@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मार्च 2010

बुधवार, 31 मार्च 2010

एक लोक गायक का गीत राजस्थानी लोकवाद्य रावणहत्था के साथ

रावण हत्था राजस्थान का एक लोक वाद्य है जो बांस के एक तने पर नारियल के खोल, चमड़े की मँढ़ाई और तारों की सहायता से निर्मित किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान के पर्यटन स्थलों पर इस वाद्य को बजाने वाले आप को आम तौर पर मिल जाएंगे। लेकिन इस वाद्य की संगत में गाने वाला लोक गायक कभी अदालत में मुझ तक पहुँच जाएगा और हमें मंत्र मुग्ध कर देगा मैं ने ऐसा सोचा भी नहीं था।

पिछले वर्ष 30 मई को जब मैं कोटा जिला न्यायालय परिसर मैं अपने स्टाफ के साथ बैठा था तो वहाँ एक लोकगायक आया। यह लोक गायक अपने गीतों को राजस्थानी तार वाद्य रावणहत्था को बजाते हुए गाता था। उस ने दो-तीन गीत हमें सुनाए। एक गीत को मेरे कनिष्ट अभिभाषक रमेशचंद्र नायक ने अपने मोबाइल पर रेकॉर्ड कर लिया था। आज उस गीत को फुरसत में मेरे दूसरे कनिष्ट नंदलाल शर्मा मोबाइल पर सुन रहे थे। मुझे भी आज वह गीत अच्छा लगा। मैं उसे रिकॉर्ड कर लाया। यह गायक जिस का नाम मेरी स्मृति के अनुसार बाबूलाल था और वह राजस्थान के कोटा, सवाईमाधोपुर व बाराँ जिलों के सीमावर्ती मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के किसी गाँव से आया था। 
हाँ वही रिकॉर्डिंग प्रस्तुत है। इसे आप-स्निप से डाउनलोड कर सुन सकते हैं। साथ में प्रस्तुत हैं यू-ट्यूब खोजे गए रावण हत्था के दो वीडियो। 

Rawanhattha
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सोमवार, 29 मार्च 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप को शीघ्र ही कानून के दायरे में लाना ही होगा

नवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं  ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में  शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं?  इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम  से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात  भी स्पष्ट हो गई है  कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह  है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है।  अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
म इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है। 
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं?  इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों  को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।

रविवार, 28 मार्च 2010

दुष्यंत और शंकुन्तला के बीच कौन सा संबंध था?

हाभारत संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण महाकाव्य (धर्मग्रंथ नहीं)। हालांकि महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथ का स्थान ग्रहण कर चुकी श्रीमद्भगवद्गीता इसी महाकाव्य का एक भाग है। महाभारत बहुत सी कथाओं से भरा पड़ा है। इन्हीं में एक कथा आप सभी को अवश्य स्मरण होगी। यदि नहीं तो आप यहाँ इसे पढ़ कर अपनी स्मृति को ताजा कर कर लें .....
"हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गये। उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। ऋषि के दर्शन के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मैं मेनका और विश्वामित्र क पुत्री हूँ। मेरी माता ने मुझे जन्मते ही वन में छोड़ दिया था जहाँ शकुन्त  पक्षी ने मेरी रक्षा की। बाद में ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी तो वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
कुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। 
क दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना की और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
हाराज दुष्यंत और शकुन्तला के इस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ति कथाः।  क्या यह गंधर्व विवाह "लिव-इन-रिलेशनशिप" नहीं है? यदि है, तो उसे कोसा क्यों जा रहा है? आखिर हमारे देश का नाम उसी संबंध से उत्पन्न व्यक्ति के नाम पर पड़ा है। कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति को 'लिव-इन-रिलेशनशिप' से खतरा है?

शनिवार, 27 मार्च 2010

इस हत्या के हत्यारे को सजा कैसे हो? और क्या हो?

कोटा में जिला अदालत नयापुरा क्षेत्र में स्थित है। यहाँ नीचे पीली रेखाओं के बीच जिला अदालत कोटा का परिसर दिखाई दे रहा है। किसी को भी इस क्षेत्र की हरियाली देख कर ईर्ष्या हो सकती है। लेकिन अब यह परिसर आवश्यकता से बहुत अधिक छोटा पड़ रहा है। इतना अधिक कि अब तक या तो निकट के किसी परिसर को इस में सम्मिलित कर के इस का विस्तार कर दिया जाना चाहिए था। या फिर जिला अदालत के लिए किसी रिक्त भूमि पर नया परिसर बना दिया जाना चाहिए था। लेकिन अभी सरकार इस पर कोई विचार नहीं कर रही है। शायद वह यह निर्णय तब ले जब इस परिसर में अदालतें संचालित करना बिलकुल ही असंभव हो जाए।   

कोटा जिला अदालत परिसर का उपग्रह चित्र
धिक अदालतों के लिए अधिक इमारतों की आवश्यकता के चलते इस परिसर में अब कोई स्थान ऐसा नहीं बचा है जिस में और इमारतें बनाई जाएँ। यही कारण है कि कुछ अदालतें सड़क पार पश्चिम में कलेक्टरी परिसर में चल रही हैं तो कुछ अदालतों के लिए निकट ही किराए के भवन लिए जा चुके हैं। परिसर में वाहन पार्किंग के लिए बहुत कम स्थान है, जिस का नतीजा यह है कि अदालत आने वाले आधे से अधिक वाहन बाहर सड़क पर पार्क करने पड़ते हैं। मुझे स्वयं को अपनी कार सड़क के किनारे पार्क करनी पड़ती है। इस परिसर में पहले एक इमारत से दूसरी तक जाने के लिए सड़कें थीं और शेष खुली भूमि। लेकिन बरसात के समय यह खुली कच्ची भूमि में पानी भर जाया करता था और मिट्टी पैरों पर चिपकने लगती थी। इस कारण से परिसर में जितनी भी खुली भूमि थी उस में कंक्रीट बिछा दिया गया। केवल जिला जज की इमारत के सामने और सड़क के बीच एक पार्क में कच्ची भूंमि शेष रह गई। लोगों को चलने फिरने में आराम हो गया। 
सूखा हुआ नीम वृक्ष
कंक्रीट बिछाने पर हुआ यह कि जहाँ जहाँ वृक्ष थे उन के तने कंक्रीट से घिर गए। इस वर्ष देखने को मिला कि अचानक एक जवान नीम का वृक्ष खड़ा खड़ा पूरा सूख गया। सभी को आश्रर्य हुआ कि एक जवान हरा भरा वृक्ष कैसे सूख गया। मै ने कल पास जा कर उस का अवलोकन किया तो देखा कि वृक्ष के तने को अपनी मोटाई बढ़ाने के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं रहा है। होता यह है कि वृक्षों को जड़ों से पोषण पहुँचाने वाला तने पुराना क्षेत्र जो वलय के रूप में होता  है वह अवरुद्ध हो जाता है और हर वर्ष एक नया वलय तने की बाहरी सतह की ओर बनता है जो पुराने वलय के स्थान पर वृक्ष को जड़ों से पोषण पहुँचाता है। लेकिन इस नीम के वृक्ष का तना सीमेंट कंक्रीट बिछा दिए जाने के कारण अपने नए वलय का निर्माण नहीं कर पाया और वृक्ष को मिलने वाला पोषण मिलना बंद हो गया। वृक्ष को भूमि से जल व पोषण नहीं मिलने से वह सूख गया। असमय ही एक वृक्ष मृत्यु के मुख में चला गया। 
कंक्रीट से घिरा तना
 इस .युग में जब धरती पर से वृक्ष वैसे ही कम हो रहे हैं। इस तरह की लापरवाही से वृक्ष की जो असमय मृत्यु हुई है वह किसी मनुष्य की हत्या से भी बड़ा अपराध है। यदि कंक्रीट बिछाने वाले मजदूरों, मिस्त्रियों और इंजिनियरों ने जरा भी ध्यान रखा होता और वृक्ष के तने के आस-पास चार-छह इंच का स्थान खाली छोड़ दिया जाता तो यह वृक्ष अभी अनेक वर्ष जीवित रह सकता था। जीवित रहते वह सब को छाया प्रदान करता, ऑक्सीजन देता रहता। कंक्रीट बिछाने का काम राज्य के पीडब्लूडी विभाग ने किया था। कागजों में खोजने से यह भी पता लग जाएगा कि यहाँ कंक्रीट बिछाने का काम किस इंजिनियर की देख-रेख मे हुआ था। लेकिन इतना होने पर भी किसी को इस वृक्ष की हत्या के लिए दोषी न ठहराया जाएगा। यदि ठहरा भी दिया जाए तो उसे कोई दंड भले ही दे दिया जाए, लेकिन इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस तरह की लापरवाही से कोई वृक्ष नहीं मरेगा। इस के लिए तो मनुष्यों में वृक्षों के लिए प्रेम जागृत करना होगा। जिस से लोग अपने आस पास वृक्षों के लिए उत्पन्न  होने वाले खतरों पर निगाह रखें और कोई वृक्ष मृत्यु को प्राप्त हो उस से पहले ही उस विपत्ति को दूर कर दिया जाए।
मेरे घर के सामने भी मेरे लगाए हुए दो वृक्ष हैं एक नीम का और एक कचनार का। यहाँ भी कंक्रीट बिछाया गया था। लेकिन मोहल्ले में रहने वाले और स्वैच्छा से सामने के पार्क की देखभाल रखने वाले रामधन मीणा जी ने मुझे बताया कि इन वृक्षों के आस पास के कंक्रीट के तोड़ कर स्थान बनाना चाहिए अन्यथा यह सूख जाएंगे। हमने ऐसा ही किया और वे वृक्ष बच गए। अदालत में भी वृक्षों पर किसी का ध्यान रहा होता तो मरने वाला वृक्ष बचाया जा सकता था।

