@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: न्याय की भ्रूण हत्या

गुरुवार, 10 मई 2012

न्याय की भ्रूण हत्या

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आमिर खान का टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ पहले ही एपीसोड से हिट हो जाने के बाद आमिर से मिलने की आतुरता प्रदर्शित की। आमिर इसी शो में पहले ही कह चुके थे कि वे राजस्थान सरकार को चिट्ठी लिखेंगे कि कन्या भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए राजस्थान में एक विशेष न्यायालय स्थापित करें, जिस से उन का निर्णय शीघ्र हो सके और गवाहों को अधिक परेशानी न हो। राजस्थान सरकार के एक अधिकारी ने यह भी कहा कि सरकार ने इस तरह के मामलों के लिए विशेष न्यायालय की स्थापना के लिए विचार किया है और जल्दी ही यह अदालत आरंभ की जा सकती है। कल शाम अभिनेता आमिर खान अशोक गहलोत से मिलने जयपुर पहुँचे और बाद में संयुक्त रूप से प्रेस से मिले गहलोत ने कहा कि वे ‘भ्रूण हत्या’ के मामलों के लिए विशेष न्यायालय खोलने की व्यवस्था कर रहे हैं इस के लिए उन्हों ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है।



निस्सन्देह राजस्थान सरकार ने इस मामले में त्वरित गति से अपनी रुचि दिखा कर अच्छा काम किया है। जब एक टीवी शो देश की हिन्दी भाषी जनता को पहली ही प्रस्तुति में भा गया हो तब उस से मिली प्रशंसा को भुनाना राजनीतिक चतुराई का अव्वल नमूना ही होगा। वैसे भी इस विशेष न्यायालय की स्थापना से व्यवस्था के किसी अंग को कोई चोट नहीं पहुँचने वाली है। बस कुछ चिकित्सकों की आसान कमाई रुक जाएगी, हो सकता है कुछ चिकित्सकों और उन के सहायकों को दंडित किया जा सके तथा पुरुष संतान चाहने वाले कुछ लोग कुछ परेशान हों जाएँ। लेकिन इस से किसी बड़े थैलीशाह के मुनाफे या राजनीतिज्ञ के राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला है। गहलोत सरकार को इस कदम से वाहवाही ही मिलनी है। स्वयं को राजस्थान का गांधी कहाने वाले इस राजनेता की न्यायप्रियता का डंका भी पीटा जा सकता है।  

