@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 'हाडौती कहानी' प्यास लगे तो .....(2)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

'हाडौती कहानी' प्यास लगे तो .....(2)


दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद अनवरत पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन पर अपने ब्लाग समञ्जस पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। अब इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का उत्तरार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(2) 


क दिन सुगन ने चम्पा के हाथ अंग्रेजी की पुस्तक देखी। पहले तो गौर से उसे देखता रहा। फिर पूछा “कैसी पुस्तक है?” चम्पा को ध्यान न था कि चोरी पकड़ी जाएगी। वह लज्जा से गुलाबी हो गई। धीमे स्वर में बोली -क्या करूँ? मन नहीं लगता तो ऐसे ही पन्ने पलटने लगती हूँ”।
चंपा का पढ़ने में मन देख सुगन ने सुझाया -माँ साब¡  से पूछ लो। वे कह देंगी तो मैं घड़ी दो घड़ी आ कर पढ़ा दूंगा।  चाहो तो सैकण्डरी का फार्म भर देना। पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी और पढ़ने की आप की। पटेल पटेलिन ने सोचा-इस बहाने से दोनों का मन मिल जाए तो क्या बुरा है? है तो जात का बेटा ही।
पाँच बरस गुजर गए।  इस अरसे में गाँव में शायद ही कोई घर बचा हो जिस के दुःख दर्द में सुगन काम न आया हो।  वह रोगी की सेवा भगवान की सेवा मानता।  किसी के बीमार होने का पता लगता तो वह तुरन्त पहुँचता। उस के पहुँचते ही लोग विश्वास से भर जाते -लो सुगन जी आ गए अब चिन्ता किस बात की?
चम्पा ने सैकण्डरी पास कर ली। उस के जीवन में नया प्रकाश फूटने लगा था।  बोलने-चलने से उठने-बैठने तक उस का व्यवहार सब के लिए मिठास बाँटने लगा।  गाँव में स्त्रियों के लिए खिंची लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में जितना कर सकती थी लोगों के काम आती। रात के खाने-पीने से निपट कर अपने घर के बंगले में लड़कियों को इकट्ठा करती और उन्हें पढ़ाती।
सुगन पास के गाँव हाट में सामान लेने आया हुआ था। सूरज अस्ताचल को जाए उस से पहले ही काम निपटा कर उस ने अपने गाँव की राह पकड़ी। यूँ और लोग भी हाट से गाँव लौट रहे थे। लेकिन उस के बीस तीस कदम आगे पीछे कोई नहीं था, वह अकेला ही चल रहा था। आगे के तिराहे से उसे गाँव की ओर मुड़ना था। वहीं से रास्ता चम्पा के ससुराल की ओर निकलता था।  तिराहे से कुछ पहले एक पेड के पास दो व्यक्ति बैठे दिखे।  उस ने अनुमान किया कि हाट में थके होंगे तो विश्राम के लिए रुक गए होंगे। वह तो दिन बाद होने वाले स्कूल इंस्पेक्टर के गाँव आने की सूचना के बारे में  सोच रहा था।  पिछली बार जब डिप्टी इंस्पेक्टर जाँच करने आए तो हेड मास्टर ने चंपा के अलग से स्कूल चलाने से सरकारी स्कूल में लड़कियों की अनुपस्थिति बढ़ने की शिकायत की थी। लेकिन गाँव के लोगों ने चम्पा के स्कूल बहुत प्रशंसा की थी। तब डिप्टी साहब रात रुके और चम्पा का स्कूल चलाना देखा।  आज सुबह ही सूचना मिली थी कि खुद इंस्पेक्टर साहब आएंगे और चम्पा का स्कूल का भी देखेंगे। वह सोच रहा था कि चंपा के स्कूल में कुछ कार्यक्रम भी करना चाहिए। यदि इंस्पेक्टर को चंपा का स्कूल अच्छा लगा तो जरूर वे चंपा के स्कूल और उस के विद्यार्थियों को सरकारी मदद दिलवा देंगे। तभी सुगन के कानों में आवाज पड़ी।
-ये जाने वाला कौन है?
-सुगन मास्टर है। दूसरे ने जवाब दिया।