जुगाड़ बंद, जुगाड़ चालू, जुगाड़ ही जुगाड़

राजस्थान के कोटा संभाग के झालावाड़ जिले के मदर इंडिया एसटीसी बीएड कॉलेज के छात्र-छात्राएँ  विशेष बस से शैक्षणिक यात्रा पर थे। 14 मार्च को जब बस सवाई माधोपुर जिले में सूखी मोरेल नदी के पुल से गुजर रही थी तो अचानक एक जुगाड़ सामने आ गया। टक्कर बचाने के लिए बस चालक ने जो कुछ भी युक्ति की वह नहीं चली और बस पुल से सूखी नदी में गिर पड़ी। इस दुर्घटना मे कुल 30 मौतें हुई। मरने वाले सभी 20 से 25 वर्ष की उम्र के नौजवान लड़के लड़कियाँ थे। बहुत दुखद घटना थी। पूरे संभाग में एक दम मातम छा गया। ऐसा लगता था कि हर मोहल्ले में मरने वाले का कोई न कोई रिश्तेदार मौजूद था। नौजवानों की मृत्यु ने लोगों पर गहरा प्रभाव डाला।
सारा गुनाह जुगाड़ पर धऱ दिया गया। सबसे पहले असर हुआ दुर्घटना के जिले सवाई माधोपुर के पुलिस अधीक्षक पर उन्हों ने आनन फानन कलेक्ट्रेट में जिले के सब विभागों के अधिकारियों की बैठक बुला कर घोषणा कर दी कि वे जिले की सड़कों पर जुगाड़ नहीं चलने देंगे और ट्रेफिक को सुधार डालेंगे। अब तक आराम से चल रहे जुगाड़ों की शामत आ गई। सारे अखबार उन पर टूट पड़े। विधान सभा चल रही थी तो बात वहाँ तक पहुँची और बाद में हाईकोर्ट भी। हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने स्वप्रेरणा से इस घटना पर जुगाड़ों के खिलाफ प्रसंज्ञान ले कर गाँवों की मारूति के खिलाफ आदेश दिया कि जुगाड़ अवैध है और सरकार इन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही है, उसे इस का जवाब चार हफ्तों में देना होगा। अखबारों ने खबरें छापी -चार हफ्ते में तय हो जाएगा जुगाड़ों का भविष्य,  थानों के सामने दौड़ रहे हैं जुगाड़, आदेश आते ही बंद हुए जुगाड़ आदि आदि।
जैसे ही हाईकोर्ट ने आदेश पारित किया सरकार की निद्रा भंग हो गई उस ने भी आदेश की पालना में आदेश जारी किया -जुगाड़ देखते ही जब्त कर लिया जाए। अखबारों ने सड़कों का जायजा लिया और दो दिन बाद खबर छापी -अब भी चल रहे हैं जुगाड़। अब तक जुगाड़ के मालिक और चालक चुप थे। आखिर उन पर भारी आरोप जो था। अब जब उन की रोजी-रोटी पर संकट आया तो वे उठ खड़े हुए। उन्होंने मीटिंग की और संगठित होने की ठान ली। उन्हों ने जुगाड़ों का रजिस्ट्रेशन कर संचालन फिर से शुरू कराए जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर डाला। उधर राज्य परिवहन आयुक्त जुगाड़ों और ओवरलोड वाहनों को जब्त करने के आदेश देते रहे। इधर अखबार कहते रहे -नहीं रुक रहे हैं जुगा़ड़ और ओवरलोड वाहन।
धर जुगाड़ वालों ने पुलिस के डर से फिलहाल जुगाड़ चलाना बंद कर दिया। किसानों और ग्रामीणों को परेशानी आने लगी। वे भी प्रदर्शन पर उतर आए। स्थान स्थान पर वे प्रदर्शन कर मांग करने लगे कि जुगाड़ को बंद नहीं किया जाए। बात फिर विधानसभा में पहुँच गई। सवाल उठा तो गृह मंत्री ने कहा कि गांवों में जुगाड़ बंद नहीं किए जाएंगे। नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे पर जुगाड़ों को नहीं चलने दिया जाएगा। गाँव वाले आश्वासन पर कैसे भरोसा करते वे इधर जुगाड़ को बचाने में महापड़ाव आयोजित कर रहे हैं।

ह जुगाड़ एक-दम नहीं पैदा हो गया। कहते हैं राजस्थान में इस वक्त एक लाख से भी अधिक जुगाड़ हैं। मोटर व्हीकल एक्ट के होते हुए भी सामान्य मिस्त्रियों द्वारा बनाए गए बिना किसी पंजीयन के जुगाड़ों की संख्या इतनी यूँ ही नहीं पहुंच गई। सरकारी मशीनरी, पुलिस और परिवहन विभाग इतने दिन क्यों चुप बैठी रहे? जवाब सीधा है जो लोग जुगाड़ से जुगाड़ बना सकते हैं वे यह जुगाड़ भी कर सकते हैं। जब जुगाड़ स्कूल बस बन सकते हों तो बंद कैसे हो सकते हैं?  अब तो कोई मार्ग ही शेष नहीं रहा है जुगाड़ों को बंद करने का। कुल मिला कर जुगाड़ों को किसी तरह नियमन करने का जुगाड़ करना होगा। यह कैसे होगा? इस का भी कोई न कोई जुगाड़ तो बनेगा ही।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं -महेन्द्र नेह

वे सूरतें इलाही किस देश बसतियाँ हैं,
अब जिनके देखने को आँखें तरसतियाँ हैं*

*यह मीर तकी 'मीर' का वह मशहूर शैर है जो अक्सर शहीद भगतसिंह और उन के साथियों के होठों पर रहा करता था। इस शैर में अवाम का खास सवाल छुपा है....

न अमर शहीदों भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव के 79वें बलिदान दिवस पर उन का स्मरण करते हुए उस सवाल के जवाब दे रहे हैं महेन्द्र नेह उसी जमीन पर लिखे गए शैरों की इस ग़ज़ल से.....

आप पढ़िए.....
वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं
  • महेन्द्र नेह


वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं
लाखों दिलों के अरमाँ बनके धड़कतियाँ हैं

जो रात-रात जगतीं, बेचैनियों में जीतीं
तारों सी दमकतीं जों, गुल सी महकतियाँ हैं

घनघोर अँधेरों का आतंक तोड़ने को
हाथो में ले मशालें, घर से निकलतियाँ हैं

इंसानियत के हक़ में, आज़ादियों की ख़ातिर
फाँसी के तख़्त पर भी, खुल के विंहसतियाँ हैं