लेकिन क्या गहलोत वास्तव में इतने ही न्याय प्रिय हैं? क्या उन के राजस्थान में जरूरत के माफिक अदालतें हैं? और क्या वे ठीक से काम कर रही हैं? राजस्थान में 2001 में जब गहलोत मुख्यमंत्री थे तब उन की सरकार ने राजस्थान किराया नियंत्रण अधिनियम 2001 पारित कराया था। उन के इस कदम को एक प्रगतिशील कदम कहा गया था। इस के द्वारा पुराने किराया नियंत्रण कानून को समाप्त कर दिया गया था जिस के अंतर्गत कोई भी राहत प्राप्त करने के लिए दीवानी दावा करना पड़ता था। इस अधिनियम के द्वारा किराया अधिकरण और अपील किराया अधिकरणों की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। जब इस अधिनियम को लागू करने और इन अधिकरणों को की स्थापना करने की स्थिति आई तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने उस के लिए भवन, साधन और पदों के सृजन की आवश्यकता बताई। जिस पर राजस्थान सरकार ने तुरंत असमर्थता व्यक्त की और राजस्थान सरकार के इस वायदे पर कि वह शीघ्र ही इन अधिकरणों के लिए भवनों, साधनों और पदों की व्यवस्था करेगी, लेकिन अभी तात्कालिक आवश्यकता के अधीन उस का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए। राजस्थान उच्च न्यायालय ने सरकार की बात मानते हुए कुछ वरिष्ठ खंड के अपर सिविल न्यायाधीश एवं अपर मुख्य न्यायाधीशों के न्यायालयों को जो कि पहले से अपराधिक और दीवानी मुकदमों की सुनवाई भी कर रहे थे किराया अधिकरणों की तथा जिला न्यायाधीशों को अपील किराया अधिकरणों की शक्तियाँ प्रदान कर दीं। इस उहापोह में किराया नियंत्रण कानून-2001 को 1 अप्रेल 2003 को ही लागू किया जा सका। उस के बाद आज नौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं राजस्थान में किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से एक भी अधिकरण या अपील अधिकरण स्थापित नहीं किया जा सका है।
राजस्थान में परिवार न्यायालय स्थापित हैं, लेकिन कुछ ही जिलों में। वहाँ भी मुकदमों की इतनी भरमार है कि एक वैवाहिक विवाद के निपटारे में चार-पाँच वर्ष लगना स्वाभाविक है वह भी तब जब कि इन न्यायालयों में वकीलों द्वारा पैरवी पर पाबंदी है। न्यायाधीश अपने हिसाब से न्यायालय चलाते हैं। अपने हिसाब से गवाहियाँ दर्ज करते हैं। न्यायार्थी गवाहों की प्रतिपरीक्षा करने में असमर्थ रहता है तो जज खुद दो चार प्रश्न पूछ कर इति श्री कर देते हैं। सचाई सामने खुल कर नहीं आती और इसी तरह के बनावटी सबूतों के आधार पर निर्णय पारित होते हैं। इन मुकदमों के निपटारे में लगने वाली देरी से अनेक दंपतियों की गृहस्थियाँ सदैव के लिए कुरबान हो जाती हैं। अनेक लोग जो शीघ्र तलाक मिलने पर अपनी नई गृहस्थी बसा सकते थे। मुकदमों के निर्णय होने की प्रतीक्षा में बूढ़े हो जाते हैं। इस का एक नतीजा यह भी हो रहा है कि वैवाहिक विवादों से ग्रस्त अनेक पुरुष चोरी छिपे इस तरह के विवाह कर लेते हैं जो अपराध हैं लेकिन जिन्हे साबित नहीं किया जा सकता। इस तरह पारिवारिक न्यायालयों की कमी एक ओर तो वैवाहिक अपराधों के लिए प्रेरणा बन रही है, दूसरी ओर परित्यक्ता स्त्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है।  

राजस्थान के प्रत्येक जिले में जिला उपभोक्ता अदालतें स्थापित है, जिन में एक न्यायाधीश के साथ दो सदस्य बैठते हैं। अक्सर इन दो सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है। न्यायाधीश के पद पर अक्सर किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका के अपने कार्यकाल में थके हुए ये न्यायाधीश उपभोक्ता न्यायालय के अपने कार्यकाल में सुस्त पड़ जाते हैं और इस पद को अपना विशेषाधिकार समझ कर केवल अधिकारों का उपभोग करते हैं। अनेक स्थानों पर न्यायाधीश नियुक्त ही नहीं हैं वहाँ सदस्य और न्यायालय के कर्मचारी बिना कोई काम किए वेतन उठाते रहते हैं। यदि किसी न्यायालय में सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाती है जो कि राजनैतिक कारणों से विलम्बित होती रहती है तो जज सहित न्यायालय के सभी कर्मचारी सरकारी वेतन पर पिकनिक मनाते रहते हैं और अदालत मुकदमों से लबालब हो जाती है। इन न्यायालयों में सेवा निवृत्त न्यायाधीशों के स्थान पर जिला न्यायालयों के वरिष्ठ वकीलों को भी नियुक्त किया जा सकता है और न्यायालय को सुचारु रूप से चलाया जा सकता है, लेकिन राजनीति उस में अड़चन बनी हुई है।

