@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

शिद्दत से जरूरत है. शुभकामनाओं की ...

दीपावली की शुभकामनाओं से मेल-बॉक्स भरा पड़ा है, मोबाइल में आने वाले संदेशों का  कक्ष कब का भर चुका है, बहुत से संदेश बाहर खड़े प्रतीक्षा कर रहे हैं। कल हर ब्लाग पर दीपावली की शुभकामनाएँ थीं। ब्लाग ही क्यों? शायद कहीं कोई माध्यम ऐसा न था जो इन शुभकामनाओं से भरा न पड़ा हो। दीवाली हो, होली हो, जन्मदिन हो, त्योहार हो या कोई और अवसर शुभकामनाएँ बरसती हैं, और इस कदर बरसती हैं कि शायद लेने वाले में उन्हें झेलने का माद्दा ही न बचा हो।  कभी लगता है हम कितने औपचारिक हो गए हैं? एक शुभकामना संदेश उछाल कर खुश हो लेते हैं और शायद अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं।

हम अगले साल के लिए शुभकामनाएँ दे-ले रहे हैं। हम पिछले सालों को देख चुके हैं। जरा आने वाले साल का अनुमान भी कर लें। यह वर्ष सूखे का वर्ष है। बाजार ने इसे भांप लिया है। आम जरूरत की तमाम चीजें महंगी हैं।  पहले सब्जी वाला आता था और हम बिना भाव तय किए उस से सब्जियाँ तुलवा लेते थे। भाव कभी पूछा नहीं। ली हुई सब्जियों की कीमत अनुमान से अधिक निकलने पर ही सब्जियों का भाव पूछते थे। अब पहले सब्जियों का भाव पूछते हैं। किराने की दुकान पर हर बार भाव पूछ कर सामान तुलवाना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो सामान की कीमत बजट से बाहर हो जाए। गृहणियों की मुसीबत हो गई है, कैसे रसोई चलाएँ? कहाँ कतरब्योंत करें?

जिन्दगी जीने का खर्च बढ़ गया, दूसरी ओर बहुतों की नौकरियाँ छिन गई हैं। दीवाली के ठीक एक दिन पहले एक दवा कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर मेरे यहाँ आए और उसी दिन मिला सेवा समाप्त होने का आदेश दिखाया। आदेश में कोई कारण नहीं था बल्कि नियुक्ति पत्र की उस शर्त का उल्लेख था जिस में कहा गया था कि एक माह का नोटिस दे कर या एक माह का वेतन दे कर उन्हें सेवा से पृथक किया जा सकता है। उन की सेवाएँ तुरंत समाप्त कर दी गई थीं और एक माह का वेतन भी नहीं दिया गया था। उन की दीवाली?

जो कर रहे थे, उन की नौकरियाँ जा चुकी हैं, जो कर रहे हैं उन पर दबाव है कि वे आठ घंटे की नियत अवधि से कम से कम दो-चार घंटे और काम करें। अनेक कंपनियों ने नौकरी जाने की संभावना के प्रदर्शन तले  अपने कर्मचारियों की पगारें कम कर दी हैं। जो नौजवान नौकरियों की तलाश में हैं वे कहाँ कहाँ नहीं भटक रहे हैं। उन्हें धोखा देने को अनेक प्लेसमेंट ऐजेंसियाँ खरपतवार की तरह उग आई हैं। उद्योगों में लोगों से सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम दर से भी कम पर काम लिए जा रहे हैं।  कामगारों की कोई पहचान नहीं है, उद्योग के किसी रजिस्टर में उन का नाम नहीं है।  उन की हालत पालतू जानवरों से भी बदतर है। पहले बैल हुआ करते थे जो खेती में हल पर और तेली के कोल्हू में जोते जाते थे। उन के चारे-पानी और आराम का ख्याल मालिक किया करता था। आज इन्सानों से काम लेने वाले उन के मालिक उस जिम्मेदारी से भी बरी हैं। कहने को श्रम कानून बनाए गए हैं और श्रम विभाग भी। लेकिन वे किस के लिए काम करते हैं, यह दुनिया जानती है। उन का काम कानूनों को लागू कराना न हो कर केवल अपने आकाओं की जेबें भरना और सरकार में बैठे राजनीतिज्ञों के अगले चुनाव का खर्च निकालना भर रह गया है।  सरकार बदलने के बाद पूरे विभाग के कर्मचारियों के स्थानांतरण हो गए और छह माह बीतते बीतते सब वापस अपने मुकाम पर आ गए। इस बीच किस की जेब में क्या पहुँचा? यह सब जानते हैं।  जितने विधायक और सांसद जनता ने चुन कर भेजे हैं वे सब उन की चाकरी बजा रहे हैं जिन ने उन के लिए चुनाव का खर्च जुटाया था और अगले चुनाव का जुटा रहे हैं। जब चुनाव नजदीक आएंगे तो वे फिर जनता-राग गाने लगेंगे।