जिनके लहू से रौशन, कुर्बानियों की राहें
इतिहास के रुखों को, वे ही पलटतियाँ हैं

आओ कि आ भी जाओ, फिर से उठायें परचम
हमसे करोड़ों आँखें, उम्मीद रखतियाँ हैं



काम का प्रतिफल मिलने की खुशी

निवार को मैं एक थकान भरी व्यवसायिक यात्रा से लौटा था। उस दिन अदालत में कोई काम न था। सिवाय एक मुकदमे में अगली पेशी नोट करने के। जिस अदालत में यह मुकदमा चल रहा है वहाँ की महिला जज प्रसूती अवकाश पर हैं जो छह माह का हो सकता है। इस कारण उस अदालत का कामकाज बंद है, जो मुकदमे रोज कार्यसूची में हैं उन में केवल पेशी बदल दी जाती है। यदि कोई आवश्यक काम हो तो संबंधित मुकदमे की पत्रावली लिंक जज के पास जाती है और वह उस में आदेश पारित कर देता है। जब तक जज साहिबा अवकाश से वापस लौट कर नहीं आ जाती हैं काम ऐसे ही चलता रहेगा और उन का आना तो  जुलाई तक ही हो पाएगा। 
वैसे सैंकड़ों कारखाने हैं जिन के संयंत्र अनवरत चौबीसों घंटे, बारहों माह चलते हैं, भारतीय रेलवे के तमाम स्टेशन चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, पुलिस थाने और अस्पताल भी चौबीसों घंटे चालू रहते हैं, चौबीसों घंटे लोग बीमार होते हैं, मरते हैं और जन्म लेते हैं। अपराधी चौबीसों घंटे अपराध करते हैं और पकड़े जाते है। बहुत से काम हैं चौबीसों घंटे होते हैं। उन के लिए व्यवस्थाएँ हम करते हैं। इन कामों में संलग्न लोग भी अवकाशों पर जाते हैं लेकिन फिर भी काम चलते रहते हैं। लेकिन न्याय प्रणाली की स्थिति कुछ और है। यहाँ जितनी अदालतें हैं उतने जज नहीं हैं। बहुत सी अदालतें हमेशा खाली पड़ी रहती हैं। इन के आंकड़े भी बताए जा सकते हैं। लेकिन उस का कोई लाभ नहीं आज कल ये आंकड़े खुद हमारे जज विभिन्न समारोहों के दौरान बताते हैं। तो जब अदालतें जजों के अभाव से खाली पड़ी रहती हैं तो फिर यह तो हो ही नहीं सकता कि जब कोई जज अवकाश पर चला जाए तो उस का एवजी काम करने के लिए कोई जज उपलब्ध हो सके। होना तो यह चाहिए कि जितनी अदालतें हैं। उन के हिसाब से हमारे पास कुछ अधिक जज हों जिन्हें किसी नियमित जज के दो दिन से अधिक के अवकाश पर जाने पर उस से रिक्त हुए न्यायालय में लगाया जा सके। पर पहले जज उतने तो हों जितनी अदालतें हैं। खैर!
मैं शनिवार को अदालत नहीं गया। पेशी नोट करने के लिए मेरे कनिष्ठ नंदलाल शर्मा वहाँ थे। मैं ने अपना दफ्तर संभाला तो वहाँ बहुत काम पड़ा था। दिन भर काम करता रहा। शाम को पता लगा कि एक मुकदमे में जिस में पिछले दिनों बहस हो चुकी थी और सोमवार को निर्णय होना था वादी और प्रतिवादी संख्या 1 व 2 ने अपनी बहस को लिखित में भी पेश किया है। हमारी मुवक्किल का भी कहना था कि हमें भी पीछे नहीं रहना चाहिए और अपनी बहस जो की गई है वह लिखित में प्रस्तुत कर देनी चाहिए। मैं भी उन से सहमत था। मैं उस काम में जुट गया। पूरे मुकदमे की फाइल दुबारा से देखनी पड़ी। 
विवार को सुबह स्नानादि से निवृत्त हो कर जल्दी काम करने बैठा और सोमवार की कार्य सूची देखी तो पता लगा कि अट्ठाईस मुकदमे सुनवाई में लगे हैं। मैं उन्हें देखने बैठ गया जिस से मुझे किसी अदालत को यह न कहना पड़े कि मैं उस में काम नहीं कर सकूंगा। हालांकि मैं जानता था कि इतने मुकदमों में से भी शायद तीन-चार में ही काम हो सके। मैं आधी पत्रावलियाँ भी न देख सका था कि एक नए मुवक्किल ने दफ्तर में प्रवेश किया। पारिवारिक संपत्ति का मामला था। भाइयों में पिता की छोड़ी हुई संपत्ति पर कब्जे का शीत युद्ध चल रहा था। इस बीच हर कोई अपने लिए अपना शेयर बचाने और बढ़ाने में जुटा था। मैं ने उन्हें उचित सलाह दी। लेकिन उस में बहुत परिश्रम और भाग-दौड़ थी। उन की राय थी कि कुछ दस्तावेज आज ही तैयार कर लिये जाएँ। मैं ने भी मामले की गंभीरता को देख सब काम छोड़ कर वह काम करना उचित समझा। चार घंटे वह मुवक्किल ले गया। उस का काम निबट जाने पर मैं बहस लिखने बैठा।
दालत में मौखिक बहस करना आसान है, बनिस्पत इस के कि उसे लिख कर दिया जाए।  एक ईमानदार और प्रोफेशनल बहस को प्रस्तावित निर्णय की तरह होना चाहिए। केवल इतना अंतर होना चाहिए कि यदि जज केवल  आप की प्रार्थना को निर्णय के अंत में दिए जाने वाले आदेश में बदल सके।  बहस लिखने में इतनी रात हो गई कि तारीख बदल गई। इस बीच अंतर्जाल की तरफ नजर तक उठाने का समय न मिला। दफ्तर से उठने के पहले मेल देखा, वहाँ कुछ जरूरी संदेश थे। कुछ का उत्तर दिया। ब्लाग पर कुछ पोस्टें पढ़ीं, कुछ पर टिपियाया और फिर सोने चल दिया। रात दो बजे सोने के बाद सुबह सात बजे तक तो सो कर उठना संभव नहीं था।
सोमवार सुबह उठते ही फिर से दफ्तर संभाला वहीं सुबह की कॉफी पी गई। रात को लिखी गई बहस को एक बार देखा और अंतिम रूप दे कर उस का प्रिंट निकाला। अदालत की पत्रावलियों पर एक निगाह डाली। तैयार हो कर अदालत पहुँचा तो बारह बज रहे थे। सब से पहले तो अदालत जा कर लिखित बहस जज साहब को पेश करनी थी। हालांकि यह दिन निर्णय के लिए मुकर्रर था। मैं ने जज साहब से पूरी विनम्रता से कहा कि पहले प्रतिवादी सं. 1 व 2 बहस लिखित में प्रस्तुत कर चुके हैं और वादी ने भी शनिवार को ऐसा ही किया। मैं प्रतिवादी सं. 3 का वकील हूँ। मेरी मुवक्किला का भविष्य इस मुकदमे से तय होना है इस लिए मैं भी संक्षेप में अदालत के सामने की गई अपनी बहस को लिख लाया हूँ। इसे भी देख लिया जाए। जज साहब झुंझला उठे, जो स्वाभाविक था, उन्हें उसी दिन निर्णय देना था और अभी लिखित बहस दी जा रही थी। उन्हों ने कहा कि भाई दो पक्षकार लिखित बहस दे चुके हैं आप भी रख जाइए।
मैं वहाँ से निकल कर अपने काम में लगा। एक अदालत में जज साहब स्वास्थ्य के कारणों से अवकाश पर चले गए थे। मुझे सुविधा हुई कि मेरा काम एकदम कम हो गया। काम करते हुए चार बज गए। जिस अदालत में लिखित बहस दी गई थी वहाँ का हाल पता किया तो जानकारी मिली कि जज साहब सुबह से उसी मुकदमे में फैसला लिखाने बैठे हैं। मैं अपने सब काम निपटा चुका तो शाम के पाँच बजने में सिर्फ पाँच मिनट शेष थे। लगता था कि अब निर्णय अगले दिन होगा। कुछ मित्र मिल गए तो शाम की कॉफी पीने बैठ गए। इसी बीच हमारी मुवक्किल का फोन आ गया कि मुकदमे में क्या निर्णय हुआ। वे दिन में पहले भी तीन बार फोन कर चुकी थीं। मैं ने उन्हें बताया कि आज निर्णय सुनाने की कम ही संभावना है। शायद कल सुबह ही सुनने को मिले। काफी पी कर मैं एक बार फिर अदालत की ओर गया तो वहाँ उसी मुकदमे में पुकार लग रही थी जिस में निर्णय देना था। मैं वहाँ पहुँचा तो पक्षकारों की ओर से मेरे सिवा कोई नहीं था। शायद लोग यह सोच कर जा चुके थे कि निर्णय अब कल ही होगा। जज की कुर्सी खाली थी। कुछ ही देर में जज साहब अपने कक्ष से निकले और इजलास में आ कर बैठे। मुझे देख कर पूछा आप उसी मुकदमे में हैं न? मैं ने कहा -मैं प्रतिवादी सं.3 का वकील हूँ। जज साहब ने फैसला सुनाया कि दावा निरस्त कर दिया गया है। हमारे साथ न्याय हुआ था। फैसले ने लगातार काम से उत्पन्न थकान को एक दम काफूर कर दिया।
म मुकदमा जीत चुके थे। मैं ने राहत महसूस की, अदालत का आभार व्यक्त किया और बाहर आ कर सब से पहले अपनी मुवक्किल को फोन कर के बताया कि  वे मिठाई तैयार रखें। मुवक्किल प्रतिक्रिया को सुन कर मैं अनुमान कर रहा था कि उसे कितनी खुशी हुई होगी। इस मुकदमे में उस के जीवन की सारी बचत दाँव पर लगी थी और वह उसे खोने से बच गयी थी। इस मुकदमे को निपटने में छह वर्ष लगे। वे भी इस कारण कि वादी को निर्णय की जल्दी थी और हम भी निर्णय शीघ्र चाहते थे। खुश किस्मती यह थी कि केंद्र सरकार द्वारा फौजदारी मुकदमों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक अदालतें स्थापित कर दिए जाने से जिला जज और अतिरिक्त जिला जजों को दीवानी काम निपटाने की फुरसत मिलने लगी थी। मैं सोच रहा था कि काश यह निर्णय छह वर्ष के स्थान पर दो ही वर्ष में होने लगें तो लोगों को बहुत राहत मिले। साथ ही देश में न्याय के प्रति फिर से नागरिकों में एक आश्वस्ति भाव उत्पन्न हो सके।

शनिवार, 20 मार्च 2010

पलाश और सेमल के बीच एक और यात्रा .....

