ही दंडित किया जा सकता है। उस में भी कार्यवाही तब आरंभ की जा सकती है जब कि वह स्त्री स्वयं न्यायालय के समक्ष उपस्थित हो कर शिकायत प्रस्तुत करे और उस का और उस के गवाहों का बयान लेने के उपरान्त न्यायालय यह समझे कि कार्यवाही के लिए उपयुक्त आधार मौजूद है। उस के उपरान्त साक्ष्य से यह साबित हो कि ऐसा छल किया गया था। इसे कानून ने कभी गंभीर अपराध नहीं माना है। यदि समाज यह समझता है कि इसे गंभीर अपराध होना चाहिए तो उस के लिए यह आवश्यक है कि छल करके किसी स्त्री के साथ किए गए यौन संसर्ग को संज्ञेय, अजमानतीय और कम से कम तीन वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय अपराध बनाया जाए।

र्तमान उपबंधों के होते हुए भी कोई पुलिस थाना धारा 420 और धारा 376 के अंतर्गत इस कृत्य को अपराध मानते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करता है तो इस का अर्थ यही लिया जाना चाहिए कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का आशय मात्र आरोपी को तंग करना और उस से धन प्राप्त करना रहा होगा। क्या इसे एक भ्रष्ट आचरण मान कर रिपोर्ट दर्ज करने वाले पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करनी चाहिए?दर्ज करने का आशय मात्र आरोपी को तंग करना और उस से धन प्राप्त करना रहा होगा। क्या इसे एक भ्रष्ट आचरण मान कर रिपोर्ट दर्ज करने वाले पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करनी चाहिए?

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सारा मीडिया अपराधी और दोषी है

ज से श्राद्धपक्ष आरंभ हो गया है। उस के साथ ही तमाम मीडिया चाहे वे अखबार हों या टीवी चैनल श्राद्ध को महिमामंडित करने में जुट गया है। इस काम को करते हुए हिन्दी मीडिया की भूमिका किस तरह की है? हमें उस की जाँच करनी चाहिए कि वह जनपक्षीय है या जनविरोधी? वह किस तरह के विचारों को जनता के बीच प्रचारित कर रही है? रविवार को दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों ने श्रीयुत राजेश साहनी ज्योतिषविद् एवं ज्योतिष सलाहकार का आलेख 'बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा पितृ-दोष से मुक्ति' प्रकाशित किया है।  

श्रीयुत साहनी अपने आलेख के प्रारंभ में रामायण, पुराणों और गीता का उल्लेख करते हुए यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि  पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों का नतीजा उन के वंशजों को भुगतना पड़ता है, यही पितृदोष है। वे समाधान बताते हैं कि कर्मकांड पूर्वक श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न हो जाते हैं। पितरों के प्रसन्न होने से जीवन की समस्याओं का समाधान हो जाता है और पितृदोष से मुक्ति मिलती है।  श्रीयुत राजेश का सारा ध्यान यह समझाने पर है कि आज व्यवस्था के दोषों के कारण जनता जिस तरह का कष्टमय जीवन जी रही है उस का मूल कारण यह व्यवस्था नहीं, अपितु तुम्हारे पितरों द्वारा किए गए दुष्कर्म हैं। इसलिए तुम्हें व्यवस्था को दोष देने के स्थान पर श्राद्ध करने चाहिए।  श्रीयुत राजेश का यह कुतर्क कि पितरों को प्रसन्न करने से ग्रहों और देवताओं की कृपा होती है मेरे गले नहीं उतरा, शायद आप के गले उतर जाए। जो पितर स्वयं दुष्कर्म के दोषी थे उन के प्रसन्न हो जाने से ग्रहों और देवताओं को प्रसन्न करने की श्रीयुत राजेश की जुगत वैसी ही है जैसे किसी का पिता किसी अपराध के लिए जेल में बंद हो, तो जेल अधिकारियों को कुछ खिला-पिला कर पिता को सुविधाएँ पहुँचा कर प्रसन्न कर दिया जाए तो संतान उस अपराध के लांछन से मुक्त हो जाएगी?

