@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अनाज
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शुक्रवार, 25 मई 2012

थमा हुआ इंकलाब


 विचित्र दृश्य हैं।  रुपया गिर रहा है, लगातार गिर रहा है।  कब तक गिरेगा? किसी को पता नहीं है। प्रणब दा कहते हैं कि उधर यूरोप में किसी देश में जबर्दस्त आर्थिक संकट चल रहा है, उसे देख कर रुपया गिर रहा है। रुपया रुपया न हुआ कोई लड़की हो गई जो किसी लड़के को आते देख कर गिर जाए और इंतजार करे कि वह आएगा और उसे उठा लेगा।

सोना चढ़ रहा था कि रुपए की गिरावट को देख अचानक गिरा और लगातार तीन दिनों तक गिरा। लोगों ने सोचा डालर बेचो, रुपया खूब मिलेगा। मिले रुपए से सोना खरीद लो। लोग सोना खरीदने बाजार तक पहुँच भी न सके थे कि सोना एकदम चढ़ा और वापस अटारी पर जा पहुँचा।

चपन में मैं सोचता था कि जीव जंतु ही चढ़ते उतरते हैं। जैसे गिलहरी, तपाक से पेड़ पर चढ़ जाती है, उस का मन हुआ और उतर गई। फिर अखबार पढ़ने लगे तो पता लगा कि दूसरी चीजें भी चढ़ती उतरती हैं। किसी दिन तेल चढ़ता है तो किसी दिन मिर्च चढ़ जाती है। चीनी, तिलहन, दलहन, अनाज वगैरा सभी चढ़ते उतरते हैं। इस चढ़ने उतरने में सब से ज्यादा दुर्गति तिलहन,दलहन, अनाज और मसालों की होती है। जब जब फसल आती है ये गिर पड़ते हैं जैसे ही फसल मंडी से उठ कर गोदामों में पहुँचती है वे चढ़ने लगते हैं। लेकिन फसल आने के ठीक पहले फिर से गिर पड़ते हैं।

किसान सोचता है पिछले साल प्याज में अच्छी कमाई हुई थी। इतना चढ़ा, इतना चढ़ा कि सरकार तक बदल गई थी। वह सोचता है इस साल गेहूँ करने के बजाये प्याज करो। इतना प्याज कर डालता है कि प्याज जमीन पर आ जाता है। कोई खरीदने वाला नहीं मिलता। पिछले साल लहसुन ने चढ़ने में बाजी मार ली। लोगों ने प्याज को छोड़ा लहसुन कर डाला। अब लहसुन इतना हुआ कि रखने को जगह नहीं बची। बिचारा गिरने लगा तो हाल यह हो गया कि मंडी में दो रुपए किलो में कोई लेने वाला नहीं रहा। उधर अखबार में खबर पढ़ कर गृहणियाँ सोचने लगीं। कल वे जरूर दस किलो लहसुन ले कर घर में डाल लेंगी। पर जब सब्जी वाला आया तो दस रुपए किलो का भाव बोल रहा था। उस से बहस की तो कहने लगा साहब मंडी में दो रुपए किलो ही बिकता है, पर पूरा ट्रेक्टर खरीदना पड़ता है। वह न तो मैं खरीद सकता हूँ और न आप खरीद सकते हैं। हमें तो पाँच रुपए किलो खरीदना पड़ता है माशाखोर से। फिर उस में से अच्छा अच्छा छाँट कर आप के लिए लाते हैं उस में भी आप छाँट लेती हैं। अब दस रुपए किलो से कम में कैसे बेच सकते हैं।? श्रीमती जी लहसुन खरीदने के लिए बोरा लेकर गई थीं। प्लास्टिक की थैली में दो किलो लेकर घर में लौटीं।