ल सुबह साढ़े चार की बस पकड़नी थी, तो रात साढ़े दस बिस्तर पर चला गया और तुरंत नींद भी आ गई। बीच में आँख खुली तो सिर्फ डेढ़ बजे थे। मैं घड़ी देख फिर सो लिया। तीन बजे अलार्म की मधुर आवाज ने जगाया। अलार्म ने शोभा को भी जगा दिया था। मैं ने इंटरनेट चालू किया मेल देखे। इस बीच कॉफी तैयार थी। मैं निपटने चला गया। ठीक साढ़े चार बजे बस स्टॉप पर था। पौने पाँच बस चली। रास्ते में झालावाड़ से मेरे मुवक्किल माथुर साहब चढ़े। बातें करते-करते हम आगर पहुँचे, तो सवा दस हो चुके थे। तुरंत शाजापुर की बस मिल गई। हम उस में बैठ लिए। कोटा से झालावाड़ के बीच दरा का जंगल पड़ता है। लेकिन  बस वहाँ से निकली तब सुबह हुई ही थी। झालावाड़ निकलने के बीच बीच में वन-क्षेत्र आते रहे। इन दिनों वन में पलाश खूब फूल रहा है। पलाश के तमाम पत्ते सूख कर झड़ चुके हैं और वह फूलों से लदा पूरी तरह केसरिया नजर आ रहा है। सड़क से दूर मैदान के पार आठ-दस पेड़ दिखाई दे जाते हैं, धूप इन दिनों तेज पड़ रही है धरती गर्म हो रही है, धरती को छू कर हवा गर्म होती है और ऊपर को उठती है तो लगता है इन पलाशों आग लगी है और लौ आकाश की और उठ रही है। कहीं कहीं सेमल भी दिखाई दिए, बिना पत्तों के अपने सुर्ख फूलों के साथ जैसे दुलहन विवाह के लिए सजी खड़ी हो। कुछ दिनों में ही ये खूबसूरत फूल अपना काम कर फलों में बदल जाएंगे और फिर उन फलों से बीजों के साथ रेशमी रुई झड़ने लगेगी। मुझे कहीं कहीं अमलतास भी दिखाई दिए, वे बिलकुल हरे थे। कुछ दिनों में उन की भी यही हालत होनी है। पत्ते झड़ते ही अमलतास पूरी तरह पीला हो जाने वाला था।  मैं सोच रहा था प्रकृति किस तरह प्रतिदिन नया श्रंगार करती है।
 
र्मेंन्द्र टूर एण्ड ट्रेवल्स की यह बस छोटी थी, लेकिन बहुत सजी धजी। उस में एक टीवी लगा था जिस पर वीसीडी से फिल्मी गाने दिखाए  जा रहे थे। सब गाने साठ से अस्सी के दशक के थे और वे ही  मालवा के इस ग्रामीण क्षेत्र के पसंदीदा बने हुए थे। एक बार फिर धूपेड़ा में जा कर रुकी। इस बार दोपहर का समय था। परकोटे के अंदर बसा लोहे के कारीगरों का गांव। इस बार मैं ने ग्राम द्वार के चित्र लिए। गांव अब परकोटे के अंदर नहीं रह गया है। बाहर भी बहुत घर बन गए हैं। विशेष रूप से पंचायत घर और लड़कों और लड़कियों के अलग  अलग उच्च माध्यमिक विद्यालय और भी बहुत सी सरकारी इमारतें वहाँ बनी हैं। इस से लगता है कि गांव प्रगति पर है। एक कॉफी वहाँ पी कुछ ही देर में बस फिर चल दी। साढ़े बारह बजे हम शाजापुर की जिला अदालत में थे। जज ने मुकदमे में पिछली पेशी पर राजीनामे का सुझाव दिया था। हमने विपक्षी वकील से बात की थी, लेकिन विपक्षी यह जानते हुए भी कि उस का दावा पूरी तरह फर्जी है। जमीन जो कभी उस की थी ही नहीं उस के दाम बाजार मूल्य से मांग रहा था। माथुर साहब को यह सब स्वीकार नहीं था। आखिर जज साहब को कहा कि समझौता संभव नहीं है। जज साहब ने बहस सुन ली और निर्णय के लिए एक अप्रेल की तारीख दे दी। हम तुरंत ही बस स्टेंड आ गए। 

गर के लिए सीधी बस नहीं थी। हम सारंगपुर गए और वहाँ से आगर पहुंचे तो रात के सवा आठ बज चुके थे। कोटा के लिए बस नौ बजे आनी थी। दिन भर की थकान से भूख जोरों से लग आई थी।  हमारी  आँखें भोजनालय  की तलाश में थी कि माथुर साहब को ठंडाई की दुकान दिख गई। फिर क्या था? विजया मिश्रित ठंडाई पी गई। फिर भोजनालय पर गए। भोजनालय वाले ने बहुत सारी सब्जियों के नाम गिना दिए। मैं ने पूछा -बिना लहसुन मिलेंगी? तो उस का जवाब  था -बिना लहसुन केवल दाल होगी। हमने दाल-रोटी धनिए की चटनी से खाई पेट पर हाथ फेरते हुए वहाँ से निकले। बस की प्रतीक्षा में पान भी खा लिया गया। बस आई तो एक सीट पर हमने बैग रख दिए, वह हमारी हो गई। तभी माथुर साहब उतरे और गायब हो गए। तब तक विजया असर दिखाने लगी थी। मुझे शंका हुई कि कहीं माथुर साहब रास्ता न भूल जाएँ। मैं ने उन्हें तलाशा लेकिन वे नहीं मिले। मैं उन्हें तलाश करते हुए लघुशंका से निवृत्त हो आया।
 वापस लौटा तो माथुर साहब वापस आ चुके थे। मुझे तसल्ली हुई कि वे विजया के असर के बावजूद लौट आए हैं। बस चली तो हमें नींद आ गई। रात साढ़े बारह पर माथुर साहब झालावाड़ में उतर लिए। अब बस में सीटों से चौथाई भी सवारी नहीं रह गई थी। मैं तीन लोगों के बैठने वाली सीट पर लंबा हो गया। मेरी आँख तब खुली  जब बस कोटा नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं ठीक तीन बजे घऱ था। अब तक विजया का असर खत्म हो चुका था। नींद भी नहीं आ रही थी। हालांकि साढे पाँच सौ किलोमीटर की इस यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। मैं ने फिर मेल चैक की, कुछ आवश्यक जवाब भी दिए। कुछ ब्लाग भी पढ़े। एक ब्लाग पढ़ते हुए कंप्यूटर हैंग हो गया। मैं उसे उसी हालत में पॉवर ऑफ कर के सोने चला गया। और सुबह साढ़े नौ तक सोता रहा। विजया के असर से नींद भरपूर आई थी। सुबह उठा तो कल की थकान का नामो निशान न था। नींद ने सारे शरीर की मरम्मत कर उसे तरोताजा कर दिया था।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

लोगों के अपकारी काम धर्मों को समेट रहे हैं

कुछ दिनों से ब्लाग जगत में बहस चल रही है कि किस किस धर्म में क्या क्या अच्छाइयाँ हैं और किस किस धर्म में क्या क्या बुराइयाँ हैं। हर कोई अपनी बात पर अड़ा हुआ है। दूसरा कोई जब किसी के धर्म की बुराई का उल्लेख करता है तो बुरा अवश्य लगता है। इस बुरा लगने पर प्रतिक्रिया यह होती है कि फिर दूसरे के धर्म की बुराइयाँ खोजी जाती हैं और वे बताई जाती हैं। नतीजा यह है कि हमें धर्मों की सारी खामियाँ पता लग रही हैं। ऐसा लगता है कि सभी धर्म बुराइयों से भरे पड़े हैं। यह लगना भी उन लोगों के कारण है जो खुद धार्मिक हैं।
मैं खुद एक धार्मिक परिवार में पैदा हुआ। कुछ अवसर ऐसा मिला कि मुझे कोई बीस बरस तक मंदिर में भी रहना पड़ा। मुझे स्कूल में संस्कृत शहर के काजी साहब ने पढ़ाई। उन्हों ने खुद संस्कृत स्कूल में मेरे पिताजी से पढ़ी थी। काजी साहब ने कभी यह नहीं कहा कि कोई मुसलमान बने। उन की कोशिश थी कि जो मुसलमान हैं वे इस्लाम की राह पर चलें। क्यों कि अधिकतर जो मुसलमान थे वे इस्लाम की राह पर मुकम्मल तरीके से नहीं चल पाते थे। वे यही कहते थे कि लोगों को अपने अपने धर्म पर मुकम्मल तरीके से चलने की कोशिश करनी चाहिए। सभी धार्मिक लोग यही चाहते हैं कि लोग अपने अपने धर्म की राह पर चलें। 
मेरे 80 वर्षीय ससुर जी जो खुद एक डाक्टर हैं, मधुमेह के रोगी हैं। लेकिन वे नियमित जीवन बिताते है और आज भी अपने क्लिनिक में मरीजों को देखते हैं। कुछ दिनों से पैरों में कुछ परेशानी महसूस कर रहे थे। मैं ने उन्हें कोटा आ कर किसी डाक्टर को दिखाने को कहा। आज सुबह वे आ गए। मैं उन्हें ले कर अस्पताल गया। जिस चिकित्सक को दिखाना था वे सिख थे। जैसे ही हम अस्पताल के प्रतीक्षालय में पहुँचे तो एक सज्जन ने उन्हें नमस्ते किया। वे दाऊदी बोहरा संप्रदाय के मुस्लिम थे। दोनों ने एक दूसरे से कुछ विनोद किया। डाक्टर ने ससुर जी को कुछ टेस्ट कराने को कहा। जब हम मूत्र और रक्त के सेंपल देने पहुँचे तो सैंपल प्राप्त करने वाली नर्स ईसाई थी। उस ने सैंपल लिए और दो घंटे बाद आने को कहा। एक सज्जन ने जो तकनीशियन थे  ससुर जी के पैरों की तंत्रिकाओं की  जाँच की। इन को मैं ने अनेक मजदूर वर्गीय जलसों में देखा है वे एक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और किसी धर्म को नहीं मानते।  शाम को सारी जाँचों की रिपोर्ट ले कर हम फिर से चिकित्सक के पास गए उस ने कुछ दवाएँ लिखीं और कुछ हिदायतें दीं। इस तरह सभी धर्म वाले लोगों ने एक दूसरे की मदद की। सब ने एक दूसरे के साथ धर्मानुकूल आचरण किया। न किसी ने यह कहा कि उस का धर्म बेहतर है और न ही किसी दूसरे के धर्म में कोई खामी निकाली। 