श्रीयुत राजेश जी केवल शास्त्रों में ही दखल नहीं रखते, वे विज्ञान और खास तौर पर खगोल विज्ञान में भी महारत रखते हैं। उन्हें पितरलोक का पता भी मालूम है। वे कहते हैं  ...  चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग 27 दिन 7 घंटे 45 मिनट में पूर्ण होती है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा का एक भाग ही पृथ्वी की ओर रहता है, दूसरा भाग पृथ्वी की ओर कभी नहीं आता। चंद्रमा जितनी कालावधि में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है, उतने ही कालखंड में वह अपने अक्ष पर एक बार घूम जाता है, इस कारण चंद्रमा का एक भाग सदैव पृथ्वी की ओर होता है, तो दूसरा भाग अदृश्य। चंद्रमा का अदृश्य अंधकारमय भाग, जो पृथ्वी की ओर नहीं आता, उसे पितृलोक माना जाता है। 

मैं ने कुछ देर के लिए श्रीयुत राजेश की इस बात को मान लिया कि चंद्रमा का वह भाग जो कभी पृथ्वी की ओर नहीं आता वह पितरलोक है। पर उन की इस प्रस्थापना ने कि वह भाग अदृश्य है और अंधकारमय भी अपने भेजे में घुसने से मना कर दिया। एक तो अमावस के दिन वह भाग पूरी तरह प्रकाशित रहता है, इस तरह उसे अंधकारमय कहना गलत है। फिर वह अदृश्य भी नहीं है, अमावस के रोज उस पूरे भाग को चंद्रमा के पिछली ओर जा कर देखा जा सकता है।  अचानक श्रीयुत राजेश का मस्तिष्क तुरंत रोशन हो उठता है, और चंद्रमा के पृष्ठ भाग जिसे वे पितर लोक बता रहे हैं के लिए कहते हैं कि जब हमारे यहाँ (पृथ्वी पर) अमावस्या होती है तो पितरलोक में मध्यान्ह होता है और यह पितरों के भोजन का समय होता है। इसी कारण अमावस्या के दिन हम श्राद्धकर्म करते हैं। लेकिन श्रीयुत राजेश जी का मस्तिष्क जिस बत्ती के जलने से रोशन हो उठा था वह तुरंत ही बुझ जाती है, (वे चाहें तो इस के लिए बिजली सप्लाई कंपनी को दोष दे सकते हैं) वे तुरंत चंद्रमा के पृष्ठ भाग पर सदैव के लिेए अंधकार कर देते हैं। वे कहते हैं  ...   वैज्ञानिक मतानुसार भी चंद्रमा की नमीयुक्त सतह पर दिशा सूचक यंत्र कार्य नहीं करते तथा एक भाग सदैव अंधकार से आच्छादित रहता है, जो चंद्रमा पर पितृ-लोक संबंधी अवधारणाओं की पुष्टि करता है।

बेचारे वैज्ञानिक बरसों से चंद्रमा पर नमी तलाश रहे हैं, फोटू खींच-खींच कर परेशान हैं कि किसी तरह बूंद भर पानी का पता लग जाए। वे पता नहीं लगा पाए। उन्हें तुरंत श्रीयुत राजेश जी से संपर्क कर के उन वैज्ञानिकों का पता प्राप्त कर लेना चाहिेए जिन्हें चंद्रमा के नमीयुक्त भाग का पता मालूम है और जहाँ जा कर उन के दिशासूचक यंत्र फेल हो गए थे।  श्रीयुत राजेश जी विश्वास जल्दी ही डिग जाता है कि पाठक राजा दशरथ की कहानी पर विश्वास कर लेंगे।  पाठकों का विश्वास कायम रखने के लिए वे तुरंत अपनी फलित ज्योतिष को सामने ला खड़ा करते हैं। वे सूर्य, शनि, राहु, के साथ-साथ शुक्र और बृहस्पति को दोष देने लगते हैं कि वे किसी के जन्म के समय किसी खास स्थान पर क्यों थे? जल्दी ही अपने धंधे पर आ कर राशियाँ और पितृदोष से मुक्ति के शुद्ध भौतिक उपाय बताने लगते हैं। 

