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गुरुवार, 23 जून 2011

कैसी होगी, नई आजादी?

पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है


... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?

लिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता  को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है  ...

1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;
3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।

  
दालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी। 

प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध  बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?

चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

बुधवार, 8 जून 2011

नुमाइशों का मौसम

तीन जून को मुझे अनपेक्षित भाग-दौड़ करनी पड़ी थी। इसलिए चार जून की सुबह मेरे लिए थकान भरी थी, मैं ने अपनी वकालत वाली डायरी पर सुबह ही नजर डाली, चार जून के पन्ने पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं था। मेरा अदालत जाने का मन भी नहीं था। मैं उस दिन आराम से तैयार हुआ था। यह वही दिन था जब रामलीला मैदान दिल्ली में बाबा रामदेव अपने हजारों समर्थकों के साथ अनशन आरम्भ करने वाले थे। घोषणा यह भी थी कि देश भर में सभी स्थानों पर उन के समर्थक अनशन करेंगे। कोटा में भी कलेक्ट्री के बाहर सड़क के किनारे अनशन करने वाले थे। दोपहर होने के करीब अपने दफ्तर में आ कर काम करने बैठा तो मन हुआ कि अदालत जा कर मित्रों के साथ कॉफी पी जाए और बाबा का मजमा भी देख लिया जाए। दुबारा डायरी देखी तो पता लगा कि आज तो प्रताप जयन्ती है और अवकाश है। मेरा मन फिर वापस हो गया। मैं छह तारीख को सुबह ही अदालत पहुँचा।   यहाँ कोटा में स्टेशन जाने वाली सड़क के एक और कलेक्ट्री है और दूसरी ओर अदालतें। कुछ अदालतें कलेक्ट्री बिल्डिंग में भी हैं। हम वकीलों को दिन में कई बार इस सड़क को पार करना होता है। कलेक्ट्री की बाउंड्री से लगी हुई सड़क किनारे का स्थान अनेक वर्षों से प्रदर्शनकारियों और धरना आदि देने वालों के लिए आरक्षित सा हो चुका है और वहाँ सप्ताह में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब कोई न कोई शामियाना न तना हो। ये  शामियाने रोज अदालत जाने वाले लोगों के लिए इतने आम हो चुके हैं कि उन पर उड़ती हुई सी निगाह पड़ जाए तो पड़ जाए वर्ना हम लोगों को दूसरे दिन के अखबार से ही पता लगता है कि किस ने धरना दिया था। 

ह जून की सुबह नौ बजे मैं अदालत पहुँचा तो अपना काम देखा, जरूरी काम आधे घंटे में निपटा लिया। पौने दस बजे नियमित चाय पर चला गया। वहाँ से लौटा और शेष काम के लिए कलेक्ट्री बिल्डिंग की और चला तो निहायत खूबसूरती से सजाए गए शामियाने पर बरबस निगाह पड़ गयी। शामियाने में वे सभी चित्र सजाए हुए थे जो अक्सर संघ और संघ परिवार वाले अपने जलसों और कार्यालयों में सजाए रहते हैं। अंदर देखा तो कुछ योग प्रेमियों के अलावा वही संघ परिवार के घिसे-पिटे चेहरे नजर आए। शामियाने के चारों और आठ दस बड़े आकार के कूलर लगे थे और इतनी हवा फैंक रहे थे कि उन से निकली हवा के सिवा दूसरी हवा शामियाने में प्रवेश न कर सके। एक और मंच सजा हुआ था। नीचे बैठने को गद्दे लगे थे जिन पर सफेद चादरें बिछी थीं। शामियाने के बाहर एक कोने पर शीतल पेय जल की बड़ी बड़ी वैसी ही बोतलें रखी थीं जैसी अक्सर आज कल मध्य और उच्च मध्यवर्गीय विवाहों के भोज स्थल पर रखी होती हैं। पास ही डिस्पोजेबुल गिलास रखे थे। यदि किसी को चार गिलास पानी पीना हो तो आराम से चार डिस्पोजेबुल गिलासों का उपयोग कर सकता था। मैं सोच रहा था कि कलेक्ट्री और अदालत परिसर में तपती रोहिणी की भीषण गर्मी का दिन बिताने के लिए इस से उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता है। 
शामियाने के अंदर जोर-शोर से भाषण चल रहे थे। सरकार और कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसा जा रहा था। वक्ताओं का अंदाज वही पुराना भाजपा ब्रांड था। मुझे उस में कोई नयापन नजर न आया। भाषणों में न भ्रष्टाचार मिटाने की बात थी और न तथाकथित व्यवस्था परिवर्तन की। बस कांग्रेस सरकार को विदा करने की बात पर जोर दिया जा रहा था। मैं अपने काम पर चल दिया। दोपहर बाद जब काम निपट गया और मित्र गण आपस में बैठे तो चर्चा यह भी रही कि आज घर चलने के स्थान पर शामियाने की ठंडक का आनन्द लिया जाए। पर बहुमत की राय यह थी कि इन उबाऊ और आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले भाषणों को कौन झेलेगा? हम टीन के तपते चद्दरों के नीचे बैठ कर गर्म कॉफी के कुछ घूँट हलक के  नीचे उतारते हुए आधे घंटे बतियाते रहे और फिर घर लौट आए। 