मुझे लगता है कि वे सभी लोग जो अपने धर्मानुकूल आचरण कर रहे थे। उन से बेहतर थे जो सुबह शाम किसी न किसी धर्म की बेहतरियाँ और बदतरियों की जाँच करते हैं। धर्म निहायत वैयक्तिक मामला है। यह न प्रचार का विषय है और न श्रेष्ठता सिद्ध करने का। जिस को लगेगा कि उसे धर्म में रुचि लेनी चाहिए वह लेगा और उस के अनुसार अपने आचरण को ढालने का प्रयत्न करेगा। अब वह जो कर रहा है वह अपनी समझ से बेहतर कर रहा है। किसी को उसे सीख देने का कोई अधिकार नहीं है। हाँ यदि वह स्वयं खुद जानना चाहता है स्वयं ही सक्षम है कि उसे इस के लिए किस के पास जाना चाहिए। दुनिया में धर्म प्रचार और खंडन  के अलावा करोड़ों उस से बेहतर काम शेष हैं। 
लते चलते एक बात और कि लोगों के उपकारी कामों ने उन के धर्म को दुनिया में फैलाया था। अब लोगों के अपकारी काम उन्हें समेट रहे हैं।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

मुबारक हो तुम को नया साल यारो

हाँ नीचे आप एक बिंदु से एक वृत्त को उत्पन्न होता और विस्तार पाता देख रहे हैं। फिर वही वृत्त सिकुड़ने लगता है और बिंदु में परिवर्तित हो जाता है। फिर बिंदु से पुनः एक वृत्त उत्पन्न होता है और यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। बिंदु या वृत्त? वृत्त या बिंदु? कुछ है जो हमेशा विद्यमान रहता है, जिस का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है। वह वृत्त हो या बिंदु मात्र हो। 

ब आप इस वृत्त की परिधि को देखिए और बताइए इस का आरंभ बिंदु कहाँ है? आप लाख या करोड़ बार सिर पटक कर थक जाएंगे लेकिन वह आरंभ या अंत बिंदु नहीं खोज पाएंगे। वास्तव में वृत्त की परिधि का न तो कोई आरंभ बिंदु होता है और न ही अंतिम बिंदु वह तो स्वयं बिंदुओं की एक कतार है। जिस में असंख्य बिंदु हैं जिन का गिना जाना भी असंभव है चाहे वृत्त कितना ही छोटा या विस्तृत क्यों न हो।
पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। संपूर्ण विश्व (यूनिवर्स) के सापेक्ष। पृथ्वी से परे इस की घूमने की धुरी की एक दम सीध में स्थित बिंदुओं के अतिरिक्त सभी बिंदु चौबीस घंटों में एक बार उदय और अस्त होते रहते हैं। दिन का आरंभ कहाँ है। मान लिया है कि अर्थ रात्रि को, या यह मान लें कि जब सूर्योदय होता है तब। लेकिन इस मानने से क्या होता है? हम यह भी मान सकते हैं कि यह दिन सूर्यास्त से आरंभ होता है या फिर मध्यान्ह से।  चौबीस घंटे में एक दिन शेष हो जाता है। फिर एक नया दिन आ जाता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। हर दिन अपने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ जाती है। यह पथ भी एक वृत्त ही है। वर्ष पूरा होते ही पृथ्वी वापस अपने प्रस्थान बिंदु पर पहुँच जाती है। हम कहते हैं वर्ष पूरा हुआ, एक वर्ष शेष हुआ, नया आरंभ हुआ। वर्ष कहाँ से आरंभ होता है कहाँ उस का अंत होता है। वर्ष के वृत्त पर तलाशिए, एक ऐसा बिंदु। उन असंख्य बिंदुओं में से कोई एक जो एक कतार में खड़े हैं और इस बात की कोई पहचान नहीं कि कौन सा बिंदु प्रस्थान बिंदु है। 
खिर हम फिर मान लेते हैं कि वह बिंदु वहाँ है जहाँ शरद के बाद के उन दिनों जब दिन और रात बराबर होने लगते हैं और सूर्य और पृथ्वी के बीच की रेखा को चंद्रमा पार करता है। कुछ लोग इसे तब मानते हैं जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। कुछ लोग हर बारहवें नवचंद्र के उदय से अगले सूर्योदय के दिन मानते हैं। हम  आपस में झगड़ने लगते हैं, मेरा प्रस्थान बिंदु सही है, दूसरा कहता है मेरा प्रस्थान बिंदु सही है। उस के लिए तर्क गढ़े जाते हैं, यही नहीं कुतर्क भी गढ़े जाने लगते हैं। हम फिर उसी वृत्त पर आ जाते हैं। अब की बार हम मान लेते हैं कि इस की परिधि का प्रत्येक बिंदु एक प्रस्थान बिंदु है। हम वृत्त के हर एक बिंदु पर हो कर गुजरते हैं और अपने प्रस्थान बिंदु पर आ जाते हैं। फिर वर्षारंभ के बारे में सोचते हैं। हम पाते हैं कि वह तो हर पल हो रहा है। हर पल एक नया वर्ष आरंभ हो रहा है और हर पल एक वर्षांत भी। हमारे यहाँ कहावत भी है 'जहाँ से भूलो एक गिनो'। मेरे लिए तो हर  पल दिन का आरंभ है और हर दिन वर्ष का आरंभ। 
तो शुभकामनाएँ लीजिए, नव-वर्ष मुबारक हो! 
याद रखिए हर पल एक नया वर्ष है।
और याद रखिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' साहब की ये ग़ज़ल.....

ग़ज़ल
मुबारक हो तुम को नया साल यारो
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो

मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो

अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो

बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो

बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो

फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * *



सोमवार, 15 मार्च 2010

उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के लिए संगठित हो कर खुद आगे आना होगा