गभग सभी अखबार इस तरह के आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, टीवी  चैनल्स पर तो यह काम चीख-चीख कर होता है। खास मेक-अप में खास लोग आ कर अदालत के हरकारे की तरह आवाज लगाते हैं ... मेष राशि वालों .............. ओं !!!!!!!!! मुझे हंसी चलती है, लेकिन पीड़ित लोग उसे ध्यान से सुनते हैं और उलझ जाते हैं। मुझे तुंरत यू. आर. अनंतमूर्ति की कृति और उस पर आधारित गिरीश कासरवल्ली की पहली फिल्म "घटश्राद्ध" स्मरण होने लगती है जो श्राद्ध के कर्मकांड के पाखंड और उस में फँस कर बिन जल मीन की तरह छटपटाते जन की कहानी उजागर करती है। इस तरह के आलेख जनता को उसी जाल में फँसाए रखना चाहते हैं जिस जाल में फँसे रहने के कारण इस देश की जनता को देशी-विदेशी सामंत और आक्रान्ता लूटते रहे। इस तरह वे आज के शोषक पूंजीवादी निजाम की रक्षा करते हैं।

नुष्य के जन्म से ले कर आज तक मानव जाति की जितनी पीढ़ियाँ गुजरी हैं, सभी पीढ़ियों के मनुष्य ने जीवन जीते हुए अनुभव अर्जित किए, संपत्ति अर्जित की जिसे वे आने वाली पीढ़ियों के लिेए छो़ड़ गए हैं। हमें उन के अनुभव शिक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं। जिन के आधार पर हम पूर्वजों के आगे का विकसित जीवन जीते हैं। हम पर हमारे पूर्वजों का कर्ज है। लेकिन यह कर्ज ब्राह्मणों को भोजन करवा कर नहीं उतारा जा सकता। उसका तो सब से सही तरीका यही है कि हम अपना जीवन जीते हुए नए अनुभव अर्जित करें और पूर्वजों से प्राप्त शिक्षा में उनका योग करते हुए आगे आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा रुप में छोड़ जाएँ। श्राद्ध-पक्ष में हम परिवार और मित्रों सहित एकत्र हो कर अपने पूर्वजों का स्मरण करें, उस में कोई बुराई नहीं। लेकिन इस स्मरण को कर्मकांड, पितृदोष आदि से जोड़ कर देखना गलत है और दिखाना मनुष्यता के प्रति अपराध। हमारा सारा मीडिया इस अपराध का दोषी है।

गुरुवार, 23 जून 2011

कैसी होगी, नई आजादी?

पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है


... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?

लिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता  को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है  ...

1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;
3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।

  
दालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी। 

प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध  बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?

चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

बुधवार, 22 जून 2011

मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है

ज मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है। हो भी क्यों न? मेरे ही नगर के एक ऐसे मुहल्ले से जिस में आज से तीस वर्ष पूर्व मुझे भी दो वर्ष रहना पड़ा था, समाचार मिला है कि एक बेटे-बहू मुम्बई गए और पीछे अपनी 65 वर्षीय माँ को अपने मकान में बन्द कर ताला लगा गए। तीन दिन बाद ताला लगे मकान के अन्दर से आवाजें आई और मोहल्ले वालों की कोशिश पर पता लगा कि महिला अंदर बंद है तो उन्होंने महिला से बात करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस पर महिला एवं बाल विकास विभाग, पुलिस और एकल नारी संगठन को सूचना दी गई। पुलिस ने दिन में महिला एवं बाल विकास विभाग की टीम के साथ पहुँच कर महिला से रोशनदान से बात करने का प्रयास किया, लेकिन वह घर से बाहर आने को राजी नहीं हुई। इस पर पुलिस लौट गई। तब कुछ लोगों ने जिला कलेक्टर को शिकायत की इस पर देर रात उन के निर्देश पर पुलिस ने घर का ताला तोड़ा गया। पुलिस ने उस से पूछताछ की, लेकिन वह घर पर ही रहना चाह रही थी। पुलिस यह जानने का प्रयास करती रही कि आखिर मामला क्या है? पुलिस ने उससे बेटे-बहू के खिलाफ शिकायत देने को भी कहा, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। पड़ोसियों ने बताया कि महिला को बेटे-बहू प्रताड़ित करते हैं और इसी कारण वह सहमी हुई है और शिकायत नहीं कर रही है।
 