राजस्थान के हर जिले में कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त, वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्युटी अधिनियम आदि के अंतर्गत एक एक न्यायालय स्थापित है जिस में राजस्थान के श्रम विभाग के श्रम कल्याण अधिकारियों या उस से उच्च पद के अधिकारियों को पीठासीन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन सरकार के पास इतने सक्षम श्रम कल्याण अधिकारी ही नहीं है कि आधे न्यायालयों में भी उन की नियुक्ति की जा सके। जिस के कारण एक एक अधिकारी को दो या तीन न्यायालयों और कार्यालयों का काम देखना पड़ता है। वे एक जिला मुख्यालय से दूसरे जिला मुख्यालय तक सप्ताह में दो-तीन बार सफर करते हैं और अपना यात्रा भत्ता बनाते हैं। न्यायालय और कार्यालय सप्ताह में एक या दो दिन खुलते हैं बाकी दिन उन में ताले लटके नजर आते हैं क्यों कि कई कार्यालयों में लिपिक और चपरासी भी नहीं हैं जो कार्यालयों को नित्य खोल सकें। जो हैं, उन्हें भी अपने अधिकारी की तरह ही इधर से उधर की यात्रा करनी पड़ती है।

राजस्थान के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों का हाल इस से भी बुरा है। पुराने स्थापित श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों मे जो कर्मचारी नियुक्त किए गए थे वे रिटायर होते गए। नई नियुक्तियों के लिए वित्त विभाग स्वीकृति प्रदान नहीं करता। इस से सब न्यायालयों में स्टाफ की कमी होती गई। अनेक न्यायालयों में आधे भी कर्मचारी नहीं हैं। कंप्यूटरों और ऑनलाइन न्यायालयों के इस युग में राजस्थान के अनेक श्रम न्यायालयों में अभी भी तीस तीस साल पुराने टाइपराइटरों  को बार बार दुरुस्त करवा कर काम चलाया जा रहा है हालाँकि उन के मैकेनिक तक मिलना कठिन हो चला है। कुछ जिला और संभाग मुख्यालयों में नए श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए गए हैं वहाँ तीन-चार सौ मुकदमे निपटाने के लिए एक न्यायाधीश और पूरा स्टाफ नियुक्त है तो पुराने न्यायालयों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और स्टाफ जरूरत का आधा भी नहीं है।  श्रमिकों के मुकदमों के निपटारे में बीस से तीस साल तक लग रहे हैं जिस से मुकदमे का निर्णय होने के पहले ही अधिकांश श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है। कुछ स्थानों पर एक के स्थान पर तीन तीन न्यायालयों की आवश्यकता है लेकिन उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता है और जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ राजनैतिक तुष्टिकरण के आधार पर न्यायालय स्थापित कर दिये गए हैं। इन न्यायालयों में जहाँ समझदार जजों की नियुक्ति की आवश्यकता है वहाँ अक्षम और श्रम कानून से अनभिज्ञ न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है जिस का परिणाम यह हो रहा है कि हर मामले में निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट की जा रही है जिस से उच्च् न्यायालय का बोझ भी लगातार बढ़ रहा है। इस मामले में मामूली प्रबंधन की आवश्यकता है। लेकिन राजस्थान सरकार के लिए शायद कर्मचारियों के मामले उद्योगपतियों और सरकारी विभागों से अधिक महत्ता नहीं रखते। जनता समझती भी है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों को राजस्थान सरकार कचरे का डब्बा समझती है। शायद अशोक गहलोत भूल गए हैं कि राजस्थान के कर्मचारी ही एक बार उन्हें कचरे के डब्बे की यात्रा करवा चुके हैं।


हो सकता है स्वयं को राजस्थान का गांधी कहलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की घोषणा के अनुरूप भ्रूण हत्या के अपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालत कुछ सप्ताह में काम करना आरंभ कर दे और न्याय प्रिय कहलाए जाएँ लगें। लेकिन जहाँ रोज न्याय की भ्रूण हत्या हो रही हो वहाँ राजस्थान की जनता के लिए यह महज एक और चुटकुला होगा यदि वे राज्य सरकार द्वारा संचालित दूसरे न्यायालयों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं करते।

16 टिप्‍पणियां:

रचना ने कहा…

very informative i must say
and praising amir for a episode is like fan following it has nothing to do with the issue

