@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: शिवराम ने साबित किया कि 'जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता'

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

शिवराम ने साबित किया कि 'जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता'

शिवराम की नाट्य पुस्तकों 'गटक चूरमा' और 'पुनर्नव' का लोकार्पण समारोह - एक रपट




शिवराम के नाटक संग्रह 'गटक चूरमा' और नाट्य रूपांतरणों के संग्रह 'पुनर्नव' के लोकार्पण का अवसर था। मुख्य अतिथि थे, 'विकल्प' अखिल भारतीय जन सांस्कृतिक व सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर, बिहार के मानविकी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि'। उन्हों ने कहा कि शिवराम ने रंगकर्मियों की मांग पर नाट्य सृजन किया, वह भी केवल एक रात में, उस की नाट्य प्रस्तुति तीन दिन बाद ही होनी थी। नाट्य दल ने दो दिन के रिहर्सल के बाद उसे सफलता पूर्वक खेला। इस तरह यह साबित किया कि जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता। वह जनता की सामाजिक मांग पर लिखता है और उसकी पूर्ति करता है। इसी लिए उन्हें जन नाट्यकार कहा जाता है। यही नहीं शिवराम की जनता की ग्राह्य क्षमता पर ग़जब की पकड़ है। शिवराम किसी भी बात को अपने नाटक में इतने सहज तरीके से रखते हैं कि वे न केवल दर्शकों को प्रभावित करते हैं, अपितु उन्हें प्रेरित भी करते हैं। उन के नाटकों को बड़े से बड़े मंच पर पूरी साज-सज्जा और साधनों के साथ पेश किया जा सकता है, तो बिना किसी साधन के किसी गांव में अलाव की रोशनी में भी खेला जा सकता है।  दोनों ही रूपों में उन के नाटक समान रूप से प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि उन के बिहार पहुँचने के बहुत पहले ही उन के नाटकों ने बिहार के नाट्यकर्मियों और दर्शकों के दिलों में स्थान बना लिया था। शिवराम ने मुंशी प्रेमचंद की कतिपय कहानियों का नाट्य रूपांतरण करके उन्हें आज के संदर्भों में महत्वपूर्ण तो बनाया ही है, अपने संपूर्ण रचनाकर्म से सामाजिक क्रियाशीलता से उन की परंपरा को आगे बढ़ाया है।

डा़. रवि ने कहा कि शिवराम की रचनाओं में वर्तमान समय की सभी समस्याएँ मूर्त होती हैं, वे उन के परिणाम और समाधान के विकल्प प्रस्तुत करती हैं।  वर्गीय समाज में साहित्य भी वर्गीय पक्षों का प्रतिनिधित्व करता है।  शिवराम का रचनाकर्म उन की जनपक्षधरता को बखूबी सामने रखता है।  उन के नाटकों में प्रचुर रूप से उपस्थित हास्य-व्यंग्य उन्हें लोकप्रिय और लोकरंजक बनाता है। उन्हों ने सूचना दी कि उन के विश्वविद्यालय ने हाल ही में एक विद्यार्थी को 'शिवराम के नुक्कड़ नाटकों का सामाजिक अध्ययन' विषय पर शोध के लिए पीएचडी की उपाधि प्रदान की है।  इस सूचना पर समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।


पुस्तकों का लोकार्पण समारोह अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच और 'विकल्प' कोटा ने 'कला दीर्घा' के ह़ॉल में आयोजित किया था। कोटा के सभी साहित्य-कला कर्मी उन्हें कितना मान देते हैं और प्यार करते हैं, इस का पैमाना वहाँ उपस्थित लोग थे, जिनके कारण हॉल छोटा पड़ गया था। बहुत लोगों को हॉल के बाहर ही खड़े रहना पड़ा। समारोह का शुभारंभ मशाल प्रदीप्त कर के किया गया। जिसे स्वयं डॉ. रवि ने समारोह स्थल के बाहर ला कर रोपा।

लोकार्पित पुस्तकों पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि-व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम मात्र एक नाटककार नहीं अपितु संपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। उन्हें रंगमंच और अपने दर्शक-पाठक के मन, रुचि और आवश्यकता की गहरी समझ है। वे नाटकों में गीतों की भाषा का उपयोग करते हैं, उन्हें अपने माध्यम की गहरी समझ है और उस पर मजबूत पकड़ भी। इन में वे समसामयिक समस्याओं को उठाते हैं। वे  'ग्लोबल साहब' और 'एटमी जी' जैसे नए शब्द तथा पात्र गढ़ते हैं जो लोगों के वर्गों और समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।


बिहार से ही आईं विशिष्ठ अतिथि डॉ. मंजरी वर्मा ने कहा कि बिहार में कोटा को दो कारणों से जाना जाता है। कोचिंग के लिए और शिवराम के नाटकों के लिए।  उन के नाटक गाँव-गाँव में खेले जाते हैं और सामाजिक परिवर्तनकारी प्रभाव पैदा करते हैं। बिहार के कुछ गांवों ने तो उन के नाटकों से प्रेरणा प्राप्त कर बरसों पहले यह  तय किया कि गांव में कोई विवाह में दहेज न लेगा और न देगा। वहाँ विवाह पूरे समाज का दायित्व और समारोह बन चुके हैं, जिस में विवाह करने वाले परिवार को कोई आर्थिक बोझा नहीं उठाना पड़ता।  उन के नाटक देश भर के जनआंदोलनों के एक प्रभावी हथियार की साख रखते हैं।

नाट्यकर्मी संदीप राय ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी के शिवराम द्वारा किए गए नाट्य रूपान्तरण 'ठाकुर का कुआँ' के अन्तिम दृश्य की गीत पंक्तियां सस्वर प्रस्तुत कीं...