पुलिस व लोगों को देखकर वृद्धा की रुलाई फूट पड़ी। उसने बताया कि बेटे-बहू पांच दिन के लिए बाहर गए हैं और पांच दिन का खाना एक साथ बनाकर गए हैं। तीन दिनों में खाना पूरी तरह सूख चुका था और खाने लायक नहीं रहा था। दही भी था जो गर्मी के इस मौसम में बुरी तरह बदबू मार रहा था। पुलिस से शिकायत करने पर रुंधे गले से सिर्फ यही निकल रहा था, मैं अपनी मर्जी से रह रही हूँ। मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है। कलेक्टर ने बताया कि सूचना मिलते ही उन्होंने महिला एवं बाल विकास विभाग तथा पुलिस को इसकी जानकारी दी। महिला अपने बेटे-बहू के बारे में कुछ नहीं बोल रही। यदि वह किसी प्रकार की शिकायत देती है तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस महिला के पति की चार वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है जो एक बैंक में मैनेजर थे। महिला के एक पुत्री भी है लेकिन वह अपनी माँ से मिलने यहाँ आती नहीं है। एक ओर संतानें इस तरह का अपराध अपने बुजुर्गों के साथ कर रहे हैं। दूसरी ओर एक माँ है जो अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रही है लेकिन अपनी संतानों के विरुद्ध शिकायत तक नहीं करना चाहती। यहाँ तक कि उस मकान से हटना भी नहीं चाहती। उसे पता है कि उस के इस खोटे सिक्के के अलावा उस का दुनिया में कोई नहीं। उन के विरुद्ध शिकायत कर के वह उन से शत्रुता कैसे मोल ले?
 
स घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज में वृद्धों की स्थिति क्या है? सब से बुरी बात तो यह है कि कलेक्टर यह कह रहा है कि यदि महिला ने शिकायत की तो कार्यवाही होगी। जब सारी घटना सामने है। एक महिला के साथ उस के ही बेटे-बहु ने निर्दयता पूर्वक क्रूर व्यवहार किया है और वह घरेलू हिंसा का शिकार हुई है। जिस के प्रत्यक्ष सबूत सब के सामने हैं, इस पर भी पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह महिला शिकायत देगी तब वे कार्यवाही करेंगे। इस से स्पष्ट है कि हमारी सरकार, पुलिस और प्रशासन जो उस के अंग हैं। इस हिंसा और अपराध को एक व्यक्ति के प्रति अपराध मान कर चलते हैं और बिना शिकायत किए अपराधियों के प्रति कार्यवाही नहीं करना चाहते। जब कि यह भा.दंड संहिता की धारा 340 में परिभाषित सदोष परिरोध का अपराध है। तीन दिनों या उस से अधिक के सदोष परिरोध के लिए दो वर्ष तक की कैद का दंड दिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार यह संज्ञेय अपराध है जिस में पुलिस बिना शिकायत के कार्यवाही कर सकती है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत यह उपबंध है कि हिंसा की ऐसी घटना पाए जाने पर संरक्षा अधिकारी इस तरह का आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर महिला को राहत दिला सकता है। लेकिन इन बातों की ओर न पुलिस का और न ही प्रशासन का ध्यान है। इस से पुलिस व प्रशासन की संवेदनहीनता अनुमान की जा सकती है। 

ब से बड़ी बात तो यह है कि बच्चों, बुजुर्गों और असहाय संबंधियों के प्रति इस तरह का अमानवीय और क्रूरतापूर्ण व्यवहार को अभी तक दंडनीय, संज्ञेय और अजमानतीय अपराध नहीं बनाया गया है। जिस से लोग इस तरह का व्यवहार करने से बचें और करें तो सजा भुगतें। इस तरह के उपेक्षित और असहाय लोगों के लिए सरकार और समाज द्वारा कोई वैकल्पिक साधन भी नहीं उपलब्ध कराए गए हैं कि वे अपने संबंधियों की क्रूरतापूर्ण व्यवहार की शिकायत करने पर उन से पृथक रह सकें। आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? क्या समाज को इस दिशा में जाने से रोकने के समुचित प्रयास किए जा रहे हैं और क्या हमारी सरकारें और राजनेता वास्तव में इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचते भी हैं?

रविवार, 18 जुलाई 2010

पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?