Sunil Deepak ने कहा…

दिनेश जी, राजस्थान में न्याय व्यवस्था की बुरी स्थिति के इस विस्तृत वर्णन के लिए धन्यवाद. असली बात तो लोगों का मिल कर उठना और स्थिति को बदलने के लिए आवाज़ उठाना है, जब तक वह नहीं होगा, स्थिति को राजनीति वाले अपने आप नहीं बदलेंगे. और जनता में यह ज्ञान और बदलाव की भावना कैसे आयेगी?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

समस्या है, गम्भीर है और किसी एक दिन में नहीं उपजी है। आधार तैयार कर कार्य तुरन्त प्रारम्भ हो जाये। आपराधिक से अधिक सामाजिक सुधार आवश्यक हैं।

Satish Saxena ने कहा…

बढ़िया जानकारी के लिए आपका आभार भाई जी !

HAKEEM YUNUS KHAN ने कहा…

उम्दा पोस्ट .

Ayodhya Prasad ने कहा…

achchha laga...padhkar khushi hui..

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

चुटकुला कहा है आपने, इससे सहमति है।

आमिर की फैनबाज टीम से बाहर आकर कोई सोचने का कष्ट करना ही नहीं चाहता जल्दी। आपका संकेत कुछ उधर जाता है, बढिया लगा। राजस्थान के न्याय पर कुछ मालूम भी हुआ।

Gyan Darpan ने कहा…

बस मौके पर सस्ती वाह वाही लुट जा रही है होना कुछ भी नहीं है|
अशोक गहलोत से न्याय की उम्मीद ??
१-भंवरी देवी कैसे भी चरित्र वाली थी पर यदि अशोक गहलोत न्यायप्रिय होते तो आज वह जिन्दा होती|
२-राजेन्द्र राठौड़ भी अशोक गहलोत की न्यायप्रियता के बावजूद जातिवादी दुष्चक्र में फंस कर जेल में बैठे है|
और भी कई उदहारण है जो इस मारवाड़ के गाँधी की न्यायप्रियता दर्शाते है|

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

मनभावन लेख.

अजय कुमार झा ने कहा…

एक विधिवेत्ता के रूप में और इत्तेफ़ाकन राजस्थान से ही संबंधित होने के कारण इससे बेहतर और इतना विस्तृत कोई और नहीं लिख सकता था सर । आपकी किसी बात से कोई असहमति होने का प्रश्न ही नहीं उठता । कई बातें तो पढ के मैं खुद हैरान हूं कि राजधानी दिल्ली से इतने नज़दीक होते हुए भी अब तक तकनीक के प्रयोग के मामले में राजस्थान इतना मंथर गति रखे हुए है ।

लेकिन सर , मैं सिर्फ़ एक बात कह रहा हूं आमिर खान के इस कार्यक्रम व प्रस्तुति के लिए , यदि आमिर या इनके जैसा कोई और अभिनेता चाहता और चाहता क्या कर ही रहे हैं तो कोई भी और लटके झटके , ईनाम पहेली जैसा कार्यक्रम बखूबी कर सकता था , पैसा उसमें भी उन्हें मिलना ही था किंतु यदि एक धारावाहिक और धारावाहिक की प्रस्तुति से पूरे देश में कोई सामाजिक मुद्दा बहस का विषय बन जाता है , उस राज्य के प्रशासक भी उस पर कार्यवाही करने को मजबूर हो जाते हैं तो हमें उस प्रसारक , उस कार्यक्रम और उस अभिनेता/अभिनेत्री को निशाने पर लेने से बेहतर है कि अन्य सबको भी इसके लिए प्रेरित किया जाए ।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@ अजयकुमार झा
भाई!
आमिर खान ने अपने फ्रेमवर्क में रह कर जो किया है वह प्रशंसनीय है। इस से जनता में जागरूकता पैदा हुई है। सरकारों पर दबाव आया है। लेकिन सरकारें इस का भी लाभ लेना चाहती हैं। आमिर खान के साथ जुड़ कर उन्हें भी प्रचार मिलता है। फिर प्रचार से सब कुछ नहीं हो सकता। प्रचार के बाद लोगों में जाग्रति उत्पन्न होती है उस से लोग कार्य करने को प्रवृत्त होते हैं। प्रश्न यहीं पैदा होता है कि उस कार्य करने की प्रवृत्ति से कार्यकर्ता उत्पन्न हो और अनेक कार्यकर्ताओं के साथ से संगठन उत्पन्न हो। संगठन के लगातार कार्य करने के दौरान कार्यकर्ता तपते हैं और उसी ताप से नेतृत्व उत्पन्न होता है। उस दिशा में कार्य होना आवश्यक है। लेकिन जब गहलोत जैसे मुख्यमंत्री जुड़ते हैं तो उसे अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए भुनाने में देर नहीं करते। नतीजे के तौर पर ग्लेशियर से निकली निर्मल नदी एक नाले में मिल जाती है।
आमिर तो पहले ही कह चुके हैं कि वे तो केवल मुद्दे उठा सकते हैं। केवल मुद्दे तो पहले भी उठते रहे हैं। उन मुद्दों के आधार पर जनसंगठन खड़े होना और भविष्य की राजनैतिक शक्ति खड़ी होने की तैयारी करना मुख्य बात है। वर्ना निर्मल नदी को नाला तो होना ही है।