सात जून की सुबह जब मैं घर से निकला तब तक बाबा सरकार को पिछले चार दिनों के करम के लिए माफ कर चुके थे। उन का कहना था "प्रधानमंत्री ने उन घटनाओं को दुर्भाग्यपूर्ण माना है जिस से पता लगता है कि उन्हों ने अपना पाप स्वीकार कर लिया है। जब उन्हों ने अपना पाप स्वीकार कर लिया तो हम ने उन का पाप माफ कर दिया।" शायद बाबा अब भी केन्द्र सरकार से कुछ बेहतर समझौता करने का मार्ग बना रहे थे। मैं ने अदालत जाते ही सब को बताया कि बाबा का ताजा स्टेंड क्या है। इस दिन उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश नगर में थे और तमाम जजों की क्लास लगाए बैठे थे कि कैसे मामलों को समझौते के माध्यम से निपटा कर न्यायालयों के बोझे को कम किया जाए? सारी अदालतें खाली थीं। आवश्यक काम तक लंबित हो रहे थे। उन का सहयोग करने के लिए अभिभाषक परिषद ने साढ़े नौ बजे से काम स्थगित करने की घोषणा कर दी थी। हालांकि उस का कारण ये बताया गया था कि आज वकील बाबा के समर्थन में धरने को आबाद करेंगे। मेरा शामियाने के नजदीक से निकलना हुआ तो एक वकील महोदय अपने बैठे गले से जोरदार भाषण दे रहे थे। लगता था जैसे इस बार केंद्र सरकार से कांग्रेस को बाहर कर देने के बाद ही उन का गला दुरुस्त होगा।  

धर एक जलूस आया और ठीक कलेक्ट्री के गेट पर एक पुतला जला कर चला गया। जिस में कुछ फटाखे चले और पूरी कलेक्ट्री और अदालत परिसरों में मौजूद लोगों को अपने अपने स्थान पर ही पता लग गया कि किसी का पुतला जलाया गया है। कोई घंटे भर में चार-पाँच अलग-अलग संगठनों ने एक-एक पुतला जला दिया। इतनी ही बार पटाखे चले। उस खूबसूरत शामियाने के नजदीक ही कुछ और शामियाने भी तने थे। मकसद एक ही था। पर अलग शामियाने की जरूरत इसलिए महसूस की गई होगी कि लोग यह न समझ ले हर नुमायश में लगने वाली वे पुरानी दुकानें अब बंद हो चुकी है।  कुछ दुकानों के बारे में तो लोगों की इसी तरह की बन चुकी धारणा चकनाचूर हो गई थी और लगने लगा था कि नुमाइशों का मौसम फिर से आरंभ हो गया है।

गुरुवार, 2 जून 2011

छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है

बरों में सब से ऊपर आज बाबा रामदेव हैं। वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरे बैठे हैं। जिस तामझाम के साथ उन्हों ने तैयारी की है, उस से सरकार घबराई हुई भी है और किसी तरह उन्हें अपना सत्याग्रह टालने को मनाने पर तुली है। बाबा रामदेव हैं कि मान ही नहीं रहे हैं। उन की आवाज हर बार और तेज होती जाती है। हालांकि वे कह रहे हैं कि सरकार से उन की कोई लड़ाई नहीं है। सरकार किसी की भी हो उस से उन को कोई मतलब नहीं है, वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं। अब उन्हें यह कौन समझाए कि सरकार व्यवस्था का मुखौटा होती है। सब से पहले उसी को नोंचना पड़ता है, तभी व्यवस्था के दर्शन होते हैं। वैसे हम तो राजनीति में पढ़ते आए कि पहले समाज में दास व्यवस्था थी, फिर सामंती व्यवस्था आयी और फिर पूंजीवादी व्यवस्था का पदार्पण हुआ। भारत में पूंजीवादी व्यवस्था आई तो, पर तब तक श्रमजीवी जनता के अहम् हिस्से किसानों और श्रमिकों के आंदोलन जोर पकड़ चुके थे। भारत का सुकुमार पूंजीवाद भयभीत भी था। उस ने सामंतवाद से हाथ मिला लिया। कहा- देखो यदि आपस में लड़े तो दोनों मारे जाएंगे। इसलिए समझौते के साथ दोनों जीते हैं। अब पिछले 64 बरस से दोनों दोस्ती निभा रहे हैं। हालांकि जहाँ मौका मिलता है वहाँ एक दूसरे की टांग खींचने का मौका नहीं चूकते। जहाँ श्रमजीवी जनता से मुकाबला करना होता है या उन्हें बेवकूफ बनाना होता है तो दोनों ही एक पायदान पर खड़े दिखाई देते हैं।