दो दिनों की व्यस्तता के बाद कल शाम भोजन करते हुए टीवी पर समाचार देखने का सुअवसर मिला। वहाँ भारतीय पुलिस का गुणगान हो रहा था। बड़ा अजीब दृश्य था। उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर के एक घर में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर अपनी पूरी यूनीफॉर्म में एक फोटो हाथों में लिए फफक-फफक कर रो रही थी। उस की बेटी अचानक गायब हो गई थी। पुलिस को रिपोर्ट कराई गई थी। लेकिन बावजूद इस के कि वह खुद एक पुलिस अफसर थी उसे यह पता नहीं लग पा रहा था कि पुलिस ने इस मामले में क्या किया है और क्या कर रही है?
फिर दिल्ली के ही किसी एक स्थान पर एक चैनल के परोपकारी पत्रकारों ने एक नाबालिग लड़की को किसी देहव्यापार अड़्डे से छुड़ाया था। पुलिस को सूचना थी लेकिन वह समय पर नहीं पहुँच सकी। इस काम में पत्रकारों को बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। पुलिस पहुँची भी तो तब जब कि काम पूरा हो चुका था, बिलकुल फिल्मी स्टाइल में। पुलिस की देरी से पहुँचने की वजह अवश्य पता नहीं लगी। लेकिन जब उस की कहीं आवश्यकता थी तब वह क्या कर रही थी? इसी खबर के साथ चैनल पर पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी टिप्पणी करने के लिए मौजूद थीं। वे कह रही थीं कि यह काम पुलिस की प्राथमिकता में नहीं था। यदि होता तो पत्रकारों के पहले पुलिस वहाँ होती और निश्चित रूप से वह अड्डा सील कर दिया गया होता।
ब हम ये देखने की कोशिश करें कि पुलिस आखिर कहाँ थी। निश्चित रुप से उत्तरप्रदेश की पुलिस तो मायावती जी के किसी फरमान को बजा ला रही होगी। फरमानों से फुरसत मिली होगी तो किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में रही होगी। यह भी हो सकता है कि इन दोनों कामों के स्थान पर किसी तीसरे काम में उलझी हो और अपनी ही पुलिस इंस्पेक्टर की खोई हुई बेटी की तलाश के लिए समय ही नहीं मिला हो। वैसे भी पुलिस के लिए यह काम सब से अंतिम प्राथमिकता का रहा होगा। इंसपेक्टर के पद तक के लोग ही तो हैं जो कुछ काम करते हैं। उस के बाद के तो सभी अफसर हैं। पहले अफसरों के हुक्म बजा लिए जाएँ तभी तो उन्हें कोई काम करने की फुरसत हो। अब एक सब इंस्पेक्टर की बेटी के मामले में काहे की प्राथमिकता?
दिल्ली पुलिस को तो इन दिनों वैसे भी फुरसत कहाँ है। बरसात के मारे जाम लग रहे हैं उन्हें हटाना है। कॉमनवेल्थ खेलों के लिए दिल्ली वालों को बहुत कुछ सिखाना है। वीआईपी सुरक्षा का काम दिल्ली के लिए छोटा-मोटा नहीं है। फिर वैसे ही थानों में अपराध कम दर्ज नहीं होते, आखिर उन से भी निपटना पड़ता है। अब ऐसे में कोई बुद्धू पुलिस अफसर ही होगा जो देहव्यापार के अड्डे पर किसी नाबालिग को छुड़ाने जैसे अपकारी काम में पड़ेगा। फिर इस के अलावा और भी तो काम हैं, पुलिस के पास।