धुआँ ही धुआँ
धुआँ ही धुआँ
जाति-धर्म भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
लिंग-वर्ण भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
ठाकुर का कुआँ 
ठाकुर का कुआँ।


उन्हों ने बताया कि किस तरह शिवराम काव्य और गीत पंक्तियों का उपयोग कर, नाटक के प्रभाव को दर्शक के अंतर तक पहुँचा देते हैं। उन्हों ने नाटक हम लड़कियाँ के प्रारंभ और समापन गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ

हम मुस्काएँ जग मुस्काए
हम चहकें जग खिल-खिल जाए
तपता सूरज बीच गगन में 
पुलकित और मुदित हो जाए....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ
तूफानों से टक्कर लेती लड़कियाँ
हम रचें विश्व को, सृजन करें हम

दें खुशी जगत को, कष्ट सहें हम
पीड़ा के पर्वत से निकली 
निर्मल सरिता सी सदा बहें
दें अखिल विश्व को जीवन सौरभ
प्रेम के सागर की उद्गम हम 
फिर भी हिस्से आएँ हमारे सिसकियाँ
हम लड़कियाँ,हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ !

शिवराम ने इस अवसर पर कहा कि उन की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ कभी भी उन के रचनाकार पर हावी नहीं रहीं।  उन के प्राथमिक नाटकों ने पीड़ित दर्शकों में संगठित हो कर मुकाबला करने की चेतना जगाई और  वे  खुद उन के आंदोलनों से जुड़ गए। समय और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप रचना कर्म करने के परिणाम स्वरूप ही वे आज  इस स्थान पर पहुँचे हैं। उन्हों ने कहा कि साहित्य की सभी विधाएँ तभी सोद्देश्य हैं जब वे अपनी सार्थकता जनपक्षधरता और जनआंदोलनों में खोजती हैं।

समारोह के अध्यक्ष मंडल के सदस्य डॉ़. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम के नाटक लोक से उत्पन्न हैं, लोक के बीच ही खेले जाते हैं और लोक को ही समर्पित हैं। अध्यक्ष मंडल के  अन्य सदस्यों शैलेन्द्र चौहान और मास्टर राधाकृष्ण ने भी अपने अभिमत प्रस्तुत किए। विकल्प के शकूर 'अनवर' ने स्वागत वक्तव्य दिया और धन्यवाद ज्ञापन चांद 'शैरी' ने।  समारोह का सफल संचालन महेन्द्र 'नेह'  ने किया।
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दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।
  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)
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11 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

इस विसत्रित जानकारी के लिये धन्यवाद बहुत बडिया रिपोर्ट है बधाई

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

थोड़े दिन से एक मिथ्या सी बन रही थी मगर आपके इस आलेख से आभाष हुआ की आज भी नाटक कलाकार की उतनी कद्र है जितनी पहले हुआ करती थी..बस कला में समर्पण होना चाहिए जैसा शिवराम जी ने प्रस्तुत किया..

बढ़िया प्रस्तुति..धन्यवाद..

Ashok Kumar pandey ने कहा…

यह एक सच है कि वैकल्पिक संस्कृतिकर्म को नये तथा सामयिक नाटकों तथा जनगीतों की बहुत ज़रूरत है।
शिवराम जी यह कर रहे हैं…और इसीलिये पुरस्कार जीवियों की भीड में अलग से चमकते हैं।
उन्हें एक और बार बधाई।

Abhishek Ojha ने कहा…

मुझे तो लगता था कि इस तरह के साहित्य की लोकप्रियता समाप्त हो चली है. लेकिन आज की पोस्ट से ये भ्रम जाता रहा.

राज भाटिय़ा ने कहा…

आप की आज की पोस्ट बहुत अच्छी लगी,ओर शिवराम जी के बारे ओर उन के विचार पढ कर अच्छा लगा.
धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

नाटक में माटी की गंध होती है!

बेनामी ने कहा…

क्या कहना...
आप यह लिखना भूल गए...

इस अवसर पर नामचीन वकील ब्लॉगर दिनेशराय द्विवेदी भी अपनी कलम के साथ उपस्थित थे...

हाँ अब ठीक है...

बेनामी ने कहा…

एक बहुत ही उम्दा व सार्थक प्रस्तुति के लिये धन्यवाद

शरद कोकास ने कहा…

समारोह की विस्त्रत रपट पढ़कर समारोह मे उपस्थिति जैसा महसूस हुआ । चित्रों के साथ नाम भी होते तो अतिथियों को पहचानने मे आसानी होती । पुस्तको के लिये कितनी राशि का ड्राफ्ट भेजना होगा ?

नया जमाना ने कहा…

समारोह की रि‍पार्ट के लि‍ए साधुवाद स्‍वीकार करें। आप कृपया कोटा की साहि‍त्‍यि‍क गोष्‍ठि‍यों की नि‍यमि‍त रि‍पोर्ट भी प्रकाशि‍त कि‍या करें, सुना जमकर गोष्‍ठि‍यॉं करते हैं। नेब्‍ पाठकों को भी उसका आनंद लेने दें।

Priyankar ने कहा…

राजस्थान में बिज्जी ने जो काम कथा-साहित्य के क्षेत्र में किया और हरीश भादानी ने जनगीत रचकर कविता के क्षेत्र मे;वही काम शिवराम ने अपने जननाटकों/नुक्कड़ नाटकों के जरिये नाट्यविधा और रंगमंच के क्षेत्र में किया है . अभी तो वे रचनारत और सक्रिय हैं,उनके योगदान का सम्यक मूल्यांकन होना बाकी है .