अजय कुमार झा ने कहा…

हां सर , टिप्पणी पर आपकी प्रतिक्रिया पढी । सच कह रहे हैं आप कि इस पूरे घटनाक्रम का एक पहलू ये भी है , किंतु सर यदि एक ऐसे एपिसोड से उन तमाम डाक्टरों को जो कि उस स्टिंग आपरेशन में बेशर्मी से कुकृत्य करते देखे जा रहे हैं , अगर सज़ा हो पाती है या कम से कम शिकायत करने वाले उन पत्रकारों को ये सहूलियत मिल जाती है कि वे एक ही अदालत में उपस्थित होकर गवाही दे सकें तो भी क्या ये कम सार्थक बात होगी । ये देश बहुत बडा है सर , लगभग सवा अरब की जनसंख्या से भी ज्यादा वाला कोई एक व्यक्ति , कोई एक कार्यक्रम , कोई एक मुद्दा , देश को समाज को नहीं बदल सकता लेकिन , छोटे छोटे प्रयासों को शुरू किया जाना और उन्हें समर्थन देना बहुत जरूरी है बिना इसकी परवाह किए कि उसके परिणाम , हानि लाभ क्या कितना होगा

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@अ़जयकुमार झा
बिलकुल मैं आप से सहमत हूँ। मेरा आग्रह तो यह है कि जो लोग राजनैतिक परिवर्तन की दिशा में सोचते हैं उन्हें भी इस अवसर पर काम करने के लिए आगे आना चाहिए। और इस अवसर को स्थापित राजनेताओं को भुनाने देने से बचना चाहिए।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

मेरा तो सुझाव है कि आप यह विवरण आमिरखान जी को भेजें और उनसे कहें कि कम से कम गहलोत आपकी बात सुन रहे हैं तो इस दिशा में भी कुछ कसावट लाने का काम करें।
याकि स्‍थानीय स्‍तर पर किसी चैनल पर इस दशा के बारे में विस्‍तार से बतियाया जाए।
आपकी यह बात भी सही है कि मुद्दे तो उठते हैं लेकिन उन्‍हें आगे ले जाने के लिए संगठनों को आगे आना होगा।

Arvind Mishra ने कहा…

न्याय पालिका और भारत में न्याय की विसंगतियां पहले दूर हो लें तब तो कोई आशा बने

विष्णु बैरागी ने कहा…

चूँकि आप वकालात के व्‍यवसाय में हैं और राजस्‍थान से हैं इसलिए आपने राजस्‍थान की वास्‍तविकता विस्‍तार से बता दी। किन्‍तु वास्‍तविकता तो यह है कि सारे प्रदेशों में यही दशा है। आपके बताए मुताबिक जो कुछ किया जाना चाहिए उसके लिए राजनीतिक और प्रशासकीय इच्‍छा-शक्ति चाहिए। यह किसी के पास नहीं है।