क व्यक्ति ने अपने छोटे भाई के नाम से प्लाट खरीद लिया। भाई बड़ा हुआ तो प्लाट पर अपना अधिकार जताने लगा। भाई को  रुपया दे कर प्लाट अपनी पत्नी के नाम करवाया। अब छोटे भाई को फिर पैसों की जरूरत है। वह पैसा मांगता है। नहीं देने पर उस ने अदालत में शिकायत कर दी कि उस के भाई ने फर्जी कागज बनवा कर प्लाट हड़प लिया है। अदालत ने भाई के बयान ले कर मामला पुलिस जाँच के लिए भिजवा दिया। पुलिस को सिर्फ जाँच कर के रिपोर्ट अदालत को देनी है। पर पुलिस का जाँच अधिकारी एक दिन तो बड़े भाई को दिन भर थाने में बिठा चुका है। सुझाव दिया है कि वह आधा प्लाट भाई के नाम कर दे और बीस हजार पुलिस अफसर को दे दे तो वह उसे छोड़ देगा। वह रुपयों का इंतजाम करने के बहाने थाने से छूटा और गिरफ्तारी के भय से शहर छोड़ गया। पुलिस थाने से उस की पत्नी को फोन आ रहा है कि उसे थाने भेज दो वर्ना तुम्हें घसीटता हुआ थाने ले आऊंगा। अब बोलिए इस महत्वपूर्ण काम को छोड़ कर कौन पुलिस अफसर देहव्यापार अड्डे पर जाएगा।  
फिर इलाके में आठ-दस नौजवान ऐसे भी हैं जो गलती से तैश में आ कर किसी के साथ मारपीट करने की गलती कर चुके हैं। एक बार पुलिस और अदालत के चंगुल में फँसे तो पनाह मांग गए। उन में से कई तो इलाका छोड़ गए और चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमाने में लगे हैं। अब पुलिस को यह कैसे बरदाश्त हो कि एक बार उन के चंगुल में जो व्यक्ति फँस जाए और फिर भी चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमा ले। यदा कदा उन्हें तलाश कर के उन्हें तड़ी मारनी पड़ती है, बिना नाम की एफआईआर दर्ज हुई है। हुलिया तेरे मिलता है। तीन हजार पहुँचा देना वर्ना अंदर कर दूंगा।
ई गाड़ी खरीदी, पूजा-शूजा करा के गाड़ी चलाना आरंभ किया। रजिस्ट्रेशन विभाग से नंबर मिले तो अस्थाई प्लेट उतरवा कर उसे नंबर लिखवाने डाला। तीन घंटे में प्लेट लग जाती। गाड़ी वाले ने सोचा तब तक एक दो काम निपटा लूँ। गाड़ी थाने के सामने से निकली तो रोक ली गई। हिदायत मिली, -नई गाड़ी ली और बिना पूजा के  चलाने भी लगे, नंबर प्लेट भी नहीं लगाई। गाड़ी वाले ने कहा पूजा तो करवा ली, तो सुनने को मिला -मंदिर में करवाई होगी। इधर थाने का क्या? पाँच लाख की गाड़ी है, पाँच हजार पूजा के ले कर आ तब गाड़ी मिलेगी। वरना यहीं खड़ी है थाने पर। 
ब आप ही बताइये पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि देहव्यापार के अड्डे से नाबालिग लड़की छुड़वाए और सब इंस्पेक्टर की लड़की को तलाश करे।