ज अट्ठाइसवाँ विश्व उपभोक्ता दिवस था। 1983 में कंजूमर्स इंटरनेशनल नाम की संस्था ने इसे आरंभ किया था। यह संस्था इसी वर्ष अपने जन्म का पचासवाँ वर्ष भी मना रही है। दुनिया में पैदा हुआ मानव समाज का प्रत्येक सदस्य एक उपभोक्ता है। इस संस्था के गठन का मूल मकसद यही था कि दुनिया भर के सभी उपभोक्ता यह जानें कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके क्या हक हैं। साथ ही सभी देशों की सरकारें उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखें। प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष उपभोक्ता दिवस एक नया नारा देती है। इस वर्ष का नारा है "हमारा धन हमारा अधिकार"। इस नारे के माध्यम से इस वर्ष वित्तीय सेवाओं के संदर्भ में उपभोक्ता अधिकारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा।
पभोक्ता आंदोलन के प्रभाव ने भारत सरकार को उपभोक्ता संरक्षण के लिए कानून बनाने के लिए बाध्य किया। इस तरह भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधनियम 1986 अस्तित्व में आया और उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए जिला स्तर पर उपभोक्ता प्रतितोष मंच, राज्य स्तर पर राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय उपभोक्ता प्रतितोष आयोग अस्तित्व में आए। तब से अब तक देशभर के जिला उपभोक्ता मंचों में दर्ज 28 लाख मामलों में से 25 लाख से अधिक मुकदमों का निपटारा किया जा चुका है। राजस्थान दूसरे स्थान पर है जहां 2 लाख 20 हजार से अधिक मामलें निपटाये जा चुके है।
राजस्थान राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग ने महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और कर्नाटक को पीछे छोड़ते हुए ने 40 हजार से अधिक मामलों का निस्तारण करके देश में प्रथम स्थान हासिल किया है। देश के विभिन्न राज्य आयोगों द्वारा अब तक करीब चार लाख मामलों का निस्तारण किया गया है और इनमें हर दस में से एक प्रकरण राजस्थान में निपटाया गया है। महाराष्ट्र द्वितीय, मध्यप्रदेश तृतीय और कर्नाटक चतुर्थ स्थान पर है यहां के राज्य आयोगों ने अब तक 30 से 32 हजार मुकदमों का निपटारा किया है। 31 जनवरी तक राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में दर्ज 62972 मामलों में 55192 का निपटाया किया जा चुका है। इसी तरह देशभर के राज्य आयोगों में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 496378 मामलें दायर किये गये जिनमें से 387974 का निपटारा किया जा चुका है। इस अवधि में उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक और लक्षद्वीप में सबसे कम मामलें दर्ज किए गए।
ये तो वे तथ्य हैं जो आंकड़ों के माध्यम से सामने आए हैं। लेकिन ग्राउंड लेवल पर क्या हाल हैं? यह केवल उपभोक्ता प्रतितोष मंच या आयोगों के कार्यस्थलों पर जा कर ही पता किया जा सकता है। कोटा में पिछले दो वर्षों तक जिला उपभोक्ता प्रतितोष मंच किसी न किसी कारण से कार्य करने में अक्षम रहा है। काम को गति देने के लिए अब झालावाड़ जिले के उपभोक्ता प्रतितोष मंच को इस की सहायता के लिए लगाया गया है जो माह में दो सप्ताह कोटा में रह कर काम करता है। फिर भी उपभोक्ता विवादों में निर्णय की गति संतोषजनक नहीं बन सकी है।
ज मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच गया तो वहाँ सदा की तरह मध्यान्ह अवकाश के पूर्व केवल कार्यालय का ही काम होता है। मैं उपभोक्ता प्रतितोष मंच के अध्यक्ष से मिलना चाहता था। लेकिन वे मध्यान्ह अवकाश तक मंच के कार्यालय में उपलब्ध नहीं थे। कार्यालय के कर्मचारियों को पता नहीं था कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है। मंच के एक सदस्य अवश्य वहाँ मिले उन्हों ने बताया कि आज मंच की ओर से कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया है और न ही मंच की किसी कार्यक्रम में भागीदारी है। वहाँ यह जानकारी मिली कि इस संबंध में जो भी कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं वे रसद विभाग द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जिला रसद अधिकारी अपने कार्यालय में कंप्यूटर पर व्यस्त मिले। उन्हों ने बताया कि उन्हें तो बिलकुल फुरसत नहीं है। वे तो विधानसभा से आई प्रश्नावलियों के उत्तर तैयार करने के सब से मुश्किल कर्तव्य में उलझे पड़े हैं।
मैं ने जब उन्हें बताया कि आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस पर कुछ तो उपभोक्ता अधिकारों की जानकारी जनता तक पहुँचाने के लिए होना चाहिए था। उन्हों ने कहा कि एक स्कूल में इस विषय पर निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई है और रैली भी निकाली जाएगी। अब तक ये काम हो चुके होंगे। वे हों न हों पर कल अवश्य ही इन दोनों कामों के संपन्न हो जाने की खबरें स्थानीय अखबारों में अवश्य ही होंगी।
कुल मिला कर देश मे उपभोक्ता आंदोलन बहुत कमजोर है। यह तब तक आगे नहीं बढ़ सकता जब तक कि स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन मजबूत हो कर आगे नहीं आते। लोगों को खुद अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा। अपने अधिकारों के लिए लगातार आवाज उठाना होगी। आप टिकट की लाइन में लगे हैं या बिल भरने की बारी, जैसे ही आई कांच व जाली के पीछे बैठे शख्स ने गुटखा चबाते हुए कह दिया थोड़ी देर बाद आना और आप बगैर किसी प्रतिरोध के लाइन में ही खड़े रह गए तो आपके हित में कौन बोलेगा। न व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिरोध होता है, न संगठित विरोध। हालांकि ठगे गए उपभोक्ता को न्याय दिलाने के लिए उपभोक्ता प्रतितोष मंचों की व्यवस्था है और अनुभव बताता है, जो भी वहां जाता है न्याय जरूर पाता है, लेकिन वहां तक जाने की जहमत तो उपभोक्ता को उठाना ही पड़ेगी। खाद्य पदार्थो में मिलावट जैसे संगीन मामले भी उपभोक्ता संरक्षण के दायरे में आते हैं। हाल ही में एक ब्रांडेड अचार में मरा चूहा निकलने पर जुर्माने का फैसला हुआ, लेकिन क्या उसके बाद भी उपभोक्ता जागे? क्या उस ब्रांड को लेकर विरोध के स्वर उभरे? यहाँ तक कि यहाँ ब्लाग जगत में भी उपभोक्ता हितों के बारे में आज भी सब से कम ही लिखा गया है।

रविवार, 14 मार्च 2010

किसानों के लिए खुश-खबर : बिना सिंचाई प्रति हेक्टेयर 35-40 क्विंटल गेहूँ उपजाया

राजस्थान के टोंक जिले में पाँच वर्ष पहले जब किसान सिंचाई के लिए पानी की मांग के लिए आंदोलन कर रहे थे, तब राजमार्ग से अवरोध हटाने के लिए सरकार को गोलियाँ चलानी पड़ी थीं।  इस गोलीकांड में एक महिला सहित पाँच व्यक्तियों को अपनी जान देनी पड़ी थी। ये किसान अपने ही जिले में स्थित राजस्थान के दूसरे सब से बड़े बांध बीसलपुर के पानी को स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए उपलब्ध कराने की मांग कर रहे थे। राज्य सरकार सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के स्थान पर उसे राज्य की राजधानी जयपुर को पेयजल उपलब्ध कराने का निर्णय कर चुकी थी। यह निर्णय क्षेत्र के किसानों को नागवार गुजरा था।
से में जब राज्य में पानी के लिए बाकायदा जंग लड़ी जा चुकी हों, तब यह खबर आप को और किसानों को राहत पहुँचाने वाली है कि बिना सिंचाई के खेतों में गेहूँ उगाया जा सकता है और 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फसल प्राप्त की जा सकती है।  कोटा के उम्मेदगंज कृषि अनुसंधान केन्द्र के कृषि वैज्ञानिकों ने यह कर दिखाया है।
स अनुसंधान केन्द्र ने इस वर्षएचआई-1531, एचआई-1500, एचडब्ल्यू-2004, डब्ल्यूएच-1098, एचडी-3071, आरडब्ल्यू-3688, एचडी 4672, एकेडीडब्ल्यू-4635, एमपी-1240, एचडी-3070 जैसी लगभग छत्तीस किस्म की गेहूँ की फसलें बोयीं और अपेक्षित परिणाम प्राप्त किए। बोयी गई फसलों की कटाई के उपरांत थ्रेशिंग हो चुकी है और छह सात बोरी प्रति बीघा उपज प्राप्त की है।
स अनुसंधान केन्द्र ने अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पलेवा के बाद खेत की अच्छी तरह जुताई की। इसके बाद खेत में 40-40 किलो नत्रजन व फास्फोरस डाला और उस के बाद 15 से 20 अक्टूबर के बीच बुआई की।  इसके  उपरांत  इन फसलों की एक बार भी सिंचाई नहीं की गई। इन फसलों ने पकने में 125-130 दिन  लिए। जब कि गेहूँ की फसल को तीन बार सिंचाई करने के उपरांत केवल 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज ही प्राप्त की जा सकती है। इस तरह यह प्रयोग उन किसानों के लिए रामबाण सिद्ध हुआ है जिन की भूमि को सिंचाई की सुविधा प्राप्त नहीं है या प्राप्त है तो कम बरसात के कारण सिंचाई स्रोत अनुपलब्ध हो जाने से वे गेहूँ की फसल बोने में संकोच करते हैं।

शनिवार, 13 मार्च 2010

चितकबरी ग़ज़ल 'यक़ीन' की

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की क़लम से यूँ तो हर तरह की ग़ज़लें निकली हैं। उन में कुछ का मिजाज़ बिलकुल बाज़ारू है।  बाजारू होते हुए भी अपने फ़न से उस में वे समाज की हक़ीकत को बहुत खूब तरीके से कह डालते हैं। जरा इस ग़ज़ल के देखिए ......