म ने मजदूरों और किसानों की समाजवादी व्यवस्था के बारे में भी सुना था। पर समाजवाद शब्द का इस्तेमाल इतनी डिजाइन के लोगों ने किया है कि उस का असली मतलब ही गुम हो चुका है। फिर सातवें दशक में जनता के जनतंत्र का नारा बुलंद हुआ। पर उस नारे को लगाने वाले अगले ही दशक में भूल कर तीन राज्यों की सरकारों में उलझ गए। उन के नेता और कॉडर दोनों ही जनता के जनतंत्र के स्थान पर समाजवाद की दुहाई देते रहे। सरकारों से अंदर बाहर होते-होते इस बार आखिरी सरकार भी खो बैठे। वे अभी भी आस लगाए बैठे हैं कि सरकार में वापस लौट आएंगे। पर हमें लगता है कि जनता अब उन्हें शायद ही फिर से उतनी तरजीह दे। सही कहा है कि काठ की हाँडी दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ती।

बाबा रामदेव सामंतों, देशी पूंजीपतियों और उन के परदेसी खैरख्वाहों की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ऐसा लगता नहीं है। वह ट्रस्ट जिस के वे सर्वेसर्वा हैं, खुद पूंजीवाद का एक बढ़िया नमूना है। यदि वे इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो सब से पहले उन्हें अपने ट्रस्ट के हितों को त्यागना होगा। जो वे नहीं कर सकते। वैसे व्यवस्था परिवर्तन के इस पहले दौर में सत्याग्रह के लिए उन की मांगे इस प्रकार हैं - 

1- सरकार करप्शन के खिलाफ अगस्त 2011 तक एक प्रभावी जन लोकपाल बिल पास करे।
2- विदेशों में जमा ब्लैक मनी को वापस लाने के लिए कानून बने।
3- विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा ब्लैक मनी को तुरंत राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए।
4- बाहर पैसा जमा कराने वालों पर देशद्रोह का केस दर्ज हो। सरकार इसमें पूरी पारदर्शिता बरते। भ्रष्टाचारियों के नाम इंटरनेट पर अपलोड हों, ताकि देश की जनता उसे देख सके।
5- भ्रष्टाचारियों के खिलाफ मृत्युदंड का प्रावधान हो।
6- देश के हर हिस्से से ब्रिटेन पर आधारित सिस्टम को खत्म किया जाए।
7- सरकार यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन( UNCAC) पर तुरंत साइन करे।
8- करप्शन को रोकने के लिए बड़े नोट बंद किए जाएं। सरकार 1000, 500, 100 के नोट वापस मंगाए।


कुल मिला कर इन मांगों में पहले दर्जे की मांगें तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद और बचा-खुचा सामंतवाद शुचिता का व्यवहार करे, लेकिन बना रहे। इन दोनों चाहतों में जबर्दस्त टकराहट है। यह वैसे ही है जैसे किसी इंसान का दिल निकाल लिया जाए और फिर यह इच्छा व्यक्त की जाए कि वह जीवित रहेगा। उन की दूसरे दर्जे की मांगें काम की कम और प्रचारात्मक अधिक हैं, जैसे देश के हर हिस्से ब्रिटिश सिस्टम को समाप्त किया जाए, उच्च स्तर तक की शिक्षा और परीक्षा मातृभाषा में होने लगे आदि आदि। इस से ऐसा लगता है कि जिस कदर पिछले सालों में बहुराष्ट्रीय पूंजी ने भारत में आ कर कोहराम मचाया है और राष्ट्रीय पूंजी को अपना ऐजेंट भर बनाने पर तुली है उस से राष्ट्रीय पूंजीपति की साँसे रुक रही हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति अब देश की व्यवस्था में अधिक बड़ा हिस्सा चाहता है। बाबा रामदेव के मुहँ से वही बोल रहा है। तो यह लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की नहीं, अपितु व्यवस्था में छोटे भाई द्वारा बड़े भाई से बराबर का हिस्सा चाहने की लड़ाई है। पूंजीवाद के अंदर का अंतर्विरोध हल होना चाहता है। भ्रष्टाचार पर कहर तो इसलिए टूट रहा है कि छोटे भाई पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए वह सब से बड़े हथियार के रूप में काम करता है। अब छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है। अभी तो हथियार जमीन पर रखवाने की लड़ाई आरंभ हुई है।