स साल बरसात अच्छी हुई थी। खरीफ की फसल भी अच्छी हुई। फिर रबी की फसल पकी तो लगा कि धरती पर सोना ही सोना उग आया है।  दस-बीस साल पहले सोना उगता था तो पहले कटता था। फिर बैलों के पैरों तले रोंदा जाता था। फिर हवा में बरसाया जाता था तब गेहूँ का दाना तैयार होता था। पूरा महिने दो महिने यह चलता रहता था। अब वो सब नहीं होता। पंजाब के लोग कम्बाइन ले कर आते हैं हैं और एक दो सप्ताह में ही खेत के खेत काट कर गेहूँ निकाल कर चल देते हैं। कुछ ही दिनों में सारा सोना सिमट जाता है। किसान के पास सोना रखने की जगह नहीं। वह ट्रेक्टर ट्राली पर सोना लाद कर चलता है मंडी की और रुपया खरीदने। जिस से उसे बेटी-बेटे ब्याहने हैं, बैंक-साहूकार के कर्जे उतारने हैं। बच जाए तो छप्पर ठीक कराना है, फिर बच्चे पढ़ाने हैं.. आदि आदि।

मंडी अनाज से भरी है, मंडी के बाहर किलोमीटरों तक सड़कें सोने से भरी ट्रालियों से पट गई हैं, जाम लग गया है। व्यापारी के पास इतना पैसा ही नहीं कि खरीद ले। किसान के सोने का दाम गिरने लगता है। सरकार ने निर्धारित मूल्य पर खरीद का इंतजाम किया है। लेकिन कारकून कम हैं वे एकदम नहीं खरीद सकते उन्हें तौलना पड़ेगा, फिर बोरों में भरना पड़ेगा। किसानों को सड़क पर ट्रेक्टर लिए पड़े दो चार दिन हो गए हैं। जितना गेहूँ खरीदा जाता है उस से ज्यादा फिर आ जाता है। सरकारी खरीद केंद्र के कारकूनों के चेहरे खिल उठे हैं। सरकारी खरीद में दाम तो ऊँचे नीचे नहीं हो सकते लेकिन वे किसी का तुरन्त खरीद सकते हैं किसी को कुछ दिनों का इंतजार करा सकते हैं। वे किसानों से मोल भाव कर रहे हैं। गेहूँ बेचना है? एक ट्रॉली पर हमें कितना दोगे? दाम लगने लगे हैं। एक ट्रॉली पर हजार, दो हजार, तीन हजार, साढ़े तीन हजार ... किसान हिसाब लगा रहे हैं कि तीन दिन रुकेंगे तो कितना खर्चा होगा? कारकून को ले-दे कर तुलवा देंगे तो कितना नुकसान होगा? आखिर कारकून का भाव दो हजार तय होता है। दो दिन गेहूँ तुलता है। तीसरे दिन खबर आती है कि बोरे खत्म हो रहे हैं, उन के आने तक इंतजार करना पड़ेगा। कारकूनों का भाव दो हजार से तीन हजार हो जाता है।

लाल-पीले झंडे वाले आते हैं, बोलते हैं। बोरे ऐसे नहीं आएंगे, कलेक्ट्री पर जा कर इंकलाब जिन्दाबाद करना पड़ेगा। इधर राजस्थान में कलेक्ट्रियों पर दुरंगा इंकलाब हो रहा है तो मध्यप्रदेश की कलेक्ट्रियों पर तिरंगा इंकलाब हो रहा है। कलेक्टर बताता है कि वे बारदाने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिना बोरों के भी गेहूँ खरीदा जाएगा। दुरंगा-तिरंगा इंकलाब थम जाता है। किसान वापस मंडी की तरफ लौटने लगते हैं। उधर डालर हँस रहा है।

देश के वित्तमंत्री बूढ़े हो चले हैं, थक गए हैं, कह रहे हैं अगली बार चुनाव नहीं लडेंगे। उन से पूछा जाता है कि राष्ट्रपति का चुनाव तो लड़ सकते हैं? वे जवाब नहीं देते, मुस्कुरा भर देते हैं।

शनिवार, 21 मई 2011

अनाज अग्रिम (Food grain advance) कहाँ गया?