चितकबरी ग़ज़ल 'यक़ीन' की
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
हाले-दिल सब को सुनाने आ गए
ख़ुद मज़ाक अपना उड़ाने आ गए

फूँक दी बीमाशुदा दूकान ख़ुद
फिर रपट थाने लिखाने आ गए

मार डाली पहली बीवी, क्या हुआ
फिर शगुन ले कर दिवाने आ गए

खेत, हल और बैल गिरवी रख के हम
शहर में रिक्शा चलाने आ गए

तेल की लाइन से ख़ाली लौट कर 
बिल जमा नल का कराने आ गए

प्रिंसिपल जी लेडी टीचर को लिए
देखिए पिक्चर दिखाने आ गए

हॉकियाँ ले कर पढ़ाकू छोकरे
मास्टर जी को पढ़ाने आ गए

घर चली स्कूल से वो लौट कर 
टैक्सी ले कर सयाने आ गए

काँख में ले कर पड़ौसन को ज़नाब
मौज मेले में मनाने आ गए

बीवी सुंदर मिल गई तो घर पे लोग
ख़ैरियत के बहाने ही आ गए

शोख़ चितकबरी ग़ज़ल ले कर 'यक़ीन'
तितलियों के दिल जलाने आ गए

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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

बुधवार, 10 मार्च 2010

यूँ समापन हुआ होली पर्व का

यूँ तो हाड़ौती (राजस्थान का कोटा संभाग) में होली की विदाई न्हाण हो चुकने के उपरांत होती है। न्हाण इस क्षेत्र में होली के बारहवें दिन मनाया जाता है। हमारे बचपन में हम देखते थे कि होली के दिन रंग तो खेला जाता था लेकिन केवल सिर्फ गुलाल से। लेकिन गीले रंग या पानी का उपयोग बिलकुल नहीं होता था। लेकिन बारहवें दिन जब न्हाण खेला जाता था तो उस में गीले रंगों और रंगीन पानी का भरपूर उपयोग होता था। सब लोग अपनी अपनी जाति के पंचायत स्थल पर सुबह जुटते थे और फिर टोली बना कर नगर भ्रमण करते हुए जाति के प्रत्येक घर जाते थे। शाम को जाति की पंचायत होती थी जिस में पुरुष एकत्र होते थे। जिस में वर्ष भर के आय-व्यय का ब्यौरा रखा जाता था। पूरे वर्ष में पंचायत ने क्या-क्या काम किए उन पर चर्चा होती थी। अगले वर्ष में क्या-क्या किया जाना अपेक्षित है, इस पर चर्चा होती थी और निर्णय लिए जाते थे और अगले वर्ष के लिए पंच और मुखिया चुन लिए जाते थे। 
पंचायत में भाग लेने वालों को देशी घी के बूंदी के लड़्डू वितरित किए जाते थे जो कम से कम ढाई सौ ग्राम का एक हुआ करता था।पंचायतें अब भी जुटती हैं। लेकिन न्हाण लगभग समाप्त प्राय हो चला है। केवल ग्रामीण इलाकों में ही शेष रह गया है। कोटा जिले के एक कस्बे सांगोद में न्हाण को एक विशेष सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाता है जो होली से ले कर न्हाण तक चलता रहता है। उस के बारे में फिर कभी।
मेरे यहाँ होली का आरंभ हुआ था बेटी और बेटे के आने से। कल दोनों चले गए। हम उन्हें छोड़ने स्टेशन गए। दोनों की ट्रेन में कोई घंटे भर का अंतर था। पहले बेटे को ट्रेन मिली और घंटे भर बाद बेटी को। बेटी सुबह अपने गंतव्य पर पहुँच गई। बेटा अभी सफर में है उस का सफऱ करीब छत्तीस घंटों का है। वह आज दोपहर बाद ही बंगलूरू पहुँच सकेगा। स्टेशन पर जाते समय उन के चित्र लिए जो यहाँ मौजूद हैं। आज घर एकदम सूना सा लगा। होली पर सब के साथ रहने से फेल गए घऱ को पुनः समेटने में आज पत्नी ने पूरा दिन लगा दिया। मेरे घऱ होली समाप्त हो गई है और घऱ सिमट गया है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

और एक हुसैन.........

 और एक हुसैन.........

  •  दिनेशराय द्विवेदी
एक हुसैन ठेला घसीटता है
और पहुँचाता है
सामान, जरुरत मंदों तक
एक हुसैन सुबह-सुबह 
म्युनिसिपैलिटी की गाड़ी आने के पहले
कचरे में से बीनता है
काम की चीजें
अपनी रोटी के जुगाड़ने को

एक हुसैन भिश्ती
दोपहर नालियाँ धोता है
कि बदबू न फैले शहर में

एक हुसैन सुबह अपनी बेटी को छोड़ कर आता है
स्कूल
दसवीं कक्षा के इम्तिहान के लिए 

एक हुसैन अंधेरे मुँह गाय दुहता है
और निकल पड़ता है
घरों को दूध पहुँचाने

एक और हुसैन ........
एक और हुसैन.........
और एक हुसैन.........
कितने हुसैन हैं?

लेकिन याद रहा सिर्फ एक
जिसने कुछ चित्र बनाए
लोगों ने उन्हें अपनी संस्कृति का अपमान समझा
उसे पत्थर मारे
और उसे यादगार बना दिया
ठीक मजनूँ की तरह।

खुशी, जो मिलती है आभासी के वास्तविक होने पर

ल रात मैं भोजन कर निपटा ही था कि मोबाइल घनघना उठा। जहाँ मैं था वहाँ सिग्नल कमजोर होने से आवाज स्पष्ट नहीं आती। मैं ने मोबाइल उठाया तो नमस्ते के बाद कहा गया कि मैं रतलाम से .......... बोल रहा हूँ। नाम स्पष्ट समझ नहीं आया। बाद में संदेश था कि वे सुबह मुंबई-जयपुर एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर जा रहे हैं। साथ में उन  के भतीजे की बेटी भी है। मेरे लिए उन के पास एक पार्सल है। यदि किसी को स्टेशन भेज सकें तो पार्सल उन्हें दे दूंगा। यह ट्रेन कोटा सुबह 8.40 पर पहुँचती है। मुझे सुबह छह बजे अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ना था। घर से स्टेशन 12 किलोमीटर पड़ता है। सोचा दो घंटे स्टेशन के किसी मित्र से मिलने में गुजार लेंगे। मैं ने उन्हें कह दिया कि मैं खुद ही स्टेशन हाजिर होता हूँ। इस के बाद बात समाप्त हो गई। 
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रतलाम से किस का फोन हो सकता है। भतीजे की  बेटी साथ है तो निश्चित रूप से  उन की उम्र 55-60 तो होनी ही चाहिए थी। इस उम्र के केवल दो ही व्यक्ति  हो सकते थे। एक विष्णु बैरागी और दूसरे मंसूर अली हाशमी। बैरागी जी की भाषा और आवाज कुछ अलग है। निश्चित ही वे नहीं थे। जरूर वे मंसूर अली हाशमी रहे होंगे। फिर देर रात जी-मेल पर उन का चैट संदेश देखा तो पक्का हो गया कि वे ही हैं।  संदेश का उत्तर दिया, लेकिन वह संदेश शायद फोन करने के पहले का था। रात के बारह बजने वाले थे।  उत्तर का उत्तर नहीं आया। उन की ट्रेन रतलाम से सुबह चार बजे चलती है, जिस के लिए उन्हें निश्चित ही तीन बजे तो तैयारी करनी होगी। निश्चित ही वे तब तक सो चुके होंगे।
सुबह साढ़े चार नींद खुली तो घर में कोई उठा न था। मैं ने शोभा को कहा -उठो पूर्वा को जाना है न। तो उस ने बताया कि उस को रात पेट में बहुत दर्द था। वह नहीं जा रही है। मेरी भी नींद पूरी नहीं हुई थी। मैं फिर से सो गया। सुबह आठ बजे मैं घर से रवाना हुआ। गाड़ी कोई दो-सौ मीटर ही चली होगी कि हाशमी जी का फोन आ गया। मैं ने उन्हें बताया कि उन की गाड़ी दरा घाटी से गुजर रही होगी, वे उस का आनंद लें मैं उन से स्टेशन पर ही मिल रहा हूँ। 
 मैं प्लेटफार्म पर कोई पंद्रह मिनट पहले पहुँच गया था, वहाँ एक और ट्रेन खड़ी थी। अगले पाँच मिनट में वह चल दी। फिर कोच के लिए डिस्प्ले आने लगा तो मैं वांछित कोच के स्थान पर बैंच पर जा बैठा। कोई दस मिनट बाद प्रतीक्षित ट्रेन भी आ गई। हाशमी जी कोच के दरवाजे पर ही थे। ट्रेन रुकते ही उतरे और सीधे गले आ लगे। जैसे हम बचपन या किशोरावस्था के बहुत गहरे मित्र हों और बरसों बाद मिल रहे हों। उन्हों ने एक पोली-बैग मेरी तरफ बढ़ाया और बोले -बस रतलाम की सौगात है। मैं भी ऐसे ही एक छोटे बैग में कुछ सौगात लिए था । हमने बैग बदल लिये। पीछे से उन की पौत्री उतरी, यही कोई बाईस से पच्चीस के बीच की रही होगी। उस ने तुरंत हाथ बढ़ाया, मैं ने गौर से उस के चेहरे की ओर देखा। आँखें कह रही थीं -हैलो अंकल! शेक हैंड। मेरा हाथ तुरंत बढ़ गया। इतनी देर में जेब से कैमरा निकाल कर वे मेरा एक चित्र ले चुके थे। मैं लड़की से बात करने लगा। वे बड़ी तेजी से कोई पचास फुट दूर तक गए। लगा जैसे उन की उम्र 62 नहीं 20-22 हो। मैं चौंका, ऐसा क्या हुआ कि वे इतनी इतनी तेजी से दूर गए। उन की ओर देखा तो वे दूर से एक चित्र ले रहे थे। वे फिर पास आए तो मैं ने भी अपने मोबाइल से उन का चित्र लिया।
मारे पास केवल दस मिनट थे जिस में से तीन समाप्त हो चुके थे। इतने में उन की पौत्री ने बोला- वो लड़का डिब्बे में अपना बैग छोड़ कर भाग गया। अब हम दोनों के चौंकने की बारी थी।  बिटिया कह रही थी कि वह सुबह किसी स्टेशन से चढ़ा था और पास वाले से अजीब सी बातें कर रहा था। हाशमी जी ने बोला स्टाल पर कुछ लेने गया होगा। मैं ने कहा -बिटिया की सजगता को हलके से न लेना चाहिए। बिटिया ने कोच में चढ़ कर उस का बैग बताया। रंग में काला बैग पुराना था। मुझे उस में संदेहास्पद कुछ न लगा। हम फिर बातें करने लगे। उन्हें सवाई माधोपुर हो कर श्योपुर जाना था। मैं ने बोला वह तो मध्य प्रदेश में है, अब अलग जिला है पहले मुरैना जिले में हुआ करता था। हाशमी जी की प्रतिक्रिया थी -यानी हम मध्यप्रदेश से चल कर वापस वहीं पहुँच जाएंगे?
फिर रतलाम की बात चली। वे बताने लगे वहाँ मेडीकल स्टोर ठीक चल रहा है। पर मैं ने कुछ कृषि भूमि खरीद ली है और खेती करने का आनंद ले रहा हूँ।  उन्हों ने कैमरे में अपने परिजनों और खेत में गेहूँ की फसल के चित्र दिखाए। मैं न कवि अलीक के बारे में जानना चाहा तो उन्हों ने बताया कि उन का कविता संग्रह छप कर तैयार है बस विमोचन का तय नहीं हो पा रहा है। मैं ने उन से वादा किया कि विमोचन में शिवराम या महेन्द्र नेह अवश्य आएंगे और मैं भी उन के साथ चला आउंगा। वे कहने लगे -मैं ने कोटा आने का काम पूरा कर दिया है, अब आप की बारी है। गाड़ी अब चलने का संकेत दे रही थी। भागा हुआ लड़का दौड़ते हुए वापस आया और अपना बैग ले कर कोच के दूसरे हिस्से में चला गया। उसे वापस आया देख कर हमें संतोष हुआ, सब से अधिक हाशमी जी की पौत्री की चिंता खत्म हुई। गाड़ी चलने लगी तो हाशमी जी ने गाड़ी में चढ़ कर विदा ली।
हाशमी जी से परिचय इसी आभासी दुनिया में हुआ। उन के तीन ब्लॉग हैं आत्म-मंथन, अदब नवाज, और चौथा बंदर। मुझे उन के लेखन में अक्सर उन की जवानी के दिनों का जो उल्लेख होता है उस में और मेरी किशोरावस्था में बहुत समानता प्रतीत हुई। शायद उस जमाने की मेरी और उन की पसंद एक जैसी थी। उन के लेखन में वही जवानी वाली शरारतें अब भी हैं। जो उन्हें मेरी पसंदीदा बनाती हैं।  आज एक आभासी संबंध वास्तविकता में बदला। आप भी महसूस कर रहे होंगे कि आभासी संबंध जब वास्तविक होता है तो कितनी खुशी देता है।