सरकार से जनता स्कूल मांगती है तो पैसा नहीं है, अस्पताल मांगती है तो पैसा नहीं है, वह अदालतें मांगती है तो पैसा नहीं है। सुरक्षा के लिए पुलिस-गश्त मांगती है तो पैसा नहीं है।  चलने को सड़क मांगती है तो पैसा नहीं है।  सरकार का पैसा कहाँ गया? और जो सरकारें पुलिस, अदालत और रक्षा जैसे संप्रभु कार्यों के लिए पैसा नहीं जुटा सकती उसे सरकारें बने रहने का अधिकार रह गया है क्या?  मजदूर न्यूनतम वेतन, हाजरी कार्ड और स्वास्थ्य बीमा मांगते हैं तो वे विद्रोही हैं, नक्सल हैं, माओवादी हैं।  यह खेल आज से नहीं बरसों से चल रहा है।  शांति भंग की धाराओं में बंद करने के बाद उस की जमानत लेने से इंन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट जो सरकार की मशीनरी का अभिन्न अंग है जमानती की हैसियत पर उंगली उठा सकता है। उस का प्रमाणपत्र मांगता है जिसे उसी का एक अधीनस्थ अफसर जारी करेगा।  जब तक चाहो इन्हें जेल में रख लो। अब एक बहाना और नक्सलवादियों/माओवादियों ने नौकरशाहों को दे दिया है। किसी भी जनतांत्रिक, कानूनी  और अपने मूल अधिकार के लिए लड़ने वाले को नक्सल और माओवादी बताओ और जब तक चाहो बंद करो।  झंझट खत्म, और साथ में नक्सलवाद/माओवाद पर सफलता के आंकड़े भी तैयार। सत्ता खुद तो इन नक्सल और माओवादियों से नहीं लड़ पाई। अब जिसे अपने अधिकार पाने हों वही इन से भी लड़े।  नक्सलवाद /माओवाद जनविरोधी सरकारों के लिए बचाव और दमन के हथियार हो गए हैं।  विश्वव्यापी आर्थिक मंदी अभी तलवार हाथ में लिए मैदान में नंगा नाच रही है। उस की चपेट में सब से अधिक आया है तो वह आदमी जो मेहनत कर के अपनी रोजी कमा रहा है। चाहे उस ने सफेद कॉलर की कमीज पहनी हो, सूट पहन टाई बांधी हो या केवल एक पंजा लपेटे परिवार के शाम के भोजन के लिए मजदूरी कर रहा हो।

आने वाला साल मेहनत कर रोजी कमाने वालों और उन पर निर्भर प्रोफेशनलों के लिए सब से अधिक गंभीर होगा।  जीवन और जीवन के स्तर को कैसे बचाया जाए? इस के लिए उन्हें निरंतर जद्दोजहद करनी होगी।  न जाने कितने लोग अपने जीवन और जीवन स्तर को खो बैठेंगे? इसी सोच के साथ इस दीवाली पर तीन दिन से घर हूँ, कहीं जाने का मन न हुआ। यहाँ तक कि ब्लागिरी के इस चबूतरे पर भी गिनी चुनी टिप्पणियों के सिवा कुछ भी अंकित नहीं किया। मुझे लगा कि शुभकामनाएँ, जो इतने इफरात से उछाली-लपकी जा रही हैं, उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है।  हिन्दी ब्लागिरी में मौजूद सभी लोगों को इस की जरूरत है।  आनेवाले वक्त  में संबल बनाए रखने के लिए बहुतों को इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी, उन्हें सहेज कर क्यों न  रखा जाए। 

22 टिप्‍पणियां:

आमीन ने कहा…

achha kaha hai aapne.... iski jaroorat hai

बेनामी ने कहा…

वाज़िब समय पर वाज़िब तरीके से कही गई एक वाज़िब बात...