मंगलवार, 29 जून 2010

ऐसे चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

आज अखबार में समाचार था-
क महिला रोगी के पैर में ऑपरेशन कर रॉड डालनी थी, जिस से कि टूटी हुई हड्डी को जोड़ा जा सके। रोगी ऑपरेशन टेबल पर थी। डाक्टर ने उस के पैर का एक्स-रे देखा और पैर में ऑपरेशन कर रॉड डाल दी। बाद में पता लगा कि रॉड जिस पैर में डाली जानी थी उस के स्थान पर दूसरे पैर में डाल दी गई। 
डॉक्टर का बयान भी अखबार में था कि एक्स-रे देखने के लिए स्टैंड पर लगा हुआ था। किसी ने उसे उलट दिया जिस के कारण उस से यह गलती हो गई। 
मुझे यह समाचार ही समझ नहीं आया। आखिर एक चिकित्सक कैसे ऐसी गलती कर सकता है कि वह जिस पैर में हड्ड़ी टूटी हो उस के स्थान पर दूसरे पैर में रॉड डाल दे। क्या चिकित्सक ने एक्स-रे देखने के उपरांत पैर को देखा ही नहीं? क्या ऑपरेशन करने के पहले उस ने भौतिक रूप से यह जानना भी उचित नहीं समझा कि वास्तव में किस पैर की हड्डी टूटी है? क्या एक स्वस्थ पैर और हड्डी टूट जाने वाले पैर को एक चिकित्सक पहचान भी नहीं सकता? या चिकित्सक इतने हृदयहीन और यांत्रिक हो गए हैं कि वे यह भी नहीं जानते कि वे एक मनुष्य की चिकित्सा कर रहे हैं किसी आम के पेड़ पर कलम नहीं बांध रहे  हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा है कि चिकित्सकों के विरुद्ध अपराधिक लापरवाही के लिए कार्यवाही करने के पहले यह आवश्यक है कि उस मामले में किसी चिकित्सक की साक्ष्य उपलब्ध होनी चाहिए कि लापरवाही हुई है। क्या ऐसे मामले में भी किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता है? मैं जानता हूँ कि नहीं। इस तरह के मामले में किसी चिकित्सक की इस तरह की साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। इस समाचार को पढ़ने के बाद मेरे सामने अनेक प्रश्न एकत्र हो गए हैं। मसलन....
1. क्या इलाके का पुलिस थाना जिसे समाचार पत्र से इस तथ्य की जानकारी हो गई है उस चिकित्सक के विरुद्ध बिना मरीज से शिकायत प्राप्त किए कोई अपराधिक मुकदमा दर्ज करेगा? 
2. मरीज स्वयं उस चिकित्सक के विरुद्ध पुलिस थाने में रपट लिखाए तब भी क्या पुलिस इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अन्वेषण आरंभ करेगा? 
3. क्या अस्पताल का मुखिया ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कोई अनुशासनिक कार्यवाही करेगा?
मुझे इन सभी प्रश्नों के उत्तर की तलाश है जो शायद आने वाले कुछ दिनों या महिनों में मिल ही जाएँगे। लेकिन दो प्रश्न और है जिस का उत्तर मैं आप पाठकों से चाहता हूँ;
हला यह कि यदि पुलिस ऐसे चिकित्सक के विरुद्ध कार्यवाही करे, न्यायालय में उस के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत कर दे और यह साबित हो जाए कि चिकित्सक ने अपराधिक लापरवाही की है तो न्यायालय को उस चिकित्सक को सजा देना चाहिए या नहीं? यदि हाँ तो कितनी?
दूसरा यह कि यदि अस्पताल का मुखिया चिकित्सक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करे तो चिकित्सक को क्या दंड मिलना चाहिए?

सोमवार, 7 जून 2010

आखिर किस से मापें? तेरा माप

आखिर किस  से मापें
तेरा माप
सारे पैमाने देख लिए
माप कर

भोपाल दुखांतिका के
अपराधियों को दंड
आज वह भी देख लिया
सरकारी आँकड़ों में
सिर्फ साढ़े तीन हजार
बचाव करने वालों के मुताबिक
पच्चीस हजार जानें लील लेने
हजारों और को
सदा के लिये बीमार
कर देने वालों को
दो वर्ष की कैद, 
जुर्माना सिर्फ एक-
एक लाख रुपया,
अपील करने का हक,
उस के फैसले तक के लिए
फौरन जमानत
अपील में लोगे
और कितना वक्त?
क्या कम थे?
तेईस बरस
क्या किया था?
सुखिया ने

खाली कटोरदान
ही तो उठा कर फेंका था
तीन दिन की
भूख से बिलखते
बेटे के सिर पर
कमबख्त!
अपनी माँ का प्यार और 
जमाने पर गुस्सा
नहीं झेल पाया
मर गया

सुखिया ने मान लिया
खुद ही, अपराध अपना
कोई काम शेष न था
जजों के पास
उसे सजा देने के पहले का

अब जेल में बंद है
पिछले पाँच बरस से, कि
कब खत्म हो
मुकदमे की सुनवाई?

वह तो मान चुकी है
इसे ही अपनी सजा

बाहर होती?
तो कब की मर जाती
छूट चुकी होती
जमाने के नर्क से

आखिर किस  से मापें
तेरा माप
सारे पैमाने देख लिए
माप कर
  • दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आत्म केंद्रीयता और स्वार्थ

