@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?

17 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

बजा फरमा रहे हैं दिनेश जी -भरोसा पूरी तरह उठ गया है मगर विकल्प क्या है ?
और हाँ चटका लगा दिया है !

Ashok Kumar pandey ने कहा…

इतना सहमत हूं कि कुछ नहीं जोड़ना

सदी के इस सबसे भयावह विश्वासघात में पूरा सत्ता वर्ग शामिल है। यह सत्ता और पूंजीपतियों के नापाक गठजोड़ का मूर्त उदाहरण है।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@अशोक कुमार पाण्डेय
'सत्ता और पूंजीपतियों के नापाक गठजोड़'
सत्ता ही उन्हीं की है जी, गठजोड़ का कहाँ प्रश्न उठता है? सरकार तो मुखौटा मात्र है।

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बजा फरमाया...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

अब कोई बंदूक उठा कर बाग़ी हो जाए तो क़सूर किसका है

Rangnath Singh ने कहा…

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अफसोसजनक हालात...कैसा भरोसा और किस पर!!

honesty project democracy ने कहा…

बहुत ही गंभीर धर्मसंकट से गुजर रहें हैं इस देश के लोग इन हैवानो के साथ हैवानो सा वर्ताव कर हर हाल में इनको मिटा दें या इंसानियत को बनाये रखकर भगवान के न्याय की प्रतीक्षा करें ?

उम्मतें ने कहा…

@काजल भाई
ये क्या कह गये आप !

उम्मतें ने कहा…

@काजल भाई
ये क्या कह गये आप !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हर कदम पर गिर कर हमने अपने सामूहिक चरित्र को उजागर कर दिया है जग के सामने । लगता है, वापसी का मार्ग कईयों की बलि लेगा ।

डा० अमर कुमार ने कहा…


इस विसँगति पर, गत तीन दिनों में इतना लिख चुका हूँ कि अब मेरा नपुँसक आक्रोश मुँह छुपाने को हताशा का आँचल तलाश रही है । नपुँसक इसलिये कि अपनी ज़रूरतों और आकाँक्षाओं पर बलात्कार झेल कर भी हम ऎसी व्यवस्थाओं को चुनते आये हैं, जो मौका पड़ने पर हमें नामर्द साबित करते आये हैं ।
क्या यह हमें पुनः ’ करो या मरो’ की ओर उकसा रहे हैं ?

डा० अमर कुमार ने कहा…

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Baljit Basi ने कहा…

कहना चाह रहा था कि चुप्प भली है लेकिन मुख से निकल रहा है, चुप्प भली नहीं है.

विष्णु बैरागी ने कहा…

सारा लिखा कम और सारा पढा अधूरा लगता है।

राम त्यागी ने कहा…

बुरी हालत है ....धन्यवाद इस पोस्ट के लिए

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

विचारणीय आलेख

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