फिर दोनों सुगन के पीछे पगडंडी पर उतर आए। सुगन का ध्यान उधर न था। वह तो सोचता जा रहा था -कैसे चंपा के स्कूल में कार्यक्रम कराना होगा, स्वागत गान किस से कराएंगे कौन सी लड़कियों से गीत-कविताएँ प्रस्तुत कराना उचित होगा, कैसे सभा का संचालन होगा आदि आदि ...
तभी सुगन से जोर से सुना –ठहर जा रे¡ उस ने पीछे मुड़ कर देखा। दो अनजान जवान थे।
-क्या बात है? सुगन ने पूछा।
-सुगन है ना तू? एक ने डपट कर पूछा।
-हाँ, पर आप कौन हैं? सुगन ने पलट कर उन से पूछा।
-हम कौन हैं? अभी बताते हैं।  सुगन कुछ संभलता उस के पहले ही एक ने अपनी लाठी उस के माथे पर दे मारी। सुगन गिरा तो दोनों उसे लाठियों से मारते चले गए। आगे पीछे के लोग कुछ समझ कर उस तरफ आते उस से पहले ही दोनों उसे छोड़ कर भाग छूटे।
सुगन ने लाठी अपने सिर पर उठती देखी।  फिर खोपड़ी में पटाखे सा धमाका हुआ. आखों में पहले तेज रोशनी सी चमकी फिर अंधेरा छा गया।  पीछे क्या हुआ ये उसे नहीं पता। कितनी लाठियाँ उस के शरीर पर कहाँ पड़ीं? सब सपने जैसा लगा। पीछे उन दोनों में से कोई बोला था -मेरी सगी भावज को घर में डाल कर पूछता है कि तुम कौन हो? फिर डरावनी सी हँसी सुनाई दी थी।
सुगन की निद्रा टूटी तो उसे लगा उस का सिर किसी नरम तकिए पर है।  सोचा थोड़ा और सो लिया जाए। फिर याद आई कि इंस्पेक्टर साहब आएंगे। चम्पा चिन्ता में घुली होगी। फिर भी मन ने कहा कुछ देर और सो लेने से क्या बिगड़ेगा? अभी तैयारी को पूरा दिन पड़ा है। उस ने करवट बदलनी चाही। शरीर हिला तो  सिर में तेज दर्द की लहर दौड़ गई, कण्ठ से कराह फूट पड़ी। तभी गरम पानी की दो बूंदे उस के गाल पर गिरीं। ये कहाँ से आईं? देखने के लिए आँखें खोली। आँखों से आधे हाथ दूर चम्पा का चेहरा दिखा। इतने नजदीक से वह उसे पहली बार देख रहा था। सुगन के कण्ठ से बोल न फूटा। चम्पा की बरसती और सूजी आँखों से उसे रात की घटना याद आ गई। पर ये न समझ आया कि वह कहाँ है और यहाँ कैसे पहुँचा?  उस ने पूछना चाहा -मैं कहाँ हूँ?
दर्द और कराह के बीच मुहँ से पूरा वाक्य भी न निकल सका, आँखों से आँसू निकल पड़े। चंपा ने उस की उस की आँखें अपने लूगड़े के पल्ले से पोंछीं। उसे न बोलने का इशारा करते हुए धीमे से बोली – सब बता दूंगी।
सुगन ने आसपास निगाह दौड़ाई तो समझ में आया कि चंपा के सोने का कमरा है। उस का सिर चंपा की गोद में है। आसपास चंपा की माँ और सयानी उम्र की कुछ औरतें-आदमी बैठे हैं। उस के सिर पर पट्टी बंधी है, फिर भी उस का सिर फटा जा रहा है।  
एक आदमी दूसरे से कह रहा था – आगे ही आगे मैं था। मैं तो अचानक देखते ही हक्का-बक्का रह गया। डरते डरते नजदीक पहुँचा तो देखा “सुगन जी”। इतने में तुम आ गए ...
-आ क्या गया? वो तो बच्चे के ससुर जी मिल गए। उन के साथ तम्बाकू पीने में पीछे रह गया। नहीं तो तुम्हारे साथ ही था। दूसरे ने बात को पूरा किया।
-फिर तो लोग इकट्ठे हो गए।  पीछे सभी तो आ रहे थे। मगन जी ने खुद का साफा फाड़ा और जला कर घाव में ठूँसा। खून रुका तो बचे हुए साफे से सिर पर पट्टा बांधा। फिर कांधे-माथे उठा के ले आए। आधा कोस ही तो था।
सुगन ने फिर करवट लेने की कोशिश की। चम्पा की माँ पूछने लगी। आँखें खुली क्या बेटी? हल्दी, गुड़ दूध के साथ ओटा कर रखी है, लाउँ?
चंपा ने सिर हिला कर हाँ का इशारा किया। सहारा दे कर सब ने सुगन को बैठाया। ओटावा पिला कर सुगन को फिर लिटा दिया। चंपा की माँ ने सब से कहा- होश आ गया अब खतरे की कोई बात नहीं।  आप सब सारी रात से बैठे हो। अब  जा कर थोड़ा आराम भी कर लो। सुगन को फिर निद्रा आ गई। उसे आराम से सोता देख सब लोग बिछड़ गए।
