@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)

ग्यारहवीं महापंचायत पूरी तरह से ऐतिहासिक थी।  वायरस पार्टी की सरकार तेरह दिन चली।  विश्वास मत पर घंटों बहस हुई।  बहस के बाद मतदान होता, उस से पहले ही सरकार ने हार मान ली।  अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी?  अपनी समझ में कुछ नहीं आया।  दो बातें समझ में आती हैं, एक तो यह कि शायद सरकार बनने के बाद रुतबे से ही कुछ मनसबदार टूट जाएँ, ट्राई मारने में क्या बुराई है। फिर ट्राई मारी गई और फेल हो गए।  दूसरा यह कि जानते थे, सरकार न बचा पाएँगे।  फिर भी 13 दिन का प्रधान होना क्या बुरा है? वह भी तब जब न्यौता मिला हो, इतिहास में तो दर्ज हो ही जाएँगे।  एक तीसरा विकल्प और भी, कि इस से संसद में भाषण का अवसर तो मिलेगा।  टीवी पर करोड़ों लोग एक साथ देखेंगे।  कुछ नहीं तो प्रचार मिलेगा।  खैर मकसद कुछ भी रहा हो।  तेरह दिन की शहंशाही खत्म हो गई। भारतवर्ष ने तो एक दिन में चमड़े के सिक्के चलते देखे हैं, यह कौन सी नई बात हुई।


सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया।  उसे प्रधान बनाया गया।  वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा।  पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था।  किसान किसानी संभाल ले वही बहुत।  लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब।  बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ,  पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ,  लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे।  बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।   

फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है।   उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी।  पर देश हित में वह भी किया।   पंचायत चुनाव जितना देर  से होता देश के लिए अच्छा था,  खरचा बचता था।  उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए।  टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका।  अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई।  बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।

बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा।  तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला।  पीछे के अनुभव काम आए।  चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया।  पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए।  वह हाथ छुड़ा कर भाग ली।  सरकार पर संशय खड़ा हो गया।  पिछली बार विश्वास मत लेना था।  इस बार अविश्वास मत का नंबर था।  एक मत से सरकार पिट गई।  फिर चुनाव हुए।  इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे।  दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था।  दोनों ने  वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया।  तसल्ली हुई कि  इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी।  हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही,  पर भागें नहीं।  सरकार चलने लगी।  वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था।  पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे।  आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।

14 टिप्‍पणियां:

Himanshu Pandey ने कहा…

इस जनतन्तर कथा का मन्तर फेंक कर आपने अन्तर कम्पित कर दिया । क्या यह कथा निःशेष हुई?

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

मैं फिर वही कहूँगा कि -देश बरे कि बुताय - नेताओं से क्या मतलब .

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही उपयोगी जानकारी इस कथा के माध्यम से दी गई. बहुत धन्यवाद.

रामराम.

admin ने कहा…

मजेदार कथा रही।

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तस्‍लीम
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

Abhishek Ojha ने कहा…

इस अंक की घटनाएं तो हमने भी देखी हैं. तब सामान्य ज्ञान में प्रधान मंत्रियों के नाम रता करते थे... ऐसा लगता था की यही हाल रहा तो याद रखने में मुश्किल न आ जाय :-)

Shiv ने कहा…

सुन्दर कथा. लेकिन वैक्टीरिया और वायरस कौन-कौन है? न सभी वैक्टीरिया हैं? सभी वायरस हैं?

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

वायरस और बेक्टीरिया?! वाह।
आगे तो भूत-प्रेत-बैताल आने वाले हैं न?!

Science Bloggers Association ने कहा…

बहुत शानदार।
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तस्‍लीम
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

बेनामी ने कहा…

लो भाई जी टिपिया दिए हैं
बर्ड फ़्लू का वाइरस होगा शायद....!

बोधिसत्व ने कहा…

एक दो प्रधान मंत्रियों और कुछ मुख्यमंत्रियों की निजी बैठकों में फँसने का दुर्भाग्य मेरा भी बना है। आप अंदाजा नही लगा सकते कि करुण होते हैं बेचारे। अपने अच्छे दिनों में बेतरह भयभीत। दया के पात्र। इन्हें सचमुच सिर्फ अपनी पड़ी होती है। किसी भी अवस्था में सिर्फ अपनी ही सोचते हैं।

बेनामी ने कहा…

जनतन्तर कथा की इस कड़ी में लगता है कि बैक्टिरिया अपना काम बड़ी कोताही में कर रहे थे

Shastri JC Philip ने कहा…

"अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी?"

आशा के सहारे तो धरती टिकी हुई है. हां इस सरकार की आशा को

Hope against Hope

कहना उचित होगा !!

सस्नेह -- शास्त्री

Arvind Mishra ने कहा…

अभी यह बहुत पुराने अतीत की बात तो नहीं -स्मृतियाँ ताजी हो आयीं !

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

अभ आगे भविष्य मे इससे भी अच्छी अच्छी कथाएं सुनने को मिलेगी...ऐसा यकीन है:))