गेहूँ का उत्पादन इस वर्ष अच्छा हुआ है। मंडी में इतना गेहूँ आ रहा है कि रखने को स्थान नहीं है। नतीजा यह कि गेहूँ की कीमतें काबू  में हैं। इस से आम आदमी को कुछ राहत मिली है और महंगाई का आँकड़ा ऊपर न चढ़ने के कारण सरकार भी राहत में है। कुछ मायूसी है तो किसान को है कि उसे उतनी कीमत नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। उस ने इस फसल की उम्मीद पर जितने सपने देखे थे उन में कुछ कसर रह गई। अब उसे उम्मीद है कि यदि खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली और डीजल के दाम न बढ़ें तो उस की उत्पादन लागत न बढ़े। पर उस की यह उम्मीद फलती नजर नहीं आती। अधिकांश किसान तो अपनी फसल को सीधे मंडियों में या फिर खाद्य निगम के काँटों पर तुलवा कर नकदी बना रहे हैं। लेकिन कुछ छोटे और मध्यम किसान ऐसे भी हैं जो फसल  पर मेहनत कर के अनाज को साफ कर उसे ग्रेडिंग जैसा बना कर नगरों में ला कर सीधे उपभोक्ता को विक्रय कर रहे हैं। इस से दुतरफा लाभ है, किसान को कीमत कुछ अधिक मिल रही है और उपभोक्ता को कुछ कम देना पड़ रहा है। किसान खुद माल तौल रहा है तो तुलाई-भराई का पैसा भी बच रहा है। 
 
मने भी पिछले रविवार को साल भर के लिए गेहूँ खरीदा। कोटा जंक्शन क्षेत्र में रविवार को परंपरागत हाट लगता है। किसान अपनी गेहूँ से भरी ट्रॉलियाँ ले कर सुबह ही वहाँ पहुँच जाते हैं और उपभोक्ता भी। मुझे स्वयं तो गेहूँ कि पहचान नहीं इस लिए अपने कनिष्ठ नंदलाल शर्मा को साथ ले गया। वे किसान भी हैं और वर्षों से गेहूँ का उत्पादन कर रहे हैं। आम तौर पर उन के यहाँ से ही गेहूँ आता है। लेकिन उन्हों ने गेहूँ कि नई किस्म बोई है जिस का उत्पादन 9 क्विंटल बीघा अर्थात 56 क्विंटल प्रति हैक्टर हुआ है। जब कि आम प्रचलन के अच्छी किस्म के गेहूँ का उत्पादन मात्र 6 क्विंटल प्रति बीघा हुआ है। वह खाने में न जाने कैसा हो इसलिए वे स्वयं भी केवल प्रयोग के तौर पर थोड़ा सा गेहूँ घर लाए हैं। उसे इस बार वापर के देखेंगे, शेष गेहूँ वे मंडी में बेचेंगे। इस नई किस्म के गेहूँ और पुराने प्रचलित गेहूँ में दर का अंतर सौ रूपए क्विंटल से अधिक नहीं है। नन्दलाल जी का कहना है कि यह नई किस्म का गेहूँ पुराने किस्म के गेहूँ को कुछ ही वर्षों में विस्थापित कर देगा। क्यों कि जब दर का अंतर अधिक न होगा तो किसान इस अधिक उत्पादन वाली नई किस्म को ही बोएगा और पुरानी किस्म के गेहूँ का उत्पादन बंद हो जाएगा। दो-चार वर्ष बाद सभी को यही गेहूँ खाना पड़ेगा। 

गेहूँ को हम 35-35 किलो के 11 बैगों में भर कर लाए थे। नन्दलाल जी और मैंने ये 11 बैग अपनी मारूती-800 में भर लिए, और घर ले आए। बैगों का वजन कम होने के कारण घर पर भी हमने ही उन्हें उठा कर रख दिया। इस तरह हम्माली की भी बचत हो गई। कुल मिला कर 1300 रुपए क्विंटल की दर में चार क्विंटल गेहूँ घर आ गया। शोभा ने उन में से दो बैग तो छान बीन कर अलग भर दिए जिस से कम से कम एक-दो माह का काम चल जाए। बाकी गेहूँ को ड्रमों में भर कर रखना था। कल शाम ही हमें अल्टीमेटम मिला कि अभी दवा (कीड़ों से सुरक्षा के लिए पेस्टीसाइड) लाई जाए ताकि सुबह स्नान के पहले ही गेहूँ को ड्रमों में भर दिया जाए। हम बाजार से सल्फास के दस-दस ग्राम के चार पैकेट खरीद कर लाए और आज सुबह ही उन्हें ड्रमों में डाल कर गेहूँ भर गए। तब जा कर श्रीमती जी को चैन मिला है कि वर्ष भर उन्हें गेहूँ के लिए किसी का मुहँ नहीं देखने को मिलेगा। एक जैसा आटा साल भर खा सकेंगे और मंदिर पर चढ़ाने, त्योहारों पर ढोल बजाने वाले ढोली  व घर पर भिक्षा मांगने आने वालों के लिए साल भर गेहूँ उपलब्ध रहेगा। मुझे भी साल भर के लिए चैन मिला कि अब सिर्फ महिने में एक दो बार गेहूँ पिसाने के अलावा कोई झंझट नहीं रहा।

पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर बहुत हंगामा हुआ था कि अनाज को सड़ने से रोके जाने के लिए उसे मुफ्त गरीबों को बाँट दिया जाए। इस में कुछ गलत था भी नहीं। भारत में आज भी बहुत बड़ी आबादी है जो अनाज के लिए तरसती है। बच्चों को झूठन में से खाद्य बीनते और मंडी में मिट्टी में मिल चुके अनाज को अलग कर काम में लेने लायक बनाते हुए देखना एक आम चित्र है जिसे देखने के लिए श्रम करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में अनाज को सड़ने के लिए छोड़ देना अक्षम्य अपराध है। लेकिन तब हमारे खाद्यमंत्री का बयान था कि अनाज को मुफ्त में बाँटा नहीं जा सकता। उन्हें तब शायद उन व्यापारियों की चिंता थी जिन्हों ने अनाज गोदामों में भरा था और मुफ्त में अनाज बाँटने से उन्हें घाटा हो जाता, या फिर इस बात की चिंता थी कि सड़ाने में सरकार का कुछ भी खर्च नही होता जब कि बाँटने में कुछ तो खर्च करना पड़ता ही है। तब मैं ने भी यह कहा था  कि लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

ज से कोई बीस-तीस वर्ष पहले लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों को अप्रेल-मई के माह में अनाज अग्रिम अपने नियोजक से मिल जाता था और हर कर्मचारी अपनी जरूरत का अनाज खरीद कर उस का भंडारण कर लेता था और वर्ष भर, जब तक कि उस का उपयोग न हो लेता उस की सुरक्षा करता था। उद्योगों में भी जहाँ यूनियनें थीं वहाँ इस तरह के समझौते बहुतायत से हुए कि कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाएगा जो वर्ष भर प्रतिमाह उन के वेतन से किस्तों में काट लिया जाएगा। इस अनाज अग्रिम ने अनाज के भंडारण की समस्या को विकराल नहीं होने दिया था। बाजार में भंडारण योग्य अनाज बचता ही कितना था?

रकारों ने अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम देना बंद कर दिया। उद्योगों में भी यह परंपरा बन्द हो गई। लोग गेहूँ के बजाए बाजार से सीधे आटा खरीदने लगे। अब आटा कंपनियाँ तो गेहूँ उतना ही खरीदती हैं जितना उन की जरूरत है। वे गोदाम निर्माण में क्यों निवेश करें? करें तो फिर साल भर का गेहूँ खरीदने में भी निवेश करें। ऐसे में तो गेहूँ पीस कर बेचने का धंधा घाटे का हो जाए। अब गेहूँ का भंडारण सरकार के जिम्मे। वही गोदामों में निवेश करे। पर उस के पास भी  इतनी पूंजी कहाँ है? फिर इस में मंत्रियों-संत्रियों-अफसरों का लाभ कुछ नहीं, तो वे भी ऐसा क्यों करें? इस से तो अच्छा ही है कि अनाज सड़ जाए, कम से कम कुछ जानवर और कीट आदि तो पलेंगे जिससे अपरोक्ष धर्मलाभ ही होगा। सरकार को अभी भी अनाज अग्रिम का इलाज स्मरण नहीं हो पा रहा है। शायद किसी रोज सुप्रीम कोर्ट को ही इस के लिए आदेश देना पड़े। वह भी खुद कहाँ दे सकता है? पहले कोई एनजीओ वहाँ रिट लगाए फिर जवाब तलब और सुनवाई हो फिर जा कर आदेश हो।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए

ज हमारे देश के महान कृषि मंत्री जनाब-ए-आला शरद पंवार साहब ने कह ही दिया कि गरीबों को अनाज मुफ्त में दिया जाना संभव नहीं है, और कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश नहीं दिया था अपितु सुझाव दिया था। आप की इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? यही न कि हम अनाज सड़ा सकते हैं लेकिन बाँट नहीं सकते। सड़ाने में हमारा कुछ खर्च नहीं होता (सिवाय मलबे को साफ करने के) (और अनाज के सड़ने से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के, लेकिन उस से क्या? वह तो स्वास्थ्य और चिकित्सा विभाग का काम है, उस से उन्हें क्या लेना देना) 
लिए हम मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव ही दिया था कोई निर्देश नहीं। लेकिन उस सुझाव में भी बात तो यही छिपी हुई थी ना कि जो अनाज आप ने जनता के पैसे से खरीदा है वह काम आए और सड़े नहीं। लेकिन लगता है कि शरद पंवार को बात आसानी से समझ नहीं आती। आए भी कैसे अभी जनता ने उन्हें शानदार सबक जो नहीं सिखाया। कोई बात नहीं, जनता किसी को भूलती नहीं और अवसर आने पर प्रसाद अवश्य ही बाँटती है। जल्द ही इस का सबूत भी देखने को मिल जाएगा। इस परिस्थिति में हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अनाज क्यों सड़ रहा है? निश्चित रूप से अनाज की फसल इतनी तो नहीं ही हुई है कि वह सड़ने लगे। फिर हुआ क्या है? देश की आबादी बढ़ी है और गोदाम भी बढ़े हैं फिर अनाज के भंडारण के लिए गोदाम कम क्यों पड रहे हैं? 
नाज गोदामों में ही नहीं भरा जाता। हर घर में इतनी जगह तो होती ही है कि परिवार के वर्ष भर का अनाज वहाँ सुरक्षित रखा जा सके। पहले यही होता था कि अधिकांश लोग चाहे उन की आर्थिक हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो वे अपनी जरूरत के वर्ष, डेढ़ वर्ष का अनाज अपने घरों पर सुरक्षित कर के रखते थे। जिस के कारण बहुत सा अनाज लोगों के घरों में जा कर जमा हो जाता था। उन के भंडारण के लिए बड़े गोदामों की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन वर्ष भर का अनाज घर में एक साथ खरीद कर रख लेने की आदत लोगों में कम हुई है। अधिकांश लोग या तो बाजार से सीधे आटा खरीद रहे हैं या फिर पचास किलो का बैग खरीद कर लाते हैं और उस के समाप्त होने पर फिर से बाजार पहुँच जाते हैं। 
कुछ वर्ष पहले तक सभी सरकारी विभागों में अनाज की फसल आने पर अनाज अग्रिम कर्मचारियों को मिल जाता था। यहाँ तक कि इसी तर्ज पर अनेक उद्योगों में भी मजदूर यूनियनों ने यह मांग उठाई और मजदूरों को अनाज अग्रिम मिलने लगा था। लेकिन कुछ वर्षों से अनाज अग्रिम मिलने की बात सुनाई नहीं दे रही है। यह अनाज अग्रिम मिलने से कर्मचारी वर्ष भर का अनाज एक साथ खरीद लेते थे। इस तरह से वर्ष भर का अनाज लोगों के घरों में पहुँच जाता था और अनाज के भंडारण की समस्या ही नहीं होती थी।  
पिछले कुछ वर्षों से अनेक कारणों से लोगों के घरों में वर्ष भर का अनाज खरीदने की प्रवृत्ति समाप्त हुई है और अनाज के भंडारण के लिए गोदामों की समस्या खड़ी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए अब देश भर में नए गोदाम बनाए जाएंगे। उस के लिए पूंजी खर्च की जाएगी। उस के लिए खेती करने वाली जमीनों को अधिग्रहीत किया जाएगा। गोदामों के निर्माण कार्यों में मंत्रियों से ले कर अफसरों और ठेकेदारों के वारे-न्यारे होंगे। राजनैतिक दलों के लिए चंदा इकट्ठा करने का एक और जरिया बनेगा। गोदामों की  इस समस्या को हल करने का मुझे तो अब भी सब से बड़ा समाधान यही लगता है कि लोगों को साल भर का अनाज अपने घरों में खरीद कर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाए और उन्हें वर्ष भर का अनाज खरीदने का सबूत पेश करने को कहा जाए। निजि क्षेत्र के नियोजकों को भी कानून बना कर इस के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वे अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दें। अनाज अग्रिम के लिए दिया गया धन कर्मचारियों के वेतन से प्रतिमाह कटौती के जरिए  वापस नियोजकों को मिल जाएगा।