अगले दिन इंस्पेक्टर साहब आए।  बंगले में चलता चंपा का स्कूल देखा।  बंगले बाहर के चौक में ही कार्यक्रम हुआ। सुगन को सिर पर पट्टी बांधे देख सब काम करते देखा। कार्यक्रम हुआ। लड़कियों को पुरस्कार भी दिए। सुगन और चंपा के गाँव की लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयासों की प्रशंसा भी की। सरकार की ओर से चंपा के स्कूल को हर महीने आर्थिक सहायता की घोषणा भी की। गाँव के सभी लोग खुश थे। सब काम से ठीक से हो जाने पर सुगन जाने लगा तो चंपा की माँ ने रोका। बोली - भोजन बन रहा है, कर के ही जाना। इस घर को अपना ही समझो। सुगन को रुकना पड़ा।
भोजन के  बाद सुगन घर जाने लगा तो चम्पा की माँ बोली –सुनो तो .....
सुगन जाते जाते ठिठक कर रुक गया।  लेकिन चम्पा की माँ चुप खड़ी रह गई।  सुगन ने ही मौन तोड़ा – कहो न, आप क्या कह रही थीं?
-अब क्या कहूँ?  मैं तो कहूँ अब तो दस्तूर .....।
-कैसा दस्तूर? मैं नहीं समझा। सुगन बात काट कर बोला।
-चंपा की माँ ने सिर से पल्लू कुछ और खींचा और मंद स्वरों से अटक अटक कर कहने लगी – गाँव की चार बायरों को बुला कर घर में लेने का दस्तूर हो जाता तो ...।
-सुगन मौन खड़ा रह गया। फिर होठों में ही बोला – माँ, साब¡ आप ने मुझे धरम संकट में डाल दिया।
-कैसा धरमसंकट?
-आप की बात मानूंगा तो लोग कहेंगे -आया जब से चम्पा पर डोरे डाल रहा था, अब घर में डाल कर ही माना।  और न मानूंगा तो आप की बात का अपमान कर बैठूंगा।  आप ही बताओ जो भी मैं ने किया इसलिए थोड़े ही किया?  मेरे मन में ऐसी बात कभी सपने में भी नहीं आई।
-अब आप की भावना कुछ भी रही हो।  पर जो कुछ आप ने चंपा के लिए किया।  कोई पराया थोड़े ही करता? आप के मन में चंपा के लिए अपनापन है .... और मैं तो कहूँ ये अपनापन सारे जीवन बना रहे।
-इस से क्या होगा? अपनापन तो वैसे भी बना ही रहेगा।
-इस से मेरे मन का बोझ उतर जाएगा। मैं चंपा का घर बसता देखना चाहती हूँ।
सुगन सोच में पड़ गया। वह क्या जवाब दे? फिर कुछ सोच कर बोला – चंपा से पूछा?
-चंपा से क्या पूछना? वह कौन होती है?
-पर फिर भी हर्जा क्या है?
चंपा किवाड़ के पीछे खड़ी दोनों की बातों पर कान लगाए थी।  वह कुछ कहना भी चाहती होगी पर उस ने नकली खाँसी खाँस कर अपनी उपस्थिति जताई।
सुगन ने लगभग हथियार डालते हुए कहा – फिर भी उस की इच्छा जाने बिना ...
सुगन की बात को बीच में ही काट कर चम्पा की माँ ने कड़ाई से बोली  –मर्दों की जात हम बायरों की भावना समझने लगे  तो सारे झगड़े ही नहीं रहें।  जमाना कितना बुरा है। अकेली विधवा आदमी के सहारे बिना कैसे जीवन काट सकेगी? और चंपा के लिए आप से ज्यादा अपना कोई नहीं।  अब मैं आप की कुछ न सुनूंगी।
जाते हुए कार्तिक की रात ठंडाने लगी थी। सुगन ने नीचा सिर कर के धीमे से कहा - आप को हुकुम...।
-जाओ अब सोवो। कह कर पटेलन धीरे धीरे औसारे की ओर मुड़ गई। जाते जाते कहती गई –चंपा¡ पानी का लोटा भर के रख लेना।
... प्यास लगे तो?  
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संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल- 09636403452

2 टिप्‍पणियां:

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सशक्त कहानी है, शुभकामनाएं.

रामराम.

Arvind Mishra ने कहा…

कहानी एक अलग ढंग से मगर प्रत्याशित अंत ही लिए है !