P.N. Subramanian ने कहा…

बिलकुल सही बात कही आपने. एक बात समझ में नहीं आई की इस वर्ष बाजारों में कुछ अधिक उत्साह दिखा. लोगोंने दिल खोल कर पैसे खर्च (बर्बाद) किये हैं. कुछ बाजारों में तो लोग भीड़ के कारण जा ही नहीं पाए.कहीं मंदी का दौर समाप्ति पर तो नहीं है?
हमारी भी शुभकामनायें ले लें.

Vivek Gupta ने कहा…

आपको दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाये

L.Goswami ने कहा…

पूंजी वादी आर्थिक व्यवस्था में निश्चित समय पर मंदी आती ही आती है ...यह वाणिज्यिक अर्थशास्त्र का एक आधारभूत नियम है. चिंतित न हों अब सब ठीक होने की ओर अग्रसर है.

बेनामी ने कहा…

हिन्दी ब्लागिरी ही क्यों! अपने अपने स्तर के बहुत से लोगों को आनेवाले वक्त में इन शुभकामनाओं की शिद्दत से जरूरत होगी।

एक सारगर्भित आलेख

बी एस पाबला

राज भाटिय़ा ने कहा…

महंगाई होती है जमा खोरी से, ओर जमा खोरी होती है सरकार की मिली भगत से, बस यह नेता ही नही चाहते की जनत भर पेट खाये, आप ने बहुत सुंदर लिखा... लगता है हालात इस से भी बदतर होगे.
धन्यवाद

Meenu Khare ने कहा…

गहरी अनुभूतियों वाला आलेख.

हमारी भी शुभकामनायें ले लें!!!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

मन्दी का सबसे खराब समय तो शायद खत्म हो गया है। नक्सलवाद/माओवाद के आतंक पर आक्रमण का समय है। इच्छा शक्ति सरकार में हो तो।

Unknown ने कहा…

बहुत सही कहा आपने.

समयचक्र ने कहा…

विचारणीय उम्दा सामयिक आलेख . दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ . आभार

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

सर के लिए ठिकाना खोजते हैं लोग
खाने के लिये दाना खोजते हैं लोग
बहुत पथरील हैं जिन्दगी के रास्ते
खुश रहने का बहाना खोजते हैं लोग

Udan Tashtari ने कहा…

शुभकामनाओं की बमबारी अभी भी जारी है सर जी...रुक ही नहीं रही. :)

बेनामी ने कहा…

u have done good post-mortem of present life

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

bahut sahi aur saarthak post.....

aapko bhi deepawali ki haardik shubhkaamnayen...

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

स्थिति तो सोचनीय ही है, लोग बस किसी तरह दीवाली को भी एक साधारण दिन की तरह काट लिए..

शरद कोकास ने कहा…

आपका यह सामयिक चिंतन एक दिशा दे रहा है । निराशा के खिलाफ एक लड़ाई तो लड़नी ही है । कभी कभी शुभकामनायें प्रेरित करने का काम तो करती ही हैं कम से कम यथास्थितिवाद से उबारने का ।

Khushdeep Sehgal ने कहा…

द्विवेदी सर,

आम आदमी का दंभ भरने वाली इसी सरकार के दो मंत्री बेशर्मी से तीन महीने तक पांचिसितारा होटलों में टिके रहते हैं...यूपी में मूर्तियों और पार्कों पर करोड़ों-अरबों फूंक दिए जाते हैं...मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी की दौलत मिला दी जाए तो पांच लाख साठ हज़ार करोड़ से ज़्यादा बैठती है...अब बेचारी सरकार इन धन-कुबेरों की सोचे या आपकी-हमारी फिक्र करे...

जय हिंद...

Satish Saxena ने कहा…

अच्छे दिन अवश्य आयेंगे....

निर्मला कपिला ने कहा…

बिलकुल सही कहा। क्षमा चाहती। आज भाईदूज की बहुत बहुत बधाई और मंगलकामनायें

Abhishek Ojha ने कहा…

हम तो शुभकामनाओं से दूर भाग गए थे इस दिवाली पर, (मोबाइल और इन्टरनेट दोनों से दो दिन के लिए) तो बहुत कम आदान प्रदान हुआ इस बार. आज कुछ मेलों की रिप्लाई कर रहा हूँ तो आपकी ये पोस्ट दिख गयी. दिवाली के बहाने आपने कई समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाया !

गौतम राजऋषि ने कहा…

सब कुछ जानते-समझते हुये भी हम निर्विकार रहते हैं। जब तक खुद पे नहीं टूटती....

इस पक्ष का ये क्रूर पहलु...बड़े सही तरीके से उठाया आपने द्विवेदी जी!