शनिवार को  अत्यावश्यक कार्य करते हुए रविवार के दो बज गए, सोए थे कि बेटे को स्टेशन छोड़ने जाने के लिए पाँच बजे ही उठना पडा़। अब ढाई घंटे की नींद भी कोई नींद है। सात बजे वापस लौटे तो नींद नहीं आई। नेट पर कुछ पढ़ते रहे। आठ बजे सुबह सोने गए तो दस बजे टेलीफोन ने जगा लिया। महेन्द्र नेह का फोन था। पाण्डे जी का एक्सीडेंट हो गया है हम पुलिस स्टेशन में हैं रिपोर्ट लिखा दी है, पुलिस वाले धाराएँ सही नहीं लगा रहे हैं, आप आ जाओ। जाना पड़ा। पुलिस स्टेशन पर उपस्थित अधिकारी परिचित था। मैं ने कहा 336 कैसे लगा रहे हैं भाई 338 लगाओ। रस्सा गले में फाँसी बन गया होता तो पाण्डे जी का कल्याण ही हो गया था। अधिकारी ने कहा 337 लगा दिया है। अब अन्वेषण में प्रकट हुआ तो 338 भी लगा देंगे। मैं बाहर आया तो वहाँ एक परिचित कहने लगा -राजीनामा करवा दो। मैं ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया पुलिस अधिकारी ने रपट पर पाण्डे जी के हस्ताक्षर करवा कर उन्हें चोट परीक्षण के लिए अस्पताल भिजवा दिया। थाने के बाहर ही मोटर का वहाँ परिचित फिर मिला और कहने लगा ड्राइवर मेरा भाई है राजीनामा करवा दो, भाई और मालिक दोनों को ले आया हूँ। इन लोगों में से एक ने भी अब तक यह नहीं पूछा था कि दुर्घटना में घायल को कितनी चोट लगी है। मालिक के पास कार थी। लेकिन पाण्डे जी को पुलिसमेन उन की मोटर सायकिल पर ही बिठा कर अस्पताल ले गया। बस मालिक ने यह भी नहीं कहा कि मेरी कार में ले चलता हूँ। 

मुझे गुस्सा आ गया। मैं ने तीनों को आड़े हाथों लिया। "तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम राजीनामे की बातें करते हो, तुमने पाण्डे जी से पूछा कि उन को कितनी लगी है? तुमने तो उन्हें अस्पताल तक ले जाने की भी न पूछी, किस मुहँ से राजीनामे की बात करते हो?

घटना वास्तव में अजीब थी। पाण्डे जी मोटर सायकिल से जा रहे थे। पास से बस ने ओवर टेक किया और उस में से एक रस्सा जिस का सिरा बस की छत पर बंधा था गिरा और उस ने पांडे जी की गर्दन और मोटर सायकिल को लपेट लिया। पांडे जी घिसटते हुए दूर तक चले गए। कुछ संयोग से और कुछ पांडे जी के प्रयत्नों से रस्सा गर्दन से खुल गया। वरना फाँसी लगने में कोई कसर न थी। पांडे जी के छूटने के बाद भी रस्सा करीब सौ मीटर तक मोटर सायकिल को घसीटते ले गया। पांडे जी का शरीर सर से पैर तक घायल हो गया। 

मैं जानता हूँ। उन्हें कोई गंभीर चोट नहीं है। पैर में फ्रेक्चर हो सकता है लेकिन उस की रिपोर्ट तो डाक्टर के  एक्स-रे पढ़ने पर आएगी। आईपीसी की धारा 279 और 337 का मामला बनेगा, जो पुलिस बना ही चुकी है। एक में अधिकतम छह माह की सजा और एक हजार रुपए का जुर्माना और दूसरी धारा में छह माह की सजा और पाँच सौ रुपया जुर्माना है। दोनों अपराध राज्य के विरुद्ध अपराध हैं।  राजीनामा संभव नहीं है। यह ड्राइवर जानता था  और इसीलिए ड्राइवर मुकदमा दर्ज होने के पहले ही राजीनामा करने पर अड़ा था। उसे अपने मुकदमे की तो चिंता थी, लेकिन यह फिक्र न थी कि घायल को कितनी चोट लगी है। 

दूसरी ओर बस का मालिक निश्चिंत खड़ा था उस पर कोई असर नहीं था। वह जानता था कि उसे सिर्फ पुलिस द्वारा जब्त बस को छुड़वाना है जिसे उस का स्थाई वकील किसी तरह छुड़वा ही लेगा। ड्राइवर पेशी करे या उसे सजा हो जाए तो इस से उसे क्या? वह तब तक ही उसे मुकदमा लड़ने का खर्च देगा जब तक ड्राइवर उस की नौकरी में है। बाद में उस की वह जाने। आज के युग ने व्यक्ति को कितना आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना दिया है।