शनिवार, 6 मार्च 2010

दुर्घटना के मुकदमों में दावेदारों की वकालत का विकास

पनी वकालत का यह बत्तीसवाँ साल चल रहा है। वकालत के पहले दस-बारह वर्षों में यदा-कदा मोटर दुर्घटना में घायल होने या मृत्यु हो जाने के मुकदमे सहज रूप से आया करते थे। इसी तरह कामगार क्षतिपूर्ति के मुकदमे सहज रूप से आते ही थे। हम अपने सेवार्थी से मुकदमे का खर्च लेते थे और जो भी फीस तय होती थी उस का आधा पहले लेते थे और शेष आधी फीस मुकदमे में बहस होने के पहले तक सेवार्थी अपनी सुविधा से जमा कर देता था। फीस की राशि निश्चित होती थी और उस का संबंध सेवार्थी को मिलने वाली राशि पर निर्भर नहीं होता था। 
1980 आते-आते स्थिति यह हो गई कि सेवार्थी जिद करने लगे कि वे मुकदमे का खर्च तो देंगे, लेकिन फीस नहीं देंगे। मुकदमे से मिलने वाली क्षतिपूर्ति का निर्धारित प्रतिशत वे क्षतिपूर्ति राशि मिलने पर देंगे। आरंभ में सेवार्थी से हम अपनी शर्त मनवाने के लिए जिद करते थे। लेकिन वकीलों में ही कुछ लोग इन शर्तों को मानने को तैयार हो गए तो हम ने भी इस शर्त को स्वीकार कर लिया। तब फीस का प्रतिशत मिलने वाली क्षतिपूर्ति की राशि का पाँच से आठ प्रतिशत तक हुआ करता था। इस से वकीलों को मिलने वाली फीस की राशि में पर्याप्त वृद्धि होती थी। क्षतिपूर्ति का भुगतान बीमा कंपनी करती थी और यह राशि मिलने पर सेवार्थी फीस वकील को दे दिया करते थे। कोई कोई सेवार्थी ऐसा होता था जो फीस देने में बेईमानी भी कर लेता था। हम लोग उसे भुगत लेते थे या फिर किसी तरह से उस से फीस वसूल कर लेते थे। 
फीस बढ़ने से इस ओर सभी वकीलों का आकर्षण बढ़ा। अब वकीलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गई। वकीलों ने यह कर दिया कि वे खर्चा भी नहीं लेने लगे लेकिन फीस बढ़ कर दस प्रतिशत तक पहुँच गयी। यह 1990 के आसपास की बात है। इस बीच 1984 में भोपाल में गैस दुर्घटना हुई। क्षतिपूर्ति के मुकदमे करने के लिए अमरीका के वकीलों ने मुवक्किलों से संपर्क किया और मुकदमा करने के लिए दावेदारों को क्षतिपूर्ति की राशि अग्रिम देने का प्रस्ताव किया। इस से देश के उन वकीलों ने सीखा  जो इस व्यवसाय में पूंजी का नियोजन  कर सकते थे उन्हों ने दुर्घटना के मुकदमे हासिल करने के लिए दावेदारों को अपने पास से अग्रिम राशि देने की पेशकश करना आरंभ कर दिया।
काम हासिल करने का यह तरीका उन वकीलों को रास आया जो वकालत के लिए पूंजी का नियोजन कर सकते थे। धीरे-धीरे काफी वकील इस क्षेत्र में आ गए उन्हों ने पूंजी नियोजित न कर सकने वाले और करने की इच्छा न रखने वाले वकीलों को इस क्षेत्र से विस्थापित कर दिया। अब इस क्षेत्र में केवल वे ही अकेले रह गए। लेकिन पूंजी नियोजित करने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ती रही। अब उन के बीच भी प्रतिस्पर्धा होने लगी। लोग समाचारों पर निगाह रखने लगे कि कहाँ दुर्घटनाएँ हो रही हैं। वकील दुर्घटना में मृत्यु होने वाले परिवारों से घर जा कर संपर्क करने लगे। इस प्रतिस्पर्धा की स्थिति यह हो गई कि वकील दुर्घटना में मृतक की अंत्येष्टि पर पंहुचने लगे। घायलों से अस्पतालों में ही संपर्क करने लगे। अब तो स्थिति यह है कि मृतक का पोस्टमार्टम जहाँ हो रहा हो वहाँ भी पहुंचने लगे हैं। 
दुर्घटना स्थल पर सब से पहले पुलिस पहुँचती है। पुलिस ने भी जब वकीलों का यह रवैया देखा तो अन्वेषण करने वाले पुलिस अफसरों ने इसे अपनी आय का जरिया बना लिया। अब अन्वेषण अधिकारी पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल आते ही सब से पहले उस वकील को सूचना देता है जिस से उसे कुछ कमीशन मिलने वाला होता है और यह बताता है कि यहाँ मृतक के रिश्तेदार मौजूद हैं, वह आ कर मुकदमा हासिल कर ले। वकीलों की सेवाएँ अब यहाँ तक पहुँच गई हैं कि वे दावे के लिए न केवल तमाम दस्तावेजात जुटाते हैं बल्कि दावेदारों को पच्चीस-तीस हजार तक धन राशि स्वयं अपने पास से अग्रिम दे देते हैं जिसे वे मुकदमे में अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि मिलने के समय वापस वसूल कर लेते हैं। 
ज हमारे सामने ऐसा ही एक वाकया आया। एक वकील साहब हमारे साथ चाय पी रहे थे कि उन के पास पुलिस अफसर का फोन आया कि वे दुर्घटना में मृतक का पोस्टमार्टम करवा रहे हैं, मृतक के रिश्तेदार आ गए हैं आप बात कर लें। यह कह कर पुलिस अफसर ने फोन मृतक के रिश्तेदार को पकड़ा दिया। मृतक के रिश्तेदार ने फोन पर केवल यह कहा कि वकील साहब आप अग्रिम क्या दे रहे हैं? यहाँ एक वकील साहब पहले से आए हुए हैं और बीस हजार देने को तैयार हैं। वकील साहब का नाम पूछा तो पता लगा कि वह दूसरे जिले का वकील है और मुकदमा हासिल करने के लिए यहाँ तक आ गया है।